पिछले साल परमाणु करार पर संसद में बहस के दौरान कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी ने अपनी तकरीर में किसान आत्महत्याओं के लिये चर्चित विदर्भ की शशिकला का जिक्र करते हुए कहा था - ‘‘शशिकला के बच्चे लालटेन की रौशनी में पढ़ने को मजबूर हैं, लेकिन परमाणु बिल पारित होने के बाद शशिकला जैसे लोगों के परिवारों को बिजली मिलेगी और इनका सशक्तिकरण होगा।‘‘ ऐसी ही एक शशिकला विधवा हमीदा जो छः बच्चों की माँ है कहती है, ‘‘अरेवा परमाणु परियोजना हमारे लिए एटम बम की तरह है।’’ आज भले ही सरकार ने जैतापुर परमाणु संयंत्र के खिलाफ व्यापक जनआक्रोश को नकार कर इस परियोजना को हरी झण्डी दिखा दी हो लेकिन अरेवा और जैतापुर के इलाके से आने वाली खबरें बता रही हैं कि वहाँ के लोगों ने किसी भी कीमत पर इस परियोजना के खिलाफ डटे रहने का संकल्प व्यक्त किया है। खबर यह भी है कि रत्नागिरी जिले के कोई 100 स्कूलों के बच्चों ने भी अरेवा परियोजना के खिलाफ दो दिनों तक ‘‘स्कूल बन्द - पढ़ाई ठप्प’’ आन्दोलन चलाया है। अरेवा की नूरेशा कहती है - ‘‘यदि यह परियोजना नहीं रुकी तो हमारे पास विदर्भ के किसानों की तरह आत्महत्या के सिवाय और कोई चारा नहीं बचेगा।’’
उल्लेखनीय है कि जैतापुर परमाणु परियोजना भारत-अमरीका परमाणु समझौता के प्रभावी होने के बाद सम्भवतः पहली परियोजना है जिस पर सरकारें अडिग हैं। इस पर अमरीका, फ्रांस और भारत सरकार का स्वार्थ दांव पर लगा है। जाहिर है जैतापुर परमाणु परियोजना को जैसे भी हो सरकार पूरा करना चाहेगी क्योंकि इस पर भविष्य की सभी परमाणु परियोजनाओं का दारोमदार है। उधर रत्नागिरी जिले के कई गांवों की महिलाएँ, बच्चे और पुरुष जगह-जगह पर धरना देते, प्रदर्शन करते दिख जाएंगे। वहाँ की दीवारों पर गेरु व रंगों से लिखे नारे रोज ब रोज ताजा किये जाते हैं - ‘‘आमचा जीव घेण्या पूर्वी या प्रकल्पाचा धूवू’’ अर्थात् इसके पहले कि यह परियोजना हमारी जान ले आओ हमीं इसकी जान ले लें।
हाल ही में जापान में आए भीषण सुनामी और इसमें ध्वस्त फुकुशिमा परमाणु बिजलीघर में विस्फोट एवं रिसते रेडिएशन का असर (जो चेरनोबिल से कहीं ज्यादा है) की स्वीकारोक्ति के बाद जहाँ जापान सरकार ने अपने यहाँ सभी परमाणु परियोजनाओं पर पुर्नविचार का निर्णय लिया है वहीं जापान के भारत में राजदूत अकीटाका साईकी ने महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चौहान से विगत सोमवार को मिलकर इस परमाणु परियोजना को जारी रखने की अपील की है। उल्लेखनीय है कि महाराष्ट्र में प्रस्तावित कई परमाणु बिजलीघर एवं अन्य विकास योजनाओं में जापान का काफी कुछ दांव पर लगा है। फुकुशिमा हादसे के बाद केन्द्रीय पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने जहाँ कई बड़ी परमाणु बिजली परियोजनाओं पर ‘‘विराम’’ की बात कही थी वहीं आज ‘‘विराम नहीं’’ कहते नजर आ रहे हैं। जयराम रमेश कहते हैं कि परियोजना पूरी हो जाने के बाद जब 2019 में ये रियेक्टर शुरू हो जाएंगे तब पर्यावरण पर इसके व्यापक प्रभाव का अध्ययन किया जाएगा।
