A Senior Homoeopathic Medical Consultant & public Health Activist.Regularly Writing on Various Health, Environmental & Socio-Political issues.
Thursday, September 29, 2011
Thursday, September 22, 2011
प्राकृतिक आपदाओं से हम क्यों नहीं सीखते ?
यों तो पहाड़ पर जीवन स्वयं में ही एक आपदा है लेकिन यदि सब कुछ सामान्य हो तो पहाड़ पर रहकर जीने वाले लोग अपने जीवन (आपदा) का प्रबन्धन करना भी बखबूी जानते हैं। अभी 18 सितम्बर को आए भूकम्प का केन्द्र सिक्किम था और इसकी तीव्रता 6.8 मापी गई। पहाड़ पर इतनी तीव्रता का भूकम्प शक्तिशाली माना जाता है और इसमें होने वाली क्षति को गम्भीर क्षति से कमतर नहीं आंका जा सकता। इस भूकम्प के तीन दिन यानि 72 घंटे बाद भी वहां के कई ऐसे इलाके और गांव हैं जहां राहत दल पहुंच भी नहीं पाया है और यहां पीने का पानी भी नही हैए अन्दाजा लगाया जा सकता है कि सुरक्षा और आपदा प्रबन्धन का हमारा तंत्र वास्तव मे कितना मजबूत और सुरक्षित है।
इस लेख को लिखे जाने तक स्थिति यह है कि केन्द्र सरकार न तो सिक्किम के भूकम्प की पूरी जानकारी इकट्ठा कर पाई है और न ही होने वाली क्षति का समुचित आकलन। मसलन दशहत और नाउम्मीदी में जीते सिक्किम के 54 लाख लोग और 450 गांव अभी भी अपने बरर्बादी पर आंसू बहा रहे हैं। इसके अलावा वे और कर भी क्या सकते हैं। सिक्किम में भूकम्प से मरने वालों की आधिकारिक संख्या 65 बताई जा रही है लेकिन गंगटोक के एक स्वयं सेवी संस्था की मानें तो मृतकों की संख्या इससे कई गुना ज्यादा है। सिक्किम में ही तैनात भारतीय सेना के जीओसी 17 माउन्टेन डिवीजन के मेजर जनरल एस.एल. नरसिम्हन ने बताया कि खराब मौसम के कारण अभी भी यहां के पश्चिम और दक्षिण जिले में सेना को पहुंचने में कठिनाई हो रही है।
यह सही है कि भूकम्प को रोक पाना इंसानोंए मशीनों और कम्प्यूटर के वश में नहीं है लेकिन आपदाओं की सूचना के बाद तो हम प्रभावशाली राहत कार्य एवं आपदा-प्रबन्धन तो कर ही सकते हैं। हमने हाल फिलहाल में कई बड़े प्राकृतिक हादसे देखे और झेले हैं लेकिन अफसोस कि हम इन आपदाओं से निबटने के लिये कोई तार्किक एवं सुलभ प्रणाली तक विकसित नहीं कर पाए हैं। वजह साफ है कि आपदा प्रबन्धन हमारी प्राथमिकता में है ही नहीं। तकनीकी तौर पर देखें तो 6.8 रिक्टर पैमाने का भूकम्प आवासीय इलाके के लिये विनाशकारी माना जाता है। पर्वतीय क्षेत्र के लिये तो यह भंयकर तबाही का मंजर होता है लेकिन प्रशासनिक एवं राजनीतिक रूप से इस भूकम्प ने हमारे नीति निर्धारकों का ध्यान ज्यादा आकर्षित नहीं किया है। तभी तो अखबारों और समाचार माध्यमो ंकी सक्रियता के बावजूद प्रशासनिक एवं राजनीति सक्रियता उतनी नहीं दिखती। नई दिल्ली और इसके आस-पास का नागरिक समाज की उतना चिन्तित नहीं है जितना कि वह अन्य इलाके के लिये होता है।
सिक्किम भूकम्प ने कई सवाल खड़े किये हैं। इसमें एक अहम सवाल तो यह है कि विविधताओं का देश भारत अपने सभी प्रवेशों और नागरिकों के प्रति क्या अपनी समयक जिम्मेवारी का निर्वाह कर पा रहा है? क्या वह अपने पर्वतीय क्षेत्र के नागरिकों को आम नागरिकों की तरह की सुविधा एवं व्यवस्था दे पा रहा है? क्या राष्ट्रीय राजधानी अपने संुदूर पर्वतीय क्षेत्र के लोगों से उतना ही गम्भीर रूप से जुड़ा है जितना कि अन्य क्षेत्रों के लोागें से। क्या पर्वतीय इलाके में रहने वाले लोग अपने देश और शासक वर्ग से उतना ही जीवंत सम्बन्ध रखते हैं जितना की अन्य लोग? ऐसे ही एक और कड़वा सवाल बार-बार खड़ा होता है कि पर्वतीय प्रदेशों के प्रति जब हमारी सरकार इतनी उदासीन है तो वे क्यों न आत्मनिर्णय की मांग करें? गाहे बगाहे ऐसे सवाल खड़े भी होते हैं लेकिन उसका समुचित जवाब देने की बजाय नई दिल्ली या तो कड़े सैन्य कानून का सहारा लेती है या उन्हें अलगाववादी करार देती है। सिक्किम भूकम्प ने ऐसे कई सवाल खड़े किये हैं जिसका जवाब हम आम नागरिक और नई दिल्ली को सहिष्णु और गम्भीर बनकर ढूंढ़ना होगा।
सन् 2001 के विनाशकारी भूकम्प के बाद ही केन्द्र सरकार ने राष्ट्रीय आपदा प्रबन्धन प्राधिकरण के गठन की घोषणा की थी। प्राधिकरण बन भी गया। कई महत्वपूर्ण स्थानों पर जिला आपदा केन्द्र भी बने लेकिन इन केन्द्रों की स्थिति अच्छी नहीं है। कुछ अपवाद को छोड़कर लगभग अधिकांश आपदा प्रबन्धन केन्द्र स्वयं आपदाग्रस्त हैं। तीव्र भूकम्प, सुनामी एवं भयानक हादसों से गुजरता देश भारत, कामनवेल्थ खेल और ओलंपिक के आयोजन में तो रुचि लेता है लेकिन वह समुद्री तूफानों की पूर्व चेतावनी के लिये बने अन्र्तराष्ट्रीय चेतावनी व्यवस्था (इन्टरनेशनल वार्निंग सिस्टम) का भी सदस्य नहीं बन पाता है। बताते हैं कि यदि भारत इस सिस्टम का सदस्य होता तो वर्ष 2004 में आए सुनामी में इतनी बड़ी संख्या में इन्सानी जान की तबाही शायद नहीं होती। हालांकि एक अरब रुपये से भी ज्यादा की लागत से सुनामी चेतावनी प्रणाली लगाने की केन्द्र सरकार ने घोषणा की थी मालूम नहीं उसका क्या हुआ।
सिक्किम पर लौटें। सबसे पहले तो सरकारी और गैरसरकारी दोनों तौर पर सिक्किम एवं देश के अन्य हिस्सों में आए भूकमप से प्रभावितों को फौरी राहत के लिये सक्रिय हो जाना चाहिये। सेना और स्थानीय प्रशासन के साथ साथ स्वयं सेवी संगठनों को अतिरिक्त सक्रियता के साथ भूकम्प पीडि़तों की आवश्यकताओं को पूरा करना चाहिये। यह सच है कि मुआवजे या तात्कालीन राहत आपदा में हुए नुकसान की क्षति पूर्ति नहीं कर सकते लेकिन संकट के समय मदद के लिये खड़े होना संकट/आपदा ग्रस्त परिवार को बड़ी हिम्मत प्रदान करता है।
