कैंसर के कई मामले अभी भी एक लाइलाज मर्ज हैं। इस कड़वे सच को कैंसर के लाखों भुक्तभोगी मरीज भी अच्छी तरह जानते हैं। हां, आधुनिक तकनीक और व्यापक प्रचार माध्यमों ने इस लाइलाज मर्ज को नाउम्मीदी से बाहर निकालने में मदद की है। कैंसर पर हो रहे आधुनिक अनुसंधानों की दिशा भी एक महंगे तकनीक युक्त समाधान की तरफ ही जाती है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यू.एच.ओ.) भी कैंसर के बढ़ते मामले और उसके उपचार की महंगी पद्धति को कैंसर उन्मूलन में बाधक मानता है। दुनिया भर में आज यह चिन्ता उन हजारों वैज्ञानिकों और जनपक्षीय योजनाकारों की है कि कैंसर व अन्य लाइलाज तथा जटिल रोगों के मुकम्मल उपचार की सस्ती व आम लोगों द्वारा अपनाई जा सकने वाली तार्किक चिकित्सा प्रणालियों को बढ़ावा दिया जाए ताकि सामान्य अथवा गम्भीर रोगों से ग्रस्त लाखों लोगों के जीवन में उम्मीद की किरण फैले और इनमें से अधिकांश को असमय मौत से बचाया जा सके।
कैंसर सरीखे अनेक जानेलवा रोग आज भी दुनियां में लोगों के असमय मृत्यु के सबसे बड़े कारक हैं। 21वीं सदी के पहले दषक में चिकित्सा की सबसे चर्चित पुस्तक है ‘‘द एम्पेरर ऑफ ऑल मलाडिज।’’ इसके लेखक डा. सिद्धार्थ मुखर्जी ने दरअसल अपनी इस पुस्तक के माध्यम से कैंसर की आत्मकथा लिखी है। यह पुस्तक वर्ष 2011 का चर्चित पुलित्जर पुरस्कार भी प्राप्त कर चुका है। अमरीका में मशहूर कैंसर चिकित्सक की हैसियत से डा. मुखर्जी ने अपनी इस पुस्तक के पहले पृष्ठ पर वर्ष 2010 में कैंसर से मरने वाले 6 लाख अमरीकी तथा पूरी दुनियां में सत्तर लाख लोगों का आंकड़ा दिया है। डॉ. मुखर्जी लिखते हैं कि अमरीका में प्रत्येक तीन में से एक औरत तथा दो में से एक पुरुष अपने जीवन में कैंसर से ग्रस्त हो रहा है। दुनिया भर में कैंसर से मरने वाले कुल व्यक्तियों में एक चौथाई तो अमरीकी हैं। इसी पुस्तक में आंकड़ा है कि कुछ देशों में तो सबसे ज्यादा मौतों का जिम्मेदार हृदय रोग को भी कैंसर ने पीछे छोड़ दिया है। इसी पुस्तक में डॉ. मुखर्जी ने कैंसर रोग की गम्भीरता को रेखांकित करते हुए इसके उपचार में सक्षम सभी चिकित्सा पद्धतियों में व्यापक और व्यावहारिक अनुसंधान की आवश्यकता की भी बात की है।
कैंसर का इतिहास कोई नया नहीं है। प्राचीन चिकित्सा ग्रन्थों में भी कैंसर का जिक्र है लेकिन आजकल कैंसर से जुड़ा हुआ यह तथ्य महत्वपूर्ण है कि इसका प्रसार तेजी से हो रहा है। और यह पहले से ज्यादा घातक भी हो गया है। इससे भी ज्यादा गम्भीर बात यह है कि इस कथित महारोग का उपचार बेहद महंगा हो गया है। न केवल दवा बल्कि कैंसर के विशेषज्ञ चिकित्सकों की फीस भी एक हजार रुपये से ज्यादा है। हमारे देश में कैंसर से संबंधित यह तथ्य भी महत्वपूर्ण है कि यहां के गरीब लोगों खास कर किसानों को अपनी स्थाई सम्पतिए जमीनंे आदि बेच कर कैंसर रोग का उपचार कराना पड़ रहा है और ज्यादातर मामलों में उनके जीवन और धन दोनों से उन्हें महरूम होना पड़ता है।
