Thursday, April 26, 2012

क्यों नहीं खत्म हो रहा है मलेरिया ?


क्यों नहीं खत्म हो रहा है मलेरिया ?

                   मुम्बई देश की आर्थिक राजधानी है। जाहिर है विकास के नाम पर देश मुम्बई पर बहुत ज्यादा खर्च करता है। ताजा खबर यह है कि इस अति आधुनिक शहर में विगत  वर्ष जुलाई के अन्त तक मलेरिया जैसे सामान्य रोग से कोई 31 लोगों की मौत हो चुकी थीै और 17138 लोग सरकारी तौर पर मलेरिया की चपेट में थे। इसी महानगर में वर्ष 2009 में मलेरिया से 198 लोगों की मौत हो गई थी। पिछले वर्ष की तुलना में इस वर्ष अभी तक मलेरिया का प्रभाव 2.3 प्रतिशत ज्यादा है। मलेरिया के रोज बढ़ते और जटिल होते मामले बार-बार हमें भविष्य के भयावह खतरे का अहसास करा रहे हैं। हालात यह है कि इस साधारण और नियंत्रित किये जा सकने वाले (प्लाजमोडियम) परजीवी से होने वाला बुखार जानलेवा तो है ही अब लाइजाज होने की कगार पर है। लेकिन समुदाय और सरकार अभी भी इसे गम्भीरता से नहीं ले रहे हैं।
                 18वीं शताब्दी में फ्रांस के एक सैन्य चिकित्सकलेरेरानने इस खतरनाक मलेरिया परजीवी को उत्तरी अमरीका के अल्जीरिया प्रान्त में ढूंढा था। तबसे यह परजीवी रोकथाम के सभी कथित प्रयासों को ढेंगा दिखाता दिन प्रतिदिन मच्छड़ से शेर होता जा रहा है। जैव वैज्ञानिक नोराल्ड रोस ने 1897 में जब यह पता लगाया कि एनोफेलिज नामक मच्छड़ मलेरिया परजीवी को फैलाने के लिए जिम्मेदार है तब से मलेरिया बुखार चर्चा में है। इन मच्छरों को मारने या नियंत्रित करने के लिये स्वीस वैज्ञानिक पॉल मूलर द्वारा आविष्कृत डी.डी.टी. अब प्रभावहीन है जबकि मूलर को उनके इस खोज के लिये नोबेल पुरस्कार तक मिल चुका है। संक्षेप में कहें तो मलेरिया उन्मूलन के अब तक के सभी कथित वैज्ञानिक उपाय बेकार सिद्ध हुए हैं। बल्कि अब और खतरनाक बेकाबू हो गया है। हालांकि विश्व स्वास्थ्य संगठन इसे सामान्य और नियंत्रित किया जा सकने वाला रोग मानता है।
                 सवाल है कि आधुनिकतम शोध, विकास और तमाम तकनीकी, गैर तकनीकी विकास के बावजूद मलेरिया नियंत्रित या खत्म क्यों नहीं हो पा रहा है? इस प्रश्न का जवाब तो स्वास्थ्य मंत्रालय के पास है ही किसी स्वयं सेवी संस्था के पास। आइये संक्षेप में यह जानने का प्रयास करते हैं कि मलेरिया नियंत्रण के लिये सरकार ने अब तक क्या-कया कदम उठाए हैं।
                भारत में सबसे पहले अप्रैल 1953 में राष्ट्रीय मलेरिया नियंत्रण कार्यक्रम (एन.एम.सी.पी.) शुरू किया गया। बताते है कि 5 वर्ष की अवधि में इस कार्यक्रम ने मलेरिया का संक्रमण 75 मिलियम से घटाकर 2 मिलियन पर ला दिया। इससे उत्साहित होकर विश्व स्वास्थ्य संगठन ने 1955 में अर्न्तराष्ट्रीय स्तर पर मलेरिया उन्मूलन कार्यक्रम (एन.एम..पी.) चलाने की योजना बनाई। 1958 मे मलेरिया के मामले 50,000 से बढ़कर 6.4 मिलियन हो गए। इतना ही नहीं अब मलेरिया के ऐसे मामले सामने गए हैं। जिसमें मलेरिया रोधी दवाएं भी प्रभावहीन हो रही हैं। इसे प्रशासनिक तकनीकी विफलता बता कर स्वास्थ्य संस्थाओं, सरकार और डब्ल्यू.एच.. ने पल्ला झाड़ लिया।
                केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय ने पुनः 1977 में मलेरिया नियंत्रण के लिये संसोधित प्लान ऑफ आपरेषन (एम.पी..) शुरू किया। थोड़े बहुत नियंत्रण के बाद इससे भी कोई खास फायदा नहीं हुआ, उलटे मलेरिया रोधी दवा ‘‘क्लोरोक्वीन’’ के हानिकारक प्रभाव ज्यादा देने जाने लगे। जी मिचलाना उल्टीए आंखो में धुंधलापन, सरदर्द जैसे साइड इफैक्ट के बाद लोग क्लोरोक्वीन से बचने लगे। मलेरिया से बचाव के लिये रोग प्रतिरोधी दवा को पांच वर्ष से कम उम्र के बच्चों को देने की योजना को भी कई कारणों से नहीं चलाया जा सका। उधर मलेरिया के मच्छड़ों को खत्म करने की बात तो दूर उसे नियंत्रित करने की योजना उपाय भी धरे के धरे रह गए। डी.डी.टी. अन्य मच्छड़ रोधी दवाओं के छिड़काव से भी मच्छड़ों को रोकना सम्भव नहीं हुआ तो इसे प्रतिबन्घित करना पड़ा। स्थिति अब ऐसी हो गई है कि तो मच्छड़ नियंत्रित हो पा रहे हैं और मलेरिया की दवा कारगर प्रभाव दे पा रही है। मसलन वैज्ञानिक शोध, विकास और कथित आर्थिक सम्पन्नता की ओर बढ़ते समाज और देश के लिये मलेरिया एक जानलेवा पहेली बनी हुई है।
                मलेरिया के उन्मूलन में केवल मच्छड़ों को मारने या नियंत्रित करने तथा बुखार की दवा को आजमाने के परिणाम दुनिया ने देख लिये हैं, लेकिन मलेरिया उन्मुलन से जुड़े दूसरे सामाजिक, सांस्कृतिक राजनीतिक आर्थिक पहलुओं पर सरकारों योजनाकारों ने कभी गौर करना भी उचित नहीं समझा। अभी भी वैज्ञानिक मच्छड़ों के जीन परिवर्तन जेसे उपायों में ही सर खपा रहे हैं। अमरीका के नेशनल इन्स्टीच्यूट ऑफ एलर्जी एण्ड इन्फेक्सियस डिजिजेस के लुई मिलर कहते हैं कि मच्छड़ों को मारने से मलेरिया खत्म नहीं होगा क्योंकि सभी मच्छड़ मलेरिया नहीं फैलाते। आण्विक जीव वैज्ञानिक भी नये ढंग की दवाएं ढूंढ रहे हैं। कहा जा रहा हे कि परजीवी को लाल रक्त कोषिकाओं से हिमोग्लोबिन सोखने से रोक कर यदि भूखा मार दिया जाए तो बात बन सकती है लेकिन इन्सानी दिमाग से भी तेज इन परजीवियों का दिमाग है जो उसे पलटकर रख देता है। बहरहाल मलेरिया परजीवी के खिलाफ विगत एक शताब्दी से जारी मुहिम ढाक के तीन पात ही सिद्ध हुए हैं। परजीवी अपने अनुवांषिक संरचना में इतनी तेजी से बदलाव कर रहा है कि धीमे शोध का कोई फायदा नहीं मिल रहा।
                 वैज्ञानिक सोंच और कार्य पर आधुनिकता तथा बाजार का इतना प्रभाव है देसी वैकल्पिक कहें जाने वाले ज्ञान को महत्व ही नहीं दिया जाता। होमियोपैथी के आविष्कारक डा. हैनिमैन एलोपैथी के बड़े चिकित्सक और जैव वैज्ञानिक थे। मलेरिया बुखार पर ही ‘‘सिनकोना’’ नामक दवा के प्रयोग के बाद उन्होंने होमियोपैथी चिकित्सा विज्ञान का श्रृजन किया। दुनिया जानती है कि मलेरिया की एलौथिक दवा क्लोरोक्वीन तो प्रभावहीन हो गई है लेकिन होमियोपैथिक दवा ‘‘सिन्कोना ऑफसिनेलिस’’ आज सवादो सौ वर्ष बाद भी उतनी ही प्रभावी है। आयुर्वेद होमियोपैथी के रोग उपचारक नियंत्रण क्षमता को कभी सरकार ने उतना अहमियत नहीं दिया जितना कि एलोपैथी को देती है। जरूरत इस बात की है कि देसी वैकल्पिक चिकित्सा पद्धतियों की वैज्ञानिकता को परख कर बिना किसी पूर्वाग्रह के उसे प्रचारित किया जाना चाहिये।