सफल आपदा प्रबन्धन की पहली शर्त होती है मजबूत सूचना एवं सम्पर्क प्रणाली। खास कर पर्वतीय क्षेत्र में जब सम्पर्क के माध्यम सीमित हों तो विशिष्ट साधनों जैसे हेलिकाप्टर, वाईफाई, रेडियो आदि तंत्रों को सदैव दुरूस्त रखना चाहिये। हमारे पर्वतीय क्षेत्र में प्राशसनिक भ्रष्टाचार की अनगिनत बानगी देखने-सुनने को मिलती है। हमें एक ईमानदार, जवाबदेह व्यवस्था की मदद से इन इलाके को जीरो टालरेन्स एरिया की तरह विकसित करना चाहिये। यथासम्भव सहकारी समितियों या अन्य भरोषेमन्द समितियों की मदद से आपदा प्रबन्धन मशीनरी को विकसित करना चाहिये।
एक राष्ट्र राज्य के नाते भारत को अपने पर्वतीय प्रदेशों, इलाकों में सामान्य प्रशासन एवं आपदा प्रबन्धन दोनों के लिये ज्यादा संवेदनशील होना पड़ेगा। वैसे भी दुर्गम क्षेत्र में हमारे पर्वतीय प्रदेश के लोग कठिन जीवन बिताते हैं। यह विडम्बना ही है कि हम सधन सम्पन्न मैदानी इलाके में रहने वाले लोग पर्वतीय प्रदेशों या क्षेत्र को महज पर्यटन की दृष्टि से इस्तेमाल करते हैं। यदि भारतीय प्रदेशों की एकता और अखण्डता की हम इतनी ही चिंता करते हैं तो हमें इन क्षेत्रों में घटने वाली हर अच्छी बुरी घटना या आपदा से स्वयं को जोड़़ना होगा। भारत का लगभग पूरा क्षेत्र ही भूकम्प संवेदी क्षेत्र है। ऐसे में हम भारतीयों को दूरदर्शी होकर अपने सभी क्षेत्र में रहने वाले लोगों की समस्याओं व मुसीबतों में स्वयं को जोड़़ना चाहिये। तभी हमारी सरकारों पर भी दबाव बनेगा और वह देश के केरल से कश्मीर और उड़ीसा से सिक्किम तक के नागरिकों की बराबर परवाह करे। सिक्किम का भूकमप हमें चेतावनी भी देता है और भविष्य के लिये मौका भी। वर्ना हम एशिया प्रांत के सर्वाधिक ज्वलनशील एवं उत्तेजक क्षेत्र में बसे राष्ट्र हैं जहां कई प्रकार की राष्ट्रीय अन्र्तराष्ट्रीय आपदाएं भी हमें चुनौती दे रही हैं।
इस लेख को लिखे जाने तक स्थिति यह है कि केन्द्र सरकार न तो सिक्किम के भूकम्प की पूरी जानकारी इकट्ठा कर पाई है और न ही होने वाली क्षति का समुचित आकलन। मसलन दशहत और नाउम्मीदी में जीते सिक्किम के 54 लाख लोग और 450 गांव अभी भी अपने बरर्बादी पर आंसू बहा रहे हैं। इसके अलावा वे और कर भी क्या सकते हैं। सिक्किम में भूकम्प से मरने वालों की आधिकारिक संख्या 65 बताई जा रही है लेकिन गंगटोक के एक स्वयं सेवी संस्था की मानें तो मृतकों की संख्या इससे कई गुना ज्यादा है। सिक्किम में ही तैनात भारतीय सेना के जीओसी 17 माउन्टेन डिवीजन के मेजर जनरल एस.एल. नरसिम्हन ने बताया कि खराब मौसम के कारण अभी भी यहां के पश्चिम और दक्षिण जिले में सेना को पहुंचने में कठिनाई हो रही है।
यह सही है कि भूकम्प को रोक पाना इंसानोंए मशीनों और कम्प्यूटर के वश में नहीं है लेकिन आपदाओं की सूचना के बाद तो हम प्रभावशाली राहत कार्य एवं आपदा-प्रबन्धन तो कर ही सकते हैं। हमने हाल फिलहाल में कई बड़े प्राकृतिक हादसे देखे और झेले हैं लेकिन अफसोस कि हम इन आपदाओं से निबटने के लिये कोई तार्किक एवं सुलभ प्रणाली तक विकसित नहीं कर पाए हैं। वजह साफ है कि आपदा प्रबन्धन हमारी प्राथमिकता में है ही नहीं। तकनीकी तौर पर देखें तो 6.8 रिक्टर पैमाने का भूकम्प आवासीय इलाके के लिये विनाशकारी माना जाता है। पर्वतीय क्षेत्र के लिये तो यह भंयकर तबाही का मंजर होता है लेकिन प्रशासनिक एवं राजनीतिक रूप से इस भूकम्प ने हमारे नीति निर्धारकों का ध्यान ज्यादा आकर्षित नहीं किया है। तभी तो अखबारों और समाचार माध्यमो ंकी सक्रियता के बावजूद प्रशासनिक एवं राजनीति सक्रियता उतनी नहीं दिखती। नई दिल्ली और इसके आस-पास का नागरिक समाज की उतना चिन्तित नहीं है जितना कि वह अन्य इलाके के लिये होता है।
सिक्किम भूकम्प ने कई सवाल खड़े किये हैं। इसमें एक अहम सवाल तो यह है कि विविधताओं का देश भारत अपने सभी प्रवेशों और नागरिकों के प्रति क्या अपनी समयक जिम्मेवारी का निर्वाह कर पा रहा है? क्या वह अपने पर्वतीय क्षेत्र के नागरिकों को आम नागरिकों की तरह की सुविधा एवं व्यवस्था दे पा रहा है? क्या राष्ट्रीय राजधानी अपने संुदूर पर्वतीय क्षेत्र के लोगों से उतना ही गम्भीर रूप से जुड़ा है जितना कि अन्य क्षेत्रों के लोागें से। क्या पर्वतीय इलाके में रहने वाले लोग अपने देश और शासक वर्ग से उतना ही जीवंत सम्बन्ध रखते हैं जितना की अन्य लोग? ऐसे ही एक और कड़वा सवाल बार-बार खड़ा होता है कि पर्वतीय प्रदेशों के प्रति जब हमारी सरकार इतनी उदासीन है तो वे क्यों न आत्मनिर्णय की मांग करें? गाहे बगाहे ऐसे सवाल खड़े भी होते हैं लेकिन उसका समुचित जवाब देने की बजाय नई दिल्ली या तो कड़े सैन्य कानून का सहारा लेती है या उन्हें अलगाववादी करार देती है। सिक्किम भूकम्प ने ऐसे कई सवाल खड़े किये हैं जिसका जवाब हम आम नागरिक और नई दिल्ली को सहिष्णु और गम्भीर बनकर ढूंढ़ना होगा।
सन् 2001 के विनाशकारी भूकम्प के बाद ही केन्द्र सरकार ने राष्ट्रीय आपदा प्रबन्धन प्राधिकरण के गठन की घोषणा की थी। प्राधिकरण बन भी गया। कई महत्वपूर्ण स्थानों पर जिला आपदा केन्द्र भी बने लेकिन इन केन्द्रों की स्थिति अच्छी नहीं है। कुछ अपवाद को छोड़कर लगभग अधिकांश आपदा प्रबन्धन केन्द्र स्वयं आपदाग्रस्त हैं। तीव्र भूकम्प, सुनामी एवं भयानक हादसों से गुजरता देश भारत, कामनवेल्थ खेल और ओलंपिक के आयोजन में तो रुचि लेता है लेकिन वह समुद्री तूफानों की पूर्व चेतावनी के लिये बने अन्र्तराष्ट्रीय चेतावनी व्यवस्था (इन्टरनेशनल वार्निंग सिस्टम) का भी सदस्य नहीं बन पाता है। बताते हैं कि यदि भारत इस सिस्टम का सदस्य होता तो वर्ष 2004 में आए सुनामी में इतनी बड़ी संख्या में इन्सानी जान की तबाही शायद नहीं होती। हालांकि एक अरब रुपये से भी ज्यादा की लागत से सुनामी चेतावनी प्रणाली लगाने की केन्द्र सरकार ने घोषणा की थी मालूम नहीं उसका क्या हुआ।
