Saturday, November 27, 2010

Corticobasal Degeneration(CBD) & Homoeopathy

Corticobasal degeneration (CBD) is a rare neurological disease in which parts of the brain deteriorate or degenerate. CBD is also known as corticobasal ganglionic degeneration, or CBGD.
Several regions of the brain degenerate in CBD. The cortex, or outer layer of the brain, is severely affected, especially the fronto-parietal regions, located near the center-top of the head. Other, deeper brain regions are also affected, including parts of the basal ganglia, hence the name "corticobasal" degeneration. The combined loss of brain tissue in all these areas causes the symptoms and findings seen in people with CBD.
Causes of Corticobasal Degeneration
Unfortunately, the cause of CBD is entirely unknown. There is currently no strong evidence to suggest CBD is an inherited disease, and no other risk factors, such as toxins or infections, have been identified.
Studies of brain tissue of individuals with CBD show certain characteristic cell changes. Similar, although not identical, changes are observed in two other neurodegenerative diseases, Pick's disease and progressive supranuclear palsy. These changes, involving a brain protein called tau, have provided researchers some initial clues in their search for the causes of CBD.
Symptoms of Corticobasal Degeneration
Symptoms of CBD usually begin after age 60. The initial symptoms of CBD are often stiffness, shakiness, jerkiness, slowness, and clumsiness, in either the upper or lower extremities. Other initial symptoms may include dysphasia (difficulty with speech generation), dysarthria (difficulty with articulation), and difficulty controlling the muscles of the face and mouth, or walking and balance difficulties. Symptoms usually begin on one side of the body, and spread gradually to the other. Some patients (probably more than commonly recognized in the past) may have memory or behavioral problems as the earliest or presenting symptoms.
CBD is a progressive disease, meaning the symptoms worsen over time. Over the course of one to several years, most people with CBD gradually worsen, with symptoms progressing to involve upper and lower extremities and other body regions. Symptoms of advanced CBD include:
• parkinsonism (rigidity, slow movements, postural instability)
• tremor
• myoclonus (sudden, brief jerky movements)
• dystonia, including blepharospasm
• speech difficulty
• mild-to-moderate cognitive impairment (memory loss, difficulty planning or executing unrehearsed movements, dementia)
• sensory loss
• "alien hand/limb" phenomenon (difficulty controlling the movements of a limb, which seems to undertake movements on its own, sometimes combined with a feeling that the limb is not one's own)
Diagnosis of Corticobasal Degeneration
Early in the disease course, it is often difficult to distinguish CBD from similar neurodegenerative diseases. Diagnosis of CBD involves a careful neurological exam, combined with one or more types of laboratory evaluations. Electrophysiological studies, including an EEG (electroencephalogram), may show changes in brain function over time that are consistent with the neurodegeneration. CT or MRI scans can also be used in this way, providing images of asymmetric atrophy of the fronto-parietal regions of the brain's cortex, the regions most frequently involved in the disease.
Approaches to Treatment
Unfortunately, there are no drugs or other therapies that can slow the progress of the disease, and very few that offer symptomatic relief. Tremor and myoclonus may be controlled somewhat with some allopathic drugs such as clonazepam. Baclofen may help reduce rigidity somewhat. Levodopa and other dopaminergic drugs used in Parkinson's disease are rarely beneficial, but may help some CBD patients.
Homoeopathy
In Homoeopathy there are some Medicines which can help to reduce the severity of disease, i.e Argentum Met, Aur.S, Camph mbr., Causticum, Hyos., Merc Sol. Phos, Plumb., Zinc.cy.
I have little better experience with Argent.met., Causticum, Phosphorus & Plumbum in CBD patients.
Physical therapy exercises may be useful to maintain range of motion of stiff joints. This may prevent pain and contracture (muscle shortening), and help maintain mobility. Occupational therapy may be used to design adaptive equipment that supports the activities of daily living, thus helping to maintain more functional independence. Speech therapy is used to improve articulation and volume.
A person with CBD will usually become immobile due to rigidity within five years of symptom onset, and may require a gastrostomy tube for feeding at some point before that. Most often, within ten years of onset, pneumonia or other bacterial infections may lead to life-threatening complications.

