Wednesday, December 28, 2011

A News Published in NAIDUNIA,Delhi 26-12-2011

कैंसर पर उपहास नहीं उपचार हो

कैंसर के कई मामले अभी भी एक लाइलाज मर्ज हैं। इस कड़वे सच को कैंसर के लाखों भुक्तभोगी मरीज भी अच्छी तरह जानते हैं। हां, आधुनिक तकनीक और व्यापक प्रचार माध्यमों ने इस लाइलाज मर्ज को नाउम्मीदी से बाहर निकालने में मदद की है। कैंसर पर हो रहे आधुनिक अनुसंधानों की दिशा भी एक महंगे तकनीक युक्त समाधान की तरफ ही जाती है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यू.एच.ओ.) भी कैंसर के बढ़ते मामले और उसके उपचार की महंगी पद्धति को कैंसर उन्मूलन में बाधक मानता है। दुनिया भर में आज यह चिन्ता उन हजारों वैज्ञानिकों और जनपक्षीय योजनाकारों की है कि कैंसर व अन्य लाइलाज तथा जटिल रोगों के मुकम्मल उपचार की सस्ती व आम लोगों द्वारा अपनाई जा सकने वाली तार्किक चिकित्सा प्रणालियों को बढ़ावा दिया जाए ताकि सामान्य अथवा गम्भीर रोगों से ग्रस्त लाखों लोगों के जीवन में उम्मीद की किरण फैले और इनमें से अधिकांश को असमय मौत से बचाया जा सके।
कैंसर सरीखे अनेक जानेलवा रोग आज भी दुनियां में लोगों के असमय मृत्यु के सबसे बड़े कारक हैं। 21वीं सदी के पहले दषक में चिकित्सा की सबसे चर्चित पुस्तक है ‘‘द एम्पेरर ऑफ ऑल मलाडिज।’’ इसके लेखक डा. सिद्धार्थ मुखर्जी ने दरअसल अपनी इस पुस्तक के माध्यम से कैंसर की आत्मकथा लिखी है। यह पुस्तक वर्ष 2011 का चर्चित पुलित्जर पुरस्कार भी प्राप्त कर चुका है। अमरीका में मशहूर कैंसर चिकित्सक की हैसियत से डा. मुखर्जी ने अपनी इस पुस्तक के पहले पृष्ठ पर वर्ष 2010 में कैंसर से मरने वाले 6 लाख अमरीकी तथा पूरी दुनियां में सत्तर लाख लोगों का आंकड़ा दिया है। डॉ. मुखर्जी लिखते हैं कि अमरीका में प्रत्येक तीन में से एक औरत तथा दो में से एक पुरुष अपने जीवन में कैंसर से ग्रस्त हो रहा है। दुनिया भर में कैंसर से मरने वाले कुल व्यक्तियों में एक चौथाई तो अमरीकी हैं। इसी पुस्तक में आंकड़ा है कि कुछ देशों में तो सबसे ज्यादा मौतों का जिम्मेदार हृदय रोग को भी कैंसर ने पीछे छोड़ दिया है। इसी पुस्तक में डॉ. मुखर्जी ने कैंसर रोग की गम्भीरता को रेखांकित करते हुए इसके उपचार में सक्षम सभी चिकित्सा पद्धतियों में व्यापक और व्यावहारिक अनुसंधान की आवश्यकता की भी बात की है।
कैंसर का इतिहास कोई नया नहीं है। प्राचीन चिकित्सा ग्रन्थों में भी कैंसर का जिक्र है लेकिन आजकल कैंसर से जुड़ा हुआ यह तथ्य महत्वपूर्ण है कि इसका प्रसार तेजी से हो रहा है। और यह पहले से ज्यादा घातक भी हो गया है। इससे भी ज्यादा गम्भीर बात यह है कि इस कथित महारोग का उपचार बेहद महंगा हो गया है। न केवल दवा बल्कि कैंसर के विशेषज्ञ चिकित्सकों की फीस भी एक हजार रुपये से ज्यादा है। हमारे देश में कैंसर से संबंधित यह तथ्य भी महत्वपूर्ण है कि यहां के गरीब लोगों खास कर किसानों को अपनी स्थाई सम्पतिए जमीनंे आदि बेच कर कैंसर रोग का उपचार कराना पड़ रहा है और ज्यादातर मामलों में उनके जीवन और धन दोनों से उन्हें महरूम होना पड़ता है।
कैंसर रोग और उपचार से जुड़ी एक विडम्बना यह भी है कि सरकार से सेवा एवं मुफ्त उपचार के नाम पर प्राप्त की गई निःशुल्क (या नाम मात्र की कीमत पर) जमीन पर खड़े पांच सितारा कैंसर अस्पताल भी किसी गरीब या जरूरतमंद रोगी का मुफ्त इलाज नहीं करते। वैसे भी यह अध्ययन का विषय है कि मरीजों द्वारा खर्च की गई रकम के एवज में क्या कथित कैंसर अस्पताल मुक्कमल उपचार दे रहे हैं? टाटा कैंसर इन्स्टीच्यूट मुम्बई के ही एक बड़े चर्चित सर्जन ने अभी हाल ही में दिल्ली में एक मेमोरियल लेक्चर देते हुए कैंसर चिकित्सकों को ‘‘सच्ची सेवा’’ करने की नसीहत दी थी। उन्होंने इसे रेखांकित किया था कि मौत के कगार पर पहुंचे मरीज से महंगी फीस लेना पाप है।
अब यह तथ्य प्रमाणित हो रहा है कि हमारी कथित आधुनिक जीवन शैली ही कैंसर जैसे घातक रोगों को आमंत्रण देती है। इस महंगी आधुनिक जीवन शैली में कैंसर बढ़ेगा ही और फिर इसके उपचार के नाम पर अनेक पांच सितारा कैंसर अस्पताल भी खुलते जाएंगे लेकिन क्या इससे कैंसर रोगियों का वास्तव में भला हो पाएगा? यह सवाल हर व्यक्ति, बुद्धिजीवी एवं पत्रकारों से तवज्जो की मांग करता है। यह भी सच है कि लाइलाज कैंसर के उपचार के अनेक देसी एवं फर्जी दावे भी कैंसर रोगियों को गुमराह कर रहे हैं। प्रत्येक चिकित्सा पद्धति में ऐसे फर्जी दावे और भ्रामक विज्ञापनों पर रोक की जो नैतिक पहल होनी चाहिये वह नहीं है, साथ ही सरकार भी ऐसे फरेब दावे को रोक नहीं पा रही। तो क्या हम किसी चिकित्सा पद्धति को ही खारिज कर दें या उस पर उपहास करें जिसे वैज्ञानिक एवं तार्किक चिकित्सा पद्धति के रूप में विश्व स्तर पर मान्यता मिली हुई है।
भारत में तो होमियोपैथिक उपचार के प्रति आकर्षित लोगों का ग्राफ इतना ज्यादा है कि प्रसिद्ध व्यापारिक एवं वाणिज्य संस्था एसोचेम ने इसकी विकास दर 25 प्रतिषत (सबसे तेज) आंकी है। भारत सरकार के आयुष मंत्रालय के अधीन कैंसर एवं होमियोपैथी पर हो रहे अनुसंधान के परिणाम आशा के अनुरूप हैं तथा अभी हाल ही में दिल्ली में आयोजित 66वें विश्व होमियोपैथिक सम्मेलन में प्रस्तुत शोध पत्रों में कैंसर एवं होमियोपैथिक उपचार दर्जनों शोध पत्र ‘‘आश्चर्य’’ उत्पन्न करने वाले थे। उल्लेखनीय है कि इनमें से कुछ शोध पत्र तो एलोपैथी एवं होमियोपैथी के वरिष्ठ चिकित्सकों ने संयुक्त रूप से लिखे थे।
इसमें सन्देह नहीं कि कैंसर का बिगड़ा रूप उपचार के आधुनिक एवं प्रमाणिक तकनीक व विज्ञान की मांग करता है। इसके लिये जरूरी है सभी चिकित्सा पद्धति की योग्यता व दावे को परखा जाए। कैंसर रोगियों को खुष करने के लिये कविता की तुकबन्दी या लतीफे जरूर सुनाए जाएं लेकिन उपचार की एक मुकम्मल चिकित्सा पद्धति को महज इसलिये मजाक का विषय नहीं बनाया जाए क्योंकि वह सस्ती और सहज में उपलब्ध है। आज गम्भीर रोगों का मुकाबला करने के लिये सभी चिकित्सकों के सामुहिक प्रयास की जरूरत है। इसमें मीडिया की भी उतनी ही जिम्मेदारी है। क्या मानवता के लिये हम थोड़ा गम्भीर नहीं हो सकते?
ई-मेल- docarun2@gmail.com

Saturday, November 26, 2011

कैंसर को समझना क्यों जरूरी है

कैंसर को समझना क्यों जरूरी है !

गम्भीर और भयावह रोगों में कैंसर का नाम सर्वोपरि है। नये चिकित्सा तकनीक और अनुसंधनों के बावजूद यह कहना मुश्किल है कि कैंसर के भय से मुक्त रहा जा सकता है। भारत ही नहीं पूरी दुनियां में कैंसर के मामले और उससे प्रभावित लोगों की संख्या बढ़ रही है। विश्व स्वास्थ्य संगठन ;वि.स्वा.स.द्ध के कैंसर फैक्टशीट फरवरी 2011 के अनुसार दुनिया भर में एक करोड़ लोग प्रतिवर्ष कैंसर की वजह से मर रहे हैं। यह आंकड़ा 2030 तक बढ़कर सवा करोड़ हो जाएगा लेकिन इसमें सबसे ज्यादा चिन्ता की बात यह है कि कैंसर से होने वाली मौतों में गरीब और विकासशील मुल्क के गरीब लोगों की संख्या सबसे ज्यादा होगी। यानि भारत कैंसर के निशाने पर मुख्य रूप से है। वि.स्वा.सं. की यही रिपोर्ट यह भी बताती है कि इन मामलों में 40 प्रतिशत मौतों को समुचित एवं समय पर इलाज से रोका जा सकता है। रिपोर्ट के अनुसार फेफड़े के कैंसर से होने वाली मौतें सबसे ज्यादा 1.4 मिलियन, पेट के कैंसर, .74 मिलियन, लिवर कैंसर , .70 मिलियन, आंतों के कैंसर , .61 मिलियन तथा स्तन कैंसर, .46 मिलियन प्रम्मुखता से पहचाने गए हैं। स्त्रियों में गर्भाशय ग्रीवा कैंसर के मामले भी तेजी से बढ़ रहे हैं। इसलिये कैंसर के बढ़ते संक्रमण और मामले एक तरह से खतरे की घंटी भी हैं।
वि.स्वा.सं. की इसी कैंसर फैक्टशीट में यह भी जिक्र है कि तम्बाकू के बढ़ते उपयोग, शराब, डब्बाबन्द अस्वास्थ्यकर खान-पान, कुछ वायरल रोगों या विषाणुओं का संक्रमण जैसे हेपेटाइटिस बी.,सी, “यूमेन पेप्लियोमा वायरस (एचपीवी) आदि विभिन्न कैंसर को बढ़ाने में बड़ी भूमिका निभा रहे हैं। इसी में यह भी जिक्र है कि उपरोक्त कारकों से बचाव कर कैंसर की सम्भावनाओं को कम किया जा सकता है। यों तो वि.स्वा.स. ने वैश्विक स्तर पर कैंसर से निबटने के लिये एक नॉन कम्यूनिकेबल डिजिज एक्सन प्लान 2008 भी बनाया है लेकिन व्यापक जन जागृति के अभाव में कैंसर जैसे घातक रोग से निबटना या बचना आसान नहीं है।
विगत कुछ महीनों से कैंसर व इसके विभिन्न पहलुओं पर हेरिटेज का अंक निकालने की योजना बनाई थी लेकिन अच्छे लेखों के इन्तजाम में वक्त लग गया इसलिये यह अंक अब आपके हाथ में है। इस अंक में एक विशेष लेख डॉ. वृंदा सीताराम का है जिसे हम चिकित्सकों को जरूर पढ़ना चाहिये। कैंसर के प्रति न केवल आम आदमी बल्कि चिकित्सकों का भी जो प्रचलित दृष्टिकोण है वह रोगी को भयभीत करने वाला ही है। अतः सीताराम ने अपने लेख में कैंसर को ‘‘जीवन का खेल’’ के रूप में चित्रित किया है। उनके लेख का सारांश इन वाक्यों से समझा जा सकता है.‘‘जिन्दगी ताश के पत्तों के खेल की तरह है। आपको शायद अच्छे पत्ते न मिलें, लेकिन जो कुछ आपको मिला है उससे आपको खेलना ही पड़ता है।’’ कैंसर मनोविज्ञान पर उनका यह लेख उनकी मशहूर पुस्तक नाट-आउट विनिंग द गेम ऑपफ कैंसर’’ का एक अंग है। ज्यादा गहरी रुचि वाले पाठक पूरी पुस्तक भी पढ़ें तो अच्छा रहेगा।
इसी वर्ष कैंसर पर एक और पुस्तक मशहूर हुई और वह हैµ ‘‘द इम्पेरर ऑफ आल मलाडिज’’। डा. सिद्यार्थ मुखर्जी की इस पुस्तक को इस वर्ष मशहूर अर्न्तराष्ट्रीय पुलिन्जर पुरस्कार भी मिल चुका है। 41 वर्षीय डॉ. मुखर्जी भारतीय मूल के अमरीकी चिकित्सक हैं और यह पुरस्कार पाने वाले वे चौथे भारतीय हैं। अमरीका के कोलम्बिया विश्वविद्यालय में मेडिसीन पढ़ाते हुए उन्होंने यह कैंसर की जीवनी लिखी जो अभी तक की कैंसर पर उपलब्ध सर्वाधिक प्रमाणिक पुस्तक है। इस पुस्तक की खासियत है कि यह तथ्यात्मक तो है ही रोचक भी है। इसे सभी पाठक पढ़ें। यह पढ़ने लायक एक जरूरी पुस्तक है।

Thursday, September 22, 2011

प्राकृतिक आपदाओं से हम क्यों नहीं सीखते ?