सिक्किम पर लौटें। सबसे पहले तो सरकारी और गैरसरकारी दोनों तौर पर सिक्किम एवं देश के अन्य हिस्सों में आए भूकमप से प्रभावितों को फौरी राहत के लिये सक्रिय हो जाना चाहिये। सेना और स्थानीय प्रशासन के साथ साथ स्वयं सेवी संगठनों को अतिरिक्त सक्रियता के साथ भूकम्प पीडि़तों की आवश्यकताओं को पूरा करना चाहिये। यह सच है कि मुआवजे या तात्कालीन राहत आपदा में हुए नुकसान की क्षति पूर्ति नहीं कर सकते लेकिन संकट के समय मदद के लिये खड़े होना संकट/आपदा ग्रस्त परिवार को बड़ी हिम्मत प्रदान करता है।
सफल आपदा प्रबन्धन की पहली शर्त होती है मजबूत सूचना एवं सम्पर्क प्रणाली। खास कर पर्वतीय क्षेत्र में जब सम्पर्क के माध्यम सीमित हों तो विशिष्ट साधनों जैसे हेलिकाप्टर, वाईफाई, रेडियो आदि तंत्रों को सदैव दुरूस्त रखना चाहिये। हमारे पर्वतीय क्षेत्र में प्राशसनिक भ्रष्टाचार की अनगिनत बानगी देखने-सुनने को मिलती है। हमें एक ईमानदार, जवाबदेह व्यवस्था की मदद से इन इलाके को जीरो टालरेन्स एरिया की तरह विकसित करना चाहिये। यथासम्भव सहकारी समितियों या अन्य भरोषेमन्द समितियों की मदद से आपदा प्रबन्धन मशीनरी को विकसित करना चाहिये।
एक राष्ट्र राज्य के नाते भारत को अपने पर्वतीय प्रदेशों, इलाकों में सामान्य प्रशासन एवं आपदा प्रबन्धन दोनों के लिये ज्यादा संवेदनशील होना पड़ेगा। वैसे भी दुर्गम क्षेत्र में हमारे पर्वतीय प्रदेश के लोग कठिन जीवन बिताते हैं। यह विडम्बना ही है कि हम सधन सम्पन्न मैदानी इलाके में रहने वाले लोग पर्वतीय प्रदेशों या क्षेत्र को महज पर्यटन की दृष्टि से इस्तेमाल करते हैं। यदि भारतीय प्रदेशों की एकता और अखण्डता की हम इतनी ही चिंता करते हैं तो हमें इन क्षेत्रों में घटने वाली हर अच्छी बुरी घटना या आपदा से स्वयं को जोड़़ना होगा। भारत का लगभग पूरा क्षेत्र ही भूकम्प संवेदी क्षेत्र है। ऐसे में हम भारतीयों को दूरदर्शी होकर अपने सभी क्षेत्र में रहने वाले लोगों की समस्याओं व मुसीबतों में स्वयं को जोड़़ना चाहिये। तभी हमारी सरकारों पर भी दबाव बनेगा और वह देश के केरल से कश्मीर और उड़ीसा से सिक्किम तक के नागरिकों की बराबर परवाह करे। सिक्किम का भूकमप हमें चेतावनी भी देता है और भविष्य के लिये मौका भी। वर्ना हम एशिया प्रांत के सर्वाधिक ज्वलनशील एवं उत्तेजक क्षेत्र में बसे राष्ट्र हैं जहां कई प्रकार की राष्ट्रीय अन्र्तराष्ट्रीय आपदाएं भी हमें चुनौती दे रही हैं।
Friday, September 9, 2011
क्यों बढ़ रहे हैं आतंकी हमले
7/9 को दिल्ली उच्च न्यायालय पर हुआ आतंकी हमला आम लोगों द्वारा आतंक को सहते रहने की मजबूरी से ज्यादा भारतीय शासन तंत्र द्वारा आतंक पर राजनीति करते रहने का नतीजा है। ‘‘आतंक’’ भी इतना बेखौफ और निश्चित कि उसने महज साढ़े तीन महीने में ही पलट कर अपने-उसी सुनियोजित एवं सुविचारित टारगेट पर फिर से आक्रमण किया। ठीक वैसे ही जैसे 26/11 के बाद 13/7 को आतंक ने मुम्बई को दोबारा निशाना बनाया था। 26/11 के बाद नवनियुक्त गृह मंत्री पी. चिदम्बरम ने घोषणा की थी कि भारत पर यह अन्तिम आतंकवादी हमला है। भारतीय शासनतंत्र की बारीकियों और यहां के शासक वर्ग की प्रवृतियों से पूरी तरह वाकिफ ‘‘आतंक’’ इस मामले में आश्वस्त है कि यहां उसके खिलाफ कोई मजबूत राजनीतिक इच्छा शक्ति तो है नहीं, सो जो भी चाहो, जहां-चाहो खुलकर करो।
बार-बार आतंकी हमले झेलता हिन्दुस्तान और हिन्दुस्तानी आवाम की हकीकत यह है कि वह सत्ताधारी वर्ग द्वारा ‘‘राम भरोसे’’ छोड़ दिया गया है। आम आदमी की हैसियत सिर्फ कर चुकाने और सत्ता की जी हजूरी करने से ज्यादा कुछ नहीं है। 26/11 को मुम्बई और आतंकी हमले के बाद इसी यू.पी.ए. सरकार के गृहसचिव के नेतृत्व में गठित समिति ने जांच के बाद कहा था कि देश में द्रुत कार्य बल (क्यू.आर.टी.) का गठन किया जाएगा, राज्य और औद्योगिक सुरक्षा बल की स्थापना तथा प्रधान गृह सचिव को आई.बी एवं रॉ समेत विभिन्न सुरक्षा एजेन्सियों से सूचना प्राप्त करने के लिए नोडल अधिकारी बनाया जाएगा लेकिन आज भी स्थिति में ज्यादा परिवर्तन नहीं है। सच्चाई यह है कि क्यू.आर.टी. को यूनिफार्म तक उपलब्ध नहीं कराया जा सका है और राज्य औद्योगिक सुरक्षा बल के गठन की भूमिका भी नहीं बन सकी है।
भारत में बढ़ते आतंकी हमले का एक पहलू यह भी है कि भारतीय राज्य एक नरम राज्य है। बार बार आतंक से मिल रही चुनौती का करारा जबाव देने की बजाय भारत सरकार आन्तरिक राजनीतिक विवाद या तुष्टीकरण की राजनीति में व्यस्त हो जाती है। 26/11 के बाद यह जोर देकर कहा गया था कि ‘‘जेड सुरक्षा’’ के प्रति अभिजात्य वर्ग की सनक को कम कर इसमें लगे संसाधनों का उपयोग आम नागरिकों की सुरक्षा में किया जाएगा, लेकिन लाल बत्ती वाले सामन्ती लोकतंत्र में ऐसी उम्मीद बेमानी है। आतंक से लड़ने की सरकारी इच्छा शक्ति का नजारा देखिये। पाकिस्तान को सौपे आतंकवादियो की सूची भी दुरूस्त नही थी । लोकसभा में विदेश मंत्री भारतीय जेलों में बंद पाकिस्तानी नागरिक के बारे में जवाब दे रहे थे कि पाकिस्तानी जेल में भारतीय नागरिक बंद हैं। वो तो भला हो प्रधानमंत्री का जो बीच में ही टोक कर विदेश मंत्री का भूल सुधार कर लिया। यही विदेश मंत्री अन्तर्राष्ट्रीय मंचों पर जाकर भारत की ओर से किसी दूसरे देश का पर्चा पढ़ने लगते हैं। अभी जब 7/9 की घटना पर ग्रह मंत्री पी. चिदम्बरम संसद में बयान दे रहे थे। उन्हीं के बगल में बैठे दूसरे केन्द्रिय मंत्री विरप्पा मोइली ऊंघ रहे रहे थे। भारतीय शासन तंत्र के शासक वर्ग के चरित्र की यह तो मात्र बानगी है।
