Saturday, July 2, 2011

हेम पाण्डेय की हत्या से उठे सवाल

और हेम पाण्डेय की भी हत्या कर दी गई। सरकारी बयान को देखें तो आन्ध्रप्रदेश की पुलिस ने माओवादी नेता चेरूकुरी राजकुमार उर्फ आजाद के साथ हेमचन्द्र पाण्डेय को मुठभेड़ में मार गिराया। हेम पाण्डेय की पत्नी बबीता के अनुसार हेम डीएआरसीएल नाम की एक कम्पनी के नियमित कर्मचारी थे। वे वहां कारपोरेट कम्युनिकेशन विभाग में ‘‘चेतना’’ नामक पत्रिका का सम्पादन करते थे। इसके अलावे वे कई अखबारों में नियमित स्वतंत्र रूप से लिखा करते थे। कुछ अखबार के सम्पादकों ने तो हेम पाण्डेय का नाम सी.पी.आई. (माओवादी) पार्टी से जुड़ने के बाद अपने अखबार को यह कहकर किनारे कर लिया कि हेम ने उनके अखबार में कभी नहीं लिखा। बबीता ने जब हेम के कई प्रकाशित लेख सार्वजनिक किये तब जाकर अखबारों का मुंह बन्द हुआ। यह इत्तेफाक ही है कि जिस दिन हेम की हत्या हुई उसी दिन राष्ट्रीय सहारा में उनका लेख ‘‘गरीब मुल्कों में जमीन की लूट’’ सम्पादकीय पृष्ठ पर छपा था।
हेम की हत्या की खबर सुनकर देश के कई जनवादी-समाजवादी पत्रकारों में आक्रोश फैल गया। सबके जुबान पर यही सवाल था कि आज एक पत्रकार को माओवादी बताकर फर्जी मुठभेड़ में गया है, कल किसी भी पत्रकार के साथ ऐसा हो सकता है। हेम पाण्डेय के पत्रकार होने की और उनकी हत्या की बात सुनकर हैदराबाद के पत्रकार संगठन ने भी विरोध प्रदर्शन किया। वहां के पत्रकारों ने पहल कर हेम के शव को दिल्ली भिजवाने की व्यवस्था की तथा राज्य के गृहमंत्री से मिलकर इस फर्जी मुठभेड़ के न्यायिक जांच की भी मांग की।
हेम की हत्या 1-2 जुलाई की रात आन्ध्रप्रदेश के सम्भवतः आदिलाबाद में की गई थी। दरअसल सी.पी.आई. (माओवादी) पार्टी के प्रवक्ता आजाद के साथ मारे गए दूसरे शख्स के रूप में हेम की थे। शुरू में स्थिति भ्रम की बनी लेकिन दूसरे दिन जब अखबार में छपी फोटो को देखकर दिल्ली में हेम की पत्नी ने जब इस दूसरे शख्स की पहचान अपने पति हेम चन्द्र पाण्डेय के रूप में की तब स्थिति साफ हो पाई लेकिन तब तक तो काफी देर हो चुकी थी। हेम मुठभेड़ में मार दिये गए थे। बाद में बबीता ने प्रेस कान्फ्रेस कर बताया कि उनके पति आपरेशन ‘‘गीन हन्ट’’ पर स्टोरी करने 30 जून की शाम दिल्ली से नागपुर के लिये रवाना हुए थे।
7 जुलाई की रात बबीता और हेम के भाई राजीव पाण्डेय हेम का शव लेकर दिल्ली पहुंचे। दिल्ली में स्वामी अग्निवेश के आफिस 7, जन्तर मन्तर के बाहर शव को रखा गया। वहां अनेक पत्रकारों और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने एक जुट होकर हेम पाण्डेय को श्रंद्धाजलि अर्पित की। इसमें डा. बी.डी. शर्मा अरूंधति राय, सुमित चक्रवती, मंगलेश डबराल, नीलभ, आनन्द स्वरूप वर्मा, पंकज विष्ट, जावेद नकवी, अनिल चमड़िया, उत्तराखण्ड पत्रकार परिषद के सुरेश नौटियाल, फिल्मकार संजय काक, भाकपा माले की राधिका मेनन, आइसा के महासचिव रवि राय, प्रो. अनिल भदुड़ी, काम्बैंट लॉ के सम्पादक हर्ष डोभाल, पीपुलस मार्च के सम्पादक गोविन्दन कुट्टी, आन्ध्रप्रदेश इलेक्ट्रानिक जर्नलिस्ट एसोसिएशन के जलील, हैदराबाद ले आए मानवाधिकार कार्यकर्ता रघुनाथ सहित अनेक पत्रकारों, बुधिजीवियों ने होम का अन्तिम दर्शन किया और श्रंद्धाजलि दी। यहां उपस्थित सभी लोगों ने ‘‘फर्जी मुठभेड़’’ की न्यायिक जांच की मांग की। बाद में दिल्ली के निगम बोध घाट पर हेम को अन्तिम बिदाई दी गई।