जैतापुर व अन्य परमाणु ऊर्जा परियोजनाओं पर चर्चा के बहाने आइये यह भी जान लें कि जैतापुर परमाणु बिजली परियोजना का आर्थिक गणित क्या कहता है। दरअसल जैतापुर प्रोजेक्ट सबसे मंहगे योरेपीय प्रसेराइज्ड रिएक्टर्स (ई.पी.आर.) पर आधारित है। यहां 1650 मेगावाट के जो छः रियेक्टर लगने वाले हैं उनमें से प्रत्येक की कीमत तकरीबन 7 अरब डालर है। इस हिसाब से यहां की लागत प्रति मेगावाट 21 करोड़ रुपये बैठेगी। इसमें ईंधन और संयंत्र के रख-रखाव की कीमत शामिल नहीं है। यह तो सीधे तौर पर होने वाले खर्च हैं लेकिन इसके परोक्ष खर्चे जो इससे कम नहीं होंगे उसकी तो बात ही न करें। अन्य उपलब्ध विकल्पों से प्राप्त बिजली की कीमत और जैतापुर से पैदा होने वाली बिजली की केवल लागत पूंजी पर आधारित कीमत की तुलना करें तो यह 8 से 9 करोड़ रुपये प्रति मेगावाट ज्यादा बैठते हैं। जैतापुर परमाणु विद्युत की कीमत के बारे में अब तक का अनुमान कहता है कि यह बिजली 5 से 8 रुपये प्रति यूनिट मंहगी होगी। आज की कीमतों में यह (लगभग 2.50 रुपये प्रति यूनिट) कोई तीन गुना ज्यादा है।
परमाणु बिजली के पैरोकारों को क्या कहें। क्या उन्हें पता नहीं कि हिरोशिमा और चेरनोबिल आज भी झुलस रहे हैं? हाल में जापान में आए सुनामी और वहाँ के सर्वाधिक सुरक्षित फुकुशिमा परमाणु संयंत्र के टूट कर बिखर जाने के सबक के बाद भी हम ‘‘रौशनी’’ और ‘‘आग’’ में फर्क नहीं कर पा रहे हैं। 6 अगस्त 1945 के परमाणु विध्वंस के बाद मशहूर जापानी कवि शुन्तारो ताकीनाबा ने लिखा था -
‘‘कोई और नहीं जो मेरी जगह मर सके, इसलिये मुझे ही मरना चाहिये...’’
रत्नागिरी में वहाँ के एक चिकित्सक एवं सामाजिक कार्यकर्त्ता डा. विवेक भिड़े कहते हैं - ‘‘रत्नागिरी तो पहले से ही विकास (?) की मार झेल रहा है। थर्मल पावर प्लान्ट, रसायन उद्योग और वैध-अवैध खनन से इतना प्रदूषण हो रहा है कि यहां जिन्दगी नरक से भी बदतर है। अब इस परमाणु परियोजना ने तो रही-सही कसर भी पूरी कर दी।’’ भारत के जाने माने परमाणु वैज्ञानिक एवं परमाणु ऊर्जा नियामक बोर्ड (ए.ई.आर.बी.) के पूर्व अध्यक्ष ए. गोपालकृष्णन कहते हैं,-‘‘पूरी दुनिया में अभी तक कहीं भी इस ई.पी.आर. तकनीक के रियेक्टर का निर्माण नहीं हुआ है। अब तक इसे जहां भी मंजूरी दी गई है वहां भी इसका काम पूरा नहीं हुआ है। अरेवा ई.पी.आर. परियोजना के तहत फिनलैण्ड और फ्रांस में जो निर्माण कार्य हो रहा था उसमें भी काफी विलंब हो चुका है। फ्रांस सरकार द्वारा इस बाबत कराई गई जांच में यह पाया गया है कि यह देरी इस परियोजना की डिजाइन की गम्भीर गड़बड़ियों और सुरक्षा सम्बन्धी अनसुलझे सवालों के कारण हो रही है।’’