भारत में आतंक के पनपने की एक और बड़ी वजह है यहां राजनीति व शासन तंत्र की मुख्य धारा से आम आदमी को खारिज कर देना। देश की नीतियां बनाने वालों में कारपोरेट के दलालों और विदेशियों के पैरोकारों के बढ़ते वर्चस्व ने भारतीय राजनीति पर कब्जा कर लिया है। विगत दो ढाई दशक में भारतीय शासक वर्ग के रूप में जिस गिरोह ने अपनी पकड़ मजबूत बनाई है वह निरंकुश, बेशर्म और जनविरोधी है। आजादी के बाद सबसे ज्यादा सत्ता सुख भोगने वाली पार्टी कांग्रेस और इनके सहयोगी दलों ने मानों मान लिया है कि सत्ता महज पैसे और ताकत का खेल है। इसलिये सत्ता को पैसे और ताकत से प्राप्त करो और इसी ताकत से उस पर काबिज रहो। विगत 5,7 वर्षों में यू.पी.ए. सरकार का रिपोर्ट कार्ड तैयार करें तो देश एवं राज्यों में सत्ता पर काबिज इन दलों के नेताओं की करतूत और कालाबाजारी का स्पष्ट नमूना आप सबको दिख जाएगा। सरकार चाहे महराष्ट्र की हो या दिल्ली की भ्रष्टाचार के कीर्तिमानों के बावजूद इनके वजूद पर कोई खतरा नहीं है। इनकी मर्जी चले तो अगले चुनाव में भी सत्ता इन्हीं की होगी। इसलिये आम आदमी को अपनी असली हैसियत में आना ही होगा।
दिल्ली उच्च न्यायालय पर 7/9 का आतंकी हमला केन्द्रीय गृह मंत्री पी. चिदम्बरम के उस दावे की पोल खोलने के लिये काफी है जिसमें उन्होंने साफ शब्दों में कहा था कि 26/11 का हमला भारत पर अन्तिम आतंकी हमला है। आज सच सामने है। गृह मंत्री के आन्तरिक सुरक्षा संबंधी सभी दावे फिस्स हो गए हैं और आंतक पहले से ज्यादा मुखर और निर्भीक होकर भारतीय शासन व्यवस्था को चुनौती दे रहा है। सवाल यह उठता है कि भारत में बार बार हो रहे आतंकी हमले की मुख्य वजहें क्या हैं? इनमें यहां की लचर शासन व्यवस्था, कमजोर खुफिया तंत्र, नकारा, पुलिस, भ्रष्ट अधिकारी और दृष्टिविहीन नेता के साथ-साथ गफलत में जी रही जनता भी जिम्मेवार है। इससे भी ज्यादा जिम्मेवार तो भारतीय शासन तंत्र की लचर नीतियां और कमजोर सुरक्षा तैयारी को ठहराया जाना चाहिये जिस पर कभी सरकार गम्भीर नहीं दिखी।
आंतक और आंतकी के जाति, धर्म और राजनीति ने भी भारत में आतंकवाद को फलने-फूलने में मदद पहुंचाई है। सब जानते हैं कि अदालत की सक्रियता के बावजूद सरकारों ने आतंकी को बचाने के लिये कैसी कैसी राजनीति की। आज भी आतंक पर जारी बहस में आतंकी के पक्ष में तर्क देने वालों की कमी नहीं है जबकि न्याय की पूरी प्रक्रिया के बाद जब अदालतों ने कइ मामलांे मंे अपना फैसला सुना दिया है तब राजनीति इसमें अपना नफा-नुकसान ढूढ़ने लगी है। राजनीति के इस गिरगिटी रूप का आतंक पूरा फायदा ले रहा है और जब उसे आम आदमी के खून का स्वाद मिल चुका हो तब भला वह चुप कैसे बैठ सकता है।
हमारे शासक वर्ग और राजनीतिज्ञों को यह भी ध्यान में रखना चाहिये कि आतंक को युद्ध से मिटाया नहीं जा सकता। यह राजनीतिक लड़ाई है लेकिन राजनीति की इस लड़ाई में तुच्छ राजनीति का कोई स्थान नहीं होता। किसी भी देश में कानून और व्यवस्था राजनीति से ऊपर होनी चाहिये। आज हमारे देश में कानून और व्यवस्था पर राजनीति हावी है। आम लोगों से राजनति और राजनीतिज्ञों का हाल पूछिये, जवाब मिलेगा-‘‘सब चोर हैं।’’ जाहिर है राजनीतिज्ञों ने अपनी विश्वसनियता खो दी है। इसका दृश्यावलोकन पूरे देश ने हाल ही में अन्ना हजारे के सत्याग्रह/आन्दोलन में किया। आतंक से लड़ने के लिये युद्ध की बजाय संघर्ष और राजनीति (सच्ची देश भक्ति की राजनीति) को तेज करना होगा। मामले को निर्णय के बाद टालने और लटकाने के गम्भीर परिणाम होते हैं। इसलिये देश के नाम पर राजनीति की बजाय देश के लिये राजनीति को विकसित करना होगा जिसमें कानून से ऊपर कोई भी नहीं होता।
भारत में माननीयगण एक विशेष ग्रन्थि के शिकार है। स्वयं को कानून से ऊपर मानना, अपने को विशिष्ट समझना और कानून में दखल देना अपना जन्मसिद्ध अधिकार मान लिया है। सब जानते हैं कि कानून को ठेंगा दिखाने वाले 90 फीसद लोगों में से माननीय ही हैं। जिम्मेदारी के पद पर बैठे लोग कितने जिम्मेदार हैं यह पूरा देश जानता है। 26/11 के बाद अपने शरीर साज-सज्जा के लिये ज्यादा पहचाने जाने वाले गृहमंत्री की बिदाई कर यू.पी.ए. की मनमोहन सरकार ने एक दूसरे बड़बोले गृहमंत्री को कमान सौंपी लेकिन स्थिति ज्यों की त्यों रही। वर्तमान गृह मंत्री से पूछा जाना चाहिये कि 26/11 को मुम्बई पर हुए आतंकी हमले को अन्तिम हमला बताने के बाद कौन-कौन से सार्थक कदम उठाए गए जिससे देश की आन्तरिक सुरक्षा मजबूत हुई हो।
भ्रष्टाचार में आंकठ डूबे देश में इसके खिलाफ आन्दोलन करने वाले सामाजिक कार्यकर्ताओं को ही निशाना बनाने और सबक सिखाने में लगी सरकार भूल गई कि उसके जिम्मे इससे भी बड़ा और जरूरी काम आन्तरिक सुरक्षा को सुदृढ़ करना है न कि अपने आइने को ही फोड़ना। भ्रष्टाचार आतंकवाद की सहोदर बहन है। आतंकवाद को मिटाने के लिये भ्रष्टाचार को भी मिटाना होगा, लेकिन भ्रष्टाचार में आकंठ डूबी, मनमोहन सरकार और कांग्रेसी भाजपाई नेताओं से परे इस देश में आसान नहीं है भ्रष्टाचार खत्म करना क्योंकि सत्ता की राजनीति ने भ्रष्टाचार से रिष्ते बना लिये हैं। आज देश बाहरी आतंकवाद से ज्यादा आन्तरिक आतंक झेल रहा है। इसलिये सिर्फ सैनिक कारवाई से काम नहीं चलेगा। सवाल लोगों के जीवन और जीवन की आजीविका से जुड़ा हैए विकास की नीति से जुड़ा है। सम्मान से जीने के अधिकार से जुड़ा है। इसलिये हे माननीय लोगों, आसमान से उतरो और जमीन पर विचरण करो। हर आम आदमी के अश्क में तुम्हे राजनीति का नया अध्याय दिखेगा। उसे पढ़ो और देश की नयी राजनीति को समझो। जनता के पैसों पर ऐश करके कारपोरेट की दलाली से देश में शान्ति नहीं आ सकती। देश आम आदमी का है इसलिये नीतियां उसकी चलेंगी न कि कार्पोरेट की।