विडम्बना देखिये कि हेम के परिवार वालों ने हेम का शव अध्ययन और प्रयोग के लिये अखिल भारतीय आर्युविज्ञान संस्थान को देने की पेशकश की लेकिन संस्थान ने शव को लेने से मना कर दिया।
हेम अपने छात्रजीवन से ही उत्तराखण्ड के छात्र आन्दोलन में सक्रिय थे। उनका छात्र जीवन पढ़ाई के साथ छात्र संगठन, आइसा, और प्रगतिशील छात्र मंच की राजनीति में बीता। पत्र-पत्रिकाओं में लेखन वे इसी दौर में शुरू कर चुके थे। हेम ने कुमाऊं विश्वविद्यालय के अल्मोढ़ा कैम्पस के अर्थशास्त्र विभाग में पी.एच.डी. में दाखिला लिया था। पी.एच.डी. को अधूरा छोड़कर वे दिल्ली आ गए तथा यहीं भारतीय विद्या भवन से उन्होंने पत्रकारिता में स्नातकोत्तर डिप्लोमा किया। धिरे धिरे के प्रमुख राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं में लिखने लगे। भारतीय विद्या भवन के उनके पूर्व सहवाठियों ने भी हेम की हत्या को दुर्भाग्यपूर्ण बताया है।
इसमें सन्देह नहीं कि हेम पाण्डेय की विचार धारा वामपंथी थी। वे जन महत्व के विभिन्न मुद्दे पर कलम चलाते थे। आप कह सकते हैं कि हेम वामपंथी रूझान के पत्रकार थे। उनके लेखों में आम आदमी के जीवन का दर्द और अपनी जमीन से बेदखल किये जा रहे लोगों का संघर्ष दिखता था। चूंकि हेम की विचारधारा वामपंथी थी इसीलिये हेम को माओवादी बताकर पुलिस-सरकार द्वारा मार दिया जाना निश्चित ही शर्मनाक घटना है। इसलिये राजधानी और देश के पत्रकारों के सगंठनों के अलावे अर्न्तराष्ट्रीय पत्रकार एवं मानवाधिकार संगठन ने भी इस कथित मुठभेड़ के निष्पक्ष और न्यायिक जांच की मांग उठाई है। दिल्ली के प्रगतिशील पत्रकारों ने एक सामुदायिक निर्णय में यह तय किया है कि हेम के शहादत दिवस पर हर साल एक व्याख्यान माला आयोजित की जाएगी और हेम को आमजनों की स्मृतियों में याद रखा जाएगा।
क्रोध चीख और गुस्से को भले ही सम्मानजनक न माना जाए पर दुनिया की 7 अरब से ज्यादा आबादी इसी भाषा में बोलती है। भय और असुरक्षा से ग्रस्त भारत के 10 करोड़ आदिवासी भले ही गंूगे भी हों तो भी इसी भाषा में बोलते हैं। छत्तीसगढ़ हो या झारखंड, उड़ीसा हो या पश्चिम बंगाल देश के ये मूल निवासी जब अपनी पीड़ा अपनी भाषा में व्यक्त करते हैं तो भद्र समाज तिलमिला जाता है। आदिवासियों की यह भाषा या प्रतिक्रिया शहर में बैठे मध्यम वर्ग एवं सभ्य समाज को नहीं सुहाती। सरकार इसे आंतकवाद या माओवाद कहती है। जब व्यक्ति या समाज को उसके जडत्र से काटने की कोशिश की जाती है तो उस व्यक्ति या समूह द्वारा व्यक्त प्रतिक्रिया, विद्रोह या हिंसा कही जाती है। सरकार की नजर में यह आतंकवाद है, देश द्रोह है।
आजादी के दौर में हिंसा-अहिंसा का सवाल मुखर था। तमाम जद्दो जहद के बाद अंिहसा एक सत्याग्रह के अस्त्र के रूप में प्रतिष्ठित हुआ। अंग्रेज इस हथियार से डरने लगे थे। फिर जो हुआ सबके सामने है। लेकिन आजादी के बाद अहिंसा का यह हथियार कुंद होने लगा। शान्तिपूर्ण आन्दोलनों और जन-प्रतिरोधों पर सरकारी जुल्म बढ़ने लगे। अहिंसक आन्दोलनों को बरबरतापूर्वक कुचला जाने लगा। अहिंसक प्रतिरोध की इन्तहा हो गई। मणिपुर की महिलाओं का नग्न प्रदर्शन, इरोम शर्मिला का लम्बा सत्याग्रह, आदिवासियों किसानों का प्रदर्शन, किसानों की आत्म हत्या सब अहिंसक आन्दोलन के ही रूप हैं लेकिन उसकी परिणति दुनिया देख रही है। अहिंसा की आड़ लेकर सरकारी पुलिसिया जुल्म बढ़ने लगे। फर्जी एन्काउन्टरों की बाढ़ आ गई। कई मामले लीपा पोती के बाद फाइलों और मध्यवर्ग की स्मृतियों से भी गुम हो गए। अहिंसा को प्रभावहीन माना जाने लगा। आजाद भारत के लोकतांत्रिक सरकार की यह सबसे बड़ी विफलता है।