Thursday, October 28, 2010

क्यों बढ़ रही हैं बीमारियां


इन दिनों भारत ही नहीं लगभग पूरी दुनियां गम्भीर रोगों की चुनौतियों से जूझ रही है। प्रचलित पुराने रोगों के अलावे नये उभरे रोगों की जानलेवा किस्में बड़े पैमाने पर कहर बरपाने की फिराक में है। रोगों के खात्मे के नाम पर चलाए जाने वाले सरकारी कार्यक्रमों की या तो दिशा बदल दी गई है या उनकी मियाद बढ़ा दी गई है। दुनिया के स्तर पर सेहत की चौकसी करने वाला विश्व स्वास्थ्य संगठन ;वि.स्वा.सं.द्ध भी सकते में है। संगठन ने बीते वर्ष 2007 को ‘‘अन्तराष्ट्रीय स्वास्थ्य सुरक्षा वर्ष’’ के रूप में मनाया और दुनिया को आगाह किया कि ‘‘घातक रोगों की चुनौतियों ने देशों की सीमाएं तोड़कर कहर बरपाने की तैयारी कर ली है। इसलिये सभी देश अपना स्वास्थ्य पर बजट और बढ़ाएं तथा आपसी अर्न्तराष्ट्रीय सहयोग को और मजबूत करें।’’ वि.स्वा.सं. की वर्तमान महानिदेशक डॉ. मारग्रेट चान की यह चिन्ता कोई नई नहीं है वल्कि संगठन के पूर्व महानिदेशक डॉ. हिरोशी नाकाजिमा ने भी माना था कि, ‘‘स्वास्थ्य के क्षेत्र में तकनीकी विकास के अनेक कीर्तिमानों के बाजवूद हम विभिन्न जानलेवा रोगों की गिरफ्त में फंस चुके हैं। दुनियां का कोई भी गरीब या अमीर देश इस संकट से महफूज नहीं है।’’
भारत में जिन रोगों को भविष्य का खतरा बताया जा रहा है उनमें मलेरियाए डेंगूए स्वाइन फ्लू एटीण्बीण् के अलावे डायबिटीज कैंसर, स्ट्रोक, हृदय रोग व तनाव सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भी पिछले वर्ष के अपने वार्षिक रिपोर्ट में पर्यावरण विनाश, तथा बढ़ती वैश्विक गर्मी की वजह से गम्भीर होते स्वास्थ्य संकट पर ध्यान केन्द्रित किया था। उस रिपोर्ट की मुख्य चिन्ता यह थी कि वर्ष 2030 तक वातावरण में गर्मी बढ़ने से महामारियों, चर्म रोगों, कैंसर जैसी बीमारियों में काफी वृद्धि होगी और ये रोग भविष्य के सार्वाधिक मारक रोगों में गिने जाएंगे। संगठन की यह भी चिन्ता है कि रोगों के बढ़ने ओर जटिल होने के साथ-साथ अंग्रेजी दवाओं का बेअसर होना, महामारियों का और घातक होकर लौटना, तथा रोगाणुओं/विषाणुओं का और आक्रामक हो जाना भी भविष्य की बढ़ी चुनौती है।
यदि हम स्वास्थ्य के अपने प्राथमिक ढांचे पर गौर करें तो सन् 1972 में कुल 5192 प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र थे जो 1983 में बढ़कर 5995 हो गए। ताजा आंकड़े के अनुसार मार्च 2007 तक देश में कुल 22,370 प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र खोले जा चुके हैं। लेकिन जमीनी सच्चाई है कि इनमें से लगभग 50 प्रतिशत स्वास्थ्य केन्द्रों के पास न तो अपना भवन है और उनमें न ही पर्याप्त जरूरी सुविधाएं। नब्बे के दशक में जब ‘‘सन् 2000 तक सबको स्वास्थ्य’’ का लक्ष्य तय किया गया था तब कहा गया था कि देश में कम से कम 23,000 प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों की जरूरत है लेकिन आज 20 साल बाद भी न तो ‘‘सबको स्वास्थ्य’’ मिला और न ही