आतंक ने अब अपना रुख न्यायपालिका की ओर क्यों कर दिया यह भी विचार करने योग्य प्रश्न है। जब राजनीति और शाषण कानून को सही परिभाषित करने और इसे लागू करने में हिचकने लगा तो कमान न्यायपालिका ने सम्भाली। लोगों को न्याय देने के उसके जनपक्षीय फैसलों से आतंक को सीधे चोट पड़ने लगी तो आतंक ने न्यायपालिका पर निशाना लगाना शुरु किया। दिल्ली उच्च न्यायालय पर ताजा आतंकी हमला यही संदेश देता है कि जब राजनीति ने घुटने टेक दिये और आतंक से हाथ मिला लिया तो अब न्यायपालिका आखिर क्यों सक्रिय हो गईघ् देश की हर जनपक्षीय व्यवस्था को छिन्न-भिन्न करने की इस आतंकी साजिश को खत्म करने का एक ही रास्ता है कि देश में कानून का शासन हो, नागरिक और माननीय अनुशासित रहें, कानून का पालन करें और जनता को श्रेष्ठ मानें। लोगों के असंतोष बंदूक से नहीं दबाए जाते। उन्हें बातचीत और जनहित से सुलझाया जाता है। यह सबक भी भारतीय शासन तंत्र को समझना होगा।
बार-बार आतंकी हमले झेलता हिन्दुस्तान और हिन्दुस्तानी आवाम की हकीकत यह है कि वह सत्ताधारी वर्ग द्वारा ‘‘राम भरोसे’’ छोड़ दिया गया है। आम आदमी की हैसियत सिर्फ कर चुकाने और सत्ता की जी हजूरी करने से ज्यादा कुछ नहीं है। 26/11 को मुम्बई और आतंकी हमले के बाद इसी यू.पी.ए. सरकार के गृहसचिव के नेतृत्व में गठित समिति ने जांच के बाद कहा था कि देश में द्रुत कार्य बल (क्यू.आर.टी.) का गठन किया जाएगा, राज्य और औद्योगिक सुरक्षा बल की स्थापना तथा प्रधान गृह सचिव को आई.बी एवं रॉ समेत विभिन्न सुरक्षा एजेन्सियों से सूचना प्राप्त करने के लिए नोडल अधिकारी बनाया जाएगा लेकिन आज भी स्थिति में ज्यादा परिवर्तन नहीं है। सच्चाई यह है कि क्यू.आर.टी. को यूनिफार्म तक उपलब्ध नहीं कराया जा सका है और राज्य औद्योगिक सुरक्षा बल के गठन की भूमिका भी नहीं बन सकी है।
भारत में बढ़ते आतंकी हमले का एक पहलू यह भी है कि भारतीय राज्य एक नरम राज्य है। बार बार आतंक से मिल रही चुनौती का करारा जबाव देने की बजाय भारत सरकार आन्तरिक राजनीतिक विवाद या तुष्टीकरण की राजनीति में व्यस्त हो जाती है। 26/11 के बाद यह जोर देकर कहा गया था कि ‘‘जेड सुरक्षा’’ के प्रति अभिजात्य वर्ग की सनक को कम कर इसमें लगे संसाधनों का उपयोग आम नागरिकों की सुरक्षा में किया जाएगा, लेकिन लाल बत्ती वाले सामन्ती लोकतंत्र में ऐसी उम्मीद बेमानी है। आतंक से लड़ने की सरकारी इच्छा शक्ति का नजारा देखिये। पाकिस्तान को सौपे आतंकवादियो की सूची भी दुरूस्त नही थी । लोकसभा में विदेश मंत्री भारतीय जेलों में बंद पाकिस्तानी नागरिक के बारे में जवाब दे रहे थे कि पाकिस्तानी जेल में भारतीय नागरिक बंद हैं। वो तो भला हो प्रधानमंत्री का जो बीच में ही टोक कर विदेश मंत्री का भूल सुधार कर लिया। यही विदेश मंत्री अन्तर्राष्ट्रीय मंचों पर जाकर भारत की ओर से किसी दूसरे देश का पर्चा पढ़ने लगते हैं। अभी जब 7/9 की घटना पर ग्रह मंत्री पी. चिदम्बरम संसद में बयान दे रहे थे। उन्हीं के बगल में बैठे दूसरे केन्द्रिय मंत्री विरप्पा मोइली ऊंघ रहे रहे थे। भारतीय शासन तंत्र के शासक वर्ग के चरित्र की यह तो मात्र बानगी है।
भारत में आतंक के पनपने की एक और बड़ी वजह है यहां राजनीति व शासन तंत्र की मुख्य धारा से आम आदमी को खारिज कर देना। देश की नीतियां बनाने वालों में कारपोरेट के दलालों और विदेशियों के पैरोकारों के बढ़ते वर्चस्व ने भारतीय राजनीति पर कब्जा कर लिया है। विगत दो ढाई दशक में भारतीय शासक वर्ग के रूप में जिस गिरोह ने अपनी पकड़ मजबूत बनाई है वह निरंकुश, बेशर्म और जनविरोधी है। आजादी के बाद सबसे ज्यादा सत्ता सुख भोगने वाली पार्टी कांग्रेस और इनके सहयोगी दलों ने मानों मान लिया है कि सत्ता महज पैसे और ताकत का खेल है। इसलिये सत्ता को पैसे और ताकत से प्राप्त करो और इसी ताकत से उस पर काबिज रहो। विगत 5,7 वर्षों में यू.पी.ए. सरकार का रिपोर्ट कार्ड तैयार करें तो देश एवं राज्यों में सत्ता पर काबिज इन दलों के नेताओं की करतूत और कालाबाजारी का स्पष्ट नमूना आप सबको दिख जाएगा। सरकार चाहे महराष्ट्र की हो या दिल्ली की भ्रष्टाचार के कीर्तिमानों के बावजूद इनके वजूद पर कोई खतरा नहीं है। इनकी मर्जी चले तो अगले चुनाव में भी सत्ता इन्हीं की होगी। इसलिये आम आदमी को अपनी असली हैसियत में आना ही होगा।
दिल्ली उच्च न्यायालय पर 7/9 का आतंकी हमला केन्द्रीय गृह मंत्री पी. चिदम्बरम के उस दावे की पोल खोलने के लिये काफी है जिसमें उन्होंने साफ शब्दों में कहा था कि 26/11 का हमला भारत पर अन्तिम आतंकी हमला है। आज सच सामने है। गृह मंत्री के आन्तरिक सुरक्षा संबंधी सभी दावे फिस्स हो गए हैं और आंतक पहले से ज्यादा मुखर और निर्भीक होकर भारतीय शासन व्यवस्था को चुनौती दे रहा है। सवाल यह उठता है कि भारत में बार बार हो रहे आतंकी हमले की मुख्य वजहें क्या हैं? इनमें यहां की लचर शासन व्यवस्था, कमजोर खुफिया तंत्र, नकारा, पुलिस, भ्रष्ट अधिकारी और दृष्टिविहीन नेता के साथ-साथ गफलत में जी रही जनता भी जिम्मेवार है। इससे भी ज्यादा जिम्मेवार तो भारतीय शासन तंत्र की लचर नीतियां और कमजोर सुरक्षा तैयारी को ठहराया जाना चाहिये जिस पर कभी सरकार गम्भीर नहीं दिखी।
आंतक और आंतकी के जाति, धर्म और राजनीति ने भी भारत में आतंकवाद को फलने-फूलने में मदद पहुंचाई है। सब जानते हैं कि अदालत की सक्रियता के बावजूद सरकारों ने आतंकी को बचाने के लिये कैसी कैसी राजनीति की। आज भी आतंक पर जारी बहस में आतंकी के पक्ष में तर्क देने वालों की कमी नहीं है जबकि न्याय की पूरी प्रक्रिया के बाद जब अदालतों ने कइ मामलांे मंे अपना फैसला सुना दिया है तब राजनीति इसमें अपना नफा-नुकसान ढूढ़ने लगी है। राजनीति के इस गिरगिटी रूप का आतंक पूरा फायदा ले रहा है और जब उसे आम आदमी के खून का स्वाद मिल चुका हो तब भला वह चुप कैसे बैठ सकता है।