          वैश्वीकरण और उदारीकरण के बाद मलेरिया की स्थिति इस रूप में भयानक हुई है कि इसके संक्रमण और बढ़ते प्रभाव की आलोचना से बचने के लिए सरकार ने नेशनल मलेरिया कन्ट्रोल प्रोग्राम (एन.एम.सी.पी. 1953) एवं नेशनल मलेरिया उन्मूलन कार्यक्रम (एन.एम..पी. 1958) से अपना ध्यान हटा लिया है। नतीजा हुआ कि सालाना मृत्युदर में वृद्धि हो गई। हालांकि सरकारी आंकड़ों में मलेरिया संक्रमण के मामले कम हुए ऐसा बताया गया है लेकिन सालाना परजीवी मामले (.पी.आई.), सालाना फैल्सीफेरम मामले (.एफ.आई.) में गुणात्मक रूप से वृद्धि हुई है।
         वातावरण का तापक्रम बढ़ रहा है। दुनिया जानती है कि बढ़ता शहरीकरण, उद्योग धंधे, मोटर गाड़ियों का बढ़ता उपयोग, कटते जंगल, शहरों में बढ़ती आबादी, बढ़ती विलासिता आदि वैश्विक गर्मी बढ़ा रहे हैं। मच्छड़ों के फैलने के लिये ये ही तापक्रम जरूरी हैं अतः इस तथाकथित आधुनिकता के बढ़ते रहने से मच्छड़ों को नियंत्रित करवाना संभव नहीं होगा। मच्छड़ों से बचाव के कथित आधुनिक उपाय जैसे क्रीम, आलआउट, धुंआबत्ती स्प्रे आदि बेकार हैं। पारम्परिक तरीके जैसे मच्छड़दानी, सरसों के तेल का शरीर पर प्रयोग नीम की खली आदि से मच्छरों को नियंत्रित किया जा सकता है। जिसे रोके बगैर मच्छड़ों को रोकना सम्भव नहीं है। ऐसे में मलेरिया के नाम पर संसाधनों की लूट और क्षेत्रीय राजनीति तो की जा सकती है लेकिन इस जान लेबा बुखार को रोका नहीं जा सकता। अभी भी वक्त है योजनाओं में नीतिगत बदलाव लाकर आबादी को पूरे देष में फैला दिया जाए। ग्रामीण अर्थव्यवस्था को मजबूती दी जाए। बड़े बांध और अन्धाधुन षहरीकरण को रोका जाए। देसी पारम्परिक वैज्ञानिक चिकित्सा विधियों की अमूल्य विरासत को बढ़ावा दिया जाए तो मलेरिया अन्य जानलेवा रोगों को काफी हद तक सीमित संसाधनों में भी खत्म किया जा सकता है।
           विडम्बना यह है कि मलेरिया नियंत्रण और उन्मूलन के अब तक सभी सरकारी कार्यक्रमों/अभियानों की विफलता के बाद बहुराष्ट्रीय कम्पनियों (खासकर  ग्लेक्सो स्मिथक्लाईन) के सुझाव पर तथाकथित मलेरिया रोधी टीका ;ैच्थ् 66 तथा त्ज्ैएैध्।ै02द्ध का प्रचार जोर शोर से किया जा रहा है जबकि इस महंगे टीके की घोषित प्रभाव क्षमता 50 प्रतिशत से भी कम है। हालांकि कम्पनी अमरीका में इसके 70 प्रतिशत सफलता का दावा कर रही है।
                       जाहिर है मलेरिया उन्मूलन के बुनियादी सिद्धांतों को छोड़कर सरकार कम्पनियों के दबाव में बाजारू समाधान (वैक्सीन?) पर ध्यान दे रही है। इससे तो मलेरिया खत्म होगा ही मलेरिया रोगियों की संख्या में कमी आएगी। हां बाजार और कम्पनियों का मुनाफा जरूर बढ़ेगा। इसके लिये मच्छर प्रजनन की सम्भावनाओं को खत्म करना आज सरकार की प्राथमिकता में नहीं है। बड़े बांध, बड़े निर्माण, बढ़ता शहरीकरण, से बढ़ता स्लम आदि मच्छऱों के प्रजनन की मुख्य वजह हैं।

