Monday, April 9, 2018

आज होमियोपैथी की जरूरत क्यों है?

10 अप्रैल 2018 को भारत में होमियापैथी के 218 साल पूरे हो चुके हैं। इस दो षताब्दी में होमियोपैथी का विकास क्रम इसे जनसेवा की कसौटी पर खरा सिद्व करता है वही  वैज्ञानिकता पर उठे सवालों ने होमियोपैथी को जनसेवा की कसौटी पर खरा सिध करने में भी अहम भूमिका निभाई है। इधर दुनिया में जन स्वास्थ्य की बढ़ती चुनौतियों और उससे निबटने में एलोपैथी की विफलता ने भी होमियोपैथी एवं अन्य देसी चिकित्सा पद्यतियों को प्रचलित होने का मौका दिया है। आजादी के 70 वर्षों में भारत में अकूत धन खर्च कर भी केवल एलोपैथी  के माध्यम से जन स्वास्थ्य को सुदृढ़ करने का सरकारी संकल्प अधूरा ही है। हाल के ढाई दषकों में खासकर उदारीकरण के षुरू होने के बाद विकास की नयी दवा ‘निजीकरण’ ने जहां कुछ लोगों के लिये समृधि के द्वार खोले हैं, वहीं एक बड़ी आबादी को और गरीबी की तरफ धकेल दिया है। विषमता बढ़ी है और आम लोग महंगे इलाज की वजह से कर्ज के जाल में फंस गए हैं। इसी पृष्ठभूमि में सस्ती एवं वैज्ञानिक चिकित्सा विकल्प के रूप में प्रचलित हुई होमियोपैथी ने चिकित्सा पर अपना एकाघिकार जमाए एलोपैथिक लाबी की नींद उड़ा दी है।
होमियोपैथी के विरोधियों का तर्क है कि यह कोई वैज्ञानिक चिकित्सा पद्यति नहीं बल्कि मिठी गोलियां या जादू की झप्पी है। चिकित्सीय भाषा में इसे ‘‘प्लेसिबो’’ कह कर खारिज किया जा रहा है। दरअसल 2005 में ब्रिटेन की एक चिकित्सा पत्रिका ‘लैन्सेट’ ने एक लेख में होमियोपैथी की वैज्ञानिकता एवं प्रभाविता पर सवाल उठाते हुए इसे ‘‘प्लेसिबो से ज्यादा कुछ भी नहीं’’ बताया था। यह तर्क दिया गया था कि वैज्ञानिक परीक्षण में होमियोपैथी की प्रभावक्षमता खरी नहीं उतरती। लैन्सेट के इस टिप्पणी ने होमियोपैथिक चिकित्सकों और वैज्ञानिकों को झकझोर दिया था। यह वो समय था जब होमियोपैथी तेजी से यूरोप में लोगों की प्रिय चिकित्सा पद्यति बनती जा रही थी। इसी दौरान विष्व स्वास्थ्य संगठन ने होमियोपैथी की महत्ता बताते हुए एक रिपोर्ट प्रकाषित की ‘‘द ट्रेडिषनल मेडिसीन इन एषिया’’। इस रिपोर्ट में होमियोपैथी की वैज्ञानिकता एवं उसके सफल प्रभावों का जीक्र था। दुनिया के स्तर पर लोकप्रिय होती इस सस्ती, सुलभ और वैज्ञानिक चिकित्सा पद्यति से एलोपैथिक लॉबी का घबड़ाना स्वाभाविक थाए मसलन होमियोपैथी पर आरोपों का प्रहार शुरू हो गया। हालांकि इसी लैन्सेट में सन् 1997 में छपे एक लेख में होमियोपैथी की खूब तारीफ की गई थी।