यों तो पहाड़ पर जीवन स्वयं में ही एक आपदा है लेकिन यदि सब कुछ सामान्य हो तो पहाड़ पर रहकर जीने वाले लोग अपने जीवन (आपदा) का प्रबन्धन करना भी बखबूी जानते हैं। अभी 18 सितम्बर को आए भूकम्प का केन्द्र सिक्किम था और इसकी तीव्रता 6.8 मापी गई। पहाड़ पर इतनी तीव्रता का भूकम्प शक्तिशाली माना जाता है और इसमें होने वाली क्षति को गम्भीर क्षति से कमतर नहीं आंका जा सकता। इस भूकम्प के तीन दिन यानि 72 घंटे बाद भी वहां के कई ऐसे इलाके और गांव हैं जहां राहत दल पहुंच भी नहीं पाया है और यहां पीने का पानी भी नही हैए अन्दाजा लगाया जा सकता है कि सुरक्षा और आपदा प्रबन्धन का हमारा तंत्र वास्तव मे कितना मजबूत और सुरक्षित है।
इस लेख को लिखे जाने तक स्थिति यह है कि केन्द्र सरकार न तो सिक्किम के भूकम्प की पूरी जानकारी इकट्ठा कर पाई है और न ही होने वाली क्षति का समुचित आकलन। मसलन दशहत और नाउम्मीदी में जीते सिक्किम के 54 लाख लोग और 450 गांव अभी भी अपने बरर्बादी पर आंसू बहा रहे हैं। इसके अलावा वे और कर भी क्या सकते हैं। सिक्किम में भूकम्प से मरने वालों की आधिकारिक संख्या 65 बताई जा रही है लेकिन गंगटोक के एक स्वयं सेवी संस्था की मानें तो मृतकों की संख्या इससे कई गुना ज्यादा है। सिक्किम में ही तैनात भारतीय सेना के जीओसी 17 माउन्टेन डिवीजन के मेजर जनरल एस.एल. नरसिम्हन ने बताया कि खराब मौसम के कारण अभी भी यहां के पश्चिम और दक्षिण जिले में सेना को पहुंचने में कठिनाई हो रही है।
यह सही है कि भूकम्प को रोक पाना इंसानोंए मशीनों और कम्प्यूटर के वश में नहीं है लेकिन आपदाओं की सूचना के बाद तो हम प्रभावशाली राहत कार्य एवं आपदा-प्रबन्धन तो कर ही सकते हैं। हमने हाल फिलहाल में कई बड़े प्राकृतिक हादसे देखे और झेले हैं लेकिन अफसोस कि हम इन आपदाओं से निबटने के लिये कोई तार्किक एवं सुलभ प्रणाली तक विकसित नहीं कर पाए हैं। वजह साफ है कि आपदा प्रबन्धन हमारी प्राथमिकता में है ही नहीं। तकनीकी तौर पर देखें तो 6.8 रिक्टर पैमाने का भूकम्प आवासीय इलाके के लिये विनाशकारी माना जाता है। पर्वतीय क्षेत्र के लिये तो यह भंयकर तबाही का मंजर होता है लेकिन प्रशासनिक एवं राजनीतिक रूप से इस भूकम्प ने हमारे नीति निर्धारकों का ध्यान ज्यादा आकर्षित नहीं किया है। तभी तो अखबारों और समाचार माध्यमो ंकी सक्रियता के बावजूद प्रशासनिक एवं राजनीति सक्रियता उतनी नहीं दिखती। नई दिल्ली और इसके आस-पास का नागरिक समाज की उतना चिन्तित नहीं है जितना कि वह अन्य इलाके के लिये होता है।
सिक्किम भूकम्प ने कई सवाल खड़े किये हैं। इसमें एक अहम सवाल तो यह है कि विविधताओं का देश भारत अपने सभी प्रवेशों और नागरिकों के प्रति क्या अपनी समयक जिम्मेवारी का निर्वाह कर पा रहा है? क्या वह अपने पर्वतीय क्षेत्र के नागरिकों को आम नागरिकों की तरह की सुविधा एवं व्यवस्था दे पा रहा है? क्या राष्ट्रीय राजधानी अपने संुदूर पर्वतीय क्षेत्र के लोगों से उतना ही गम्भीर रूप से जुड़ा है जितना कि अन्य क्षेत्रों के लोागें से। क्या पर्वतीय इलाके में रहने वाले लोग अपने देश और शासक वर्ग से उतना ही जीवंत सम्बन्ध रखते हैं जितना की अन्य लोग? ऐसे ही एक और कड़वा सवाल बार-बार खड़ा होता है कि पर्वतीय प्रदेशों के प्रति जब हमारी सरकार इतनी उदासीन है तो वे क्यों न आत्मनिर्णय की मांग करें? गाहे बगाहे ऐसे सवाल खड़े भी होते हैं लेकिन उसका समुचित जवाब देने की बजाय नई दिल्ली या तो कड़े सैन्य कानून का सहारा लेती है या उन्हें अलगाववादी करार देती है। सिक्किम भूकम्प ने ऐसे कई सवाल खड़े किये हैं जिसका जवाब हम आम नागरिक और नई दिल्ली को सहिष्णु और गम्भीर बनकर ढूंढ़ना होगा।
सन् 2001 के विनाशकारी भूकम्प के बाद ही केन्द्र सरकार ने राष्ट्रीय आपदा प्रबन्धन प्राधिकरण के गठन की घोषणा की थी। प्राधिकरण बन भी गया। कई महत्वपूर्ण स्थानों पर जिला आपदा केन्द्र भी बने लेकिन इन केन्द्रों की स्थिति अच्छी नहीं है। कुछ अपवाद को छोड़कर लगभग अधिकांश आपदा प्रबन्धन केन्द्र स्वयं आपदाग्रस्त हैं। तीव्र भूकम्प, सुनामी एवं भयानक हादसों से गुजरता देश भारत, कामनवेल्थ खेल और ओलंपिक के आयोजन में तो रुचि लेता है लेकिन वह समुद्री तूफानों की पूर्व चेतावनी के लिये बने अन्र्तराष्ट्रीय चेतावनी व्यवस्था (इन्टरनेशनल वार्निंग सिस्टम) का भी सदस्य नहीं बन पाता है। बताते हैं कि यदि भारत इस सिस्टम का सदस्य होता तो वर्ष 2004 में आए सुनामी में इतनी बड़ी संख्या में इन्सानी जान की तबाही शायद नहीं होती। हालांकि एक अरब रुपये से भी ज्यादा की लागत से सुनामी चेतावनी प्रणाली लगाने की केन्द्र सरकार ने घोषणा की थी मालूम नहीं उसका क्या हुआ।
सिक्किम पर लौटें। सबसे पहले तो सरकारी और गैरसरकारी दोनों तौर पर सिक्किम एवं देश के अन्य हिस्सों में आए भूकमप से प्रभावितों को फौरी राहत के लिये सक्रिय हो जाना चाहिये। सेना और स्थानीय प्रशासन के साथ साथ स्वयं सेवी संगठनों को अतिरिक्त सक्रियता के साथ भूकम्प पीडि़तों की आवश्यकताओं को पूरा करना चाहिये। यह सच है कि मुआवजे या तात्कालीन राहत आपदा में हुए नुकसान की क्षति पूर्ति नहीं कर सकते लेकिन संकट के समय मदद के लिये खड़े होना संकट/आपदा ग्रस्त परिवार को बड़ी हिम्मत प्रदान करता है।
सफल आपदा प्रबन्धन की पहली शर्त होती है मजबूत सूचना एवं सम्पर्क प्रणाली। खास कर पर्वतीय क्षेत्र में जब सम्पर्क के माध्यम सीमित हों तो विशिष्ट साधनों जैसे हेलिकाप्टर, वाईफाई, रेडियो आदि तंत्रों को सदैव दुरूस्त रखना चाहिये। हमारे पर्वतीय क्षेत्र में प्राशसनिक भ्रष्टाचार की अनगिनत बानगी देखने-सुनने को मिलती है। हमें एक ईमानदार, जवाबदेह व्यवस्था की मदद से इन इलाके को जीरो टालरेन्स एरिया की तरह विकसित करना चाहिये। यथासम्भव सहकारी समितियों या अन्य भरोषेमन्द समितियों की मदद से आपदा प्रबन्धन मशीनरी को विकसित करना चाहिये।
एक राष्ट्र राज्य के नाते भारत को अपने पर्वतीय प्रदेशों, इलाकों में सामान्य प्रशासन एवं आपदा प्रबन्धन दोनों के लिये ज्यादा संवेदनशील होना पड़ेगा। वैसे भी दुर्गम क्षेत्र में हमारे पर्वतीय प्रदेश के लोग कठिन जीवन बिताते हैं। यह विडम्बना ही है कि हम सधन सम्पन्न मैदानी इलाके में रहने वाले लोग पर्वतीय प्रदेशों या क्षेत्र को महज पर्यटन की दृष्टि से इस्तेमाल करते हैं। यदि भारतीय प्रदेशों की एकता और अखण्डता की हम इतनी ही चिंता करते हैं तो हमें इन क्षेत्रों में घटने वाली हर अच्छी बुरी घटना या आपदा से स्वयं को जोड़़ना होगा। भारत का लगभग पूरा क्षेत्र ही भूकम्प संवेदी क्षेत्र है। ऐसे में हम भारतीयों को दूरदर्शी होकर अपने सभी क्षेत्र में रहने वाले लोगों की समस्याओं व मुसीबतों में स्वयं को जोड़़ना चाहिये। तभी हमारी सरकारों पर भी दबाव बनेगा और वह देश के केरल से कश्मीर और उड़ीसा से सिक्किम तक के नागरिकों की बराबर परवाह करे। सिक्किम का भूकमप हमें चेतावनी भी देता है और भविष्य के लिये मौका भी। वर्ना हम एशिया प्रांत के सर्वाधिक ज्वलनशील एवं उत्तेजक क्षेत्र में बसे राष्ट्र हैं जहां कई प्रकार की राष्ट्रीय अन्र्तराष्ट्रीय आपदाएं भी हमें चुनौती दे रही हैं।

Friday, September 9, 2011

क्यों बढ़ रहे हैं आतंकी हमले

7/9 को दिल्ली उच्च न्यायालय पर हुआ आतंकी हमला आम लोगों द्वारा आतंक को सहते रहने की मजबूरी से ज्यादा भारतीय शासन तंत्र द्वारा आतंक पर राजनीति करते रहने का नतीजा है। ‘‘आतंक’’ भी इतना बेखौफ और निश्चित कि उसने महज साढ़े तीन महीने में ही पलट कर अपने-उसी सुनियोजित एवं सुविचारित टारगेट पर फिर से आक्रमण किया। ठीक वैसे ही जैसे 26/11 के बाद 13/7 को आतंक ने मुम्बई को दोबारा निशाना बनाया था। 26/11 के बाद नवनियुक्त गृह मंत्री पी. चिदम्बरम ने घोषणा की थी कि भारत पर यह अन्तिम आतंकवादी हमला है। भारतीय शासनतंत्र की बारीकियों और यहां के शासक वर्ग की प्रवृतियों से पूरी तरह वाकिफ ‘‘आतंक’’ इस मामले में आश्वस्त है कि यहां उसके खिलाफ कोई मजबूत राजनीतिक इच्छा शक्ति तो है नहीं, सो जो भी चाहो, जहां-चाहो खुलकर करो।
बार-बार आतंकी हमले झेलता हिन्दुस्तान और हिन्दुस्तानी आवाम की हकीकत यह है कि वह सत्ताधारी वर्ग द्वारा ‘‘राम भरोसे’’ छोड़ दिया गया है। आम आदमी की हैसियत सिर्फ कर चुकाने और सत्ता की जी हजूरी करने से ज्यादा कुछ नहीं है। 26/11 को मुम्बई और आतंकी हमले के बाद इसी यू.पी.ए. सरकार के गृहसचिव के नेतृत्व में गठित समिति ने जांच के बाद कहा था कि देश में द्रुत कार्य बल (क्यू.आर.टी.) का गठन किया जाएगा, राज्य और औद्योगिक सुरक्षा बल की स्थापना तथा प्रधान गृह सचिव को आई.बी एवं रॉ समेत विभिन्न सुरक्षा एजेन्सियों से सूचना प्राप्त करने के लिए नोडल अधिकारी बनाया जाएगा लेकिन आज भी स्थिति में ज्यादा परिवर्तन नहीं है। सच्चाई यह है कि क्यू.आर.टी. को यूनिफार्म तक उपलब्ध नहीं कराया जा सका है और राज्य औद्योगिक सुरक्षा बल के गठन की भूमिका भी नहीं बन सकी है।
भारत में बढ़ते आतंकी हमले का एक पहलू यह भी है कि भारतीय राज्य एक नरम राज्य है। बार बार आतंक से मिल रही चुनौती का करारा जबाव देने की बजाय भारत सरकार आन्तरिक राजनीतिक विवाद या तुष्टीकरण की राजनीति में व्यस्त हो जाती है। 26/11 के बाद यह जोर देकर कहा गया था कि ‘‘जेड सुरक्षा’’ के प्रति अभिजात्य वर्ग की सनक को कम कर इसमें लगे संसाधनों का उपयोग आम नागरिकों की सुरक्षा में किया जाएगा, लेकिन लाल बत्ती वाले सामन्ती लोकतंत्र में ऐसी उम्मीद बेमानी है। आतंक से लड़ने की सरकारी इच्छा शक्ति का नजारा देखिये। पाकिस्तान को सौपे आतंकवादियो की सूची भी दुरूस्त नही थी । लोकसभा में विदेश मंत्री भारतीय जेलों में बंद पाकिस्तानी नागरिक के बारे में जवाब दे रहे थे कि पाकिस्तानी जेल में भारतीय नागरिक बंद हैं। वो तो भला हो प्रधानमंत्री का जो बीच में ही टोक कर विदेश मंत्री का भूल सुधार कर लिया। यही विदेश मंत्री अन्तर्राष्ट्रीय मंचों पर जाकर भारत की ओर से किसी दूसरे देश का पर्चा पढ़ने लगते हैं। अभी जब 7/9 की घटना पर ग्रह मंत्री पी. चिदम्बरम संसद में बयान दे रहे थे। उन्हीं के बगल में बैठे दूसरे केन्द्रिय मंत्री विरप्पा मोइली ऊंघ रहे रहे थे। भारतीय शासन तंत्र के शासक वर्ग के चरित्र की यह तो मात्र बानगी है।
भारत में आतंक के पनपने की एक और बड़ी वजह है यहां राजनीति व शासन तंत्र की मुख्य धारा से आम आदमी को खारिज कर देना। देश की नीतियां बनाने वालों में कारपोरेट के दलालों और विदेशियों के पैरोकारों के बढ़ते वर्चस्व ने भारतीय राजनीति पर कब्जा कर लिया है। विगत दो ढाई दशक में भारतीय शासक वर्ग के रूप में जिस गिरोह ने अपनी पकड़ मजबूत बनाई है वह निरंकुश, बेशर्म और जनविरोधी है। आजादी के बाद सबसे ज्यादा सत्ता सुख भोगने वाली पार्टी कांग्रेस और इनके सहयोगी दलों ने मानों मान लिया है कि सत्ता महज पैसे और ताकत का खेल है। इसलिये सत्ता को पैसे और ताकत से प्राप्त करो और इसी ताकत से उस पर काबिज रहो। विगत 5,7 वर्षों में यू.पी.ए. सरकार का रिपोर्ट कार्ड तैयार करें तो देश एवं राज्यों में सत्ता पर काबिज इन दलों के नेताओं की करतूत और कालाबाजारी का स्पष्ट नमूना आप सबको दिख जाएगा। सरकार चाहे महराष्ट्र की हो या दिल्ली की भ्रष्टाचार के कीर्तिमानों के बावजूद इनके वजूद पर कोई खतरा नहीं है। इनकी मर्जी चले तो अगले चुनाव में भी सत्ता इन्हीं की होगी। इसलिये आम आदमी को अपनी असली हैसियत में आना ही होगा।
दिल्ली उच्च न्यायालय पर 7/9 का आतंकी हमला केन्द्रीय गृह मंत्री पी. चिदम्बरम के उस दावे की पोल खोलने के लिये काफी है जिसमें उन्होंने साफ शब्दों में कहा था कि 26/11 का हमला भारत पर अन्तिम आतंकी हमला है। आज सच सामने है। गृह मंत्री के आन्तरिक सुरक्षा संबंधी सभी दावे फिस्स हो गए हैं और आंतक पहले से ज्यादा मुखर और निर्भीक होकर भारतीय शासन व्यवस्था को चुनौती दे रहा है। सवाल यह उठता है कि भारत में बार बार हो रहे आतंकी हमले की मुख्य वजहें क्या हैं? इनमें यहां की लचर शासन व्यवस्था, कमजोर खुफिया तंत्र, नकारा, पुलिस, भ्रष्ट अधिकारी और दृष्टिविहीन नेता के साथ-साथ गफलत में जी रही जनता भी जिम्मेवार है। इससे भी ज्यादा जिम्मेवार तो भारतीय शासन तंत्र की लचर नीतियां और कमजोर सुरक्षा तैयारी को ठहराया जाना चाहिये जिस पर कभी सरकार गम्भीर नहीं दिखी।
आंतक और आंतकी के जाति, धर्म और राजनीति ने भी भारत में आतंकवाद को फलने-फूलने में मदद पहुंचाई है। सब जानते हैं कि अदालत की सक्रियता के बावजूद सरकारों ने आतंकी को बचाने के लिये कैसी कैसी राजनीति की। आज भी आतंक पर जारी बहस में आतंकी के पक्ष में तर्क देने वालों की कमी नहीं है जबकि न्याय की पूरी प्रक्रिया के बाद जब अदालतों ने कइ मामलांे मंे अपना फैसला सुना दिया है तब राजनीति इसमें अपना नफा-नुकसान ढूढ़ने लगी है। राजनीति के इस गिरगिटी रूप का आतंक पूरा फायदा ले रहा है और जब उसे आम आदमी के खून का स्वाद मिल चुका हो तब भला वह चुप कैसे बैठ सकता है।
हमारे शासक वर्ग और राजनीतिज्ञों को यह भी ध्यान में रखना चाहिये कि आतंक को युद्ध से मिटाया नहीं जा सकता। यह राजनीतिक लड़ाई है लेकिन राजनीति की इस लड़ाई में तुच्छ राजनीति का कोई स्थान नहीं होता। किसी भी देश में कानून और व्यवस्था राजनीति से ऊपर होनी चाहिये। आज हमारे देश में कानून और व्यवस्था पर राजनीति हावी है। आम लोगों से राजनति और राजनीतिज्ञों का हाल पूछिये, जवाब मिलेगा-‘‘सब चोर हैं।’’ जाहिर है राजनीतिज्ञों ने अपनी विश्वसनियता खो दी है। इसका दृश्यावलोकन पूरे देश ने हाल ही में अन्ना हजारे के सत्याग्रह/आन्दोलन में किया। आतंक से लड़ने के लिये युद्ध की बजाय संघर्ष और राजनीति (सच्ची देश भक्ति की राजनीति) को तेज करना होगा। मामले को निर्णय के बाद टालने और लटकाने के गम्भीर परिणाम होते हैं। इसलिये देश के नाम पर राजनीति की बजाय देश के लिये राजनीति को विकसित करना होगा जिसमें कानून से ऊपर कोई भी नहीं होता।
भारत में माननीयगण एक विशेष ग्रन्थि के शिकार है। स्वयं को कानून से ऊपर मानना, अपने को विशिष्ट समझना और कानून में दखल देना अपना जन्मसिद्ध अधिकार मान लिया है। सब जानते हैं कि कानून को ठेंगा दिखाने वाले 90 फीसद लोगों में से माननीय ही हैं। जिम्मेदारी के पद पर बैठे लोग कितने जिम्मेदार हैं यह पूरा देश जानता है। 26/11 के बाद अपने शरीर साज-सज्जा के लिये ज्यादा पहचाने जाने वाले गृहमंत्री की बिदाई कर यू.पी.ए. की मनमोहन सरकार ने एक दूसरे बड़बोले गृहमंत्री को कमान सौंपी लेकिन स्थिति ज्यों की त्यों रही। वर्तमान गृह मंत्री से पूछा जाना चाहिये कि 26/11 को मुम्बई पर हुए आतंकी हमले को अन्तिम हमला बताने के बाद कौन-कौन से सार्थक कदम उठाए गए जिससे देश की आन्तरिक सुरक्षा मजबूत हुई हो।
भ्रष्टाचार में आंकठ डूबे देश में इसके खिलाफ आन्दोलन करने वाले सामाजिक कार्यकर्ताओं को ही निशाना बनाने और सबक सिखाने में लगी सरकार भूल गई कि उसके जिम्मे इससे भी बड़ा और जरूरी काम आन्तरिक सुरक्षा को सुदृढ़ करना है न कि अपने आइने को ही फोड़ना। भ्रष्टाचार आतंकवाद की सहोदर बहन है। आतंकवाद को मिटाने के लिये भ्रष्टाचार को भी मिटाना होगा, लेकिन भ्रष्टाचार में आकंठ डूबी, मनमोहन सरकार और कांग्रेसी भाजपाई नेताओं से परे इस देश में आसान नहीं है भ्रष्टाचार खत्म करना क्योंकि सत्ता की राजनीति ने भ्रष्टाचार से रिष्ते बना लिये हैं। आज देश बाहरी आतंकवाद से ज्यादा आन्तरिक आतंक झेल रहा है। इसलिये सिर्फ सैनिक कारवाई से काम नहीं चलेगा। सवाल लोगों के जीवन और जीवन की आजीविका से जुड़ा हैए विकास की नीति से जुड़ा है। सम्मान से जीने के अधिकार से जुड़ा है। इसलिये हे माननीय लोगों, आसमान से उतरो और जमीन पर विचरण करो। हर आम आदमी के अश्क में तुम्हे राजनीति का नया अध्याय दिखेगा। उसे पढ़ो और देश की नयी राजनीति को समझो। जनता के पैसों पर ऐश करके कारपोरेट की दलाली से देश में शान्ति नहीं आ सकती। देश आम आदमी का है इसलिये नीतियां उसकी चलेंगी न कि कार्पोरेट की।
आतंक ने अब अपना रुख न्यायपालिका की ओर क्यों कर दिया यह भी विचार करने योग्य प्रश्न है। जब राजनीति और शाषण कानून को सही परिभाषित करने और इसे लागू करने में हिचकने लगा तो कमान न्यायपालिका ने सम्भाली। लोगों को न्याय देने के उसके जनपक्षीय फैसलों से आतंक को सीधे चोट पड़ने लगी तो आतंक ने न्यायपालिका पर निशाना लगाना शुरु किया। दिल्ली उच्च न्यायालय पर ताजा आतंकी हमला यही संदेश देता है कि जब राजनीति ने घुटने टेक दिये और आतंक से हाथ मिला लिया तो अब न्यायपालिका आखिर क्यों सक्रिय हो गईघ् देश की हर जनपक्षीय व्यवस्था को छिन्न-भिन्न करने की इस आतंकी साजिश को खत्म करने का एक ही रास्ता है कि देश में कानून का शासन हो, नागरिक और माननीय अनुशासित रहें, कानून का पालन करें और जनता को श्रेष्ठ मानें। लोगों के असंतोष बंदूक से नहीं दबाए जाते। उन्हें बातचीत और जनहित से सुलझाया जाता है। यह सबक भी भारतीय शासन तंत्र को समझना होगा।