हमारे शासक वर्ग और राजनीतिज्ञों को यह भी ध्यान में रखना चाहिये कि आतंक को युद्ध से मिटाया नहीं जा सकता। यह राजनीतिक लड़ाई है लेकिन राजनीति की इस लड़ाई में तुच्छ राजनीति का कोई स्थान नहीं होता। किसी भी देश में कानून और व्यवस्था राजनीति से ऊपर होनी चाहिये। आज हमारे देश में कानून और व्यवस्था पर राजनीति हावी है। आम लोगों से राजनति और राजनीतिज्ञों का हाल पूछिये, जवाब मिलेगा-‘‘सब चोर हैं।’’ जाहिर है राजनीतिज्ञों ने अपनी विश्वसनियता खो दी है। इसका दृश्यावलोकन पूरे देश ने हाल ही में अन्ना हजारे के सत्याग्रह/आन्दोलन में किया। आतंक से लड़ने के लिये युद्ध की बजाय संघर्ष और राजनीति (सच्ची देश भक्ति की राजनीति) को तेज करना होगा। मामले को निर्णय के बाद टालने और लटकाने के गम्भीर परिणाम होते हैं। इसलिये देश के नाम पर राजनीति की बजाय देश के लिये राजनीति को विकसित करना होगा जिसमें कानून से ऊपर कोई भी नहीं होता।
भारत में माननीयगण एक विशेष ग्रन्थि के शिकार है। स्वयं को कानून से ऊपर मानना, अपने को विशिष्ट समझना और कानून में दखल देना अपना जन्मसिद्ध अधिकार मान लिया है। सब जानते हैं कि कानून को ठेंगा दिखाने वाले 90 फीसद लोगों में से माननीय ही हैं। जिम्मेदारी के पद पर बैठे लोग कितने जिम्मेदार हैं यह पूरा देश जानता है। 26/11 के बाद अपने शरीर साज-सज्जा के लिये ज्यादा पहचाने जाने वाले गृहमंत्री की बिदाई कर यू.पी.ए. की मनमोहन सरकार ने एक दूसरे बड़बोले गृहमंत्री को कमान सौंपी लेकिन स्थिति ज्यों की त्यों रही। वर्तमान गृह मंत्री से पूछा जाना चाहिये कि 26/11 को मुम्बई पर हुए आतंकी हमले को अन्तिम हमला बताने के बाद कौन-कौन से सार्थक कदम उठाए गए जिससे देश की आन्तरिक सुरक्षा मजबूत हुई हो।
भ्रष्टाचार में आंकठ डूबे देश में इसके खिलाफ आन्दोलन करने वाले सामाजिक कार्यकर्ताओं को ही निशाना बनाने और सबक सिखाने में लगी सरकार भूल गई कि उसके जिम्मे इससे भी बड़ा और जरूरी काम आन्तरिक सुरक्षा को सुदृढ़ करना है न कि अपने आइने को ही फोड़ना। भ्रष्टाचार आतंकवाद की सहोदर बहन है। आतंकवाद को मिटाने के लिये भ्रष्टाचार को भी मिटाना होगा, लेकिन भ्रष्टाचार में आकंठ डूबी, मनमोहन सरकार और कांग्रेसी भाजपाई नेताओं से परे इस देश में आसान नहीं है भ्रष्टाचार खत्म करना क्योंकि सत्ता की राजनीति ने भ्रष्टाचार से रिष्ते बना लिये हैं। आज देश बाहरी आतंकवाद से ज्यादा आन्तरिक आतंक झेल रहा है। इसलिये सिर्फ सैनिक कारवाई से काम नहीं चलेगा। सवाल लोगों के जीवन और जीवन की आजीविका से जुड़ा हैए विकास की नीति से जुड़ा है। सम्मान से जीने के अधिकार से जुड़ा है। इसलिये हे माननीय लोगों, आसमान से उतरो और जमीन पर विचरण करो। हर आम आदमी के अश्क में तुम्हे राजनीति का नया अध्याय दिखेगा। उसे पढ़ो और देश की नयी राजनीति को समझो। जनता के पैसों पर ऐश करके कारपोरेट की दलाली से देश में शान्ति नहीं आ सकती। देश आम आदमी का है इसलिये नीतियां उसकी चलेंगी न कि कार्पोरेट की।
आतंक ने अब अपना रुख न्यायपालिका की ओर क्यों कर दिया यह भी विचार करने योग्य प्रश्न है। जब राजनीति और शाषण कानून को सही परिभाषित करने और इसे लागू करने में हिचकने लगा तो कमान न्यायपालिका ने सम्भाली। लोगों को न्याय देने के उसके जनपक्षीय फैसलों से आतंक को सीधे चोट पड़ने लगी तो आतंक ने न्यायपालिका पर निशाना लगाना शुरु किया। दिल्ली उच्च न्यायालय पर ताजा आतंकी हमला यही संदेश देता है कि जब राजनीति ने घुटने टेक दिये और आतंक से हाथ मिला लिया तो अब न्यायपालिका आखिर क्यों सक्रिय हो गईघ् देश की हर जनपक्षीय व्यवस्था को छिन्न-भिन्न करने की इस आतंकी साजिश को खत्म करने का एक ही रास्ता है कि देश में कानून का शासन हो, नागरिक और माननीय अनुशासित रहें, कानून का पालन करें और जनता को श्रेष्ठ मानें। लोगों के असंतोष बंदूक से नहीं दबाए जाते। उन्हें बातचीत और जनहित से सुलझाया जाता है। यह सबक भी भारतीय शासन तंत्र को समझना होगा।
Thursday, September 8, 2011
किसे परवाह है आन्तरिक सुरक्षा की
महज तीन महीने में ही दिल्ली उच्च न्यायालय पर दूसरा बड़ा धमाका हुआ। जाहिर है कि सरकार और उसका सुरक्षा तंत्र निश्चित था और आंतकी चुस्त। वर्तमान विश्लेषण में विशेषज्ञ कह रहे हैं कि सवा तीन महीने पूर्व दिल्ली उच्च न्यायालय में हुआ विस्फोट तो रिहर्सल मात्रा था और यह है असली धमाका। 26/11 को मुम्बई पर हुए आतंकी धमाके को केन्द्रीय गृह मंत्री ने ‘‘अन्तिम आतंकवादी हमला’’ बताया था। तब केन्द्र सरकार के गृह मंत्रालय द्वारा तय किया गया था कि अमरीकी पद्धति पर आंतरिक सुरक्षा की एक केन्द्रित और तत्पर कमान होगी लेकिन 13 जुलाई 2011 को ही इस दावे की हवा निकल गई जब मुम्बई धमाके से एक बार फिर दहली। इसी तर्ज पर आज दिल्ली का उच्च न्यायालय दुबारा घायल हुआ है। समझा जा सकता है कि सरकार प्रशासन और सुरक्षा तंत्र न तो चुस्त है और न ही दुरूस्त। आम आदमी के जान की कीमत कौड़ियों के बराबर समझने वाले राजनेताओं की प्राथमिकता सत्ता सुख का आनन्द लेने और कारपोरेट की सेवा करने तक सीमित हो गई है तभी तो जनहित और आम जनता की सुरक्षा के सभी दावे खोखले सिद्ध हो रहे हैं।
आन्तरिक सुरक्षा का सवाल भारत के लिये नया नहीं है। इतिहास में जाएं तो देखेंगे कि आजादी के बाद से ही देश के विभिन्न हिस्से हिंसक आन्दोलनों से लहुलुहान होने लगे थे। चाहे पूर्वोत्तर हो या दक्षिण भारत, कश्मीर हो या आन्ध्रप्रदेश या छत्तीसगढ़ सब जगह हिंसा और आतंकी पाठशाला चल रही है। इन सभी जगहों पर सेना भी तैनात है। लेकिन हिंसा और आतंक है कि थमने का नाम नहीं ले रही। राजनीतिक चिंतक कह रहे हैं कि ‘‘हिंसा पर अहिंसा से काबू नहीं पाया जा सकता।’’ यह बहस तो कभी आगे देखेंगेे। फिलहाल सवाल यह है कि हिंसा और आतंक का बन्दूक से जवाब देने के बावजूद सरकार आंतकी हमले को रोकने में विफल क्यों है? हर बार ठिकरा खुफिया एजेन्सियों एवं राज्य सरकारों के सर पर फोड़ा जाता है। ठीक है कि आन्तरिक सुरक्षा राज्य का मामला है लेकिन नीतियां तो केन्द्र सरकार की चलती है और इसी का असर बार-बार होते आतंकी हमले पर दिखता है।