कहते हैं विज्ञान और तकनीक में आपसी प्रतिस्पर्धा की हद बेहद गन्दी और खतरनाक होती है। आधुनिक रोगों में होमियोपैथी की सीमाओं के बावजूद वह अपने सामने किसी दूसरी चिकित्सा पद्यति को विकसित होते नहीं देख सकती। ऐलोपैथी की इसी खीझ का षिकार होमियोपैथी के समक्ष अनेक लाइलाज व जटिल रोगों की चुनौतियां भी हैं। सन 200 7 में अमरीका में हुए नेषनल हेल्थ इन्टरव्यू सर्वे में पाया गया कि लोग तेजी से होमियोपैथिक चिकित्सा को सुरक्षित चिकित्सा विकल्प के रूप में अपना रहे हैं। उस वर्ष अमरीका में 39 लाख वयस्क तथा 9 लाख बच्चों ने होमियोपैथिक चिकित्सा ली।
होमियोपैथी एक ऐसी चिकित्सा विधि है जो षुरू से ही चर्चित रोचक और आषावादी पहलुओं के साथ विकसित हुई है। कहते हैं कि सन् 1810 में इसे जर्मन यात्रियों और मिषनरीज अपने साथ लेकर भारत आए। फिर तो इन छोटी मिठी गोलियों ने भारतीयों को लाभ पहुंचा कर अपना सिक्का जमाना षुरू कर दिया। सन् 1839 में पजाब के महाराजा रणजीत सिंह की गम्भीर बीमारी के इलाज के लिये फ्रांस के होमियोपैथिक चिकित्सक डा. जान मार्टिन होनिगेवर्गर भारत आए थे। डा. होनिगवर्गर के उपचार से महाराजा को बहुत लाभ मिला था। बाद में सन् 1849 में जब पंजाब पर सन हेनरी लारेन्स का कब्जा हुआ तब डा. होनिगवर्गर अपने देष लौट गए। सन् 1851 में एक अन्य विदेषी चिकित्सक सर जान हंटर लिट्टर ने कलकत्ता में मुफ्त होमियोपैथिक चिकित्सालय की स्थापना की। सन् 1868 में कलकत्ता से ही पहली भारतीय होमियोपैथिक पत्रिका षुरू हुई तथा 1881 में डा. पी.सी. मजुमदार एवं डा. डी.सी. राय ने कलकत्ता में भारत के प्रथम होमियोपैथिक कालेज की स्थापना की।
चौथी षताब्दी में आधुनिक चिकित्सा पद्यति के जनक हिपोक्रेट्स ने रेषनलिज्म ;तर्कवादीद्ध और होलिस्टीक ;समग्रद्ध प्रणाली का जिक्र किया था। इनमें होलिस्टीक मत को ज्यादा महत्वपूर्ण माना गया है। इसके अनुसार स्वास्थ्य एक सकारात्मक स्थिति है। विष्व स्वास्थ्य संगठन भी अब स्वास्थ्य को एक ऐसी ही स्थिति मानने लगा है। षरीर, मन और आत्मा के क्रियाकलापों के सामंजस्य को ही हम स्वास्थ्य कहते हैं। वास्तव में होमियोपैथी ही ऐसी पद्यति है जो सूक्ष्म रूप से व्यक्ति के षरीर की रोग उपचारक क्षमता को प्रेरित कर षरीर को रोग मुक्त करती है। यह साथ ही षरीर की सभी क्रियाओं को भी नियंत्रित करती है। होमियोपैथी में किसी बाहरी तत्व ;जीवाणू या विषाणुद्ध के कारण होने वाली षारीरिक क्रिया या प्रतिकृया को बीमारी न मान कर उसे बीमारी के कारण पैदा हुई अवस्था माना जाता है। होमियोपैथी में इलाज रोग के नाम पर नहीं होता, बल्कि रोगी की प्रकृति, प्रकृति, उसके सामान्य लक्षण, मानसिक स्थिति आदि का अध्ययन कर उसके लिये होमियोपैथी की एक षक्तिकृत दवा का चयन किया जाता है।