Thursday, September 8, 2011

किसे परवाह है आन्तरिक सुरक्षा की

महज तीन महीने में ही दिल्ली उच्च न्यायालय पर दूसरा बड़ा धमाका हुआ। जाहिर है कि सरकार और उसका सुरक्षा तंत्र निश्चित था और आंतकी चुस्त। वर्तमान विश्लेषण में विशेषज्ञ कह रहे हैं कि सवा तीन महीने पूर्व दिल्ली उच्च न्यायालय में हुआ विस्फोट तो रिहर्सल मात्रा था और यह है असली धमाका। 26/11 को मुम्बई पर हुए आतंकी धमाके को केन्द्रीय गृह मंत्री ने ‘‘अन्तिम आतंकवादी हमला’’ बताया था। तब केन्द्र सरकार के गृह मंत्रालय द्वारा तय किया गया था कि अमरीकी पद्धति पर आंतरिक सुरक्षा की एक केन्द्रित और तत्पर कमान होगी लेकिन 13 जुलाई 2011 को ही इस दावे की हवा निकल गई जब मुम्बई धमाके से एक बार फिर दहली। इसी तर्ज पर आज दिल्ली का उच्च न्यायालय दुबारा घायल हुआ है। समझा जा सकता है कि सरकार प्रशासन और सुरक्षा तंत्र न तो चुस्त है और न ही दुरूस्त। आम आदमी के जान की कीमत कौड़ियों के बराबर समझने वाले राजनेताओं की प्राथमिकता सत्ता सुख का आनन्द लेने और कारपोरेट की सेवा करने तक सीमित हो गई है तभी तो जनहित और आम जनता की सुरक्षा के सभी दावे खोखले सिद्ध हो रहे हैं।
आन्तरिक सुरक्षा का सवाल भारत के लिये नया नहीं है। इतिहास में जाएं तो देखेंगे कि आजादी के बाद से ही देश के विभिन्न हिस्से हिंसक आन्दोलनों से लहुलुहान होने लगे थे। चाहे पूर्वोत्तर हो या दक्षिण भारत, कश्मीर हो या आन्ध्रप्रदेश या छत्तीसगढ़ सब जगह हिंसा और आतंकी पाठशाला चल रही है। इन सभी जगहों पर सेना भी तैनात है। लेकिन हिंसा और आतंक है कि थमने का नाम नहीं ले रही। राजनीतिक चिंतक कह रहे हैं कि ‘‘हिंसा पर अहिंसा से काबू नहीं पाया जा सकता।’’ यह बहस तो कभी आगे देखेंगेे। फिलहाल सवाल यह है कि हिंसा और आतंक का बन्दूक से जवाब देने के बावजूद सरकार आंतकी हमले को रोकने में विफल क्यों है? हर बार ठिकरा खुफिया एजेन्सियों एवं राज्य सरकारों के सर पर फोड़ा जाता है। ठीक है कि आन्तरिक सुरक्षा राज्य का मामला है लेकिन नीतियां तो केन्द्र सरकार की चलती है और इसी का असर बार-बार होते आतंकी हमले पर दिखता है।
कई सुरक्षा विशेषज्ञ भारत में भी अमरीकी सुरक्षा व्यवस्था के पैरोकार हैं। स्वयं केन्द्र सरकार और उसके मौजूदा गृहमंत्री अमरीकी सुरक्षा व्यवस्था से अभिभूत भी हैं। टेलिविजन पर चल रही चर्चाओं में आप लगभग एक जैसा स्वर ही सुनेंगे कि अमरीका की तरह भारत को भी अपनी सुरक्षा के लिये अति आधुनिक तकनीक और भारी सुरक्षा खर्च पर गौर करना चाहिये। ऐसा नहंीं है कि हमारे इन विशेषज्ञों को भारत और भारतीय परिस्थितियों की जानकारी नहीं है लेकिन वास्तव में कोई भी आम भारतीय या सामान्य जनों की सुरक्षा को लेकर गम्भीर नहीं है। तभी केन्द्र और राज्यों में बन रही या लागू की जा रही नीतियों में कहीं आम-आदमी नजर नहीं आता।
सब जानते हैं भारतीय राजनीति और सरकार भ्रष्टाचार में आकंठ डूबी हुई है। विगत ढाई वर्षो से यूपी.ए. सरकार भ्रष्टाचार को ही डिल करने में लगी हुई है लेकिन भ्रष्टाचार और महंगाई है कि खत्म होने का नाम नहीं ले रही। एक-दो ईमानदार चेहरे (मुखौटे) दिखा कर मौजूदा सरकार लोगों को समझाने में लगी है कि हम भ्रष्टाचार और महंगाई को खत्म करना चाहते हैं लेकिन हर रोज उनकी हकीकत की कलई खुलती देखी जा सकती है। अब कौन विश्वास करेगा कि रोज-रोज होती आतंकवादी घटना महज ‘‘खुफिया चूक’’ या ‘‘सुरक्षा एजेन्सियों के आपसी तालमेल की कमी’’ का नतीजा है।
26/11 को मुम्बई पर हुए आतंकी हमले की घटना को ही देखें तो तत्कालीन गृह मंत्री शिवराज पाटिल की बली देकर केन्द्र सरकार ने लोगों का गुस्सा शान्त कर दिया था लेकिन अब जब सत्ता के गलियारे से ही छन कर यह खबर आ रही है और सवाल उठ रहे है कि मुम्बई हमले के मास्टर माइण्ड हेडली को लेकर हमारे तत्कालीन सुरक्षा सलाहकार कितने गम्भीर थे। इस पर न तो स्वय तत्कालीन सुरक्षा सलाहकार और न ही सरकार अपना मुह खोल रही है। मुम्बई हमले से जुड़े कई मामले आज भी उपेक्षित पड़े हैं। आन्तरिक सुरक्षा के नाम पर की जा रही कवायद महज कागजी कार्रवाई से ज्यादा कुछ नहीं है।
भारत में आतंकी हमले के कई मामले इसकी गम्भीरता का अहसास कराते हैं। मुम्बई, दिल्ली व अन्य महत्वपूर्ण स्थानों के अलावा संसद, न्यायपीठ एवं मीडिया लगभग सभी तंत्रों को आंतक ने अपनी धौंस दिखा दी है लेकिन तंत्र है कि खिसियानी बिल्ली की तरह अभी भी खम्भा ही नोच रहा है। अब तो आम आदमी भी जानने लगा है कि दिन-प्रतिदिन भ्रष्ट से भ्रष्टतम होता सरकारी तंत्र उस पर उंगली उठाने वालों को ही सबक सिखाने में लगा है। देखा जा सकता है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ जन लोकपाल की मांग करने वाले या घोटाले उजागर करने वाले लोगों/पत्रकारों के साथ सरकार कैसा बर्ताव कर रही है।
दिल्ली उच्च न्यायालय पर 7/9 का आतंकी हमला केन्द्रीय गृह मंत्री पी. चिदम्बरम के उस दावे की पोल खोलने के लिये काफी है जिसमें उन्होंने साफ शब्दों में कहा था कि 26/11 का हमला भारत पर अन्तिम आतंकी हमला है। आज सच सामने है। गृह मंत्री के आन्तरिक सुरक्षा संबंधी सभी दावे फिस्स हो गए हैं और आंतक पहले से ज्यादा मुखर और निर्भीक होकर भारतीय शासन व्यवस्था को चुनौती दे रहा है। सवाल यह उठता है कि भारत में बार बार हो रहे आतंकी हमले की मुख्य वजहें क्या हैं? इनमें यहां की लचर शासन व्यवस्था, कमजोर खुफिया तंत्र, नकारा, पुलिस, भ्रष्ट अधिकारी और दृष्टिविहीन नेता के साथ-साथ गफलत में जी रही जनता भी जिम्मेवार है। इससे भी ज्यादा जिम्मेवार तो भारतीय शासन तंत्र की लचर नीतियां और कमजोर सुरक्षा तैयारी को ठहराया जाना चाहिये जिस पर कभी सरकार गम्भीर नहीं दिखी।
आंतक और आंतकी के जाति, धर्म और राजनीति ने भी भारत में आतंकवाद को फलने-फूलने में मदद पहुंचाई है। सब जानते हैं कि अदालत की सक्रियता के बावजूद सरकारों ने आतंकी को बचाने के लिये कैसी कैसी राजनीति की। आज भी आतंक पर जारी बहस में आतंकी के पक्ष में तर्क देने वालों की कमी नहीं है जबकि न्याय की पूरी प्रक्रिया के बाद जब अदालतों ने कइ मामलांे मंे अपना फैसला सुना दिया है तब राजनीति इसमें अपना नफा-नुकसान ढूढ़ने लगी है। राजनीति के इस गिरगिटी रूप का आतंक पूरा फायदा ले रहा है और जब उसे आम आदमी के खून का स्वाद मिल चुका हो तब भला वह चुप कैसे बैठ सकता है।
सब जानते हैं कि सरकारों ने ही आन्तरिक सुरक्षा के ढांचे को तोड़ा है। वैश्वीकरण और उदारीकरण के बाद आंतकवाद को फलने-फूलने में खासी मदद मिली है। समताए सुशासन और ईमानदारी के अभाव में भी आतंक को बल मिलता है। न्याय और कानून को लागू करने वाली एजेन्सियों पर यदि राजनीति कुंडली मार कर बैठ जाए तो भला ये तंत्र आतंक का मुकाबला कैसे कर सकते हैं। खासकर जिस सरकार के मंत्री और अधिकांश अफसर भ्रष्टाचार में लिप्त हों वहां आतंक से मुकाबले की बात बेमानी है। दिल्ली उच्च न्यायालय की देहरी पर आतंक का यह विस्फोट चिल्ला-चिल्ला कर कह रहा है कि जब लोकतंत्र की सबसे बड़ी खैरख्वाह संसद और भारतीय राजनीति में आतंक को चुनौती देने की कुव्वत नहीं तो न्यायपालिका अपनी अति सक्रियता बन्द करे। दरअसल यह चुनौती नहीं युद्ध है जिसका मुकाबला न्यायपालिका ही नहीं सरकार और आम आदमी को मिलकर करना होगा। और वह भी राजनीति से ऊपर उठकर।

Tuesday, August 30, 2011

अन्ना आंदोलन के सबक

अन्ना आंदोलन का एक सबक यह भी है कि विगत 20 वर्षों से देश में चल रहे उदारीकरण और निजीकरण की वजह से बढ़ी अमीरी और गरीबी की खाई तथा बड़े पैमाने पर हुए भ्रष्टाचार से जनता पूरी तरह त्रस्त है और वह अब इसे ज्यादा बर्दाश्त नहीं कर सकती। बीते दो-ढाई दशकों के नवउदारवादी नीतियों ने जहां अमीरी और गरीबी की खाई को बढ़ा दिया है वहीं भ्रष्टाचार को जीवन के अभिन्न अंग के रूप में भी प्रतिष्ठित करने का काम किया है। इसका मतलब यह कतई नहीं है कि इससे पहले देश में भ्रष्टाचार नहीं था। तथ्य तो यह है कि उदारीकरण ने भ्रष्टाचार को ‘‘समृद्धि का माध्यम’’ और भद्र जनों की ‘‘सुविधा’’ के रूप में स्थापित कर दिया है।
अन्ना जी के अनशन के दौरान और उसके उपरान्त कारपोरेट की भूमिका पर अनेक समीक्षात्मक टिप्पणियां आ चुकी हैं लेकिन इसे मुखर रूप से कहा जाना जरूरी है कि भ्रष्टाचार उन्मूलन के नाम पर चले इस आन्दोलन पर भी कारपोरेट का खासा प्रभाव रहा है। यह विडम्बना ही है कि अन्ना ने अपना अनशन तो एक दलित और मुस्लिम बच्ची के हाथों शहद और नारियल पानी ग्रहण कर तोड़ा लेकिन स्वास्थ्य परीक्षण के लिये वे कारपोरेट हेल्थ केयर के प्रतिनिधि अस्पताल मेदान्ता सिटी (गुड़गांव) गए जहां गरीबों और आम आदमी के लिये बेहद कम गंुजाइश है।
इसमें शक नहीं कि अन्ना अंादोलन ने देश के आम जनमानस को खूब झकझोरा है लेकिन अभी भी वर्ग, जाति और धर्म से जुड़े बड़े समूह इस आन्दोलन से अपने को नहीं जोड़ पाए। दलितों के कई बड़े नेता, मुसलमान आदि समूहों ने इस बड़े जन आन्दोलन से अपने को अलग ही रखा। कहा जा सकता है कि संविधान निर्माता डा. आम्बेडकर से जुड़ेे दलित अन्ना आन्दोलन को दलित विरोधी मानते हैं, और मुस्लिम नेतृत्व के अभाव में मुसलमान भी अपने को इस आन्दोलन से ज्यादा नहीं जोड़ पाते। लेकिन विशाल मध्यम वर्ग को उत्साहित कर इस आन्दोलन ने एक इतिहास तो रचा ही है।
अन्ना आंदोलन से असहमति के कई बिन्दु हो सकते हैं। जैसे आन्दोलन में आम्बेडकर फूले और बहुजन समाज के आदर्श प्रतीकों को ज्यादा अहमियत नहीं दिया गया, उलटे अन्ना आन्दोलन में ‘‘आरक्षण हटाओ- भ्रष्टाचार मिटाओ’’ के नारे लगते रहे। दलितों की यह भी शिकायत है कि बहुजनों के इस देश में अन्ना की कोर टीम में दलित, आदिवासी एवं अल्पसंख्यक की भागीदारी न के बराबर ही रही। अन्ना देश के नागरिकों के बीच समता की बात जरूर करते हैं, लेकिन वे खौफनाक गुजरात दंगों के आरोपी वहां के मुख्यमंत्री, नरेन्द्र मोदी की तारीफ कर अल्पसंख्यक मुसलमानों के आंख की किरकिरी बन जाते हैं। आदिवासी समाज भी सलवा जुडूम पर अन्ना का पक्ष जानना चाहता है। बहरहाल अन्ना टीम के लिये यह एक चुनौती होगी कि वह इस देश के बहुजन और अल्पसंख्यक जमात को ससम्मान अपने आन्दोलन की मुख्यधारा से जोड़ सके क्योंकि देश में भ्रष्टाचार की सबसे ज्यादा मार आदिवासियों, दलितों और अल्पसंख्यकों पर पड़ती है।
अभी राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन (एन.एस.एस.ओ.) का एक आंकड़ा आया है। अनुमान लगाया गया है कि सन् 2025 तक भारत में ऐसे मध्यमवर्गीय खाते-पीते लोगों की संख्या, जिसकी आमदनी 10 लाख रुपये प्रतिवर्ष है, बढ़कर ढाई करोड़ हो जाएगी। लेकिन तब तक इस देश में 122 करोड़ लोग येन-केन-प्रकारेण अपना जीवन बसर कर रहे होंगे और इनकी स्थिति बदतर होती जाएगी। अन्ना और अन्ना टीम को यह सोचना होगा कि नवउदारवादी नीतियों के कारण उपभोक्तावादी बनते मध्यमवर्ग के भ्रष्टाचार को कैसे रोका जाए। खासकर उस बड़े तबके को जो रातों रात अमीर बनने के लिए किसी भी हद जक जाने को तैयार हैं। नई सामाजिक अवधारणा में धन बल ने राजनीति से गठजोड़ करके अपनी उन्नति का मार्ग तलाश लिया और बड़े पैमाने पर नवधनाढ्य युवाओं ने इसे अपना आदर्श मान रखा है।
अन्ना हजारे को यह भी विचार करना होगा कि इस पूंजीवादी व्यवस्था में व्यापार को विश्वव्यापी बना दिया है। विडम्बना यह है कि यह बाजार अब शहर से गांव की ओर पसर रहा है। इसमें उत्पादक और ग्राहक दोनों ठगेे जाते हैं। मालामाल होता है बिचौलिया यानि बाजार। इस बाजार ने सरकार पर अपनी पकड़ मजबूत बना ली है। क्या अन्ना इस बाजार और सरकार के बीच पनपे अवैध सम्बन्धों पर प्रहार कर पाएंगे? यदि नहीं तो भ्रष्टाचार पर मरहम तो लगाया जा सकता है लेकिन उसे कम या खत्म नहीं किया जा सकता। दुनिया जानती है कि हाल फिलहाल के सभी बड़े भ्रष्टाचार कारपोरेट-सरकार और मीडिया की मिलीभगत से हुए जिसमें देश का लाखों करोड़ रुपये आम आदमी की जेब से निकलकर चन्द कारपोरेट घरानों के नुमाइन्दों की जेब में चला गया। इस प्रहसन में अच्छी भूमिका निभाने के लिये कारपोरेट ने नेताओं को भी उपकृत किया।
भ्रष्टाचार से उपजे काले धन को संचित करने एवं उसे देश के बाहर के बैंकों में जमा करने के खिलाफ बाबा रामदेव के नाटकीय आन्दोलन का वही हश्र हुआ जो हो सकता था लेकिन इस बात को मानना पडेगा कि भ्रष्टाचार ने देश में कालेधन की समानान्तर अर्थव्यवस्था खड़ी कर दी है। स्विस एवं विदेशी बैंकों में जमा भारतीय धन, मन्दिरों व ट्रस्टों में जमा धन-रूपये, लोगों के घरों में पड़े करेंसी नोट आदि सम्पत्ति को जोड़ दें तो यह कुल भारतीय जी.डी.पी. के आंकड़े को भी पार कर लेगा। यह तो बड़े भ्रष्टाचार का आंकड़ा है लेकिन आम जीवन में लोगों को छोटे-मोटे सरकारी कार्यों के लिये अफसर-कर्मचारी को घूस देना पड़ता है। यह भ्रष्टाचार दैनिक जीवन का अंग बन गया है। निश्चित ही अन्ना आन्दोलन से भ्रष्टाचार की इस प्रवृत्ति की पुष्टि हुई है लेकिन इस भ्रष्टाचार से मुक्ति का मार्ग अभी भी मीलों दूर है। अन्ना और अन्ना टीम को भ्रष्टाचार से मुक्ति के मार्ग के वाहन अभी और ढूंढने होंगे।
अन्ना एवं अन्ना आंदोलन को इस बात का जरूर श्रेय मिलना चाहिये कि उन्होंने जनतंत्र में तंत्र को जन की ताकत का अहसास करा दिया है। सन् 74 के बाद पहली बार जनता सांसदों का घेराव करने उनके निवास तक पहुंच गई। सांसदों व जन प्रतिनिधियों की बेचैनी संसद के विशेष सत्र में भी दिखी जब वे लोकपाल के मुद्दे पर बहस कर रहे थे। लगातार संसद में अर्नगल प्रलाप और गैर मर्यादित आचरण करने वाले सांसद किसी व्यक्ति द्वारा उन पर की गई कड़ी टिप्पणी से इतने आहत थे कि वे विशेषाधिकार हनन का प्रस्ताव तक ला चुके है।
मानना पड़ेगा कि अन्ना आन्दोलन ने धुरन्धर राजनीतिज्ञों की बनी बनाई जमीन उकेरकर रख दी है। मीडिया ने भी इसे हद से ज्यादा समर्थन दिया। कई राजनीतिक विश्लेषक भी मान रहे हैं कि अब राजनीतिज्ञों द्वारा अन्ना मुहिम की अनदेखी करना आसान नहीं होगा। अन्ना ने देश से राजनीतिकरण और लोकतांत्रीकरण की एक नई बहस छेड़ दी है जिसमें माननीयों की बड़ी कद पर सवाल खड़े हो रहे हैं। अन्ना आन्दोलन में इसकी झांकी भी दिखी इसलिये राजनीति के धुरन्धरों को अब सोचना होगा कि लोगों को बेवकूफ बनाकर वोट बटोरना अब पहले जितना आसान नहीं रहेगा।
अन्ना आन्दोलन का एक अहम सबक यह भी है कि अहिंसा और सत्याग्रह की ताकत बन्दूक और ए.के.-47 से भी ज्यादा है, बशर्ते कि उसके इस्तेमाल में निष्ठा, ईमानदारी, धैर्य और सादगी हो। यह देश मसीहा और करिश्मा को पसन्द करता है। लोकतंत्र है तो भागीदारी का मंच लेकिन इसमें किसी आईकॉन या हीरो की जबर्दस्त कद्र होती है। वर्षों से भ्रष्टाचार से त्रस्त बड़े जन सैलाब ने एक अन्ना को ऐसा अन्ना बना दिया कि अब अन्ना को दूसरा गांधी कहा जा रहा है। लोक से लोकशैली और लोकभाषा में बात करने वाले अन्ना आम लोगों से तुरन्त संवाद स्थापित कर लेने में सक्षम है। इसलिये उनकी बात एक साथ कारपोरेट और आम आदमी दोनों सुनते हैं। शायद इसलिये अन्ना के ऊपर अब एक बड़ी जिम्मेवारी है लोकशाही के लोक को सार्वभौम एवं शक्तिशाली स्थापित करने की। यदि अन्ना ने सांसद के सर्वोच्चता को चुनौती दी है तो उन्हें लोगों की सर्वोच्चता को मजबूती से स्थापित कराने के लिये लम्बे समय तक लड़ना होगा। इसके लिये जाति, सम्प्रदाय के नाम पर राजनीति करने वालों को भी एक्सपोज करना होगा और कारपोरेट-सरकार के खूंखार गठबंधन को भी। अन्ना होने का यह सबक अन्ना को भी याद रखना पड़ेगा।