स्वास्थ्य के ‘‘प्राथमिक ढांचे’’ ही खड़े हो पाए। आजादी से पहले की बहुचर्चित भोर समिति ने तो सुझाव दिया था कि प्रत्येक 20,000 की आबादी पर एक प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र होना चाहिये लेकिन राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण कहता है कि आज भी औसतन 27,000 लोगों पर मात्र एक चिकित्सक है, जिनमें से 81 प्रतिशत चिकित्सक तो शहरों में हैं। सरकार की तमाम कोशिशों के बाद 18 प्रतिशत चिकित्सक किसी भी तरह से गांव के स्वास्थ्य केन्द्रों में जा पाए हैं। इस पृष्ठभूमि में स्वास्थ्य का संकल्प और लोगों के लिये स्वास्थ्य सेवाओं को सुलभ बनाने का सपना अभी भी मृगमरिचिका लगता है।
प्रचलित बीमारियों को ही लें तो वर्षों तक उनके उन्मूलन का अभियान चलाने के बावजूद भी रोग की भयावहता कम नहीं हुई। मलेरिया, टी.बी., डेंगू, स्वाइनफ्लू, कालाजार, मिजिल्स, कालरा लगभग सभी रोग पहले से और खतरनाक ही हुए हैं। भारत में 1995 से पोलियो को जड़ से उखाड़ फेंकने का अभियान चल रहा है। इसके विज्ञापन में महत्वपूर्ण नेता से अभिनेता तक नजर आते हैं। वि.स्वा.सं. की पहल पर सन् 2000 तक पोलियों के विरुद्ध चली इस लड़ाई को ‘अन्तिम लड़ाई’ का नाम दिया गया। पल्स पोलियों नामक इस अभियान में 5 वर्ष तक की उम्र के बच्चों को 6 खुराकें एक महीने के अन्तराल पर पिलाई गई। इसमें 11 राज्यों के कोई 16 करोड़ बच्चों को शामिल किया गया लेकिन तब भी पेालियो के विरु( प्रचारित अन्तिम युद्ध ‘अन्तिम’ नहीं बन पाया। बीते 7 वर्षों में हमने इसकी कीमत कोई 9182 करोड़ रुपये चुकाई।
यदि रोग उन्मूलन के नाम पर केन्द्र सरकार का बजट देखें तो वर्ष 2006-07 में पल्स पोलियों के लिये 1004 करोड़ रुपये, अन्य टीकाकरण के लिये 327 करोड़ रुपये, क्षय रोग उन्मूलन के लिये 184 करोड़ का प्रावधन था लेकिन रोगों की स्थिति और बदतर ही हुई है। इन दिनों हमारा देश कई जानलेवा बीमारियों की गिरफ्रत में है। डेंगू, इन्सेफ्रलाइटिस, कालाजार, मलेरिया, मेनिन्जोकाक्सीमिया आदि घातक रोग लगभग सभी प्रदेश में रोजाना किसी न किसी की जान ले रहे हैं। टी.बी. पहले से ज्यादा घातक होकर ‘मल्टी ड्रग्स रेसिस्टेन्स टयूबरकुलोसिस’ ;एम.डी.आर. टी.बी.द्ध के रूप में उभरा है। देश के बाढ़ प्रभावित क्षेत्र मलेरिया, कालाजार एवं कॉलरा के चपेट में हैं। बिहार और उड़ीसा में सांप काटने से होने वाले मौत की खबरें आ रही हैं, तो मध्य प्रदेश, राजस्थान में मलेरिया का आतंक है। उत्तर प्रदेश के गोरखपुर व आसपास के क्षेत्र में एक रहस्यमय दीमागी बुखार हजारों बच्चों की जान ले चुका है। डाक्टर चिकित्सा उपकरण के अभाव में रोग का निदान भी नहीं कर पा रहे हैं। यह स्थिति तो ‘परजीवी’ से होने वाले रोगों की है।
