Wednesday, January 11, 2012

अन्ना आन्दोलन और उससे आगे

अन्ना आन्दोलन और उससे आगे

लोकसभा में दिन भर चली बहस के बाद आखिरकार संशोधनों सहित लोकपाल विधेयक पारित हो गया। यह विधेयक ध्वनिमत से पारित हुआ। बाद में लोकपाल को संवैधानिक दर्जा देने के लिये सदन में संवैधानिक संशोधन बिल पर वोटिंग कराई गई। पहली वोटिंग में यह विधेयक पारित हो गया लेकिन बाद में विपक्ष की नेता सुष्मा स्वराज ने संवैधानिक संशोधन बिल के बहुमत पर सवाल उठाया तो बहुमत के अभाव में यह पारित नहीं हो पाया। लोकसभा ने संसोधनों सहित व्सिलब्लोअर बिल भी पारित किया।
इस बीच अपनी खराब तबियत के बावजूद अन्ना हजारे मुम्बई के एम.एम.आर.डी.ए. मैदान में अपनी पूर्व घोषित योजना के अनुसार अनशन पर रहे। अन्ना और अन्ना टीम इस लोकपाल बिल को पहले से ही ‘‘जोकपाल’’ कह रहे है। अब आज अन्ना ने घोषणा की और लोगों से कहा कि, ‘‘वे आर.पार की लड़ाई के लिये तैयार रहें।’’ जाहिर है कि अन्ना इस पारित लोकपाल बिल से खुश नहीं हैं। उन्होंने अपनी चेतावनी फिर से दुहराई है कि वे 5 राज्यों में होने वाले आगामी चुनावों में कांग्रेस के खिलाफ प्रचार भी करेंगे।
लोकपाल पर अन्ना आन्दोलन की यदि सहज पड़ताल करें तो कई बातें सामने आती हैं। पहली बात कि अन्ना, उनकी टीम और यह लोकपाल आन्दोलन धीर धीरे अपनी चमक खोता जा रहा है। जाहिर है इस बीच विचारों की अस्थिरता, आम जन से सम्पर्क का अभाव, टीम अन्ना में आपसी तालमेल की कमी तथा आन्दोलन में वैचारिक अस्पष्टता आदि ऐसे कई बिन्दु हैं जो इस आन्दोलन और अन्ना की चमक को कम कर रहे हैं। महज भावनाओं के ज्वार और उत्तेजना में आन्दोलन लम्बे समय तक नहीं चला करते। सन् 74, 77 के सधे और व्यवस्थित आन्दोलनों के उदाहरण के बाद भी यदि हम सबक नहीं लेते तो यह हमारी ही नादानी है। 80 के दसक में बी.पी. सिंह का आन्दोलन भी उन्हें सत्ता में तो बिठा दिया लेकिन लक्ष्य को पूरी तरह नहीं पा सका। आज अन्ना टीम पर भी यही आरोप लगना शुरू हो गया है कि अपनी मनमानी और विचारहीनता की वजह से सामाजिक परिवर्तन के एक सम्भावनाशील आन्दोलन को उभारकर अब भटकाया जा रहा है। कभी कवि मुकुट बिहारी सरोज ने लिखा था-
‘‘अस्थिर सबके सब पैमाने
तेरी जय जय कार जमाने
बन्द किवाड़ किये बैठे हैं
अब कोई आए समझाने
फूलों को घायल कर डाला
कांटों की हर बात सह गए
कैसे कैसे लोग रह गए.....’’