Thursday, August 25, 2011

भूख, बाजार और स्वास्थ्य

दुनिया में भूख से पीड़ित लोगों की संख्या में फिर वृघि होनी शुरू हो गई है। गरीब देशों में लाखों लोग समुचित खाद्यान्न खरीद पाने की स्थिति में नहीं हैं। इन लोगों को अब खाद्यान्न उपलब्ध कराने वाली स्वयंसेवी संस्थाओं से भी अतिरिक्त मदद की उम्मीद नहीं है क्योंकि ये अर्न्तराष्ट्रीय खाद्य संस्थाएं भी स्वयं संकट में हैं। विश्व खाद्य कार्यक्रम ;डब्ल्यू.एफ.पीद्धके निदेशक जोसेटी शीरान की मानें तो डब्ल्यू.एफ.पी. को वर्ष 2009-10 में 300 मिलियन डॉलर की अतिरिक्त आवश्यकता थी जिसकी पूर्ति नहीं हो पाई थी। उल्लेखनीय है कि वर्ष 2007 के बाद से खाद्य मूल्यों में 40 से 55 प्रतिशत की वृघि हुई है और भूख से पीड़ित लोगों की संख्या भी बढ़ी है। संयुक्त राष्ट्र के खाद्य एवं कृषि संगठन ;एफ.ए.ओ.द्ध के अनुसार इन दिनों दुनिया के 37 देश अर्न्तराष्ट्रीय खाद्य सहायता पर निर्भर है।
अभी हाल ही में एफ.ए.ओ. के महानिदेशक जैक्स डायफ ने अपनी भारत यात्रा के दौरान केन्द्रीय कृषि एवं खाद्य मंत्री शरद पवार से मुलाकात कर विश्व खाद्य समस्या पर चर्चा की तथा आशंका व्यक्त की कि खाद्यान्न उत्पादन में आ रही कमी एवं बढ़ते मूल्य से खाद्य संकट और गहराएगा तथा कई देशों में भोजन के लिये संघर्ष और हिंसक हो सकते हैं। श्री डायफ के अनुसार इस वक्त दुनिया में अनाज का भण्डार इतना कम है कि यह पूरी दुनिया की आबादी का केवल 8 से 12 हफते तक ही पेट भर सकता है। उन्होंने यह भी कहा कि कैमरून, मिस्र, हैती, बुर्कीनाफासो तथा सेनेगल जैसे देशों में जारी खाद्य संघर्ष दुनिया के अन्य देशों में भी फैल सकते हैं।
बढ़ते खाद्य संकट के लिये खाद्य मूल्यों में हुई बेतहाशा वृधि को भी मुख्य कारण बताया जा रहा है। खाद्य मूल्यों में हुई वृधि के लिये खाद्य विशेषज्ञ अर्न्तराष्ट्रीय बाजारों में मांस की मांग में वृघि को एक बड़ा कारण मान रहे हैं। कहा जा रहा है कि विगत दो दशक में अर्न्तराष्ट्रीय स्तर पर मांस की मांग दो गुनी हो गई है। जाहिर है कि इसी अनुपात में चारा उत्पादन का दायरा भी बढ़ा है। एक आकलन के अनुसार एक किलो गोमांस के लिए 7 किलो खाद्यान्न की आवश्यकता होती है जबकि एक किलो सुअर का मांस के लिए 3 किलो चारा चाहिये। इन मांगों की पूर्ति के लिए बड़े मात्रा में सोयाबीन व अन्य फसलों का उत्पादन किया जा रहा है। अनाज की जगह चारे के उत्पादन का परिणाम है कि कई देशो में खाद्यान्न की कमी होने लगी है।
भारत सरकार का आर्थिक सर्वेक्षण 2007-08 कहता है कि 1990 से वर्ष 2007 तक खाद्यान्न उत्पादन वृधि दर 1.2 प्रतिशत ही रही है। इस दौरान जनसंख्या की औसत 1.9 प्रतिशत वृधि दर की तुलना में खाद्यान्न उत्पादन की दर कम ही है। इस दौरान उत्पादन कम होने से प्रति व्यक्ति अनाज तथा दालों की उपलब्ध्ता भी घटी है। अनाजों की खपत वर्ष 1990-91 में जहां प्रतिदिन प्रति व्यक्ति 468 ग्राम थी वहीं वर्ष 2005-06 में घटकर यह प्रतिदिन 412 ग्राम प्रति व्यक्ति रह गई है। इस दौरान दालों की खपत प्रतिदिन 42 ग्राम प्रति व्यक्ति से घटकर 33 ग्राम रह गई। यहां ध्यान देने की बात है कि 1956-57 में प्रति व्यक्ति दालों की उपलब्ध्ता 72 ग्राम थी।
1983-85 में अनाज उत्पादन की जो स्थिति थी उसमें अखाद्य फसलों की हिस्सेदारी लगभग 37 प्रतिशत थी जो वर्ष 2006-07 में बढ़कर 46.7 प्रतिशत तक पहुंच गई। आंकड़ों के अनुसार खाद्य फसलों के उत्पादन में जहां 2 प्रतिशत की वृधि हुई है वहीं अखाद्य फसलों का उत्पादन 4 प्रतिशत तक गया है। विश्व बैंक की ही रिपोर्ट मानती है कि महंगे कीमत वाले फसलों की मांग बढ़ी है जबकि भोजन के लिये जरूरी फसलों का उत्पादन घटा है। सरकार भी खाद्य फसलों की तुलना में अखाद्य फसलों का उत्पादन बढ़ाने के लिये ज्यादा प्रोत्साहित करती है।
भूख को बाजार ने मुनाफे के धन्धे के रूप में परिवर्तित कर लिया है। अर्न्तराष्ट्रीय संस्थाएं स्वास्थ्य व पोषण की कमी का वास्ता देकर ऐसी नीतियां और कार्यक्रम थोप रहे हैं जिससे खाद्य उद्योग में लगे बड़ी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को सीधे फायदा पहुंच रहा है। अब भारत सहित दुनिया भर में नागरिकों के स्वास्थ्य और पोषण सम्बन्धी अधिकारों को सुनिश्चित करने के लिये सार्वजनिक निजी भागीदारी ;पी.पी.पी.द्ध को इस तरह से पेश किया जा रहा है मानो देश में लोगों का स्वास्थ्य इसी बुनियाद पर खड़ा किया जा सकता है अन्यथा भारत बीमारियों व कुपोषण के दलदल में ध्ंास जाएगा।
वर्ष 2005 में विश्व स्वास्थ्य सभा ;डब्ल्यू.एच.ए.द्ध में स्तनपान के सवाल पर हुई बहस के दौरान भारत ने अपना पक्ष रखते हुए कहा था, ‘‘व्यावसायिक संगठनों की मुख्य प्राथमिकता लाभ कमाना है। इसलिये व्यावसायिक संगठनों से ऐसी अपेक्षा रखना न तो उचित है और न ही व्यावहारिक कि वे स्तनपान को संरक्षण, प्रोत्साहन और समर्थन देने के लिये सरकारों व अन्य समूहों के साथ मिलकर काम करेंगे।’’ तब डब्ल्यू.एच.ए. ने प्रस्ताव क्रमांक 58.32 को स्वीकार करते हुए सदस्य समूहों से आग्रह किया था कि वे यह सुनिश्चित करें कि शिशुओं व छोटे बच्चों के स्वास्थ्य के लिये कार्यक्रमों व कार्यकर्ताओं के लिये वित्तीय समर्थन व अन्य प्रोत्साहन में किसी प्रकार से हितों के बीच टकराव न हो। मई 1981 में भी 34वीं विश्व स्वास्थ्य सभा में स्तनपान के विकल्पों के विपणन सम्बन्धी अर्न्तराष्ट्रीय कोड को स्वीकारते हुए माना गया था कि लाभोन्मुखी व्यावसायिक संस्थान समतामूलक विकास के पैरोकार नहीं बन सकते। इन दिशा निर्देशों में नागरिक समाज और यूनिसेफ एवं डब्ल्यू.एच.ओ. जैसे अर्न्तराष्ट्रीय संगठनों से उम्मीद की गई थी कि वह महज लाभ के लिये सक्रिय उद्योगों से अच्छी तरह निपटेगा लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। उल्टे कथित पोषण एवं विटामिनों का घन्धा करने वाली कम्पनियों की तो चान्दी हो गई और भ्रामक विज्ञापनों का सहारा लेकर नेस्ले, हिन्दुस्तान लिवर और ऐसी ही अन्य बेबी फूड बनाने वाली कम्पनियों ने खूब मुनाफा कमाया। उस दौर में इन कम्पनियों के विज्ञापनों का यह असर था कि शहरों में रहने वाली मध्यमवर्गीय युवा माताओं ने अपने नवजात शिशु को भी अपने स्तन का दूध पिलाने की बजाय इन कम्पनियों का डब्बा बन्द दूध देना स्वीकार कर लिया था।
कथित पोषण और हेल्थ फूड के धन्धे में लगी कम्पनियों की तो अब चल निकली है। भूमण्डलीकरण के दौर में इन कम्पनियों ने बड़े पैमाने पर स्वास्थ्य और भूख का वास्ता देकर अपने उल्टे-सीघे उत्पादों को महंगे दर पर बाजार में भर दिया है। यूनिसेफ तथा डल्ब्यू.एच.ओ. जैसे संगठनों ने भी अपने 27 वर्ष पूर्व के 34वें विश्व स्वास्थ्य सभा के घोषणा पत्र को उठाकर किनारे कर दिया है। जिसमें कहा गया था कि, ‘‘लाभ के लिये सक्रिय कम्पनियां व्यापक जनहित की पोषक नहीं हो सकती।’’ अब यूनिसेफ ने ‘‘ग्लोबल एलायंस फॉर इम्प्रूब्ड न्यूट्रीशन’’ ;गेनद्ध से हाथ मिलाया है। गेन एक ऐसा संगठन है जो अर्न्तराष्ट्रीय खाद्य व्यापार कम्पनियों के हित, पोषण और संरक्षण के लिये काम करता है। अब आशंका है कि इससे विभिन्न देशों की पोषण और खाद्य नीतियों में बाजार और बहुराष्ट्रीय खाद्य कम्पनियों का दखल बढ़ जाएगा।
गेन ने विभिन्न बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के खाद्य उत्पादों को विभिन्न देशों के राष्ट्रीय खाद्य, स्वास्थ्य एवं पोषण नीतियों में शामिल करने के लिये सरकारों से लाबिंग भी शुरू कर दिया है। यह जानना जरूरी है कि अर्न्तराष्ट्रीय संस्थाएं यूनिसेफ तथा डब्ल्यू.एच.ओ. के प्रतिनिधि अब ‘गेन’ की बैठक में उन्हीं बहुराष्ट्रीय खाद्य निर्माता कम्पनियों के प्रतिनिध्यिों के साथ बैठते हैं जिसने कई देशों में अर्न्तराष्ट्रीय दिशा निर्देशों का उल्लंघन किया है। ‘गेन’ के बोर्ड सदस्यों में बायर, कोकाकोला, नेस्ले, नोवार्टिस, पेप्सीको, फाइजर, प्राक्टर एण्ड गैम्बल जैसी अनेक खाद्य, रसायन एवं दवा कम्पनियों के प्रतिनिधि शामिल हैं।
अब गेन के सक्रिय होने से भारत सहित अन्य देशों में खाद्य एवं पोषण सुरक्षा पर सवाल खड़े हो गए हैं। भारत में राष्ट्रीय पोषण नीति को ठीक से लागू करने के लिये डॉ. एम.एस. स्वामीनाथन की अध्यक्षता में एक संगठन बनाया गया है- ‘‘कोलीशन फॉर सस्टेनेबल न्यूट्रीशन सिक्युरिटी इन इन्डिया’’ं। गेन भारत में इस कोलीशन के साथ भी काम कर रहा है। अब सवाल है कि भारत में खाद्य एवं पोषण सुरक्षा की शर्त पर गेन के एजेन्डा को कैसे चलने दिया जा सकता है। इससे टकराव की स्थिति उत्पन्न हो गई हैं।
भोजन एवं पोषण के व्यापार से जुड़ी बड़ी कम्पनियों का दबाव है कि राष्ट्रीय पोषण कार्यक्रम में फोर्टीफाइड आहार शामिल किया जाए। मई 2008 में चिकित्सा की चर्चित पत्रिका ;जर्नलद्ध लैन्सेट ने जच्चा-बच्चा कुपोषण पर एक श्रृंखला प्रकाशित की थी। इसमें सूक्ष्म पोषक तत्वों पर जोर था और सिफारिश की गई थी कि राष्ट्रीय पोषण कार्यक्रम में फोर्टीफाइड आहार को शामिल किया जाए। हालांकि कई वैज्ञानिक इस ‘फोर्टीफिकेशन’ को गैर जरूरी और विशुद्य व्यापारिक बताते हैं। ध्यान देने की जरूरत है कि कुछ वर्ष पूर्व ऐसे ही नमक में आयोडीन की अनिवार्यता की वकालत की गई थी। नमक में आयोडिन की अनिवार्यता के लिये कम्पनियों ने पूरा दबाव बनाया और सरकार को इस दबाव में कानून भी बदलना पड़ा। उल्लेखनीय है कि सरकारी कानूनों की आड़ में आयोडिन युक्त नमक की अनिवार्यता आम नागरिकों पर थोप कर इस देश में कई बीमारियों के लिये रास्ता खोल दिया गया है।
नमक में आयोडिन की अनिवार्यता को थोपने के मामले की पड़ताल करने से इस आशंका की पुष्टि हो जाती है कि देर सबेर चावल में विटामिन ए अथवा आटे में लोहा तथा अन्य सूक्ष्म पोषक तत्वों को दैनिक उपयोग के अनाजों में मिलाकर फोर्टीफाइड फूड के रूप में बाजार में उतारा जा सकता है। केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय के विश्वस्त सूत्रों के हवाले से इस लेखक को खबर है कि मंत्रालय में आयोडाइज्ड नमक को डबल फोर्टीफाइड ;उसमें लोहा मिलानेद्ध की एक महत्वाकांक्षी योजना लम्बित है जिसमें सम्बन्धित कम्पनी ने सर्वेक्षण के आधर पर यह भी दावा किया है कि लोगों को यदि ठीक से शिक्षित किया जाए तो लोग मौजूदा दर से दो गुने कीमत पर भी ‘डबल फोर्टीफाइड नमक’ लेने को तैयार हैं।
चिन्ता की बात तो यह है कि कम्पनियों और बाजार के गठजोड़ ने हमारी प्राकृतिक खाद्य व्यवस्था को खत्म कर देने की योजना बना चुका है और हम उसके जाल में फंस चुके हैं। कई पोषक तत्व तो खाद्य में कृत्रिम रूप से डाले ही नहीं जा सकते। जैसे-जिंक। हमारे शरीर में जिंक की कमी को प्राकृतिक खाद्य पदार्थों के सेवन से ही पूरा किया जा सकता है। इसके लिये जैविक खेती को बढ़ावा देने की जरूरत है। क्योंकि रासायनिक कीटनाशकों के उपयोग से जमीन में उपलब्ध सूक्ष्म पोषक तत्व नष्ट हो जाते हैं और हमारे शरीर को प्राकृतिक रूप से पर्याप्त पोषण नहीं मिल पाता। यह विडम्बना ही है कि पहले पोषण के प्राकृतिक तरीके को हम नष्ट कर दें और फिर पोषण के लिये बाजार की तथाकथित तकनीक पर निर्भर हो जाएं।
भारत में तेजी से विकसित होते खाद्य बाजार और इसके पीछे लगी बड़ी कम्पनियों की सफलता अभी से देखी जा सकती है। आम जनता के स्तर पर ऐसी योजना में जानकारी के अभाव में लोगों को कोई साजिश नजर नहीं आती। कम्पनियां भी मध्यम वर्ग के लोगों को प्रभावित करना अच्छी तरह जानती हैं। इस कार्य में क्रिकेट स्टार धोनी, हरभजन, युवराज या सिने स्टार आमिर, शाहरूख या सलमान या कोई और सेलेब्रिटी अच्छी तरह इस्तेमाल होते हैं। नमक में आयोडीन की अनिवार्यता को सरकारी कानूनों ने जितना प्रभावी नहीं बनाया उतना विज्ञापन और प्रचार ने। वैसे भी गेन जैसी संस्था की स्थापना बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का बाजार निर्माण करने के लिये ही की गई है। गेन इन कम्पनियों के बाजार बढ़ाने के लिये विभिन्न देशों में खाद्य और पोषण कानूनों को अपने अनुकूल बनवाने के लिए भी प्रयासरत है। भारतीय सांसदों के बीच गेन ने एक बैठक आयोजित कर उन्हें फोर्टीफाइड फूड के फायदे बताए। इसका असर भी रंग लाने लगा है। सांसद सचिन पायलट विटामिन ए युक्त कृत्रिम पोषक आहार के प्रबल समर्थक बन गए हैं। पिछले संसद सत्र में वे इसकी जोरदार वकालत भी कर चुके हैं।
गेन कुपोषण की समस्या का समाधन बाजार में तलाशता है। गेन का उद्देश्य भारत में पोषक आहार के लिये एक अरब लोगों का बाजार निर्मित करना है। गेन ने अभी-अभी हैदराबाद में ही ब्रिटानिया नामक कम्पनी को एक लाख बच्चों तक अपना कथित पोषक उत्पाद पहुंचाने का मौका उपलब्ध कराया है। इस प्रकार कुपोषण के इस बाजार में बड़ी कम्पनियों को बड़े बाजार बनाने के व्यापक अवसर उपलब्ध हो रहे हैं। इस झटपट समाधान की आपाधपी मंें भूख और कुपोषण के मूल सवाल दब गए हैं। इन सवालों का फास्ट-फूड स्टाइल वाला जवाब स्थाई समाधन दे नहीं सकता क्योंकि भूख महज एक समस्या नहीं साम्राज्यवाद की मुकम्मल नीति है। जब तक नीति पर चोट नहीं होगी भूख का बाजार फलता-फूलता रहेगा।
विश्व स्वास्थ्य संगठन भी बढ़ती विषमता और गरीबी के स्वास्थ्य के लिये बड़ी चुनौती मानता है। संगठन की महानिदेशक डा. मार्गेट चान ने कहा है कि विकासशील देशों में समावेशी विकास के अभाव में बड़ी संख्या में स्त्रियां ओैर बच्चे कुपोषण, रक्त अल्पतता तथा घातक रोगों की चपेट में हैं जिससे जन स्वास्थ्य को गम्भीर संकट खड़ा हो सकता है। इस बार अगले वर्ष की कार्ययोजना में जलवायु परिवर्तन और पर्यावरणीय कारणों से बढ़ने वाले रोगों जैसे मलेरिया, कालाजार, मेनिनजाइटिस आदि को भी बड़ी चुनौती के रूप में देखा गया है। संगठन ने बढ़ती शहरी आबादी के स्वास्थ्य को भी मद्देनजर रखा है।

