Thursday, April 28, 2011

क्यों उपेक्षित हैं महिलाएं?

जानी मानी फ्रेंच लेखिका ‘‘सीमोन द बोउवार’’ अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘‘द सेकेन्ड सेक्स’’ में जब कहती हैं कि ‘स्त्री पैदा नहीं होती, बल्कि बना दी जाती है’’ तो कई विद्वानों को लगता है कि यह टिप्पणी तो पुरूषों के साथ बड़ी ज्यादती है। लेकिन इस टिप्पणी के दशकों बाद भी आज समाज में महिलाओं की स्थिति इसे और पुष्ट करती है। यह बताने की जरूरत नहीं कि महिलाएं आज भी समाज में दोयम दर्जे पर हैं।
चर्चा शिक्षा की हो या रोजगार की, विकास की हो या स्वास्थ्य की लगभग सभी क्षेत्र में महिलाओं की स्थिति दोयम दर्जे की है। संयुक्त राष्ट्र संघ के भारतीय समन्वयक कार्यालय द्वारा जारी रिपोर्ट के आंकड़ों को देखें तो अधिकांश औरतें जीवन भर जरूरत से कम पोषण पाती हैं-उनमें खुन की कमी होती है और वे जिन्दगी का अधिकांश हिस्सा कुपोषित रहकर गुजारती है। आंकड़े कहते हैं कि 76 प्रतिशत मर्दो की तुलना में सिर्फ 54 प्रतिशत भारतीय औरतें साक्षर हैं। औरतें जीवन भर परिवार के भीतर और बाहर हिंसा का सामना करती हैं। पुलिस एवं क्राइम ब्यूरो के आंकड़ों के अनुसार देश में प्रत्येक 26 मिनट पर एक औरत के साथ यौन छेड़-छाड़ प्रत्येक 34 मिनट पर बलात्कार और हर 42 मीनट पर यौन उत्पीड़न होता है। प्रत्येक 43 मिनट पर एक औरत अगवा की जाती है और हर 93 मीनट पर एक औरत को मार दिया जाता है।
भारत में औरतों की जनसंख्या पर नजर डालें तो पिछली जनगणना 2001 के अनुसार देश की 103 करोड़ जनसंख्या में 49 करोड़ 60 लाख तो औरते हैं। सन् 2016 तक अनुमान है कि भारत में औरतों की संख्या 60 करोड़ 15 लाख हो जायेगी। भारत में औरतों की जनसंख्या अमरीका, कनाडा तथा रूस की सम्मिलित कुल जनसंख्या से ज्यादा है। जनसंख्या में औरतों तथा मर्दों की संख्या के अनुपात से हमें उस देश में जेन्डर समानता के स्थिति का पता चलता है। जिन समाजों में औरतों तथा मर्दों की संख्या के अनुपात से हमें उस देश में जन्डर समानता के स्थिति का पता चलता है। जिन समाजों में औरतों तथा मर्दों के साथ समान व्यवहार किया जाता है वहां औरतें मर्दों से ज्यादा जीवन जीती हैं कहते हैं कि ऐसे समाज में 100 पुरूषों के मुकाबले 103-105 स्त्रियों की उम्मीद रहती है।
भारत में स्त्री-पुरूष का अनुपात देखें तो स्थिति भिन्न है। सन् 2001 की जनगणना में प्रत्येक 1000 पुरूषों पर केवल 933 स्त्रियां थी। केरल को यदि अपवाद मान लें तो लगभग प्रत्येक राज्य में स्त्रियों की संख्या पुरूषों से कम हैं। सन् 2001 के आकड़ों में ही हरियाणा और पंजाब में प्रति व्यक्ति अच्छी आय के बावजूद 1000 पुरूषों पर क्रमश सिर्फ 861 और 874 स्त्रियां हैं अमदनी के दृष्टि से सबसे कमजोर प्रदेश उड़िसा में प्रति 1000 पुरूषों पर 972 स्त्रियां है।
केवल सरकारी आंकड़े ही औरतों की पूरी कहानी नहीं बताते। आम व्यवहार में भी औरतें दोयम दर्जे पर ही देखी जाती हैं। 1999 में किए गए एक सर्वेक्षण में यह बताया गया कि समाचार कार्यक्रमों में मर्दें की मौजुदगी मुख्य होती है। इनमें औरतों को केवल 14 प्रतिशत ही जगह मिली। 1999 में ही एक महीने तक अंग्रेजी के दो मुख्य समाचार पत्रों के विश्लेषण से मालूम हुआ कि आज भी प्रकाशन माध्यमों में औरतों को सिर्फ हाशिये पर जगह मिलती है। अनेक अखबार तथा पत्रिकाएं आज भी औरतों के मुद्दों से जुड़े लेख सिर्फ साप्ताहिक पृष्टों पर ही प्रकाशित करते हैं। मुख्य पृष्ठों पर औरतों की मौजूदगी या तो विज्ञापनों में होती है या अपराध और सामाजिक घटनाओं के समाचारों में।
आकड़ों की यह कहानी औरतों के प्रति पुरूषों के तंगनजरी को ही बयान करते हैं। आम घरों में औरतों की सेहत को भी उपेक्षित नजर से ही देखा जाता है। आबादी के विस्फोट पर काबू पाने के लिये बनाई गई विभिन्न सरकारी योजनाएं भी औरतों को राहत नहीं दे पाई, मसलन औरतों का स्वास्थ्य दिन प्रति दिन गिरता ही जा रहा है। अपने देश की स्वास्थ्य प्रणाली में औरतों की सेहत समबन्धी समस्याओं को ‘‘मातृ स्वास्थ्य’’ के अर्न्तगत रखा गया है। आमतौर पर 15 से 40 वर्ष की औरतों को जैविक रूप से कमजोर माना जाता है, क्योंकि उन्हें स्वास्थ्य समबन्धी अनेक दिक्कतों का सामना करना पड़ता है, विशेषकर महिलाओं को गर्भावस्था का अतिरिक्त जोखिम भी रहता है। यह जोखिम भारत में और भी ज्यादा है। क्योंकि भारतीय औरतों में ‘‘जच्चा मृत्यु दर’’ विकसित देशों से कहीं ज्यादा है।