होमियापैथी के आविष्कार की कहानी भी बड़ी रोचक है। जर्मनी के एक विख्यात एलोपैथिक चिकित्सक डा. सैमुएल हैनिमैन ने चिकित्सा क्रम में यह महसूस किया कि एलोपैथिक दवा से रोगी को केवल अस्थाई लाभ ही मिलता है। अपने अध्ययन और अनुसंधान के आधार पर उन्होंने दवा को षक्तिकृत कर प्रयोग किया तो उन्हें अवांछित सफलता मिली और उन्होंने सन् 1790 में होमियोपैथी का आविश्कार किया। उन्होंने होमियोपैथी के सिद्धान्त ‘‘सिमिलिया-सिमिलिबस-क्यूरेन्टर’’ यानि ‘‘सदृष रोग की सदृष चिकित्सा’’ का प्रतिपादन किया। हालांकि इस सिद्धान्त का उल्लेख हिपोक्रेटस एवं उनके षिष्य पैरासेल्सस ने अपने ग्रन्थों में किया था लेकिन इसे व्यावहारिक रूप में सर्वप्रथम प्रस्तुत करने का श्रेय डा. हैनिमैन को जाता है। उस दौर में एलोपैथिक चिकित्सकों ने होमियोपैथिक सिद्धान्त को अपनाने का बड़ा जोखिम उठाया, क्योंकि एलोपैथिक चिकित्साकों का एक बड़ा व षक्तिशाली वर्ग इस क्रान्तिकारी सिद्धान्त का घोर विरोधी था। एक प्रसिद्ध अमरीकी एलोपैथ डा. सी. हेरिंग ने होमियोपैथी को बेकार सिद्ध करने के लिये एक शोध प्रबन्ध लिखने की जिम्मेवारी ली। वे गम्भीरता से होमियोपैथी का अध्ययन करने लगे। जो एक दूषित षव की परीक्षा के पष्चात सड़ चुकी थी। के लिये अंगुली काटने से बच गई। इस घटना के बाद उन्होंने होमियोपैथी के खिलाफ अपना षोध प्रबन्ध फेंक दिया। बाद में वे होमियोपैथी के एक बड़े स्तम्भ सिद्ध हुए। उन्होंने ‘‘रोग मुक्ति का नियम’’ भी प्रतिपादित किया। डॉ. हेरिंग ने अपनी जान जोखिम में डालकर सांप के घातक विष से होमियोपैथी की एक महत्वपूर्ण दवा ‘‘लैकेसिस’’ तैयार की जो कई गम्भीर रोगों की चिकित्सा में महत्वपूर्ण है।
होमियोपैथी को चमत्कार मानने वाले लोग यह भूल रहे हैं कि यह एक मुक्कमल उपचार की पद्धति है। आज होमियोपैथी की आलोचना के पीछे एलोपैथी और उसकी सीमा से उत्पन्न आधुनिक चिकित्सकों एवं दवा कम्पनियों की हताषा ही है। भारत ही नहीं पूरी दुनियां में होमियोपैथी तेजी से उभरती और लोगों में फैलती चिकित्सा पद्धति है। भारतीय व्यापार की प्रतिनिधि संस्था एसोचैम का आकलन है कि होमियोपैथी का कारोबार एलोपैथी के 13 प्रतिषत के मुकाबले 25 प्रतिषत की सालाना की दर से विकसित हो रहा है।
इसमें सन्देह नहीं कि होमियोपैथी में भविष्य के स्वास्थ्य चुनौतियों से निबटने की क्षमता है लेकिन संकट की गम्भीरता और रोगों की जटिलता के मद्दे नजर यह भी जरूरी है कि होमियोपैथी का गम्भीर अध्ययन हो और इसे बाजार के प्रभाव से बचाकर पीड़ित मानवता की सेवा के चिकित्सा माध्यम के रूप में प्रोत्साहित किया जाए। वैष्वीकरण के दौर में जब स्वास्थ्य और शिक्षा बाजार को सहज और सस्ती वैज्ञानिक उपचार प्रणाली का महत्व वैसे ही बढ़ जाता है। हमें यह भी सोचना होगा कि एक तार्किक चिकित्सा प्रणाली को