Saturday, July 2, 2011

हेम पाण्डेय की हत्या से उठे सवाल

और हेम पाण्डेय की भी हत्या कर दी गई। सरकारी बयान को देखें तो आन्ध्रप्रदेश की पुलिस ने माओवादी नेता चेरूकुरी राजकुमार उर्फ आजाद के साथ हेमचन्द्र पाण्डेय को मुठभेड़ में मार गिराया। हेम पाण्डेय की पत्नी बबीता के अनुसार हेम डीएआरसीएल नाम की एक कम्पनी के नियमित कर्मचारी थे। वे वहां कारपोरेट कम्युनिकेशन विभाग में ‘‘चेतना’’ नामक पत्रिका का सम्पादन करते थे। इसके अलावे वे कई अखबारों में नियमित स्वतंत्र रूप से लिखा करते थे। कुछ अखबार के सम्पादकों ने तो हेम पाण्डेय का नाम सी.पी.आई. (माओवादी) पार्टी से जुड़ने के बाद अपने अखबार को यह कहकर किनारे कर लिया कि हेम ने उनके अखबार में कभी नहीं लिखा। बबीता ने जब हेम के कई प्रकाशित लेख सार्वजनिक किये तब जाकर अखबारों का मुंह बन्द हुआ। यह इत्तेफाक ही है कि जिस दिन हेम की हत्या हुई उसी दिन राष्ट्रीय सहारा में उनका लेख ‘‘गरीब मुल्कों में जमीन की लूट’’ सम्पादकीय पृष्ठ पर छपा था।
हेम की हत्या की खबर सुनकर देश के कई जनवादी-समाजवादी पत्रकारों में आक्रोश फैल गया। सबके जुबान पर यही सवाल था कि आज एक पत्रकार को माओवादी बताकर फर्जी मुठभेड़ में गया है, कल किसी भी पत्रकार के साथ ऐसा हो सकता है। हेम पाण्डेय के पत्रकार होने की और उनकी हत्या की बात सुनकर हैदराबाद के पत्रकार संगठन ने भी विरोध प्रदर्शन किया। वहां के पत्रकारों ने पहल कर हेम के शव को दिल्ली भिजवाने की व्यवस्था की तथा राज्य के गृहमंत्री से मिलकर इस फर्जी मुठभेड़ के न्यायिक जांच की भी मांग की।
हेम की हत्या 1-2 जुलाई की रात आन्ध्रप्रदेश के सम्भवतः आदिलाबाद में की गई थी। दरअसल सी.पी.आई. (माओवादी) पार्टी के प्रवक्ता आजाद के साथ मारे गए दूसरे शख्स के रूप में हेम की थे। शुरू में स्थिति भ्रम की बनी लेकिन दूसरे दिन जब अखबार में छपी फोटो को देखकर दिल्ली में हेम की पत्नी ने जब इस दूसरे शख्स की पहचान अपने पति हेम चन्द्र पाण्डेय के रूप में की तब स्थिति साफ हो पाई लेकिन तब तक तो काफी देर हो चुकी थी। हेम मुठभेड़ में मार दिये गए थे। बाद में बबीता ने प्रेस कान्फ्रेस कर बताया कि उनके पति आपरेशन ‘‘गीन हन्ट’’ पर स्टोरी करने 30 जून की शाम दिल्ली से नागपुर के लिये रवाना हुए थे।
7 जुलाई की रात बबीता और हेम के भाई राजीव पाण्डेय हेम का शव लेकर दिल्ली पहुंचे। दिल्ली में स्वामी अग्निवेश के आफिस 7, जन्तर मन्तर के बाहर शव को रखा गया। वहां अनेक पत्रकारों और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने एक जुट होकर हेम पाण्डेय को श्रंद्धाजलि अर्पित की। इसमें डा. बी.डी. शर्मा अरूंधति राय, सुमित चक्रवती, मंगलेश डबराल, नीलभ, आनन्द स्वरूप वर्मा, पंकज विष्ट, जावेद नकवी, अनिल चमड़िया, उत्तराखण्ड पत्रकार परिषद के सुरेश नौटियाल, फिल्मकार संजय काक, भाकपा माले की राधिका मेनन, आइसा के महासचिव रवि राय, प्रो. अनिल भदुड़ी, काम्बैंट लॉ के सम्पादक हर्ष डोभाल, पीपुलस मार्च के सम्पादक गोविन्दन कुट्टी, आन्ध्रप्रदेश इलेक्ट्रानिक जर्नलिस्ट एसोसिएशन के जलील, हैदराबाद ले आए मानवाधिकार कार्यकर्ता रघुनाथ सहित अनेक पत्रकारों, बुधिजीवियों ने होम का अन्तिम दर्शन किया और श्रंद्धाजलि दी। यहां उपस्थित सभी लोगों ने ‘‘फर्जी मुठभेड़’’ की न्यायिक जांच की मांग की। बाद में दिल्ली के निगम बोध घाट पर हेम को अन्तिम बिदाई दी गई।
विडम्बना देखिये कि हेम के परिवार वालों ने हेम का शव अध्ययन और प्रयोग के लिये अखिल भारतीय आर्युविज्ञान संस्थान को देने की पेशकश की लेकिन संस्थान ने शव को लेने से मना कर दिया।
हेम अपने छात्रजीवन से ही उत्तराखण्ड के छात्र आन्दोलन में सक्रिय थे। उनका छात्र जीवन पढ़ाई के साथ छात्र संगठन, आइसा, और प्रगतिशील छात्र मंच की राजनीति में बीता। पत्र-पत्रिकाओं में लेखन वे इसी दौर में शुरू कर चुके थे। हेम ने कुमाऊं विश्वविद्यालय के अल्मोढ़ा कैम्पस के अर्थशास्त्र विभाग में पी.एच.डी. में दाखिला लिया था। पी.एच.डी. को अधूरा छोड़कर वे दिल्ली आ गए तथा यहीं भारतीय विद्या भवन से उन्होंने पत्रकारिता में स्नातकोत्तर डिप्लोमा किया। धिरे धिरे के प्रमुख राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं में लिखने लगे। भारतीय विद्या भवन के उनके पूर्व सहवाठियों ने भी हेम की हत्या को दुर्भाग्यपूर्ण बताया है।
इसमें सन्देह नहीं कि हेम पाण्डेय की विचार धारा वामपंथी थी। वे जन महत्व के विभिन्न मुद्दे पर कलम चलाते थे। आप कह सकते हैं कि हेम वामपंथी रूझान के पत्रकार थे। उनके लेखों में आम आदमी के जीवन का दर्द और अपनी जमीन से बेदखल किये जा रहे लोगों का संघर्ष दिखता था। चूंकि हेम की विचारधारा वामपंथी थी इसीलिये हेम को माओवादी बताकर पुलिस-सरकार द्वारा मार दिया जाना निश्चित ही शर्मनाक घटना है। इसलिये राजधानी और देश के पत्रकारों के सगंठनों के अलावे अर्न्तराष्ट्रीय पत्रकार एवं मानवाधिकार संगठन ने भी इस कथित मुठभेड़ के निष्पक्ष और न्यायिक जांच की मांग उठाई है। दिल्ली के प्रगतिशील पत्रकारों ने एक सामुदायिक निर्णय में यह तय किया है कि हेम के शहादत दिवस पर हर साल एक व्याख्यान माला आयोजित की जाएगी और हेम को आमजनों की स्मृतियों में याद रखा जाएगा।
क्रोध चीख और गुस्से को भले ही सम्मानजनक न माना जाए पर दुनिया की 7 अरब से ज्यादा आबादी इसी भाषा में बोलती है। भय और असुरक्षा से ग्रस्त भारत के 10 करोड़ आदिवासी भले ही गंूगे भी हों तो भी इसी भाषा में बोलते हैं। छत्तीसगढ़ हो या झारखंड, उड़ीसा हो या पश्चिम बंगाल देश के ये मूल निवासी जब अपनी पीड़ा अपनी भाषा में व्यक्त करते हैं तो भद्र समाज तिलमिला जाता है। आदिवासियों की यह भाषा या प्रतिक्रिया शहर में बैठे मध्यम वर्ग एवं सभ्य समाज को नहीं सुहाती। सरकार इसे आंतकवाद या माओवाद कहती है। जब व्यक्ति या समाज को उसके जडत्र से काटने की कोशिश की जाती है तो उस व्यक्ति या समूह द्वारा व्यक्त प्रतिक्रिया, विद्रोह या हिंसा कही जाती है। सरकार की नजर में यह आतंकवाद है, देश द्रोह है।
आजादी के दौर में हिंसा-अहिंसा का सवाल मुखर था। तमाम जद्दो जहद के बाद अंिहसा एक सत्याग्रह के अस्त्र के रूप में प्रतिष्ठित हुआ। अंग्रेज इस हथियार से डरने लगे थे। फिर जो हुआ सबके सामने है। लेकिन आजादी के बाद अहिंसा का यह हथियार कुंद होने लगा। शान्तिपूर्ण आन्दोलनों और जन-प्रतिरोधों पर सरकारी जुल्म बढ़ने लगे। अहिंसक आन्दोलनों को बरबरतापूर्वक कुचला जाने लगा। अहिंसक प्रतिरोध की इन्तहा हो गई। मणिपुर की महिलाओं का नग्न प्रदर्शन, इरोम शर्मिला का लम्बा सत्याग्रह, आदिवासियों किसानों का प्रदर्शन, किसानों की आत्म हत्या सब अहिंसक आन्दोलन के ही रूप हैं लेकिन उसकी परिणति दुनिया देख रही है। अहिंसा की आड़ लेकर सरकारी पुलिसिया जुल्म बढ़ने लगे। फर्जी एन्काउन्टरों की बाढ़ आ गई। कई मामले लीपा पोती के बाद फाइलों और मध्यवर्ग की स्मृतियों से भी गुम हो गए। अहिंसा को प्रभावहीन माना जाने लगा। आजाद भारत के लोकतांत्रिक सरकार की यह सबसे बड़ी विफलता है।
वामपंथ ने दुनिया की राजनीति में एक अलग-अलग विकसित की। धीरे धीरे वामपंथ की भाषा, जीवन शैली और तौर-तरीके भी बदल गए। अतिवाद, संशोधनवाद आदि वामपंथ के आपसी अर्न्तविरोध से उपजे शब्द हैं। 1967 नक्सलवादी आन्दोलन का अहम पक्ष यह है कि वामपंथ दो धाराओं में विभाजित हो गया। एक चुनाव का रास्ता, दूसरा संघर्ष का। बाद में इस संघर्ष ने भी सशस्त्र संघर्ष का रूप ले लिया। बाद में वामपंथ के जितने भी धड़े बने सब आपस में विभाजित होते रहे और एक धारा से दूसरी धारा में आवागमन करते रहे। संसदीय चुनाव में जिन वामपंथी धड़ों ने सिरकत की और संसदीय रास्ते से देश में समाजवाद लाने का स्वप्न देखा उन्होंने गैर संसदीय वामपंथी और सशस्त्र संघर्ष में विश्वास करने वाले वामपंथी धड़े की अतिवादी घोषित कर दिया।
अतिवादी वामपंथी पूछते हैं कि संसद के रास्ते समाजवाद का सपना देखना क्या रोमांटिसिज्म नहीं है? खासकर इस दौर में जब संसदीय संरचना में पूंजी के केन्द्रीयकरण को रोज व रोज बढ़ावा मिल रहा है। सार्वजनिक उपक्रमों का निजीकरण हो रहा है। विदेशी कम्पनियों के लिये देश के अहम सेवा क्षेत्र को मिलान किया जा रहा है। और तो और कम्पनियों के ठेकेदार संसद के लोक सभा राज्य सभा में घुस कर सरकार की कैबिनेट में जा बैठे हैं। अतिवादी कांग्रेस पूछते हैं- पूंजी केन्द्रीयकृत करने वाली संरचना में समाजवाद का स्वप्न देखना क्या रोमांटिसिज्म नहीं है?
पत्रकार हेम पाण्डेय की हत्या के बहाने माओवाद के विभिन्न पहलुओं पर यह चर्चा इसलिये जरूरी है कि अब देश में माओवाद के सफाए के नाम पर स्वतंत्र विचारधारा या अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को भी कुचलने का ब्लू प्रिंट तैयार कर लिया गया है। श्री चिदम्बरम के गृह मंत्री बनने के बाद इस सरकारी ब्लू प्रिंट की रेखाएं स्पष्ट उभरने लगी हैं। अदिलाबाद में माओवादी नेता आजाद की हत्या के बाद पुलिस ने इसे अपनी बड़ी सफलता के रूप में प्रचारित किया और आजाद के साथ मारे गए (सर मार दिये गए) दूसरे व्यक्ति को माओवादी सहदेव बताया लेकिन जब दूसरे दिन अखबार में फोटो छपी तो हेम की पत्नी बबीता और उनके परिजनों ने उसकी पहचान की। इसके बाद पुलिस ने हेम को माओवादी बताना शुरू कर दिया। पुलिस के साथ-साथ देश का मध्यवर्ग भी लगभग यही सोच रखता है सो कुद बुद्धिजीवी पत्रकारों ने भी देश से अपने को अलग कर लिया।
माओवादी नेता आजाद की हत्या पर भी थोड़ी चर्चा कर लें। पुलिस कहती है कि आजाद आन्ध्रप्रदेश के अदिलाबाद के पास जंगल में एक मुठभेड़ में मारे गए। माओवादी कहते हैं कि पुलिस ने उन्हें नागपुर से गिरफ्तार किया और आदिलाबाद के पास ले जाकर बर्बरतापूर्वक उनकी हत्या कर दी और मुठभेड़ का नाम दे दिया। तथ्य बताते हैं कि आजाद शांतिवार्ता की पृष्ठ भूमि बनाने के लिये स्वामी अग्निवेश का पत्र लेकर केन्द्रीय समिति के अपने साथियों से विचार विमर्श करने के लिये दंडकारण्य में एक बैठक में जा रहे थे। उन्हें संघर्ष विराम की एक तारीख निश्चित करनी थी जिसे स्वामी अग्निवेश के माध्यम से गृहमंत्री पी. चिंदबरम तक पहुंचाना था। एक तरह से आजाद की हत्या कर सरकार ने विश्वासघात किया जो माओवादियों को ही प्रोत्साहित करेगा। जाने माने पत्रकार एवं वामपंथी चिंतक गौतम नवलखा इसे ‘‘दोहरी हत्या’’ करार देते हैं।
विगत कई दशकों से भारतीय राज्य सैन्यवादी नजरिये से काम कर रहा है। इसमें हिंसा की भूमिका भी प्रासंगिक है। लेकिन हिंसा की अपनी एक सीमा होती है। यह सीमा राजनीति से निर्धारित होती है। प्रतिरोध करना एक बात है। लेकिन वैकल्पिक राजनीति को सामने लाना दूसरी बात है। यह सही है कि विस्थापन का मुद्दा, खान के लिये जमीन हड़पने का मामला, उद्योग में लगे बड़े बड़े उद्योग घराने से सरकार व नेताओं की संवछता, जंगल, जल, जमीन पर अधिकार का मामला आदि ऐसे मसले हैं। जिसके समाधान की तत्काल उम्मीद तो नहीं दिखती। आखिर ऐसा क्यों है कि माओवादियों द्वारा की गई हिंसा के मुकाबले 10 लाख किसानों की आत्म हत्या पर ज्यादा शोर नहीं मचता।
कुछ सवाल माओवादियों से भी है। क्या माओवादी या क्रान्तिकारी वामपंथी कृषि क्षेत्र में आए पतन, उत्पादन बढ़ाने, विकास के नाम पर बेलगाम, पूंजी निवेश खनिज सम्पदा को लेकर हमारी नीति, गरीबी कम करने, अमीरी पर लगाने, राज्य को जिम्मेदार बनाने, आम जन के सशक्तिकरण, स्त्री समानता आदि के लिये उनके पास क्या वैकल्पिक नजरिया है। आखिर ऐसा क्यों है कि जम्मू-कश्मीर और उत्तर पूर्व में दो दसक से चल रहे सैन्य दमन ने हमें इस बात के लिये प्रेरित नहीं किया कि हम राज्य की प्रकृति और उसकी भूमिका पर विचार करें जो शांतिपूर्ण आन्दोलनों का दमन करता रहा है। क्या भारतीय राज्य हिंसा के सहारे शान्तिपूर्ण आन्दोलनों को कुचल कर निरकंुश सत्ता का केन्द्र बना रहना चाहता है।
भारत सरकार में सर्वोच्च प्रशासनिक अधिकारी रहे डा. ब्रह्मदेव शर्मा कहते हैं-चींटी पर यदि पांव रखोगे तो क्या वह छटपटाए या डंक भी न मारे। आखिर आत्मरक्षा का अधिकार तो आपका आई.पी.सी/सी.आर.पी.सी कानून भी देता है। आज आदिवासी अपने संसाधनों की लूट के खिलाफ संघर्ष कर रहे हैं। जब आप शान्तिपूर्ण संघर्ष को कुचलने की कोशिश करेंगे तो वे भी प्रतिक्रिया करेंगे और यह हर जीव का नैसर्गिक अधिकार है। एक बात यह भी महत्वपूर्ण है कि हिंसा के साधनों पर जब तक राज्य का एकाधिकार बना रहेगा और राज्य एकतरफा हिंसा व शस्त्रों के बलबूते जनका का दमन करती रहेगी तो जन विद्रोह भी खड़े होंगे और उसे रोक पाना सम्भव न होगा।
हेम पाण्डेय बेहद कम समय में जनपक्षीय पत्रकारिता के पैरोकार के रूप में उभर रहे हैं। मैंने भी उनके एक-दो प्रकाशित लेख पढ़े हैं। उसमें वंचित समुदाय आदिवासियों व उनके हक के लिये विभिन्न मुद्दों पर रिर्पोट व फीचर नुमा उनके लेख हैं। कहीं से भी मुझे हेम पाण्डेय के लेख में माओवाद या आंतकवाद का गन्ध नहीं मिला। हां वे दबे जुबान को आवाज देने के काम में जरूर लगे थे। लेकिन अभी उनकी कलम परवान चढ़ती उसके पहले ही उसे खत्म कर दिया गया। हमें सोचना होगा कि हम लोकतंत्रा को निरंकुश राजसत्ता के हवाले ही गिरवी रहने देंगे या विचार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिये संगठित संघर्ष करेंगे। हेम को श्रद्धांजलि देने की एक सार्थक परम्परा को भी स्थापित करना होगा।