भारत में मलेरिया की स्थिति

            वर्ष         कुल    एपीआई   पी.एफ      मृत्यु

                    मामले(मिलियन में)        

            1995    2.93     3.29       1.14         1010         

            2000    2.03     2.07       1.04           932         

            2004    1.92     1.84       0.89          949         

            2005    1.82     1.68       0.81           963         

            2006    1.79     1.65       0.84         1707         

            2007    1.51     1.39       0.74         1310         

            2008    1.52     1ण्40     0.76           924                     

पी.एफ-प्लाजमोडियम फेल्सिफरम, एपीआई-वार्षिक परजीवी संक्रमण

स्रोत - भारत सरकार स्वास्थ्य मंत्रालय वार्षिक रिपोर्ट 2009


Sunday, April 8, 2012

बोझ नहीं, जीवन का विस्तार है बुढ़ापा

21वीं शताब्दी की एक विशेषता यह है कि इसमें लोगों की औसत आयु बढ़ गई हैएसाथ ही एक कालक्रम में आयु सीमा में हुए इस परिवर्तन से नयी पीढ़ी पर दबाव भी बढ़ गया है। भारत सहित दुनिया की जनसंख्या पर नजर डालें तो सन् 2000 से 2050 तक पूरी दुनिया में 60 वर्ष से ज्यादा उम्र वाले लोगों की तादाद 11 फीसद से बढ़कर 22 फीसद तक पहुंच जाएगी। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्लूएचओ) के अनुमान के अनुसार वृद्ध लोगों की आबादी 605 मिलियन(6 करोड़ 5 लाख से बढ़कर 2 बिलियन;2अरब) हो जाएगी। इन तथ्यों के आलोक में डब्लूएचओ ने इस वर्ष विश्व स्वास्थ्य दिवस का थीम ‘‘बुढ़ापा और स्वास्थ्य’’ निर्धारित किया है। इस मौके पर डब्लूएचओ के दक्षिण एशिया क्षेत्र के निदेशक डॉ. सामली प्लियाबांगचांग ने जारी अपने संदेश में कहा है कि,‘‘बुढ़ापा या उम्र का बढ़ना एक जीवनपर्यन्त तथा अवश्यंभावी प्रक्रिया है। इस प्रक्रिया में व्यक्ति का शारीरिक, मानसिक एवं सामाजिक बदलाव होता है। अब चूंकि एक बड़ी आबादी वृद्ध लोगों की है तो दुनिया भर में विभिन्न सरकारों और योजनाकारों को तदनुरूप योजनाएँ और नीतियाँ बनानी चाहिये।’’
डब्लूएचओ के अनुमानित आंकड़े के अनुसार भारत में वृद्ध लोगों की आबादी 160 मिलियन(16 करोड़) से बढ़कर सन् 2050 में 300 मिलियन (30 करोड़) 19 फीसद से भी ज्यादा आंकी गई है। बुढ़ापे पर डब्लूएचओ की गम्भीरता की वजह कुछ चौंकाने वाले आंकड़े भी हैं। जैसे 60 वर्ष की उम्र या इससे ऊपर की उम्र के लोगों में वृद्धि की रफ्तार 1980 के मुकाबले दो गुनी से भी ज्यादा है। 80 वर्ष से ज्यादा के उम्र वाले वृद्ध सन 2050 तक तीन गुना बढ़कर 395 मिलियन हो जाएंगे। अगले 5 वर्षों में ही 65 वर्ष से ज्यादा के लोगों की तादाद 5 वर्ष तक की उम्र के बच्चों की तादाद से ज्यादा होगी। सन् 2050 तक देश में 14 वर्ष तक की उम्र के बच्चों की तुलना में वृद्धों की संख्या ज्यादा होगी। और सबसे महत्वपूर्ण तथ्य यह कि अमीर देशों के लोगों की अपेक्षा निम्न अथवा मध्य आय वाले देशों में सबसे ज्यादा वृद्ध होंगें।
