यों तो पहाड़ पर जीवन स्वयं में ही एक आपदा है लेकिन यदि सब कुछ सामान्य हो तो पहाड़ पर रहकर जीने वाले लोग अपने जीवन (आपदा) का प्रबन्धन करना भी बखबूी जानते हैं। अभी 18 सितम्बर को आए भूकम्प का केन्द्र सिक्किम था और इसकी तीव्रता 6.8 मापी गई। पहाड़ पर इतनी तीव्रता का भूकम्प शक्तिशाली माना जाता है और इसमें होने वाली क्षति को गम्भीर क्षति से कमतर नहीं आंका जा सकता। इस भूकम्प के तीन दिन यानि 72 घंटे बाद भी वहां के कई ऐसे इलाके और गांव हैं जहां राहत दल पहुंच भी नहीं पाया है और यहां पीने का पानी भी नही हैए अन्दाजा लगाया जा सकता है कि सुरक्षा और आपदा प्रबन्धन का हमारा तंत्र वास्तव मे कितना मजबूत और सुरक्षित है।
इस लेख को लिखे जाने तक स्थिति यह है कि केन्द्र सरकार न तो सिक्किम के भूकम्प की पूरी जानकारी इकट्ठा कर पाई है और न ही होने वाली क्षति का समुचित आकलन। मसलन दशहत और नाउम्मीदी में जीते सिक्किम के 54 लाख लोग और 450 गांव अभी भी अपने बरर्बादी पर आंसू बहा रहे हैं। इसके अलावा वे और कर भी क्या सकते हैं। सिक्किम में भूकम्प से मरने वालों की आधिकारिक संख्या 65 बताई जा रही है लेकिन गंगटोक के एक स्वयं सेवी संस्था की मानें तो मृतकों की संख्या इससे कई गुना ज्यादा है। सिक्किम में ही तैनात भारतीय सेना के जीओसी 17 माउन्टेन डिवीजन के मेजर जनरल एस.एल. नरसिम्हन ने बताया कि खराब मौसम के कारण अभी भी यहां के पश्चिम और दक्षिण जिले में सेना को पहुंचने में कठिनाई हो रही है।
यह सही है कि भूकम्प को रोक पाना इंसानोंए मशीनों और कम्प्यूटर के वश में नहीं है लेकिन आपदाओं की सूचना के बाद तो हम प्रभावशाली राहत कार्य एवं आपदा-प्रबन्धन तो कर ही सकते हैं। हमने हाल फिलहाल में कई बड़े प्राकृतिक हादसे देखे और झेले हैं लेकिन अफसोस कि हम इन आपदाओं से निबटने के लिये कोई तार्किक एवं सुलभ प्रणाली तक विकसित नहीं कर पाए हैं। वजह साफ है कि आपदा प्रबन्धन हमारी प्राथमिकता में है ही नहीं। तकनीकी तौर पर देखें तो 6.8 रिक्टर पैमाने का भूकम्प आवासीय इलाके के लिये विनाशकारी माना जाता है। पर्वतीय क्षेत्र के लिये तो यह भंयकर तबाही का मंजर होता है लेकिन प्रशासनिक एवं राजनीतिक रूप से इस भूकम्प ने हमारे नीति निर्धारकों का ध्यान ज्यादा आकर्षित नहीं किया है। तभी तो अखबारों और समाचार माध्यमो ंकी सक्रियता के बावजूद प्रशासनिक एवं राजनीति सक्रियता उतनी नहीं दिखती। नई दिल्ली और इसके आस-पास का नागरिक समाज की उतना चिन्तित नहीं है जितना कि वह अन्य इलाके के लिये होता है।
सिक्किम भूकम्प ने कई सवाल खड़े किये हैं। इसमें एक अहम सवाल तो यह है कि विविधताओं का देश भारत अपने सभी प्रवेशों और नागरिकों के प्रति क्या अपनी समयक जिम्मेवारी का निर्वाह कर पा रहा है? क्या वह अपने पर्वतीय क्षेत्र के नागरिकों को आम नागरिकों की तरह की सुविधा एवं व्यवस्था दे पा रहा है? क्या राष्ट्रीय राजधानी अपने संुदूर पर्वतीय क्षेत्र के लोगों से उतना ही गम्भीर रूप से जुड़ा है जितना कि अन्य क्षेत्रों के लोागें से। क्या पर्वतीय इलाके में रहने वाले लोग अपने देश और शासक वर्ग से उतना ही जीवंत सम्बन्ध रखते हैं जितना की अन्य लोग? ऐसे ही एक और कड़वा सवाल बार-बार खड़ा होता है कि पर्वतीय प्रदेशों के प्रति जब हमारी सरकार इतनी उदासीन है तो वे क्यों न आत्मनिर्णय की मांग करें? गाहे बगाहे ऐसे सवाल खड़े भी होते हैं लेकिन उसका समुचित जवाब देने की बजाय नई दिल्ली या तो कड़े सैन्य कानून का सहारा लेती है या उन्हें अलगाववादी करार देती है। सिक्किम भूकम्प ने ऐसे कई सवाल खड़े किये हैं जिसका जवाब हम आम नागरिक और नई दिल्ली को सहिष्णु और गम्भीर बनकर ढूंढ़ना होगा।