Sunday, June 26, 2011

कैसे खत्म हो भ्रष्टाचार

डा. ए. के. अरुण
महत्वाकांक्षा व्यक्ति और उसके विकास के लिये जरूरी है लेकिन समाज कल्याण अथवा देष सेवा के नाम पर निजी महत्व को अहमियत देना अच्छे कार्य की श्रेणी में आएगा या नहीं इस पर पर लोग विचार करें लेकिन मेरी नजर में निजी महत्व के लिये समाज सेवा और देषभक्ति के भी उतने ही खतरे हैं, जितना भ्रष्टाचार के। भ्रष्टाचार उन्मूलन के नाम पर लोकतंत्र को दरकिनार करना तो और भी घातक है। पहले अन्ना बनाम सरकार और अब अन्ना बनाम बाबा का प्रहसन आम लोगों को न तो अटपटा लग रहा है और न ही अप्रत्याषित। इस लेख को लिखने से पहले मैंने देष के अलग-अलग हिस्सों में रह रहे कुछ लेखक, चिन्तक मित्रों से उनकी प्रतिक्रिया जानी तो पता चला कि लोग अन्ना और बाबा के आन्दोलन में षुरू से ही फर्क देख रहे हैं। बाबा के पास पिछले दो-तीन वर्षों में बने लाखों लोगों की नगदी सदस्यता है तो अन्ना के पास उनके व्यक्तित्व, मीडिया प्रचार और भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम से जुड़े वे लोग जिसे मीडिया ने सिविल सोसाइटी का नाम दे दिया है।
अपने देष भारत के बारे में कहा जाता है कि यह विविधताओं से भरा एक लोकतंात्रिक देष है। इसकी अपनी कुछ विडम्बनाएं भी हैं। कहते हैं कि भारत में विचारधाराओं के इतने रंग हैं कि वह किसी भी मुद्दे पर कभी एक हो ही नहीं सकता। वैसे भी यहां लोकतंत्र की जड़ें इतनी गहरी हैं कि यहां फासीवासद ज्यादा टिक नहीं सकता। यहां के लोग लोकतंत्र में थोड़ा भ्रष्टाचार तो सह सकते हैं लेकिन फासीवाद को कतई बरदाष्त नहीं कर सकते। इसलिये बाबा जब जब सेक्युलर दिखते हैं तो उनके साथ एक बड़ी जमात जुड़ती चली जाती है लेकिन जैसे ही उनके बोल और आचरण में साम्प्रदायिकता की बू आने लगती है तो कई लोग उनसे छिटकने भी लगते हैं। काले धन और भ्रष्टाचार से केवल बाबा रामदेव या अन्ना हजारे ही दुखी नहीं हैं बल्कि पूरा देष इस जहरीले दंष से त्रस्त है। इसीलिये जब भी भ्रष्टाचार मुद्दा बनता है तो पूरे देष से समर्थन के हाथ उठने लगते हैं और साथ में यह उम्मीद भी बढ़ने लगती है कि अन्ना हो या बाबा कोई तो इस देष को भ्रष्टाचार के कोढ़ से मुक्ति दिलाए।
अन्ना के अतीत और बाबा के वर्तमान दोनों पर कथित कड़े अनुषासन का असर देख जा सकता है। भ्रष्टाचारियों को ‘‘कड़ा दंड दो’’ एवं उसे ‘‘सरे आम फांसी’’ पर लटका दो जैसी गर्जना से हमारे दोनों भ्रष्टाचार विरोधी संत बड़े आक्रामक नजर आते हैं लेकिन भारत में यहां की सहिष्णुता, धर्मनिरपेक्षता एवं अहिंसा के मूल्यों को आधार बना कर भारत में सामाजिक बुराईयों और गुलामी से लड़ने वाले हमारे पूर्व सन्तों के रास्ते को छोड़कर ये तालिबानी तौर-तरीकों से भ्रष्टाचार से लड़ने की अजीब स्थिति में फंस गए दिखाई देते हैं। षायद इसीलिये भ्रष्टाचार से लड़ते-लड़ते ये आपस में भी लड़ने लग जाते हैं।
अन्ना और बाबा के भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम से षुरु में सरकार आतंकित थी लेकिन अब सरकार के चेहरे चमकते नजर आ रहे हैं। जन लोकपाल विधेयक पर सहमति बनाने के लिये बनी समिति की 30 मई की बैठक के बाद जब सरकारी-गैर सरकारी दोनों पक्ष बाहर निकले तो कपिल सिब्बल तेजी से आगे चल रहे थे लेकिन जब मीडिया ने फोटो के लिये टोका तो उन्होंने अपनी चाल धीमी की और अन्ना के साथ हो लिये। वैसे भी अन्ना-बाबा विवाद के बाद कपिल सिब्बल के चेहरे ज्यादा खिले दिख रहे हैंए इसीलिये उन्होंने 30 जून की समय सीमा के बावजूद बीच में ही ब्रिटेन की यात्रा निर्धारित कर ली थी। हालांकि प्रधानमंत्री ने उनकी विदेष यात्रा निरस्त कर दी है। इधर बाबा पर भी अपना सत्याग्रह रोक देने का दबाव है लेकिन बाबा हर हाल में सत्याग्रह करने की घोषणा पर दृढ़ता से कायम हैं।
अन्ना-बाबा और सरकार के इस नूरा-कुष्ती में भ्रष्टाचार की पौ-बारह है। विगत 30 मई की बैठक में कई अहम मुद्दों पर जो मतभेद दिखे और उस पर बाबा ने जो मिर्ची लगाई उसके बाद तो आम लोगों में यह अन्देषा स्पष्ट घर कर गया है कि लोकपाल अब खटाई में पड़ता नजर आ रहा है। जन्तर मन्तर पर अन्ना के अनषन से जब सरकार की अंतड़ी सूखने लगी थी और आनन-फानन में सरकार ने सिविल सोसाईटी के ‘‘जन लोकपाल’’ को मान लेने का नाटक किया था तभी कई आन्दोलनकारी लोग इस पर आषंका व्यक्त करने लगे थे कि कभी न कभी सरकार ऐसा पच्चड़ फसाएगी कि लोकपाल की हवा निकल जाएगी। अब यह आषंका सच लगने लगी है। प्रधानमंत्री और न्यायपालिका को लोकपाल के दायरे में लाने का प्रस्ताव कोई नया नहीं है फिर भी मामला यहीं फंसा दिखता है। वास्तव में सरकार लोकपाल के पक्ष में ही नहीं है क्योंकि उनकी अपनी पुरानी जांच एजेन्सियाँ जैसे सी.बी.सी., सी.बी.आई. आदि का भला क्या औचित्य रह जाएगा?
आधुनिक मानव जीवन में भ्रष्टाचार पष्चिमी समाज की देन है। वर्षों पहले स्वीडन के जाने-माने अर्थषास्त्री एवं नोबेल पुरस्कार विजेता गुन्नार मिर्डल ने एक किताब लिखी थी ‘‘एषियन ड्रामा’’। इसमें एक अध्याय भ्रष्टाचार पर था। इस पुस्तक में वे एषिया में फैले भ्रष्टाचार को यहाँ की परम्परा का हिस्सा बताते हैं लेकिन अपनी इसी पुस्तक में वे यह भी स्वीकार करते हैं कि योरोप के देषों में काफी पहले इस पर काबू पा लिया गया था। मिर्डल अपनी पुस्तक में भ्रष्टाचार के समाधान का कोई उपाय तो नहीं सुझा पाते लेकिन वे इसे मानवीय समाज की एक मौलिक समस्या का दर्जा अवष्य देते हैं। वास्तव में भ्रष्टाचार का कारण न तो व्यक्ति होता है और न ही विकास। भ्रष्टाचार तो व्यवस्था की उपज है। यदि विकास के ढांचे में भ्रष्टाचार का बढ़ना अनिवार्य है तो वह विकास है ही नहीं।
मनुष्य स्वभाव की विचित्रता मे बुराईयां भी हैं, कमजोरियां भी हैं। इसका असर समाज पर भी पड़ता है। इस पर नियंत्रण के लिये सभ्यता में धर्म, संस्कृति, राज्य व्यवस्था आदि की उत्पत्ति हुई। फिर भी यदि इन बुराइयों पर नियंत्रण नहीं हो पाया तो धर्म, संस्कृति, राज्यए अर्थव्यवस्था सब पर प्रष्न चिन्ह स्वाभाविक है। हाँ, इन संस्थाओं में यदि पारदर्षिता, ईमानदारी, त्याग और सेवा की भावना है तो समाज में भ्रष्टाचार नियंत्रित रहेगा। आजकल भ्रष्टाचार की प्रमुख वजह उपभोक्तावाद और बाजारवाद भी है। बाजार को खोलकर या छूट देकर भ्रष्टाचार पर लगाम नहीं कसा जा सकता। चाहे लेाकपाल हो या जन लोकपाल बाजार और उपभोक्तावाद पर नियंत्रण उसके बस में नहीं है। हमें यह भी समझना होगा कि ‘‘बड़ा’’ और ‘‘छोटा’’ भ्रष्टाचार दोनों एक जैसे नहीं होते। आम लोगों को यही बताया जाता है कि छोटा चोर और बड़ा चोर दोनों एक हैं। कानून में भी ये दोनों एक नहीं है। भ्रष्टाचार की जिस घटना से राज्य और समाज को ज्यादा हानि पहुंचती है उसे अक्षम्य अपराध माना जाना चाहिये। सत्ता में प्रतिष्ठित व्यक्तियों का भ्रष्टाचार ज्यादा हानिकारक होता है। रक्षक का भक्षक होना ज्यादा घातक है और इसकी सजा कठोर से कठोर होनी चाहिये। सर्वोच्च पदों पर प्रतिष्ठित व्यक्तियों के गलत तौर तरीकों को नीचे वाले या आम लोग सहज ढंग से अपनाते हैं। इसलिये नीचे के स्तर पर बैठे लोगों का भ्रष्टाचार अपेक्षाकृत कम घातक होगा। इस आपेक्षिक दृष्टि को बैगेर अपनाए हम भ्रष्टाचार की जड़ तक नहीं पहुंच पाएंगे। डॉ. राममनोहर लोहिया ने 1962 में यह सवाल उठाया था कि प्रधानमंत्री पर इतना अधिक तामझाम, फिजूल खर्च क्यों होता है? तब शायद यह सवाल डॉ. लोहिया के लिये ही मखौल बन गया था लेकिन आज यही सवाल भ्रष्टाचार का रूप बन गया है। प्रशासन और सरकार में शीर्ष पर बैठे लोगों के शाहखर्ची, भोग विलाश को आप भ्रष्टाचार नहीं तो और क्या कहेंगे?
भ्रष्टाचार भारत में मौजूद व्यवस्था का एक अंग है। ऐसे नियम-कायदे बने हुए हैं कि भ्रष्टाचार पनपेगा ही। आज प्रशासन में सुधार करना राजनीति का मुख्य मुद्दा नहीं है। वैसे भी भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन में शहरी लोग ज्यादा दिलचस्पी लेते हैं, इसलिये उनमें भ्रष्टाचार की इस बुनियाद की समझ दिखाई नहीं पड़ती।जाहिर है कि जब तक संपत्ति और सत्ता का गठजोड़ और केन्द्रीकरण रहेगा तथा जहां मुट्ठी भर लोग अपने फैसले से किसी को भी अमीर और किसी को भी गरीब बनाते रहेंगे तब तक समाज में घोर गैरबराबरी रहेगी और भ्रष्टाचार भी रहेगा। भ्रष्टाचार का उन्मूलन एक समतामूलक समाज की स्थापना के लिए बेहद जरूरी है। और भ्रष्टाचार के उन्मूलन के लिए एक व्यापक जन आंदोलन जरूरी है।
प्रत्येक क्रांति या आंदोलन कुछ बुनियादी मूल्यों के इर्द-गिर्द होते हैं। इन्हीं मूल्यों से प्रेरित होकर लोग समाज में व्याप्त बुराईयों से लड़ते हैं और बदलाव की पहल करते हैं लेकिन जहां भ्रष्टाचार में एक बड़ा वर्ग स्वयं लिप्त हो वहां भ्रष्टाचार खिलाफ असली लड़ाई खड़ा होने में थोड़ा वक्त लग सकता है। क्रांतिकारी लोगों और समूहों को इसकी व्यापक तैयारी करनी पड़ेगी।
आजकल कई प्रदेशों में विकास पर बहुत जोर है। गुजरात और बिहार में तो विकास के नए मॉडल की चर्चा है लेकिन वहीं जब आम लोगों के बीच जाएंगे तो उस (विकास?) की हकीकत का पता चल सकता है। तो यह स्पष्ट है कि भ्रष्टाचार का उन्मूलन एक समतामूलक समाज बनाने के आंदोलन के क्रम में ही हो सकता है, जहां समाज के ढांचे को बदलने के राष्ट्रव्यापी आंदोलन के संदर्भ में स्थानीय तौर से भ्रष्टाचार के संस्थागत बिन्दुओं पर भी हमला हो सके। इसके बिना भ्रष्टाचार को रोकने के प्रयास विफलताओं और हताशा में ही बदलते रहेंगे।