मजबूत और जिम्मेवार बनाने के प्रयासों की बजाय वे कौन लोग हैं जो इसे झाड़ फूंक, प्लेसिबो या सफेद गोली के जुमले में बांधना चाहते हैं? यदि ये एलोपैथी की दवा और व्यापार लाबी है तो कहना होगा कि उनका स्वार्थ महंगे और बेतुके इलाज के नाम पर लूट कायम करना और भ्रम खड़ा करना है। हमें उनसे सावधान रहना होगा। आपको भी, नही ंतो आप उपचार की एक सहज, सरल, सस्ती और प्रमाणिक चिकित्सा विधि से महरूम रह जाएंगे।

Friday, April 6, 2018

बढ़ रही हैं चुनौतियाँ जन.स्वास्थ की

7अप्रैल (विश्व स्वास्थ्य दिवस) के बहाने हम यह चर्चा करना चाहते हैं कि इतनी आर्थिक उन्नति के बावजूद देश के लोगों की सहेत इतनी खराब क्यों है? वर्ष 2018 के लिए डब्लू.एच.ओ. ने विषय चुना है- ‘‘युनिवर्सल हेल्थ केयर एवरी वन, एवरी वेयर’’ अर्थात् सबके लिए स्वास्थ्य, सब जगह। इस अभियान में डब्लू.एच.ओ. पूरे वर्ष यह प्रचारित करना चाह रहा है कि ‘‘स्वास्थ्य दुनिया के प्रत्येक व्यक्ति का बुनियादी मानवाधिकार है। कहीं भी कोई भी व्यक्ति स्वास्थ्य सुविधा के अभाव में दम नहीं तोड़ना चाहिए।’’ उल्लेखनीय है कि इस वर्ष डब्लू.एच.ओ. की स्थापना को 70 वर्ष हो गए हैं और संगठन एक बार फिर से अपने वर्षों पुराने संकल्प को दुबारा दोहरा रहा है, सबके लिए स्वास्थ्य। याद रहे कि तीन दशक पूर्व भी संगठन ने सन् 2000 तक सबको स्वास्थ्य का महत्वाकांक्षी नारा दिया था लेकिन आज तो स्थिति पहले से भी ज्यादा भयानक है।
    प्रश्न यह उठता है कि आखिर ऐसे क्या बदलाव आ गए हैं जो लोगों के जान की मुसीबत बन गए हैं?बदली जीवनशैली में आराम और अनावश्यक खानपान, फास्ट फूड, साफ्ट/हार्ड ड्रिंक्स आदि ने इतनी पैठ बना ली है कि अनेक बीमारियां उत्पन्न होने लगी हैं। लोगों ने आरामपरस्त जिन्दगी के नाम पर शारीरिक श्रम और समुचित विश्राम करना बन्द कर दिया है मसलन उच्च रक्तचाप, मधुमेह, तनाव, अवसाद यहां तक कि कैंसर जैसे रोगों के मामले बढ़ रहे हैं। डब्लू एच ओ की उच्च रक्तचाप व अन्य जीवनशैली के रोगों के बढ़ते मामले को लेकर व्यक्त चिन्ता जायज है लेकिन भारत व अन्य विकासशील देशों में यह चिन्ता करना इसलिये भी बेहद जरूरी है कि कथित विकास के नाम पर बन रहे मेगा प्रोजेक्ट, बड़े बांध, रियल स्टेट, सुपर हाइवे आदि पर्यावरणीय संतुलन को बिगाड़ रहे हैं और यहां के नागरिकों को भीषण आर्थिक संकट में फंसना पड़ रहा है। वैकल्पिक आर्थिक सर्वे समूह के सालाना अध्ययन में यह बात उभरकर सामने आ रही है कि वैश्वीकरण एवं उदारीकरण की प्रक्रिया से हुआ विकास पूरी तरह असफल सिद्ध हुआ है। इसके विपरीत नतीजे के बावजूद सत्ता में बैठे लोग और सरकार इसी रास्ते पर चलते रहने की जिद में है। वैकल्पिक सर्वे समूह की ओर से जाने माने अर्थशास्त्री प्रो. कमल नयन काबरा कहते हैं, ‘‘भारत में उदारीकरण की विफलता की कहानी तो अब यहां के पूंजीपति भी कहने लगे हैं। निश्चित ही यह सब कारक आम लोगों की बीमारी को ही बढ़ा रहा है।’’