सन् 2001 के विनाशकारी भूकम्प के बाद ही केन्द्र सरकार ने राष्ट्रीय आपदा प्रबन्धन प्राधिकरण के गठन की घोषणा की थी। प्राधिकरण बन भी गया। कई महत्वपूर्ण स्थानों पर जिला आपदा केन्द्र भी बने लेकिन इन केन्द्रों की स्थिति अच्छी नहीं है। कुछ अपवाद को छोड़कर लगभग अधिकांश आपदा प्रबन्धन केन्द्र स्वयं आपदाग्रस्त हैं। तीव्र भूकम्प, सुनामी एवं भयानक हादसों से गुजरता देश भारत, कामनवेल्थ खेल और ओलंपिक के आयोजन में तो रुचि लेता है लेकिन वह समुद्री तूफानों की पूर्व चेतावनी के लिये बने अन्र्तराष्ट्रीय चेतावनी व्यवस्था (इन्टरनेशनल वार्निंग सिस्टम) का भी सदस्य नहीं बन पाता है। बताते हैं कि यदि भारत इस सिस्टम का सदस्य होता तो वर्ष 2004 में आए सुनामी में इतनी बड़ी संख्या में इन्सानी जान की तबाही शायद नहीं होती। हालांकि एक अरब रुपये से भी ज्यादा की लागत से सुनामी चेतावनी प्रणाली लगाने की केन्द्र सरकार ने घोषणा की थी मालूम नहीं उसका क्या हुआ।
सिक्किम पर लौटें। सबसे पहले तो सरकारी और गैरसरकारी दोनों तौर पर सिक्किम एवं देश के अन्य हिस्सों में आए भूकमप से प्रभावितों को फौरी राहत के लिये सक्रिय हो जाना चाहिये। सेना और स्थानीय प्रशासन के साथ साथ स्वयं सेवी संगठनों को अतिरिक्त सक्रियता के साथ भूकम्प पीडि़तों की आवश्यकताओं को पूरा करना चाहिये। यह सच है कि मुआवजे या तात्कालीन राहत आपदा में हुए नुकसान की क्षति पूर्ति नहीं कर सकते लेकिन संकट के समय मदद के लिये खड़े होना संकट/आपदा ग्रस्त परिवार को बड़ी हिम्मत प्रदान करता है।
सफल आपदा प्रबन्धन की पहली शर्त होती है मजबूत सूचना एवं सम्पर्क प्रणाली। खास कर पर्वतीय क्षेत्र में जब सम्पर्क के माध्यम सीमित हों तो विशिष्ट साधनों जैसे हेलिकाप्टर, वाईफाई, रेडियो आदि तंत्रों को सदैव दुरूस्त रखना चाहिये। हमारे पर्वतीय क्षेत्र में प्राशसनिक भ्रष्टाचार की अनगिनत बानगी देखने-सुनने को मिलती है। हमें एक ईमानदार, जवाबदेह व्यवस्था की मदद से इन इलाके को जीरो टालरेन्स एरिया की तरह विकसित करना चाहिये। यथासम्भव सहकारी समितियों या अन्य भरोषेमन्द समितियों की मदद से आपदा प्रबन्धन मशीनरी को विकसित करना चाहिये।
एक राष्ट्र राज्य के नाते भारत को अपने पर्वतीय प्रदेशों, इलाकों में सामान्य प्रशासन एवं आपदा प्रबन्धन दोनों के लिये ज्यादा संवेदनशील होना पड़ेगा। वैसे भी दुर्गम क्षेत्र में हमारे पर्वतीय प्रदेश के लोग कठिन जीवन बिताते हैं। यह विडम्बना ही है कि हम सधन सम्पन्न मैदानी इलाके में रहने वाले लोग पर्वतीय प्रदेशों या क्षेत्र को महज पर्यटन की दृष्टि से इस्तेमाल करते हैं। यदि भारतीय प्रदेशों की एकता और अखण्डता की हम इतनी ही चिंता करते हैं तो हमें इन क्षेत्रों में घटने वाली हर अच्छी बुरी घटना या आपदा से स्वयं को जोड़़ना होगा। भारत का लगभग पूरा क्षेत्र ही भूकम्प संवेदी क्षेत्र है। ऐसे में हम भारतीयों को दूरदर्शी होकर अपने सभी क्षेत्र में रहने वाले लोगों की समस्याओं व मुसीबतों में स्वयं को जोड़़ना चाहिये। तभी हमारी सरकारों पर भी दबाव बनेगा और वह देश के केरल से कश्मीर और उड़ीसा से सिक्किम तक के नागरिकों की बराबर परवाह करे। सिक्किम का भूकमप हमें चेतावनी भी देता है और भविष्य के लिये मौका भी। वर्ना हम एशिया प्रांत के सर्वाधिक ज्वलनशील एवं उत्तेजक क्षेत्र में बसे राष्ट्र हैं जहां कई प्रकार की राष्ट्रीय अन्र्तराष्ट्रीय आपदाएं भी हमें चुनौती दे रही हैं।
A Senior Homoeopathic Medical Consultant & public Health Activist.Regularly Writing on Various Health, Environmental & Socio-Political issues.
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