कई सुरक्षा विशेषज्ञ भारत में भी अमरीकी सुरक्षा व्यवस्था के पैरोकार हैं। स्वयं केन्द्र सरकार और उसके मौजूदा गृहमंत्री अमरीकी सुरक्षा व्यवस्था से अभिभूत भी हैं। टेलिविजन पर चल रही चर्चाओं में आप लगभग एक जैसा स्वर ही सुनेंगे कि अमरीका की तरह भारत को भी अपनी सुरक्षा के लिये अति आधुनिक तकनीक और भारी सुरक्षा खर्च पर गौर करना चाहिये। ऐसा नहंीं है कि हमारे इन विशेषज्ञों को भारत और भारतीय परिस्थितियों की जानकारी नहीं है लेकिन वास्तव में कोई भी आम भारतीय या सामान्य जनों की सुरक्षा को लेकर गम्भीर नहीं है। तभी केन्द्र और राज्यों में बन रही या लागू की जा रही नीतियों में कहीं आम-आदमी नजर नहीं आता।
सब जानते हैं भारतीय राजनीति और सरकार भ्रष्टाचार में आकंठ डूबी हुई है। विगत ढाई वर्षो से यूपी.ए. सरकार भ्रष्टाचार को ही डिल करने में लगी हुई है लेकिन भ्रष्टाचार और महंगाई है कि खत्म होने का नाम नहीं ले रही। एक-दो ईमानदार चेहरे (मुखौटे) दिखा कर मौजूदा सरकार लोगों को समझाने में लगी है कि हम भ्रष्टाचार और महंगाई को खत्म करना चाहते हैं लेकिन हर रोज उनकी हकीकत की कलई खुलती देखी जा सकती है। अब कौन विश्वास करेगा कि रोज-रोज होती आतंकवादी घटना महज ‘‘खुफिया चूक’’ या ‘‘सुरक्षा एजेन्सियों के आपसी तालमेल की कमी’’ का नतीजा है।
26/11 को मुम्बई पर हुए आतंकी हमले की घटना को ही देखें तो तत्कालीन गृह मंत्री शिवराज पाटिल की बली देकर केन्द्र सरकार ने लोगों का गुस्सा शान्त कर दिया था लेकिन अब जब सत्ता के गलियारे से ही छन कर यह खबर आ रही है और सवाल उठ रहे है कि मुम्बई हमले के मास्टर माइण्ड हेडली को लेकर हमारे तत्कालीन सुरक्षा सलाहकार कितने गम्भीर थे। इस पर न तो स्वय तत्कालीन सुरक्षा सलाहकार और न ही सरकार अपना मुह खोल रही है। मुम्बई हमले से जुड़े कई मामले आज भी उपेक्षित पड़े हैं। आन्तरिक सुरक्षा के नाम पर की जा रही कवायद महज कागजी कार्रवाई से ज्यादा कुछ नहीं है।
भारत में आतंकी हमले के कई मामले इसकी गम्भीरता का अहसास कराते हैं। मुम्बई, दिल्ली व अन्य महत्वपूर्ण स्थानों के अलावा संसद, न्यायपीठ एवं मीडिया लगभग सभी तंत्रों को आंतक ने अपनी धौंस दिखा दी है लेकिन तंत्र है कि खिसियानी बिल्ली की तरह अभी भी खम्भा ही नोच रहा है। अब तो आम आदमी भी जानने लगा है कि दिन-प्रतिदिन भ्रष्ट से भ्रष्टतम होता सरकारी तंत्र उस पर उंगली उठाने वालों को ही सबक सिखाने में लगा है। देखा जा सकता है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ जन लोकपाल की मांग करने वाले या घोटाले उजागर करने वाले लोगों/पत्रकारों के साथ सरकार कैसा बर्ताव कर रही है।
दिल्ली उच्च न्यायालय पर 7/9 का आतंकी हमला केन्द्रीय गृह मंत्री पी. चिदम्बरम के उस दावे की पोल खोलने के लिये काफी है जिसमें उन्होंने साफ शब्दों में कहा था कि 26/11 का हमला भारत पर अन्तिम आतंकी हमला है। आज सच सामने है। गृह मंत्री के आन्तरिक सुरक्षा संबंधी सभी दावे फिस्स हो गए हैं और आंतक पहले से ज्यादा मुखर और निर्भीक होकर भारतीय शासन व्यवस्था को चुनौती दे रहा है। सवाल यह उठता है कि भारत में बार बार हो रहे आतंकी हमले की मुख्य वजहें क्या हैं? इनमें यहां की लचर शासन व्यवस्था, कमजोर खुफिया तंत्र, नकारा, पुलिस, भ्रष्ट अधिकारी और दृष्टिविहीन नेता के साथ-साथ गफलत में जी रही जनता भी जिम्मेवार है। इससे भी ज्यादा जिम्मेवार तो भारतीय शासन तंत्र की लचर नीतियां और कमजोर सुरक्षा तैयारी को ठहराया जाना चाहिये जिस पर कभी सरकार गम्भीर नहीं दिखी।
आंतक और आंतकी के जाति, धर्म और राजनीति ने भी भारत में आतंकवाद को फलने-फूलने में मदद पहुंचाई है। सब जानते हैं कि अदालत की सक्रियता के बावजूद सरकारों ने आतंकी को बचाने के लिये कैसी कैसी राजनीति की। आज भी आतंक पर जारी बहस में आतंकी के पक्ष में तर्क देने वालों की कमी नहीं है जबकि न्याय की पूरी प्रक्रिया के बाद जब अदालतों ने कइ मामलांे मंे अपना फैसला सुना दिया है तब राजनीति इसमें अपना नफा-नुकसान ढूढ़ने लगी है। राजनीति के इस गिरगिटी रूप का आतंक पूरा फायदा ले रहा है और जब उसे आम आदमी के खून का स्वाद मिल चुका हो तब भला वह चुप कैसे बैठ सकता है।
सब जानते हैं कि सरकारों ने ही आन्तरिक सुरक्षा के ढांचे को तोड़ा है। वैश्वीकरण और उदारीकरण के बाद आंतकवाद को फलने-फूलने में खासी मदद मिली है। समताए सुशासन और ईमानदारी के अभाव में भी आतंक को बल मिलता है। न्याय और कानून को लागू करने वाली एजेन्सियों पर यदि राजनीति कुंडली मार कर बैठ जाए तो भला ये तंत्र आतंक का मुकाबला कैसे कर सकते हैं। खासकर जिस सरकार के मंत्री और अधिकांश अफसर भ्रष्टाचार में लिप्त हों वहां आतंक से मुकाबले की बात बेमानी है। दिल्ली उच्च न्यायालय की देहरी पर आतंक का यह विस्फोट चिल्ला-चिल्ला कर कह रहा है कि जब लोकतंत्र की सबसे बड़ी खैरख्वाह संसद और भारतीय राजनीति में आतंक को चुनौती देने की कुव्वत नहीं तो न्यायपालिका अपनी अति सक्रियता बन्द करे। दरअसल यह चुनौती नहीं युद्ध है जिसका मुकाबला न्यायपालिका ही नहीं सरकार और आम आदमी को मिलकर करना होगा। और वह भी राजनीति से ऊपर उठकर।