Saturday, June 25, 2011

सच्चे सत्याग्रह के मायने

डा. ए.के. अरुण
‘‘काला धन’’ और ‘‘भ्रष्टाचार’’ के मुद्दे पर नौ दिन चले बाबा रामदेव के नाटकीय आन्दोलन ने ‘सत्याग्रह’ पर एक नयी बहस छेड़ दी है। कथित देशभक्ति और ईमानदारी के दंभ में डूबे बाबा ने सत्याग्रह को जिस तरीके से पुनः परिभाषित करने की कोशिश की उससे ‘सत्याग्रह’ के नाम पर ही बट्टा लग गया है। ‘‘सत्याग्रह’’ को नये अन्दाज में लोगों ने राजकुमार हिरानी की फिल्म ‘‘लगे रहो मुन्ना भाई’’ में भी देखा था। अब बाबा रामदेव के इस सत्याग्रह ने तो महात्मा गांधी के ब्रह्मास्त्र कहे जाने वाले ‘‘अनसन सत्याग्रह’’ की तो बाट ही लगा दी।
महात्मा गांधी ने सत्याग्रह को ‘‘निष्किृय प्रतिरोध’’ की संज्ञा दी थी। वे कहते थे कि ‘‘यह एक चौमुंहा खड्ग की तरह है। यह एक बूंद भी रक्त बहाए बगैर दूरगामी परिणाम देता है। यह कठोर से कठोर हृदय को भी पिघला सकता है। यह दुर्बल मनुष्य का शस्त्र नहीं हैं।’’
महात्मा की एक प्रसिद्ध और प्रमाणिक पुस्तक हिन्द स्वराज में जब पाठक उनसे पूछता है कि ‘‘आप जिस आत्मशक्ति और सत्य की बात कर रहेे हैं उसकी सफलता के बारे में कोई ऐतिहासिक प्रमाण आपके पास हैं?’’ तो गांधी उत्तर में तुलसी दास के रामचरित मानस से एक दोहा उदृत करते हैं-
‘‘दया धर्म को मूल है, देह मूल अभिमान
तुलसी दया न छोड़िये, जब लग घट में प्राण।’’
वे कहते हैं कि इतिहास केवल युद्धों का ही नहीं सृष्टि और निर्माण का भी है। यदि दुनिया में केवल युद्ध ही हुआ होता तो दुनिया कब की खत्म हो गई होती और आज एक भी व्यक्ति जीवित नहीं बचता।
गांधी ने ‘निष्किृय प्रतिरोध’’ के प्रतीक के रूप में यीशु, डेनियल, क्रेमर, लेटिमर, रिडली आदि का उदाहरण देते हुए लिखा है कि इन लोगां ने सत्याग्रह करते हुए मृत्यु को वरण किया लेकिन अन्याय के सामने झुके नही। ऐसे ही सुकरात ने किया। टाल्सटाय ने भी रूस में जारों के खिलाफ सत्याग्रह किया और अन्ततः सत्य को स्थापित किया। गान्धी ने सत्याग्रह को ‘‘सविनय अवज्ञा’’ की संज्ञा दी। उन्होंने लिखा है कि अवज्ञा सविनय तभी मानी जा सकती है जब वह सच्चे हृदय से की जाए और संयमित हो। इसमें सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि इसके पीछे कोई द्वेष या घृणा की भावना न हो।
महात्मा गांधी ने 1921 में अपनी पत्रिका यंग इन्डियन में लिखा है कि सविनय अवज्ञा नागरिक का जन्मजात अधिकार है। वह अपनी आदमियत को खोए बगैर इस अधिकार को छोड़ने का साहस नहीं कर सकता। सविनय अवज्ञा से कभी अराजकता उत्पन्न नहीं होती। वह आपराधिक अवज्ञा से उत्पन्न हो सकती है। प्रत्येक राज्य आपराधिक अवज्ञा को बल पूर्वक कुचल देता है।’’
महात्मा गंधी ने अपनी आटोबायोग्राफी में भी लिखा है कि, ‘‘सत्याग्रही विवेकपूर्वक तथा स्वेछा से समाज के नियमों का पालन करता है; क्योंकि वह इसे अपना पवित्र कर्तव्य मानता है। इस क्रम में वह इस स्थिति मंें आ जाता है कि क्या उचित है और क्या अनुचित ऐसा निर्णय वह कर सके।’’ उन्होंने अपनी एक अन्य प्रसिद्ध पत्रिका हरिजन में लिखा है कि’’ सत्याग्रह की पहली अपरिहार्य पूर्व शर्त यह है कि उसमें भाग लेने वाले या सामान्य जनता की ओर से हिंसा शुरू न किये जाने की पक्की गारन्टी हो।’’
बाबा रामदेव ने अपने सत्याग्रह को राष्ट्रधर्म बताया है और कहा है कि भ्रष्टाचार करने वाले और इसे बचाने वाले दोनों राष्ट्रद्रोही हैं और राष्ट्रद्रोहियों की एक मात्र सजा है सजा-ए-मौत। लेकिन महात्मा गांधी ने सत्याग्रह की अपरिहार्य पूर्व शर्त बताई थी-अहिंसा।
सत्याग्रह के बारे में चर्चा करते हुए हमें इसके स्वरूप पर भी विमर्श करना होगा। बकौल महात्मा गांधी- ‘‘सत्याग्रह शब्द का जनक होने के नाते मैं यह स्पष्ट करने की अनुमति चाहूंगा कि इसमें प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष प्रच्छन्न या प्रकट, सभी प्रकार की हिंसा वर्जित है। इसमें मनसा, वाचा, कर्मणा हिंसा का कोई स्थान नहीं है। विरोधी को हानि पहुंचाने के विचार से उसके प्रति द्वेष भाव रखना या उससे अथवा उसके बारे में कठोर वचन बोलना सत्याग्रह को तोड़ना है।... सत्याग्रह में शालीनता है, यह कभी चोट नहीं पहुंचाता। यह क्रोध या दुर्भावना का परिणाम नहीं होना चाहिये। इसमें बतंगड़पन, अधैर्य और शोर शराबे के लिये भी कोई स्थान नहीं है। यह बाध्यता का प्रत्यक्ष विलोम है।’’ महात्मा गांधी ने आगे कहा है-‘‘सत्याग्रह का संघर्ष उसके लिये है जो भावना का दृढ़ हो, जिसमे मन में न सशंय हो और न भीरूता। सत्याग्रह हमें जीने और मरने दोनों की कला सिखाता है।’’
इन दिनों सत्याग्रह के प्रयोग हर गली नुक्कड़ पर देखे जा सकते हैं। राजनीतिक दलों स्वार्थी, पदलोलुप नेताओं और उनके भाड़े के समर्थक जब सत्याग्रह करते हैं जब इस सत्याग्रह का स्वरूप देखते बनता है। वातानुकुलित पन्डाल में पांच सितारा सत्याग्रह की झलक हम सबने पिछले कुछ महीनों में कई बार देखी है। कथित सत्याग्रह में सत्ता पक्ष और विपक्षी दल सभी शामिल रहे हैं।
महात्मा गांधी ने सत्याग्रह की संहिता का जिक्र करते हुए स्पष्ट लिखा है-जिसमें कानून का पालन करने की सहज वृति नहीं वह सत्याग्रही ही नहीं। ‘‘उन्होंने सत्याग्रह को सत्याग्रहियों का ब्रह्मास्त्र बताया है। सत्याग्रही की योग्यता का जिक्र करते हुए गांधी लिखते हैं-‘‘सत्याग्रही की सत्य में अटूट आस्था होनी चाहिये। उसे अहिंसा को अपना धर्म मानना चाहिये। उसे पवित्र जीवन व्यतीत करना चाहिए तथा अपने ध्येय की पूर्ति के लिये अपना जीवन और सम्पत्ति को न्योछावर करने के लिए सदैव तैयार करना चाहिये। उसका जीवन सादा और उच्च विचार वाला हो। उसे सदा जेल माने के लिए तैयार रहना चाहिये। उसे मृत्यु का भय न हो।’’ महात्मा ने साफ लिखा है कि सत्याग्रह में कपट, मिथ्या या किसी भी प्रकार के असत्य के लिये कोई स्थान नहीं है। गांधी ने सत्याग्रही को साफ हिदायत दी है कि सत्याग्रही को दमन से बिल्कुल नहीं डरना चाहिये।
महात्मा गांधी सत्याग्रह को आत्म बल का पर्याय बताते हैं। वे कहते हैं कि यह शस्त्रबल से भी श्रेष्ठ है। इस तर्क के पक्ष में गांधी एक सवाल करते हैं। वे पूछते हैं-‘‘तोप से सैंकड़ों को उड़ाने में साहस चाहिये या तोप से बंध कर मुस्कुराते हुए चिंदी-चिंदी होकर बिखर जाने में? असली योद्धा कौन है? वह जो मौत को अपने जिगरी दोस्त की तरह साथ लेकर घुमता है या वह जो दूसरों की मौत अपने नियंत्रण में रखता है? साहस विहीन और पुरुषत्वहीन कभी सत्याग्रही नहीं हो सकते।’’
आजादी के बाद वैश्वीकरण के दौर में सरकारों के निरकुंश व जन विरोधी होने के अनेक प्रमाण देखे जा सकते हैं। कांग्रेस हो या भाजपा, समाजवादी पार्टी हो या बसपा, दक्षिण भारत के छोटे राजनीतिक दल हों या और कोई लगभग सभी अब मूल्यृवीहिनता के पर्याय हैं। कम्पनियों और पूंजीपतियों के लिये लठैत की भूमिका निभा रहे ये सभी राजनीतिक दल जब भी सत्ता में होते हैं एक जैसा ही वर्ताव करते हैं, ऐसे में जनता का उद्वेलित होना स्वाभाविक है लेकिन सत्याग्रह की सही समझ के अभाव में सत्याग्रह के नाम पर हिंसा और प्रतिहिंसा ही अभिव्यक्त होती है। जाहिर है इससे निरकुंश सरकार की तानाशाही वृति को ही बल मिलता है। अन्याय का विरोध करने से पहले जरूरी है कि विरोध के तरीके और उसके अस्त्र, अस्त्र चलाने की तकनीक, प्रशिक्षण आदि पर ठीक से विचार हो वर्ना यह ‘‘ब्रह्मास्त्र’’ फिस्स हो जाएगा और इससे जुल्म करने वाले को ही बल मिलेगा।
लेखक जाने माने चिकित्सक एंव अहिंसावादी सामाजिक कार्यकर्ता हैं।

Thursday, April 28, 2011

क्यों उपेक्षित हैं महिलाएं?