वामपंथ ने दुनिया की राजनीति में एक अलग-अलग विकसित की। धीरे धीरे वामपंथ की भाषा, जीवन शैली और तौर-तरीके भी बदल गए। अतिवाद, संशोधनवाद आदि वामपंथ के आपसी अर्न्तविरोध से उपजे शब्द हैं। 1967 नक्सलवादी आन्दोलन का अहम पक्ष यह है कि वामपंथ दो धाराओं में विभाजित हो गया। एक चुनाव का रास्ता, दूसरा संघर्ष का। बाद में इस संघर्ष ने भी सशस्त्र संघर्ष का रूप ले लिया। बाद में वामपंथ के जितने भी धड़े बने सब आपस में विभाजित होते रहे और एक धारा से दूसरी धारा में आवागमन करते रहे। संसदीय चुनाव में जिन वामपंथी धड़ों ने सिरकत की और संसदीय रास्ते से देश में समाजवाद लाने का स्वप्न देखा उन्होंने गैर संसदीय वामपंथी और सशस्त्र संघर्ष में विश्वास करने वाले वामपंथी धड़े की अतिवादी घोषित कर दिया।
अतिवादी वामपंथी पूछते हैं कि संसद के रास्ते समाजवाद का सपना देखना क्या रोमांटिसिज्म नहीं है? खासकर इस दौर में जब संसदीय संरचना में पूंजी के केन्द्रीयकरण को रोज व रोज बढ़ावा मिल रहा है। सार्वजनिक उपक्रमों का निजीकरण हो रहा है। विदेशी कम्पनियों के लिये देश के अहम सेवा क्षेत्र को मिलान किया जा रहा है। और तो और कम्पनियों के ठेकेदार संसद के लोक सभा राज्य सभा में घुस कर सरकार की कैबिनेट में जा बैठे हैं। अतिवादी कांग्रेस पूछते हैं- पूंजी केन्द्रीयकृत करने वाली संरचना में समाजवाद का स्वप्न देखना क्या रोमांटिसिज्म नहीं है?
पत्रकार हेम पाण्डेय की हत्या के बहाने माओवाद के विभिन्न पहलुओं पर यह चर्चा इसलिये जरूरी है कि अब देश में माओवाद के सफाए के नाम पर स्वतंत्र विचारधारा या अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को भी कुचलने का ब्लू प्रिंट तैयार कर लिया गया है। श्री चिदम्बरम के गृह मंत्री बनने के बाद इस सरकारी ब्लू प्रिंट की रेखाएं स्पष्ट उभरने लगी हैं। अदिलाबाद में माओवादी नेता आजाद की हत्या के बाद पुलिस ने इसे अपनी बड़ी सफलता के रूप में प्रचारित किया और आजाद के साथ मारे गए (सर मार दिये गए) दूसरे व्यक्ति को माओवादी सहदेव बताया लेकिन जब दूसरे दिन अखबार में फोटो छपी तो हेम की पत्नी बबीता और उनके परिजनों ने उसकी पहचान की। इसके बाद पुलिस ने हेम को माओवादी बताना शुरू कर दिया। पुलिस के साथ-साथ देश का मध्यवर्ग भी लगभग यही सोच रखता है सो कुद बुद्धिजीवी पत्रकारों ने भी देश से अपने को अलग कर लिया।
माओवादी नेता आजाद की हत्या पर भी थोड़ी चर्चा कर लें। पुलिस कहती है कि आजाद आन्ध्रप्रदेश के अदिलाबाद के पास जंगल में एक मुठभेड़ में मारे गए। माओवादी कहते हैं कि पुलिस ने उन्हें नागपुर से गिरफ्तार किया और आदिलाबाद के पास ले जाकर बर्बरतापूर्वक उनकी हत्या कर दी और मुठभेड़ का नाम दे दिया। तथ्य बताते हैं कि आजाद शांतिवार्ता की पृष्ठ भूमि बनाने के लिये स्वामी अग्निवेश का पत्र लेकर केन्द्रीय समिति के अपने साथियों से विचार विमर्श करने के लिये दंडकारण्य में एक बैठक में जा रहे थे। उन्हें संघर्ष विराम की एक तारीख निश्चित करनी थी जिसे स्वामी अग्निवेश के माध्यम से गृहमंत्री पी. चिंदबरम तक पहुंचाना था। एक तरह से आजाद की हत्या कर सरकार ने विश्वासघात किया जो माओवादियों को ही प्रोत्साहित करेगा। जाने माने पत्रकार एवं वामपंथी चिंतक गौतम नवलखा इसे ‘‘दोहरी हत्या’’ करार देते हैं।