आन्तरिक सुरक्षा का सवाल भारत के लिये नया नहीं है। इतिहास में जाएं तो देखेंगे कि आजादी के बाद से ही देश के विभिन्न हिस्से हिंसक आन्दोलनों से लहुलुहान होने लगे थे। चाहे पूर्वोत्तर हो या दक्षिण भारत, कश्मीर हो या आन्ध्रप्रदेश या छत्तीसगढ़ सब जगह हिंसा और आतंकी पाठशाला चल रही है। इन सभी जगहों पर सेना भी तैनात है। लेकिन हिंसा और आतंक है कि थमने का नाम नहीं ले रही। राजनीतिक चिंतक कह रहे हैं कि ‘‘हिंसा पर अहिंसा से काबू नहीं पाया जा सकता।’’ यह बहस तो कभी आगे देखेंगेे। फिलहाल सवाल यह है कि हिंसा और आतंक का बन्दूक से जवाब देने के बावजूद सरकार आंतकी हमले को रोकने में विफल क्यों है? हर बार ठिकरा खुफिया एजेन्सियों एवं राज्य सरकारों के सर पर फोड़ा जाता है। ठीक है कि आन्तरिक सुरक्षा राज्य का मामला है लेकिन नीतियां तो केन्द्र सरकार की चलती है और इसी का असर बार-बार होते आतंकी हमले पर दिखता है।
कई सुरक्षा विशेषज्ञ भारत में भी अमरीकी सुरक्षा व्यवस्था के पैरोकार हैं। स्वयं केन्द्र सरकार और उसके मौजूदा गृहमंत्री अमरीकी सुरक्षा व्यवस्था से अभिभूत भी हैं। टेलिविजन पर चल रही चर्चाओं में आप लगभग एक जैसा स्वर ही सुनेंगे कि अमरीका की तरह भारत को भी अपनी सुरक्षा के लिये अति आधुनिक तकनीक और भारी सुरक्षा खर्च पर गौर करना चाहिये। ऐसा नहंीं है कि हमारे इन विशेषज्ञों को भारत और भारतीय परिस्थितियों की जानकारी नहीं है लेकिन वास्तव में कोई भी आम भारतीय या सामान्य जनों की सुरक्षा को लेकर गम्भीर नहीं है। तभी केन्द्र और राज्यों में बन रही या लागू की जा रही नीतियों में कहीं आम-आदमी नजर नहीं आता।
सब जानते हैं भारतीय राजनीति और सरकार भ्रष्टाचार में आकंठ डूबी हुई है। विगत ढाई वर्षो से यूपी.ए. सरकार भ्रष्टाचार को ही डिल करने में लगी हुई है लेकिन भ्रष्टाचार और महंगाई है कि खत्म होने का नाम नहीं ले रही। एक-दो ईमानदार चेहरे (मुखौटे) दिखा कर मौजूदा सरकार लोगों को समझाने में लगी है कि हम भ्रष्टाचार और महंगाई को खत्म करना चाहते हैं लेकिन हर रोज उनकी हकीकत की कलई खुलती देखी जा सकती है। अब कौन विश्वास करेगा कि रोज-रोज होती आतंकवादी घटना महज ‘‘खुफिया चूक’’ या ‘‘सुरक्षा एजेन्सियों के आपसी तालमेल की कमी’’ का नतीजा है।
26/11 को मुम्बई पर हुए आतंकी हमले की घटना को ही देखें तो तत्कालीन गृह मंत्री शिवराज पाटिल की बली देकर केन्द्र सरकार ने लोगों का गुस्सा शान्त कर दिया था लेकिन अब जब सत्ता के गलियारे से ही छन कर यह खबर आ रही है और सवाल उठ रहे है कि मुम्बई हमले के मास्टर माइण्ड हेडली को लेकर हमारे तत्कालीन सुरक्षा सलाहकार कितने गम्भीर थे। इस पर न तो स्वय तत्कालीन सुरक्षा सलाहकार और न ही सरकार अपना मुह खोल रही है। मुम्बई हमले से जुड़े कई मामले आज भी उपेक्षित पड़े हैं। आन्तरिक सुरक्षा के नाम पर की जा रही कवायद महज कागजी कार्रवाई से ज्यादा कुछ नहीं है।
भारत में आतंकी हमले के कई मामले इसकी गम्भीरता का अहसास कराते हैं। मुम्बई, दिल्ली व अन्य महत्वपूर्ण स्थानों के अलावा संसद, न्यायपीठ एवं मीडिया लगभग सभी तंत्रों को आंतक ने अपनी धौंस दिखा दी है लेकिन तंत्र है कि खिसियानी बिल्ली की तरह अभी भी खम्भा ही नोच रहा है। अब तो आम आदमी भी जानने लगा है कि दिन-प्रतिदिन भ्रष्ट से भ्रष्टतम होता सरकारी तंत्र उस पर उंगली उठाने वालों को ही सबक सिखाने में लगा है। देखा जा सकता है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ जन लोकपाल की मांग करने वाले या घोटाले उजागर करने वाले लोगों/पत्रकारों के साथ सरकार कैसा बर्ताव कर रही है।
दिल्ली उच्च न्यायालय पर 7/9 का आतंकी हमला केन्द्रीय गृह मंत्री पी. चिदम्बरम के उस दावे की पोल खोलने के लिये काफी है जिसमें उन्होंने साफ शब्दों में कहा था कि 26/11 का हमला भारत पर अन्तिम आतंकी हमला है। आज सच सामने है। गृह मंत्री के आन्तरिक सुरक्षा संबंधी सभी दावे फिस्स हो गए हैं और आंतक पहले से ज्यादा मुखर और निर्भीक होकर भारतीय शासन व्यवस्था को चुनौती दे रहा है। सवाल यह उठता है कि भारत में बार बार हो रहे आतंकी हमले की मुख्य वजहें क्या हैं? इनमें यहां की लचर शासन व्यवस्था, कमजोर खुफिया तंत्र, नकारा, पुलिस, भ्रष्ट अधिकारी और दृष्टिविहीन नेता के साथ-साथ गफलत में जी रही जनता भी जिम्मेवार है। इससे भी ज्यादा जिम्मेवार तो भारतीय शासन तंत्र की लचर नीतियां और कमजोर सुरक्षा तैयारी को ठहराया जाना चाहिये जिस पर कभी सरकार गम्भीर नहीं दिखी।
आंतक और आंतकी के जाति, धर्म और राजनीति ने भी भारत में आतंकवाद को फलने-फूलने में मदद पहुंचाई है। सब जानते हैं कि अदालत की सक्रियता के बावजूद सरकारों ने आतंकी को बचाने के लिये कैसी कैसी राजनीति की। आज भी आतंक पर जारी बहस में आतंकी के पक्ष में तर्क देने वालों की कमी नहीं है जबकि न्याय की पूरी प्रक्रिया के बाद जब अदालतों ने कइ मामलांे मंे अपना फैसला सुना दिया है तब राजनीति इसमें अपना नफा-नुकसान ढूढ़ने लगी है। राजनीति के इस गिरगिटी रूप का आतंक पूरा फायदा ले रहा है और जब उसे आम आदमी के खून का स्वाद मिल चुका हो तब भला वह चुप कैसे बैठ सकता है।
सब जानते हैं कि सरकारों ने ही आन्तरिक सुरक्षा के ढांचे को तोड़ा है। वैश्वीकरण और उदारीकरण के बाद आंतकवाद को फलने-फूलने में खासी मदद मिली है। समताए सुशासन और ईमानदारी के अभाव में भी आतंक को बल मिलता है। न्याय और कानून को लागू करने वाली एजेन्सियों पर यदि राजनीति कुंडली मार कर बैठ जाए तो भला ये तंत्र आतंक का मुकाबला कैसे कर सकते हैं। खासकर जिस सरकार के मंत्री और अधिकांश अफसर भ्रष्टाचार में लिप्त हों वहां आतंक से मुकाबले की बात बेमानी है। दिल्ली उच्च न्यायालय की देहरी पर आतंक का यह विस्फोट चिल्ला-चिल्ला कर कह रहा है कि जब लोकतंत्र की सबसे बड़ी खैरख्वाह संसद और भारतीय राजनीति में आतंक को चुनौती देने की कुव्वत नहीं तो न्यायपालिका अपनी अति सक्रियता बन्द करे। दरअसल यह चुनौती नहीं युद्ध है जिसका मुकाबला न्यायपालिका ही नहीं सरकार और आम आदमी को मिलकर करना होगा। और वह भी राजनीति से ऊपर उठकर।
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