वि.स्वा.सं. का वर्ष 2007 का तथ्य पत्र देखें तो उच्च आय वाले ;अमीरद्ध देशों में सबसे ज्यादा मौतें हृदय रोग, मध्ुामेह, उच्च रक्तचाप, श्वांस समवन्धी रोग आदि से हो रही है। ये ऐसे रोग हैं जिन्हें महज जीवन शैली में बदलाव लाकर रोका जा सकता है। मध्यम आय वाले देशों में भी सर्वाधिक मौतें इन्हीं रोगों से हो रही हैं। लगभग यही आंकड़ा निम्न आय वाले देशों का भी है। सन् 2002 में उक्त रोगों से दुनिया में कोई 5 करोड़ 70 लाख लोगों की मौतें हुई। इनमें 72 लाख लोग हृदय रोग तथा 55 लाख हृदयघात से मरे। वजह धूम्रपान तथा मोटर गाड़ियों से उत्पन्न प्रदूषण बताया गया। तथ्य पत्रा कहता है कि निम्न तथा मध्यम आय वाले देशेां में लगभग एक करोड़ 50 लाख बच्चे तो 5 वर्ष की आयु से पहले ही मर जाते हैं, जिनमें से 98 प्रतिशत को उपयुक्त चिकित्सा सुविधा देकर बचाया जा सकता है।
भारत में मलेरिया, कालाजार, डेंगू आदि के खत्म न होने के पीछे के प्रमुख कारण बढ़ता शहरीकरण, बड़े बांध एवं बड़े पैमाने पर विस्थापन है। एक अन्य महत्वपूर्ण कारण अमीरी और गरीबी के बीच बढ़ती खाई भी है। भारत सरकार द्वारा असंगठित क्षेत्र के उद्यमों की जांच के लिये बनाए गए राष्ट्रीय कमीशन की रिपोर्ट के अनुसार देश के 83.6 करोड़ यानी 77 प्रतिशत लोग 20 रुपये प्रतिदिन से कम पर अपना गुजारा करते हैं। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन का 2004-2005 की रिपोर्ट देखें तो ग्रामीण भारत में प्रति व्यक्ति दैनिक उपयोग खर्च 19 रुपये से कम था जबकि शहरी लोगों का औसत दैनिक खर्च 30 रुपये के करीब पाया गया। शर्मनाक बात तो यह है कि आज भी गांव के 10 प्रतिशत लोग अपनी जरूरतें पूरी करने के लिये प्रतिदिन महज 9 रुपये ही खर्च कर पाते हैं, जबकि 23 प्रतिशत मध्यम आय वर्ग के 15 से 21 वर्ष की उम्र के बच्चे सालाना 1.87 लाख करोड़ रुपये ;900 रुपये प्रति सप्ताहद्ध अपनी मर्जी से केवल मौज मस्ती पर खर्च कर यों तो वि.स्वा.सं. ने भी 1995 की अपनी वार्षिक रिपोर्ट में अत्यधिक गरीबी को अर्न्तराष्ट्रीय वर्गीकरण में एक बीमारी माना है। संगठन ने इसे ‘जेड 59.5 नाम दिया है। और चेतावनी भी दी है कि इसके कारण स्वास्थ्य समस्याएं और गम्भीर होंगी, लेकिन इस पर किसी ने ध्यान नहीं दिया। अब स्थिति विकट होती जा रही है तो भी स्वास्थ्य महकमों के आला अधिकारी और योजनाकार खामोश है।
जीवन के हर क्षेत्र में बाजार के बढ़ते दखल ने समस्या को और विकट बना दिया है। राष्ट्रीय अर्न्तराष्ट्रीय स्तर पर कई नियामक संस्थाओं पर बाजार का पूरा प्रभाव है। समाज का हर प्रभावशाली वर्ग उपभोक्तावाद की गिरफ्रत में है। उदाहरण के लिये चिकित्सकों की सबसे प्रतिष्ठित संस्था इन्डियन मेडिकल एसोसिएशन पेप्सीकोला जैसी कम्पनी से अनुबंधित है जबकि इण्डियन डेन्टल एसोसिएशन पर कोलगेट सरीखी बहुराष्ट्रीय कम्पनी का प्रभाव है।
रोग उन्मूलन के नाम पर ‘राष्ट्रीय टीकारण कार्यक्रम भी बाजार की गिरफ्रत में है। इस कार्यक्रम में पिफलहाल 6 जान लेवा बीमारियों के लिये टीका लगाया जाता है। ये हैं टी.वी., खसरा, डिप्थेरिया, कालीखांसी, टिटनेस तथा पोलियो। अब इस सूची में अनेक नये टीके भी जोड़े जा रहे हैं। इनमें हिपेटाइटिस बी.,एच. एन्फ्लूएन्जा बी, चिकेनपाक्स, एम.एम.आर. तथा न्यूयोमोकाक्स। इन सबकी संख्या 11 होती है। निजी तौर पर ये टीके लगभग 15 हजार रुपये में लगते हैं। अब बाजार का दबाव है कि इन टीके को ‘राष्ट्रीय कार्यक्रम’ में शामिल कर लिया जाए।