डब्लूएचओ की नई चिन्ताओं में दुनिया में बढ़ते वृद्धों की ज्यादा संख्या है। यहां मेरा यह आशय कतई नहीं है कि बढ़ती उम्र, बुढ़ापा अथवा अधेड़ उम्र के ज्यादा लोगों की वजह से डब्लूएचओ परेशान है। दरअसल यह मुद्दा समय से पहले चेतने और समय रहते समुचित प्रबन्धन करने का है। संगठन की मौजूदा चिंता भी इसी की कड़ी है। वैश्वीकरण के दौर में एक बात तो समान रूप से सर्वत्र देखी जा रही है कि अर्थ अथवा धन ने मानवीयता एवं संवेदना पर अपना वर्चस्व स्थापित कर लिया है। धन और सम्पत्ति के सामने सम्बन्धों व मानवता की हैसियत घटती जा रही है। ऐसे संवेदनहीन होते जा रहे समाज में यदि अधेड़ उम्र के लोगों की तादाद ज्यादा होगी तो कई मानवीय दिक्कतें भी बढ़ेंगी इसलिये इनके सामाजिक सुरक्षा, व्यक्तिगत स्वास्थ्य तथा वृद्धावस्था से जुड़े अन्य सभी पहलुओं पर समयक दृष्टि तो डालनी ही होगी। संगठन की मौजूदा चिन्ता भी यही है इसलिये इस वर्ष अपने स्थापना दिवस पर संगठन ने ‘‘बुढ़ापा एवं स्वास्थ्य’’ के थीम पर स्लोगन दिया है - श्दीर्घ जीवन के लिये अच्छा स्वास्थ्यश् (गुड हेल्थ एडस लाइफ टू इयर्स)
स्वास्थ्य की दृष्टि से यदि बुढ़ापे को देखें तो यह कई तरह से संवेदनशील उम्र है। इस दौरान यानि 50 वर्ष की उम्र के बाद शरीर में कई तरह के क्रियात्मक परिवर्तन होते हैं। जैसे इस दौरान शरीर के गुर्दे, जिगर, फेफड़ों की कार्यक्षमता में कमी आ जाती है। दांत कमजोर होने लगते हैं, आंखों की रौशनी, सुनने की क्षमता, यौन क्षमा, यादाश्त आदि कमजोर होने लगते हैं। वृद्ध होते व्यक्ति की आर्थिक स्वतंत्रता भी घटने लगती है। व्यक्ति तथा उनके सम्बन्धियों के लिये भी बुढ़ापा समस्या बन जाती है। ऐसे में बुढ़ापे से सम्बन्धित विभिन्न स्वास्थ्य एवं सामाजिक पहलुओं की विचेचना जरूरी है।
डब्लूएचओ की मौजूदा चिन्ता में केवल विकासशील देश ही नहीं विकसित देश के वृद्ध भी हैं। दोनों देशों के वृद्धों की अपनी अपनी समस्याएं हैं। विकसित देशों में जहां वृद्धों को अपेक्षाकृत आर्थिक दिक्कत कम है वहीं विकासशील देशों में वृद्धों की मुख्य समस्या आर्थिक ही है। सामाजिक सुरक्षा के अभाव में विकासशील अथवा गरीब देश के वृद्धों की स्थिति दर्दनाक है। संगठन ने दुनिया भर में देशों की सरकारों से अपील की है कि वे अपने अपने क्षेत्र में ऐसी योजनाएं बनाएं जिससे वृद्धावस्था के लोगों को जीवन बोझ न लगे।
संगठन ने वृद्धावस्था व उससे जुड़ी समस्याओं से निबटने के लिये कुछ बिन्दु सुझाए हैं। इनमें समय रहते वृद्ध होते लोगों की सामाजिक, आर्थिक सुरक्षा आदि के लिये बिन्दुवार नीतियां और कार्यप्रणाली बनाने की जरूरत है। इस पहलु से जुड़ा महत्वपूर्ण पक्ष यह है कि वृद्ध लोगों की कार्यकुशलता तथा अनुभव को उपयोग में लेने की नीति पर कई देश काम कर रहे हैं। भारत में भी वृद्ध लोगों के प्रति सकारात्मक नजरिए के लिये कई स्वयंसेवी संगठनों की ओर से अभियान चलाया जा रहा है।