जैतापुर के लोगों का गुस्सा इसलिए भी है कि प्रदेश सरकार के ‘‘एनवायरनमेन्ट इम्पैक्ट एसेसमेन्ट (ई.आई.ए.) ने प्रभावित इलाके को बंजर भूमि के तौर पर घोषित किया है। विडम्बना यह है कि महाराष्ट्र सरकार के रिकार्ड में रत्नागिरी जिले को बागवानी जिले का दर्जा प्राप्त है। यह इलाका अलफासों आम के साथ साथ काजू, नारियल, चीकू, कोकम, सुपारी जैसे महत्वपूर्ण फल उत्पादों के इलाके के रूप में जाना जाता है। मजे की बात यह भी कि प्रस्तावित परियोजना स्थल तथा इसके आसपास का इलाका महाराष्ट्र सरकार द्वारा एग्रो इकोनोमिक जोन और टूरिस्ट जोन के बतौर भी घोषित है। यहां जो जमीन कृषि लायक नहीं है वह पशुओं के चारागाह के तौर पर इस्तेमाल होता है। रत्नागिरी क्षेत्र विशाल मैंग्रोव से भी समृद्ध है लेकिन एनवायरमेन्ट इम्पैक्ट एसेसमेन्ट में यह इलाका 70 फीसद बजंर घोषित किया गया है। जाहिर है, परियोजना की अनिवार्यता सरकार की आंख बन्द कर देती है। शायद इसीलिये पर्यावरण मंत्री को भी अपनी जबान बदलनी पड़ती है।
एक बात और जहां परमाणु परियोजना स्थापित होनी है उस संकरी खाड़ी के दूसरे तट पर समुद्र से सटा एक गाँव है - साखरी नाटे। यह गाँव 5000 मछुआरों का गाँव है। ये मछुआरे अलग से आतंकित हैं क्योंकि परमाणु बिजली घर के गर्म व रेडियेशन युक्त पानी से यहां की मछलियों और जीव जन्तुओं के नष्ट होने, इससे उनकी जिन्दगी खत्म हो जाने का खतरा जो है। यह जानना भी दिलचस्प है कि यह गाँव जापान, योरोप और अन्य बड़े देशों को बड़ी मात्रा में मछली निर्यात करता है। जानकार बताते हैं कि इस परियोजना से यहाँ के साखरी नाटे गाँव के अलावा अन्य 10-12 गाँव भी उजड़ जाएंगे।
जैतापुर परमाणु परियोजना से प्रभावित गाँव व लोगों में अभी तक मात्र 112 लोगों ने मुआवजा लिया है। ये भी वे लोग हैं जो अनुपस्थित भूस्वामी हैं और इनका जमीन से सीधा कोई सम्बन्ध नहीं है। यहाँ की जमीन का मुआवजा 11200 रुपये प्रति एकड़ तय किया गया है। जिसे ग्रामीण ‘‘तुच्छ’’ बताते हैं। हापुस आम के पेड़ जिसकी उम्र 100 साल होती है, की कीमत कौड़ियों जैसी लगाई गई है। इन सभी तथ्यों और स्थितियों में वहाँ के लोगों ने लगभग सभी दीवारों पर एक नारा लिख रखा है -
‘‘जो आमचा आड आला तो सौ प्रतिशत गेला ‘‘यानि जो भी हमारे रास्ते मे आएगा वह निश्चित तौर पर जाएगा। बहरहाल जैतापुर और वहाँ के लोगों की नियति क्या होगी फिलहाल कह नहीं सकता, हाँ सरकार ने तो तय कर लिया है - जैतापुर परियोजना बनके रहेगी।
A Senior Homoeopathic Medical Consultant & public Health Activist.Regularly Writing on Various Health, Environmental & Socio-Political issues.
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