भारत जैसी तीसरी दुनिया के देशों में टीकाकरण को बढ़ावा देने और नये टीकों के प्रयोग को सरकारी कार्यक्रम में शामिल कराने के लिये एक अर्न्तराष्ट्रीय संस्था ग्लोबल एलाएन्स फॉर वैक्सिन इनिसियेटिव ;गावीद्ध खड़ी की गई है। इसका मुख्यालय भी वि.स्वा.सं. के जिनेवा स्थित भवन में है। इसके लिये सदस्य देशों ने मिलकर 20 हजार करोड़ रुपये का इन्तजाम किया है। बाल चिकित्सकों के अखिल भारतीय संगठन ‘इण्डियन एकेडमी आफ पीडियाट्रिक्स’ की मदद से न्यूमोकाक्स वैक्सीन को राष्ट्रीय टीकाकरण कार्यक्रम में शामिल कराने का तेज प्रयास जारी है। लगभग 3,500 रु. कीमत का यह टीका 10 हजार करोड़ से भी ज्यादा का बाजार खड़ा करेगा। यहां यह बताना भी जरूरी है कि इन टीकों की प्रमाणिकता अभी स्थापित नहीं हुई है।
यह सर्वविदित तथ्य है कि दवा निर्माता कम्पनियां चिकित्सकों की प्रभावशाली संस्थाओं का इस्तेमाल कर अपना प्रोडक्ट बेचती हैं। इन पर नियंत्राण के सरकारी अधिकार धीरे धीरे खत्म किये जा रहे हैं। सवाल यह उठता है कि बढ़ती बीमारियों की वजह आखिर है क्या? बढ़ता उपभोक्तावाद, बढ़ती समृधि, बढ़ती तकनीकए रोगों के प्रति हमारा मूर्खतापूर्ण रवैया या कुछ और?

डेंगू के साथ कदमताल करता चिकुनगुनिया


राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र इन दिनों अति सक्रिय महामारी डेंगू के साथ साथ चिकुनगुनिया की चपेट में है। चिकुनगुनिया बुखार भी डेंगू की तरह ही ‘‘ग्रुप ए वायरस’’ से फैलने वाला संक्रामक रोग है। डेंगू और चिकुनगुनिया के लक्षणों में कई समानताओं की वजह से लोगों में भय और दहशत की स्थिति बनी रहती है। डेंगू की तरह चिकुनगुनिया बुखार भी एडिस, क्यूलेक्स एवं मन्सोनिया नामक मच्छरों से फैलता है।
तंजानिया से 1952 में शुरू हुआ यह संक्रामक बुखार अब अफ्रीकाए एषिया एवं योरोप के कुछ क्षेत्रों में फैल गया है। भारत में पहली बार यह बुखार 1963 में कोलकाता तथा 1965 में मद्रास में कहर बरपाया था। तब अकेले मद्रास में कोई 3 लाख लोग इस बुखार की चपेट में थे। बीच में यह बुखार लगभग तीन दशकों तक शान्त रहा। मान लिया गया था कि बुखार इस क्षेत्र को छोड़ चुका है लेकिन 1996 तथा सन् 2003 में इस बुखार ने फिर दहशत फैलाया। सन् 2007 में इस बुखार की चपेट में यहां 1.25 मिलियन लोग थे।
अभी भारत के लगभग 15 प्रदेशों में चिकुनगुनिया बुखार का संक्रमण है। सरकारी आंकड़े सम्मिलित रूप से उपलब्ध नहीं हैं लेकिन दिल्ली और इसके आसपास चिकुनगुनिया और डेंगू के मरीजों की संख्या दस हजार से ज्यादा है। यों तो चिकुनगुनिया बुखार डेंगू की तुलना में कम खतरनाक होता है लेकिन उसे नजरअन्दाज करने का परिणाम जानलेवा भी हो सकता है। भारत सरकार के स्वास्थ्य मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार वर्ष 2003 के मुकाबले वर्ष 2010 में अब तक चिकुनगुनिया बुखार से मरने वालों के आंकड़ों में काफी गिरावट आई है लेकिन व्यावहारिक रूप से देखें तो इस बुखार के संक्रमण के मामले पहले से ज्यादा बढ़े हैं।
केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय केे अनुसार डेगू और चिकुनगुनिया को नियंत्रित करने के लिये जनवरी 2007 में एक दिशा निर्देश सभी राज्य सरकारों के लिये जारी किया गया था। देश में 110 सेेन्टिनल सर्विलान्स अस्पताल की स्थापना की गई जिसे बढ़ाकर वर्ष 2009 में 170 कर दिया गया। इन सर्विलान्स अस्पतालों को देश के श्रेष्ठ 13 एपेक्स रेफरल लैब से जोड़ दिया गया। लेकिन डेंगू और चिकुनगुनिया के संक्रमण के मामले घटने का नाम नहीं ले रहे।
केन्द्र सरकार ने नेशनल इनस्टीच्यूट ऑफ वायरोलॉजी (एन.आई.वी.) पूणे के माध्यम से देश भर में डेंगू और चिकुनगुनिया के जांच के लिये ‘‘आई.जी.एम. मैक एलिजा टेस्ट’’ किट निःशुल्क उपलब्ध कराए हैं लेकिन इन सबके बावजूद निजी पैथ लैब में ये जांच 2 से 3 हजार रुपये की मंहगी दर पर धड़ल्ले से किये जा रहे हैं। एक अनुमान के अनुसार दिल्ली और एन.सी.आर. में रोजाना 25 से 30 हजार ऐसेे जांच निजी पैथ लैब में हो रहे हैं। केन्द्र सरकार दावा कर रही है कि देश में महामारी जांच किट की कमी नहीं है लेकिन राजधानी के ही कई बड़े अस्पताल किट के अभाव में डेंगू चिकुनगुनिया के संदिग्ध मरीजों को वापस भेज रहे हैं।
चिकुनगुनिया के भारत में बढ़ते संक्रमण ने यहां के जन स्वास्थ्य व्यवस्था पर भी सवाल खड़ा कर दिया है। देश में जन स्वास्थ्य प्रबन्धन की मुकम्मल नीति के अभाव में सामुदायिक रोग और महामारियों में वृद्धि हो रही है। अन्धाधंुध बढ़ता शहरीकरण, शहर व गांवों में जमा कूड़े के ढेर, बन्द सीवर, जमा पानी, गन्दे पानी में पनपते मच्छर, बिगड़ी जीवनशैली से लोगों में घटती रोग निरोधी क्षमता सब मिलकर जन स्वास्थ्य समस्या को बढ़ा रहे हैें। निजी अस्पतालों की बढ़ती तादाद से भी जनस्वास्थ्य की उपेक्षा हो रही है। सरकारी लापरवाही और भ्रष्टाचार का आलम यह है कि सकारी ब्लड बैंक सूने पड़े हैं जबकि निजी ब्लड बैंकों में एक यूनिट प्लेटलेट्स की कीमत दस से पन्द्रह हजार रुपये है। बीमार लोगों की जान बचाने का वास्ता देकर उनसे हजारों-लाखों रुपये की लूट इस दौर में स्वास्थ्य व्यवस्था के निजीकरण की सबसे बड़ी विडम्बना है। उस पर भी सबसे शर्मनाक बात यह है कि नीतिगत सरकारी व प्रशासनिक विफलता से चरमराई जन स्वास्थ्य व्यवस्था का इलाज सरकार निजीकरण में ढूंढ रही है। बहरहाल चिकुनगुनिया और डेंगू पर नियंत्रण के लिये जनस्वास्थ्य के इन सभी पहलुओं पर गौर करना होगा।
होमियोपैथी - चिकुनगुनिया और डेंगू की आरम्भिक अवस्था में होमियोपैथी काफी कारगर सिद्ध हुई है। अपने योग्य होमियोपैथ से परामर्श करें।

बढ़ती महामारियों के दौर में

  कोरोना वायरस के त्रासद अनुभव के बाद अब देश में एच 3 एन 2 इन्फ्लूएन्जा वायरस की चर्चा गर्म है। समाचार माध्यमों के अनुसार...