कैंसर रोग और उपचार से जुड़ी एक विडम्बना यह भी है कि सरकार से सेवा एवं मुफ्त उपचार के नाम पर प्राप्त की गई निःशुल्क (या नाम मात्र की कीमत पर) जमीन पर खड़े पांच सितारा कैंसर अस्पताल भी किसी गरीब या जरूरतमंद रोगी का मुफ्त इलाज नहीं करते। वैसे भी यह अध्ययन का विषय है कि मरीजों द्वारा खर्च की गई रकम के एवज में क्या कथित कैंसर अस्पताल मुक्कमल उपचार दे रहे हैं? टाटा कैंसर इन्स्टीच्यूट मुम्बई के ही एक बड़े चर्चित सर्जन ने अभी हाल ही में दिल्ली में एक मेमोरियल लेक्चर देते हुए कैंसर चिकित्सकों को ‘‘सच्ची सेवा’’ करने की नसीहत दी थी। उन्होंने इसे रेखांकित किया था कि मौत के कगार पर पहुंचे मरीज से महंगी फीस लेना पाप है।
अब यह तथ्य प्रमाणित हो रहा है कि हमारी कथित आधुनिक जीवन शैली ही कैंसर जैसे घातक रोगों को आमंत्रण देती है। इस महंगी आधुनिक जीवन शैली में कैंसर बढ़ेगा ही और फिर इसके उपचार के नाम पर अनेक पांच सितारा कैंसर अस्पताल भी खुलते जाएंगे लेकिन क्या इससे कैंसर रोगियों का वास्तव में भला हो पाएगा? यह सवाल हर व्यक्ति, बुद्धिजीवी एवं पत्रकारों से तवज्जो की मांग करता है। यह भी सच है कि लाइलाज कैंसर के उपचार के अनेक देसी एवं फर्जी दावे भी कैंसर रोगियों को गुमराह कर रहे हैं। प्रत्येक चिकित्सा पद्धति में ऐसे फर्जी दावे और भ्रामक विज्ञापनों पर रोक की जो नैतिक पहल होनी चाहिये वह नहीं है, साथ ही सरकार भी ऐसे फरेब दावे को रोक नहीं पा रही। तो क्या हम किसी चिकित्सा पद्धति को ही खारिज कर दें या उस पर उपहास करें जिसे वैज्ञानिक एवं तार्किक चिकित्सा पद्धति के रूप में विश्व स्तर पर मान्यता मिली हुई है।
भारत में तो होमियोपैथिक उपचार के प्रति आकर्षित लोगों का ग्राफ इतना ज्यादा है कि प्रसिद्ध व्यापारिक एवं वाणिज्य संस्था एसोचेम ने इसकी विकास दर 25 प्रतिषत (सबसे तेज) आंकी है। भारत सरकार के आयुष मंत्रालय के अधीन कैंसर एवं होमियोपैथी पर हो रहे अनुसंधान के परिणाम आशा के अनुरूप हैं तथा अभी हाल ही में दिल्ली में आयोजित 66वें विश्व होमियोपैथिक सम्मेलन में प्रस्तुत शोध पत्रों में कैंसर एवं होमियोपैथिक उपचार दर्जनों शोध पत्र ‘‘आश्चर्य’’ उत्पन्न करने वाले थे। उल्लेखनीय है कि इनमें से कुछ शोध पत्र तो एलोपैथी एवं होमियोपैथी के वरिष्ठ चिकित्सकों ने संयुक्त रूप से लिखे थे।
इसमें सन्देह नहीं कि कैंसर का बिगड़ा रूप उपचार के आधुनिक एवं प्रमाणिक तकनीक व विज्ञान की मांग करता है। इसके लिये जरूरी है सभी चिकित्सा पद्धति की योग्यता व दावे को परखा जाए। कैंसर रोगियों को खुष करने के लिये कविता की तुकबन्दी या लतीफे जरूर सुनाए जाएं लेकिन उपचार की एक मुकम्मल चिकित्सा पद्धति को महज इसलिये मजाक का विषय नहीं बनाया जाए क्योंकि वह सस्ती और सहज में उपलब्ध है। आज गम्भीर रोगों का मुकाबला करने के लिये सभी चिकित्सकों के सामुहिक प्रयास की जरूरत है। इसमें मीडिया की भी उतनी ही जिम्मेदारी है। क्या मानवता के लिये हम थोड़ा गम्भीर नहीं हो सकते?
ई-मेल- docarun2@gmail.com
A Senior Homoeopathic Medical Consultant & public Health Activist.Regularly Writing on Various Health, Environmental & Socio-Political issues.
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1 comment:
Well said Arun. eep it up even if no one agrees with your views.
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