          देश में बढ़ती अमीरी के दावे के बीच एसोचैम की स्वास्थ्य पर जारी तथा ताजा रिपोर्ट भी चिन्ता पैदा करने वाली है। रिपोर्ट के अनुसार सन् 2025 तक भारत में 5.7 करोड़ लोग डायबिटीज की गिरफ्त में होंगे। इसमें 11.6 फीसदी लोग तो केवल दिल्ली में होंगे। अब यह रोग अमीर देशों की तुलना में 170 फीसदी ज्यादा विकासशील देशों में कहर बरपाएगा। इन देशों में इस रोग से प्रभावित लोगों की संख्या 8.4 करोड़ से बढ़कर 22.6 करोड़ हो जाने का अनुमान है।
   भारत में जिन रोगों को भविष्य का खतरा बताया जा रहा है उसमें डायबिटीज के अलावा कैंसर, स्ट्रोक, हृदय रोग और तनाव सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है। नेशनल कैंसर रजिस्ट्री प्रोग्राम, नई दिल्ली के आंकड़े के अनुसार भारत में कैंसर के रोगियों में 16 लाख सालाना की दर से वृद्धि हो रही है। इन रोगियों में लगभग 45 प्रतिशत रोगियों को बचाना मुश्किल रहा है। ऐसे ही कार्डियोलॉजी सोसाइटी ऑफ इंडिया का आंकड़ा है कि सन् 2020 तक 10 करोड़ हृदय रोगी भारत में होंगे, जिनमें 15 प्रतिशत को एंजियोप्लास्टी की जरूरत पड़ेगी। एसोचैम अपने रिपोर्ट में यह भी कहता है कि भारत में स्वास्थ्य पर बजट बेहद कम है। मौजूदा रोगों की चुनौतियों के मद्देनजर गैर संचारी रोगों की रोकथाम/उपचार पर अगले 5 वर्षों में भारत को 54 अरब डॉलर खर्च करने पडेंगे। एक अन्य अनुमान में यह भी बताया गया है कि वर्ष 2005 में गैर संचारी रोगों की वजह से भारत को  8.7 अरब डॉलर का नुकसान उठाना पड़ा था।
        हालांकि मौजूदा बजट 2017.18 में पहले से ज्यादा राशि देने के बावजूद जन स्वास्थ्य कार्यकर्त्ता इसे सवा अरब की आबादी वाले मुल्क के लिये ‘‘ऊंट के मुंह में जीरा’’ के बराबर मान रहे हैं। जनपक्षीय योजनाकार भी भारत के लिये एक मुकम्मल जन स्वास्थ्य नीति तथा सालाना सवा लाख करोड़ रुपये के बजट प्रावधान की बात कर रहे हैं। मौजूदा बजट में स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय को आबंटित राशि से केन्द्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्री गुलाम नबी आजाद भी खुश नहीं है। अध्ययन बताते हैं कि किसी भी मुल्क के लोगों के बेहतर स्वास्थ्य के लिये जरूरी है कि वहां जी.डी.पी. का कम से कम ढाई प्रतिशत सेहत के मामले पर खर्च हो।