बढ़ती उम्र अथवा वृद्धावस्था को लेकर पश्चिमी समाजों की अवधारणा आज भी अमानवीय और क्रूर है। भारत या भारतीय उपमहाद्वीप में वृद्धों के प्रति सकारात्मक नजरिया शुरू से रहा है। वृद्धाश्रम या ओल्ड होम की परिकल्पना मूलतः भारतीय नहीं है। पश्चिमी समाज भी अब यह महसूस कर रहा है कि ‘‘ओल्ड होम्स’’ वृद्धावस्था की समस्याओं का समाधान नहीं है। इसलिये ज्यादा वृद्धों वाले समाज को विशेष रूप से इस योजना पर काम करना पड़ेगा कि ज्यादा उम्र वाले लोग कैसे सार्थक और सुकून का जीवन जी सकें। समाज कल्याण और बाल विकास की अनेकों ऐसी योजनाएं हैं जिसमें वृद्धों को महत्वपूर्ण भूमिका के लिये आग्रह किया जा सकता है। इस प्रकार जहां वे सक्रिय और उत्पादक जीवन जी पाएंगे वहीं समाज को एक अनुभवी तथा परिपक्व सेवा मिल जाएगी।
डब्लू एच ओ के इस थीम (बुढ़ापा और स्वास्थ्य) का मतलब यह भी है कि ‘‘उम्र कोई बाधा नहीं’’ अथवा ‘‘रिटायर्ड बट नाट टायर्ड’’। दरअसल तकनीक व आधुनिक विकास ने व्यक्ति को ज्यादा उम्र तक जीने का वरदान दे दिया है। जाहिर है युवा और वृद्ध के बीच एक नया अन्तराल पैदा हुआ है। यह अन्तराल विकास की नयी इबारत लिख सकता है। आवश्यकता है कि हम पीढ़ियों और उम्रों के बीच सामंजस्य स्थापित कर सकें। बुढ़ापा बोझ तब होता है जब परिवारों में समझ और संवेदना का अभाव हो। हमें साधन और समृद्धि के साथ साथ संवेदना और प्राकृतिक सत्य को भी महत्व देना चाहिये।
आज आवश्यकता इस बात की भी है कि विश्वविद्यालयों एवं सामाजिक संस्थाओं में अलग अलग विषयों के लिये विशेष पाठ्यक्रम या व्यावहारिक हॉबी की कक्षाएं चलाई जा सकती हैं। कहते हैं कि शिक्षा का पहला दौर जीवन की तैयारी है और शिक्षा का दूसरा दौर मृत्यु की तैयारी होनी चाहिए। हम जीवन की तमाम योजनाएँ बनाते हैं लेकिन यह जानते हुए भी कि ‘‘मृत्यु निश्चित है’’, इस पर तनिक भी नहीं सोचते। यदि हमने मृत्यु का पाठ ठीक से पढ़ लिया तो यह जीवन की ही तरह सरल लगने लगेगा। फिर बुढ़ापा समस्या नहीं एक उत्सव की तरह होगा। विश्व स्वास्थ्य दिवस के बहाने यदि हम बुढ़ापे के सवालों को ठीक से समझ सके तो शायद हम बुढ़ापे की समस्या नहीं बल्कि जीवन के एक आवश्यक अंग की तरह देखेंगे और यही आज की जरूरत भी है। इसलिये बुढ़ापे को स्वास्थ्य संगठन से जोड़ने की जरूरत है। हम सबको इस अभियान में लगना चाहिये क्योंकि हम भी बुढ़ापे की तरफ धीरे धीरे बढ़ रहे हैं।

बढ़ती महामारियों के दौर में

  कोरोना वायरस के त्रासद अनुभव के बाद अब देश में एच 3 एन 2 इन्फ्लूएन्जा वायरस की चर्चा गर्म है। समाचार माध्यमों के अनुसार...