जानी मानी फ्रेंच लेखिका ‘‘सीमोन द बोउवार’’ अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘‘द सेकेन्ड सेक्स’’ में जब कहती हैं कि ‘स्त्री पैदा नहीं होती, बल्कि बना दी जाती है’’ तो कई विद्वानों को लगता है कि यह टिप्पणी तो पुरूषों के साथ बड़ी ज्यादती है। लेकिन इस टिप्पणी के दशकों बाद भी आज समाज में महिलाओं की स्थिति इसे और पुष्ट करती है। यह बताने की जरूरत नहीं कि महिलाएं आज भी समाज में दोयम दर्जे पर हैं।
चर्चा शिक्षा की हो या रोजगार की, विकास की हो या स्वास्थ्य की लगभग सभी क्षेत्र में महिलाओं की स्थिति दोयम दर्जे की है। संयुक्त राष्ट्र संघ के भारतीय समन्वयक कार्यालय द्वारा जारी रिपोर्ट के आंकड़ों को देखें तो अधिकांश औरतें जीवन भर जरूरत से कम पोषण पाती हैं-उनमें खुन की कमी होती है और वे जिन्दगी का अधिकांश हिस्सा कुपोषित रहकर गुजारती है। आंकड़े कहते हैं कि 76 प्रतिशत मर्दो की तुलना में सिर्फ 54 प्रतिशत भारतीय औरतें साक्षर हैं। औरतें जीवन भर परिवार के भीतर और बाहर हिंसा का सामना करती हैं। पुलिस एवं क्राइम ब्यूरो के आंकड़ों के अनुसार देश में प्रत्येक 26 मिनट पर एक औरत के साथ यौन छेड़-छाड़ प्रत्येक 34 मिनट पर बलात्कार और हर 42 मीनट पर यौन उत्पीड़न होता है। प्रत्येक 43 मिनट पर एक औरत अगवा की जाती है और हर 93 मीनट पर एक औरत को मार दिया जाता है।
भारत में औरतों की जनसंख्या पर नजर डालें तो पिछली जनगणना 2001 के अनुसार देश की 103 करोड़ जनसंख्या में 49 करोड़ 60 लाख तो औरते हैं। सन् 2016 तक अनुमान है कि भारत में औरतों की संख्या 60 करोड़ 15 लाख हो जायेगी। भारत में औरतों की जनसंख्या अमरीका, कनाडा तथा रूस की सम्मिलित कुल जनसंख्या से ज्यादा है। जनसंख्या में औरतों तथा मर्दों की संख्या के अनुपात से हमें उस देश में जेन्डर समानता के स्थिति का पता चलता है। जिन समाजों में औरतों तथा मर्दों की संख्या के अनुपात से हमें उस देश में जन्डर समानता के स्थिति का पता चलता है। जिन समाजों में औरतों तथा मर्दों के साथ समान व्यवहार किया जाता है वहां औरतें मर्दों से ज्यादा जीवन जीती हैं कहते हैं कि ऐसे समाज में 100 पुरूषों के मुकाबले 103-105 स्त्रियों की उम्मीद रहती है।
भारत में स्त्री-पुरूष का अनुपात देखें तो स्थिति भिन्न है। सन् 2001 की जनगणना में प्रत्येक 1000 पुरूषों पर केवल 933 स्त्रियां थी। केरल को यदि अपवाद मान लें तो लगभग प्रत्येक राज्य में स्त्रियों की संख्या पुरूषों से कम हैं। सन् 2001 के आकड़ों में ही हरियाणा और पंजाब में प्रति व्यक्ति अच्छी आय के बावजूद 1000 पुरूषों पर क्रमश सिर्फ 861 और 874 स्त्रियां हैं अमदनी के दृष्टि से सबसे कमजोर प्रदेश उड़िसा में प्रति 1000 पुरूषों पर 972 स्त्रियां है।
केवल सरकारी आंकड़े ही औरतों की पूरी कहानी नहीं बताते। आम व्यवहार में भी औरतें दोयम दर्जे पर ही देखी जाती हैं। 1999 में किए गए एक सर्वेक्षण में यह बताया गया कि समाचार कार्यक्रमों में मर्दें की मौजुदगी मुख्य होती है। इनमें औरतों को केवल 14 प्रतिशत ही जगह मिली। 1999 में ही एक महीने तक अंग्रेजी के दो मुख्य समाचार पत्रों के विश्लेषण से मालूम हुआ कि आज भी प्रकाशन माध्यमों में औरतों को सिर्फ हाशिये पर जगह मिलती है। अनेक अखबार तथा पत्रिकाएं आज भी औरतों के मुद्दों से जुड़े लेख सिर्फ साप्ताहिक पृष्टों पर ही प्रकाशित करते हैं। मुख्य पृष्ठों पर औरतों की मौजूदगी या तो विज्ञापनों में होती है या अपराध और सामाजिक घटनाओं के समाचारों में।
आकड़ों की यह कहानी औरतों के प्रति पुरूषों के तंगनजरी को ही बयान करते हैं। आम घरों में औरतों की सेहत को भी उपेक्षित नजर से ही देखा जाता है। आबादी के विस्फोट पर काबू पाने के लिये बनाई गई विभिन्न सरकारी योजनाएं भी औरतों को राहत नहीं दे पाई, मसलन औरतों का स्वास्थ्य दिन प्रति दिन गिरता ही जा रहा है। अपने देश की स्वास्थ्य प्रणाली में औरतों की सेहत समबन्धी समस्याओं को ‘‘मातृ स्वास्थ्य’’ के अर्न्तगत रखा गया है। आमतौर पर 15 से 40 वर्ष की औरतों को जैविक रूप से कमजोर माना जाता है, क्योंकि उन्हें स्वास्थ्य समबन्धी अनेक दिक्कतों का सामना करना पड़ता है, विशेषकर महिलाओं को गर्भावस्था का अतिरिक्त जोखिम भी रहता है। यह जोखिम भारत में और भी ज्यादा है। क्योंकि भारतीय औरतों में ‘‘जच्चा मृत्यु दर’’ विकसित देशों से कहीं ज्यादा है।
आंकड़ों में देखें तो भारत में जच्चा मृत्युदर 4.6 प्रति हजार जीवित जन्म है। अर्थात प्रति 10 हजार जीवित रहे बच्चे को जन्म देते समय 46 माताओं की मृत्यु हो जाती है, जबकि कनाडा में यह दर मात्र 0.5 प्रति हजार है। भारत में औरतें पुरूषों के मुकाबले कम उम्र में ही मर जाती हैं जबकि विकसित देशों में स्थिति बिल्कुल उलटी है। हमारे देश में स्त्री-पुरूष अनुपात (प्रति हजार पुरूषों पर स्त्रियों की संख्या) भी अन्य देशों से कम है। भारतीय जनगणना के आंकड़ों के अनुसार भारत में स्त्री-पुरूष का लिंग अनुपात यदि 933ः1000 है तो रूस में 1140ः1000 तथा जापान में यह 1040ः1000 है। भारत में स्त्रियों की संख्या में गिरावट का यह सिलसिला बीते 20-25 वर्षों में शुरू हुआ है।
भारत में औरतों के खराब सेहत की कई और वजहें हैं। जैसे कुपोषण, स्वास्य सुविधाओं का अभाव, परिवार में उपेक्षा, उनकी खराब सामाजिक स्थिति, अशिक्षा, काम का दबाव आदि। भरतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद के आंकड़ों के अनुसार 27 प्रतिशत ग्रामीण लड़कों की तुलना में 52 प्रतिशत ग्रामीण लड़कियां कुपोषित या अल्पपोषित हैं। शहरी मध्यम वर्ग में यह आंकड़ा 9.8 प्रतिशत लड़कों के मुकाबले लड़कियों में 15 प्रतिशत है। परिषद के ही एक अन्य आकड़े के अनुसार पुरूष अपना 31 प्रतिशत काम निबटाने के लिए 2473 कि. कैलोरी उर्जा खर्च करता है जबकि इससे लगभग दो गुना ज्यादा 53 प्रतिशत कार्य करने के लिए स्त्रियां 2000 से भी कम कैलोरी खर्च कर पाती हैं। इसी आंकड़े के अनुसार भारत के गांवों में पुरूषों प्रति दिन 1700 कैलोरी उर्जा की तुलना में महिलाओं को 1400 कैलोरी ही मिल पाता है। महिलाएं बीमारी के बावजूद भी स्वास्थ्य सुविधाओं या उपचार का लाभ सिर्फ इस लिए नहीं ले पातीं कि उन पर घर-परिवार के काम का दबाव ज्यादा है। औरतों के बुरे सेहत की एक और मुख्य वजह उनकी खराब सामाजिक स्थिति भी है। भरतीय समाज आज भी पुरूष प्रधान समाज है।
लिंग भेद विरोधी अनेक कानूनों के बावजूद भी हमारे समाज में ‘‘स्त्री भ्रूण हत्या’’ जारी है। वैश्वीकरण के प्रभाव में अपनाई जा रही नित नयी योजनाओं में प्रकारान्तर से स्त्री/बालिका यौन शोषण बढ़ रहा है। देश में तेजी से विकसित हो रहा पर्यटन उद्योग बालिका/स्त्री शोषण को महिमामंडित कर रहा है। ‘‘खुलापन’’ के नाम पर ‘‘नंगापन’’ बढ़ रहा है। कार्पोरेट की तर्ज पर कई छोटी कम्पनियों में भी लड़की वर्कर की मांग बढ़ी है। लेकिन वहां भी नजरिया यौन शोषण ही है। कुल मिला कर स्थिति महिलाओं के उत्थान के पक्ष में कम पतन की तरफ ज्यादा है।
सन् 2000 में भारत सरकार ने राष्ट्रीय जनसंख्या नीति का एक प्रारूप तैयार किया था जिसमें सन् 2010 तक राष्ट्रीय सामाजिक जनांकिकीय लक्ष्य ;छंजपवदंस ैवबपंस क्मउवहतंचीपब हवंसद्ध में शिशु मृत्युदर/मातृ मृत्यु दर को कम करने अवयस्क बालिका विवाह को रोकने, प्रजनन और बाल स्वास्थ्य व्यवस्था को मजबूत करने, स्त्री पुरूष अनुपात में प्रमुख रूप से भारतीय चिकित्सा पद्धतियों तथा होमियोपैथी को मुख्य धारा में लाने, प्राथमिक चिकित्सा केन्द्रों पर होमियोपैथी तथा देशी चिकित्सा पद्धति के चिकित्सकों को नियुक्त करने, इन चिकित्सा पद्धतियों के चिकित्सकों से ‘‘वेयरफुट डाक्टर’’ के रूप में सेवाएं लेने आदि की योजना है। इसके साथ-साथ महिलाओं के सामाजिक राजनीतिक अधिकारों को सशक्त करने, समाज में उनके प्रति नजरिया बदलने की ज्यादा जरूरत है। उम्मीद है कि हमारा समाज संविधान में वर्जित लैगिक व सामाजिक समानता का मानसिक व व्यावहारिक रूप से स्वीकार करे ताकि आधी आबादी की वृद्धि क्षमता का सुदपयोग हो सके।

जैतापुर की ‘‘रौशनी’’ या ‘‘आग’’

पिछले साल परमाणु करार पर संसद में बहस के दौरान कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी ने अपनी तकरीर में किसान आत्महत्याओं के लिये चर्चित विदर्भ की शशिकला का जिक्र करते हुए कहा था - ‘‘शशिकला के बच्चे लालटेन की रौशनी में पढ़ने को मजबूर हैं, लेकिन परमाणु बिल पारित होने के बाद शशिकला जैसे लोगों के परिवारों को बिजली मिलेगी और इनका सशक्तिकरण होगा।‘‘ ऐसी ही एक शशिकला विधवा हमीदा जो छः बच्चों की माँ है कहती है, ‘‘अरेवा परमाणु परियोजना हमारे लिए एटम बम की तरह है।’’ आज भले ही सरकार ने जैतापुर परमाणु संयंत्र के खिलाफ व्यापक जनआक्रोश को नकार कर इस परियोजना को हरी झण्डी दिखा दी हो लेकिन अरेवा और जैतापुर के इलाके से आने वाली खबरें बता रही हैं कि वहाँ के लोगों ने किसी भी कीमत पर इस परियोजना के खिलाफ डटे रहने का संकल्प व्यक्त किया है। खबर यह भी है कि रत्नागिरी जिले के कोई 100 स्कूलों के बच्चों ने भी अरेवा परियोजना के खिलाफ दो दिनों तक ‘‘स्कूल बन्द - पढ़ाई ठप्प’’ आन्दोलन चलाया है। अरेवा की नूरेशा कहती है - ‘‘यदि यह परियोजना नहीं रुकी तो हमारे पास विदर्भ के किसानों की तरह आत्महत्या के सिवाय और कोई चारा नहीं बचेगा।’’
उल्लेखनीय है कि जैतापुर परमाणु परियोजना भारत-अमरीका परमाणु समझौता के प्रभावी होने के बाद सम्भवतः पहली परियोजना है जिस पर सरकारें अडिग हैं। इस पर अमरीका, फ्रांस और भारत सरकार का स्वार्थ दांव पर लगा है। जाहिर है जैतापुर परमाणु परियोजना को जैसे भी हो सरकार पूरा करना चाहेगी क्योंकि इस पर भविष्य की सभी परमाणु परियोजनाओं का दारोमदार है। उधर रत्नागिरी जिले के कई गांवों की महिलाएँ, बच्चे और पुरुष जगह-जगह पर धरना देते, प्रदर्शन करते दिख जाएंगे। वहाँ की दीवारों पर गेरु व रंगों से लिखे नारे रोज ब रोज ताजा किये जाते हैं - ‘‘आमचा जीव घेण्या पूर्वी या प्रकल्पाचा धूवू’’ अर्थात् इसके पहले कि यह परियोजना हमारी जान ले आओ हमीं इसकी जान ले लें।
हाल ही में जापान में आए भीषण सुनामी और इसमें ध्वस्त फुकुशिमा परमाणु बिजलीघर में विस्फोट एवं रिसते रेडिएशन का असर (जो चेरनोबिल से कहीं ज्यादा है) की स्वीकारोक्ति के बाद जहाँ जापान सरकार ने अपने यहाँ सभी परमाणु परियोजनाओं पर पुर्नविचार का निर्णय लिया है वहीं जापान के भारत में राजदूत अकीटाका साईकी ने महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चौहान से विगत सोमवार को मिलकर इस परमाणु परियोजना को जारी रखने की अपील की है। उल्लेखनीय है कि महाराष्ट्र में प्रस्तावित कई परमाणु बिजलीघर एवं अन्य विकास योजनाओं में जापान का काफी कुछ दांव पर लगा है। फुकुशिमा हादसे के बाद केन्द्रीय पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने जहाँ कई बड़ी परमाणु बिजली परियोजनाओं पर ‘‘विराम’’ की बात कही थी वहीं आज ‘‘विराम नहीं’’ कहते नजर आ रहे हैं। जयराम रमेश कहते हैं कि परियोजना पूरी हो जाने के बाद जब 2019 में ये रियेक्टर शुरू हो जाएंगे तब पर्यावरण पर इसके व्यापक प्रभाव का अध्ययन किया जाएगा।
जैतापुर व अन्य परमाणु ऊर्जा परियोजनाओं पर चर्चा के बहाने आइये यह भी जान लें कि जैतापुर परमाणु बिजली परियोजना का आर्थिक गणित क्या कहता है। दरअसल जैतापुर प्रोजेक्ट सबसे मंहगे योरेपीय प्रसेराइज्ड रिएक्टर्स (ई.पी.आर.) पर आधारित है। यहां 1650 मेगावाट के जो छः रियेक्टर लगने वाले हैं उनमें से प्रत्येक की कीमत तकरीबन 7 अरब डालर है। इस हिसाब से यहां की लागत प्रति मेगावाट 21 करोड़ रुपये बैठेगी। इसमें ईंधन और संयंत्र के रख-रखाव की कीमत शामिल नहीं है। यह तो सीधे तौर पर होने वाले खर्च हैं लेकिन इसके परोक्ष खर्चे जो इससे कम नहीं होंगे उसकी तो बात ही न करें। अन्य उपलब्ध विकल्पों से प्राप्त बिजली की कीमत और जैतापुर से पैदा होने वाली बिजली की केवल लागत पूंजी पर आधारित कीमत की तुलना करें तो यह 8 से 9 करोड़ रुपये प्रति मेगावाट ज्यादा बैठते हैं। जैतापुर परमाणु विद्युत की कीमत के बारे में अब तक का अनुमान कहता है कि यह बिजली 5 से 8 रुपये प्रति यूनिट मंहगी होगी। आज की कीमतों में यह (लगभग 2.50 रुपये प्रति यूनिट) कोई तीन गुना ज्यादा है।
परमाणु बिजली के पैरोकारों को क्या कहें। क्या उन्हें पता नहीं कि हिरोशिमा और चेरनोबिल आज भी झुलस रहे हैं? हाल में जापान में आए सुनामी और वहाँ के सर्वाधिक सुरक्षित फुकुशिमा परमाणु संयंत्र के टूट कर बिखर जाने के सबक के बाद भी हम ‘‘रौशनी’’ और ‘‘आग’’ में फर्क नहीं कर पा रहे हैं। 6 अगस्त 1945 के परमाणु विध्वंस के बाद मशहूर जापानी कवि शुन्तारो ताकीनाबा ने लिखा था -
‘‘कोई और नहीं जो मेरी जगह मर सके, इसलिये मुझे ही मरना चाहिये...’’
रत्नागिरी में वहाँ के एक चिकित्सक एवं सामाजिक कार्यकर्त्ता डा. विवेक भिड़े कहते हैं - ‘‘रत्नागिरी तो पहले से ही विकास (?) की मार झेल रहा है। थर्मल पावर प्लान्ट, रसायन उद्योग और वैध-अवैध खनन से इतना प्रदूषण हो रहा है कि यहां जिन्दगी नरक से भी बदतर है। अब इस परमाणु परियोजना ने तो रही-सही कसर भी पूरी कर दी।’’ भारत के जाने माने परमाणु वैज्ञानिक एवं परमाणु ऊर्जा नियामक बोर्ड (ए.ई.आर.बी.) के पूर्व अध्यक्ष ए. गोपालकृष्णन कहते हैं,-‘‘पूरी दुनिया में अभी तक कहीं भी इस ई.पी.आर. तकनीक के रियेक्टर का निर्माण नहीं हुआ है। अब तक इसे जहां भी मंजूरी दी गई है वहां भी इसका काम पूरा नहीं हुआ है। अरेवा ई.पी.आर. परियोजना के तहत फिनलैण्ड और फ्रांस में जो निर्माण कार्य हो रहा था उसमें भी काफी विलंब हो चुका है। फ्रांस सरकार द्वारा इस बाबत कराई गई जांच में यह पाया गया है कि यह देरी इस परियोजना की डिजाइन की गम्भीर गड़बड़ियों और सुरक्षा सम्बन्धी अनसुलझे सवालों के कारण हो रही है।’’
जैतापुर के लोगों का गुस्सा इसलिए भी है कि प्रदेश सरकार के ‘‘एनवायरनमेन्ट इम्पैक्ट एसेसमेन्ट (ई.आई.ए.) ने प्रभावित इलाके को बंजर भूमि के तौर पर घोषित किया है। विडम्बना यह है कि महाराष्ट्र सरकार के रिकार्ड में रत्नागिरी जिले को बागवानी जिले का दर्जा प्राप्त है। यह इलाका अलफासों आम के साथ साथ काजू, नारियल, चीकू, कोकम, सुपारी जैसे महत्वपूर्ण फल उत्पादों के इलाके के रूप में जाना जाता है। मजे की बात यह भी कि प्रस्तावित परियोजना स्थल तथा इसके आसपास का इलाका महाराष्ट्र सरकार द्वारा एग्रो इकोनोमिक जोन और टूरिस्ट जोन के बतौर भी घोषित है। यहां जो जमीन कृषि लायक नहीं है वह पशुओं के चारागाह के तौर पर इस्तेमाल होता है। रत्नागिरी क्षेत्र विशाल मैंग्रोव से भी समृद्ध है लेकिन एनवायरमेन्ट इम्पैक्ट एसेसमेन्ट में यह इलाका 70 फीसद बजंर घोषित किया गया है। जाहिर है, परियोजना की अनिवार्यता सरकार की आंख बन्द कर देती है। शायद इसीलिये पर्यावरण मंत्री को भी अपनी जबान बदलनी पड़ती है।
एक बात और जहां परमाणु परियोजना स्थापित होनी है उस संकरी खाड़ी के दूसरे तट पर समुद्र से सटा एक गाँव है - साखरी नाटे। यह गाँव 5000 मछुआरों का गाँव है। ये मछुआरे अलग से आतंकित हैं क्योंकि परमाणु बिजली घर के गर्म व रेडियेशन युक्त पानी से यहां की मछलियों और जीव जन्तुओं के नष्ट होने, इससे उनकी जिन्दगी खत्म हो जाने का खतरा जो है। यह जानना भी दिलचस्प है कि यह गाँव जापान, योरोप और अन्य बड़े देशों को बड़ी मात्रा में मछली निर्यात करता है। जानकार बताते हैं कि इस परियोजना से यहाँ के साखरी नाटे गाँव के अलावा अन्य 10-12 गाँव भी उजड़ जाएंगे।
जैतापुर परमाणु परियोजना से प्रभावित गाँव व लोगों में अभी तक मात्र 112 लोगों ने मुआवजा लिया है। ये भी वे लोग हैं जो अनुपस्थित भूस्वामी हैं और इनका जमीन से सीधा कोई सम्बन्ध नहीं है। यहाँ की जमीन का मुआवजा 11200 रुपये प्रति एकड़ तय किया गया है। जिसे ग्रामीण ‘‘तुच्छ’’ बताते हैं। हापुस आम के पेड़ जिसकी उम्र 100 साल होती है, की कीमत कौड़ियों जैसी लगाई गई है। इन सभी तथ्यों और स्थितियों में वहाँ के लोगों ने लगभग सभी दीवारों पर एक नारा लिख रखा है -
‘‘जो आमचा आड आला तो सौ प्रतिशत गेला ‘‘यानि जो भी हमारे रास्ते मे आएगा वह निश्चित तौर पर जाएगा। बहरहाल जैतापुर और वहाँ के लोगों की नियति क्या होगी फिलहाल कह नहीं सकता, हाँ सरकार ने तो तय कर लिया है - जैतापुर परियोजना बनके रहेगी।

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