आंकड़ों में देखें तो भारत में जच्चा मृत्युदर 4.6 प्रति हजार जीवित जन्म है। अर्थात प्रति 10 हजार जीवित रहे बच्चे को जन्म देते समय 46 माताओं की मृत्यु हो जाती है, जबकि कनाडा में यह दर मात्र 0.5 प्रति हजार है। भारत में औरतें पुरूषों के मुकाबले कम उम्र में ही मर जाती हैं जबकि विकसित देशों में स्थिति बिल्कुल उलटी है। हमारे देश में स्त्री-पुरूष अनुपात (प्रति हजार पुरूषों पर स्त्रियों की संख्या) भी अन्य देशों से कम है। भारतीय जनगणना के आंकड़ों के अनुसार भारत में स्त्री-पुरूष का लिंग अनुपात यदि 933ः1000 है तो रूस में 1140ः1000 तथा जापान में यह 1040ः1000 है। भारत में स्त्रियों की संख्या में गिरावट का यह सिलसिला बीते 20-25 वर्षों में शुरू हुआ है।
भारत में औरतों के खराब सेहत की कई और वजहें हैं। जैसे कुपोषण, स्वास्य सुविधाओं का अभाव, परिवार में उपेक्षा, उनकी खराब सामाजिक स्थिति, अशिक्षा, काम का दबाव आदि। भरतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद के आंकड़ों के अनुसार 27 प्रतिशत ग्रामीण लड़कों की तुलना में 52 प्रतिशत ग्रामीण लड़कियां कुपोषित या अल्पपोषित हैं। शहरी मध्यम वर्ग में यह आंकड़ा 9.8 प्रतिशत लड़कों के मुकाबले लड़कियों में 15 प्रतिशत है। परिषद के ही एक अन्य आकड़े के अनुसार पुरूष अपना 31 प्रतिशत काम निबटाने के लिए 2473 कि. कैलोरी उर्जा खर्च करता है जबकि इससे लगभग दो गुना ज्यादा 53 प्रतिशत कार्य करने के लिए स्त्रियां 2000 से भी कम कैलोरी खर्च कर पाती हैं। इसी आंकड़े के अनुसार भारत के गांवों में पुरूषों प्रति दिन 1700 कैलोरी उर्जा की तुलना में महिलाओं को 1400 कैलोरी ही मिल पाता है। महिलाएं बीमारी के बावजूद भी स्वास्थ्य सुविधाओं या उपचार का लाभ सिर्फ इस लिए नहीं ले पातीं कि उन पर घर-परिवार के काम का दबाव ज्यादा है। औरतों के बुरे सेहत की एक और मुख्य वजह उनकी खराब सामाजिक स्थिति भी है। भरतीय समाज आज भी पुरूष प्रधान समाज है।
लिंग भेद विरोधी अनेक कानूनों के बावजूद भी हमारे समाज में ‘‘स्त्री भ्रूण हत्या’’ जारी है। वैश्वीकरण के प्रभाव में अपनाई जा रही नित नयी योजनाओं में प्रकारान्तर से स्त्री/बालिका यौन शोषण बढ़ रहा है। देश में तेजी से विकसित हो रहा पर्यटन उद्योग बालिका/स्त्री शोषण को महिमामंडित कर रहा है। ‘‘खुलापन’’ के नाम पर ‘‘नंगापन’’ बढ़ रहा है। कार्पोरेट की तर्ज पर कई छोटी कम्पनियों में भी लड़की वर्कर की मांग बढ़ी है। लेकिन वहां भी नजरिया यौन शोषण ही है। कुल मिला कर स्थिति महिलाओं के उत्थान के पक्ष में कम पतन की तरफ ज्यादा है।
सन् 2000 में भारत सरकार ने राष्ट्रीय जनसंख्या नीति का एक प्रारूप तैयार किया था जिसमें सन् 2010 तक राष्ट्रीय सामाजिक जनांकिकीय लक्ष्य ;छंजपवदंस ैवबपंस क्मउवहतंचीपब हवंसद्ध में शिशु मृत्युदर/मातृ मृत्यु दर को कम करने अवयस्क बालिका विवाह को रोकने, प्रजनन और बाल स्वास्थ्य व्यवस्था को मजबूत करने, स्त्री पुरूष अनुपात में प्रमुख रूप से भारतीय चिकित्सा पद्धतियों तथा होमियोपैथी को मुख्य धारा में लाने, प्राथमिक चिकित्सा केन्द्रों पर होमियोपैथी तथा देशी चिकित्सा पद्धति के चिकित्सकों को नियुक्त करने, इन चिकित्सा पद्धतियों के चिकित्सकों से ‘‘वेयरफुट डाक्टर’’ के रूप में सेवाएं लेने आदि की योजना है। इसके साथ-साथ महिलाओं के सामाजिक राजनीतिक अधिकारों को सशक्त करने, समाज में उनके प्रति नजरिया बदलने की ज्यादा जरूरत है। उम्मीद है कि हमारा समाज संविधान में वर्जित लैगिक व सामाजिक समानता का मानसिक व व्यावहारिक रूप से स्वीकार करे ताकि आधी आबादी की वृद्धि क्षमता का सुदपयोग हो सके।

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