विगत कई दशकों से भारतीय राज्य सैन्यवादी नजरिये से काम कर रहा है। इसमें हिंसा की भूमिका भी प्रासंगिक है। लेकिन हिंसा की अपनी एक सीमा होती है। यह सीमा राजनीति से निर्धारित होती है। प्रतिरोध करना एक बात है। लेकिन वैकल्पिक राजनीति को सामने लाना दूसरी बात है। यह सही है कि विस्थापन का मुद्दा, खान के लिये जमीन हड़पने का मामला, उद्योग में लगे बड़े बड़े उद्योग घराने से सरकार व नेताओं की संवछता, जंगल, जल, जमीन पर अधिकार का मामला आदि ऐसे मसले हैं। जिसके समाधान की तत्काल उम्मीद तो नहीं दिखती। आखिर ऐसा क्यों है कि माओवादियों द्वारा की गई हिंसा के मुकाबले 10 लाख किसानों की आत्म हत्या पर ज्यादा शोर नहीं मचता।
कुछ सवाल माओवादियों से भी है। क्या माओवादी या क्रान्तिकारी वामपंथी कृषि क्षेत्र में आए पतन, उत्पादन बढ़ाने, विकास के नाम पर बेलगाम, पूंजी निवेश खनिज सम्पदा को लेकर हमारी नीति, गरीबी कम करने, अमीरी पर लगाने, राज्य को जिम्मेदार बनाने, आम जन के सशक्तिकरण, स्त्री समानता आदि के लिये उनके पास क्या वैकल्पिक नजरिया है। आखिर ऐसा क्यों है कि जम्मू-कश्मीर और उत्तर पूर्व में दो दसक से चल रहे सैन्य दमन ने हमें इस बात के लिये प्रेरित नहीं किया कि हम राज्य की प्रकृति और उसकी भूमिका पर विचार करें जो शांतिपूर्ण आन्दोलनों का दमन करता रहा है। क्या भारतीय राज्य हिंसा के सहारे शान्तिपूर्ण आन्दोलनों को कुचल कर निरकंुश सत्ता का केन्द्र बना रहना चाहता है।
भारत सरकार में सर्वोच्च प्रशासनिक अधिकारी रहे डा. ब्रह्मदेव शर्मा कहते हैं-चींटी पर यदि पांव रखोगे तो क्या वह छटपटाए या डंक भी न मारे। आखिर आत्मरक्षा का अधिकार तो आपका आई.पी.सी/सी.आर.पी.सी कानून भी देता है। आज आदिवासी अपने संसाधनों की लूट के खिलाफ संघर्ष कर रहे हैं। जब आप शान्तिपूर्ण संघर्ष को कुचलने की कोशिश करेंगे तो वे भी प्रतिक्रिया करेंगे और यह हर जीव का नैसर्गिक अधिकार है। एक बात यह भी महत्वपूर्ण है कि हिंसा के साधनों पर जब तक राज्य का एकाधिकार बना रहेगा और राज्य एकतरफा हिंसा व शस्त्रों के बलबूते जनका का दमन करती रहेगी तो जन विद्रोह भी खड़े होंगे और उसे रोक पाना सम्भव न होगा।
हेम पाण्डेय बेहद कम समय में जनपक्षीय पत्रकारिता के पैरोकार के रूप में उभर रहे हैं। मैंने भी उनके एक-दो प्रकाशित लेख पढ़े हैं। उसमें वंचित समुदाय आदिवासियों व उनके हक के लिये विभिन्न मुद्दों पर रिर्पोट व फीचर नुमा उनके लेख हैं। कहीं से भी मुझे हेम पाण्डेय के लेख में माओवाद या आंतकवाद का गन्ध नहीं मिला। हां वे दबे जुबान को आवाज देने के काम में जरूर लगे थे। लेकिन अभी उनकी कलम परवान चढ़ती उसके पहले ही उसे खत्म कर दिया गया। हमें सोचना होगा कि हम लोकतंत्रा को निरंकुश राजसत्ता के हवाले ही गिरवी रहने देंगे या विचार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिये संगठित संघर्ष करेंगे। हेम को श्रद्धांजलि देने की एक सार्थक परम्परा को भी स्थापित करना होगा।

बढ़ती महामारियों के दौर में

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