        सरकारी दावे तो यह भी हैं कि देश में मलेरिया, डेंगू, चिकनगुनिया, जापानी इन्सेफ्लाइटिस, कालाजार, फैलेरिया जैसे संक्रामक रोगों पर काफी हद तक नियंत्रण कर लिया गया है।लेकिन सच तो यह है कि इन रोगों के उपचार और बचाव कार्यक्रम के बावजूद भी स्थिति अच्छी नहीं है। उक्त छः रोगों में से कालाजार और फाइलेरिया के उन्मूलन का लक्ष्य 2015 तक रखा गया है लेकिन सरकारी आंकड़े ही बता रहे हैं कि लक्ष्यपूर्ति कोसों दूर है। बल्कि इन क्षेत्रों की स्थिति अब और भयावह हो गई है।विगत वर्षों में लगभग सभी राज्यों में डेंगू की शिकायतें मिल रही हैं। सन् 2011 के दौरान डेंगू के 18,860 मामले और 169 मृत्यु की पुष्टि हुई बल्कि वर्ष 2012 के दौरान 47,029 मामले प्रकाश में आए और 242 मौत की सरकारी पुष्टि की गई। चिकनगुनिया के मामले भी वर्ष 2006 के बाद बढ़ने घटने के नाटकीय घटनाक्रम की ही गवाही देते हैं।
        अब जरा देश के स्वास्थ्य संकेतकों पर भी गौर करें। भारत में स्त्री/पुरुष सेक्स अनुपात अभी भी 898: 1000 है। वर्ष 2001 में यह 933: 1000 था। देश में 42 प्रतिशत बच्चे (5 वर्ष तक या इससे कम उम्र के) कुपोषित हैं। देश में शिशु मृत्यु दर 34 है। (यानि प्रत्येक 1000 बच्चों में 34 बच्चों की मौत हो जाती है)। एचआईवी/एड्स का हालांकि विश्वसनीय आंकड़ा मौजूद नहीं है फिर भी यहाँ 24 लाख एड्स रोगी बताए जा रहे हैं। मलेरिया, कालाजार, ट्यूबरकुलोसिस जैसे पुराने जनसंचारी रोग अब बढ़ने लगे हैं। हम देश के विकास के भ्रम में भूल जाते हैं कि गहराते अन्तरर्विरोधों की वजह से देश की लगभग 80 फीसद आबादी जैसे तैसे जीवन यापन कर रही है। इसी केन्द्र सरकार की नियुक्त डॉ. सेन गुप्ता कमेटी की रिपोर्ट गौरतलब है जिसमें 76 प्रतिशत लोगों के बारे में कहा गया है कि वे प्रतिदिन 20 रुपये या इससे भी कम में अपना गुजारा कर रहे हैं। 
               विश्व स्वास्थ्य संगठन की चिन्ता के मद्देनजर यदि बिगड़ी जीवनशैली को नियंत्रित नहीं किया गया तो आज उच्च रक्तचाप, कल्ह मधुमेह फिर आगे अवसाद व तनाव आदि महामारी बनेंगे। खाली जेब वाले 80 फीसद लोग अपने पेट की चिन्ता करेंगे या सेहत की? यह सवाल अभी से ही सर उठाने लगा है। अनावश्यक दवाओं के ढेर लग रहे हैं। देश में तथाकथित टानिकों से बाजार पटा पड़ा है। जानलेवा रोग व महामारियां जो कभी लगभग खत्म हो चुके थे फिर से सर उठा रहे हैं। पोलियो, टी.वी. मलेरिया, कालाजार जैसे आम लोगों में होने वाले रोग पहले से भी ज्यादा खतरनाक और लाइलाज हो गए हैं। ऐसे में जीवनशैली के रोगों का घातक बनना एक अलग समस्या है। स्वास्थ्य की मुकम्मल नीति बनाए बगैर इससे निबटना आसान नहीं होगा।

बढ़ती महामारियों के दौर में

  कोरोना वायरस के त्रासद अनुभव के बाद अब देश में एच 3 एन 2 इन्फ्लूएन्जा वायरस की चर्चा गर्म है। समाचार माध्यमों के अनुसार...