यह देश के लिये दुखद होगा कि जन लोकपाल आन्दोलन ‘‘जन पथ’’ पर चलते चलते एनजीओ के आन्दोलनी लटके-झटके, कथित आधुनिक तकनीक और हाइप्रोफाइल कार्यकर्ताओं की वजह से कहीं ‘‘राजपथ’’ पर जाकर भटक न जाए। अन्ना हजारे का एक लम्बा सार्वजनिक जीवन रहा है। वे महाराष्ट्र की सीमा में रह कर भ्रष्टाचार से निडर होकर लड़ते रहे। इस वजह से शिव सेना, कांग्रेस, भाजपा आदि के नेताओं के आंखों की वे किरकिरी भी रहे। इधर जब यूपीए सरकार के जम्बो ‘‘घोटाले’’ से देश त्रस्त था तब पूरे देश ने अन्ना आन्दोलन को अभूतपूर्व सहयोग दिया लेकिन स्वयं टीम अन्ना के लोगों के विरोधाभाषों ने धीर धीरे लोगों को खामोश करना शुरू कर दिया। आज जब अन्ना ने 27 दिसम्बर से फिर अनशन सत्याग्रह की घोषणा की तो पहले की तुलना में महज 10 फीसद लोग ही सड़क पर आए। जाहिर है इसमें दिसम्बर की ठंठ के साथ साथ कई कारणों से टीम अन्ना की कम होती चमक भी जिम्मेवार है।
मशहूर लातीनी अमरीकी क्रान्तिकारी रोगी देबे्र कहते हैं- ‘‘क्रांति की गति वर्तुल या चक्रीय होती है। वह दुबारा अपनी रीढ़ की हड्डी पर फिर खड़ी की जा सकती है।’’ यह अच्छा नहीं होगा यदि अन्ना का भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन बिखर जाए। इस आन्दोलन के दो विरोधी तो साफ-साफ देखे जा सकते हैं। एक तो केन्द्र सरकार व कांग्रेस तथा कुछ छुटभैये तथा हाशिये पर फेक दिये गए राजनीतिक दल तथा दूसरे दलित राजनीति के लोग। लेकिन इसके साथ-साथ टीम अन्ना से कभी जुड़े रहे कुछ लोग भी अन्ना आन्दोलन के आलोचकों द्वारा इस्तेमाल किये जा रहे हैं। जिस मीडिया ने अन्ना आन्दोलन को आसमानी बुलन्दी पर पहुंचाया अब वही मीडिया अरविन्द केजरीवाल को खलनायक बता रहा है। किरण वेदी ‘‘हवाई यात्रा’’ बिल में घपला की जिम्मेवार हैं तो प्रशान्त भूषण का ‘‘स्वतंत्र कश्मीर’’ विचार। अन्ना इन सब मुद्दों पर निरूत्तर है। इसके अलावे विभिन्न आन्दोलनों से भ्रष्टाचार की वजह से निकाल फेंके गए कुछ कचडे कार्यकर्ता भी अब अन्ना टीम मे उत्तराघिकार का दावा कर रहे हैं। अन्ना टीम के पी.वी. राजगोपाल, राजेन्द्र सिंह, मेधा पाटकर, संदीप पाण्डेय, न्यायमूर्ति संतोष हेगड़े आदि भी ‘‘अन्ना टीम’’ व ‘‘अन्ना विचार’’ से कभी अपनी असहमति जता चुके हैं।
समय और इतिहास ने अन्ना को मौजूदा हालात में एक लोकप्रिय एवं सहज जन आन्दोलन का विनम्र नेतृत्व सौंपा है लेकिन अन्ना टीम के कुछ लोग इन्हें युग प्रवर्तक या अवतार समझने की भूल कर रहे हैंे। महात्मा गांधी भी अपने राजनीतिक प्रतिद्विन्दियों से वैर नहीं रखते थे। वे अंग्रेजों के नहीं अंग्रेजियत के खिलाफ थे। अन्ना की सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि वे एक कर्मयोगी तो हैं लेकिन विचारक या बुद्धिजीवी नहीं। गांधी ने अपने निजी जीवन से लेकर सार्वजनिक जीवन तक कर्म, मन और वचन तीनों में बराबर साम्य रखा इसीलिये ‘‘साम्राज्य’’ उनसे डरा और अन्ततः ‘‘सत्ता हस्तान्तरित’’ कर चला गया।
अन्ना ने अपने समर्थकों के लिये कुछ सुत्र घोषित किये हैं। ये हैं- 1.शुद्ध आचरण, 2. शुद्ध विचार, 3. निष्कलंक जीवन, 4. अपमान सहने की ताकत एवं 5. सार्वजनिक जीवन में पारदर्शिता। हैरानी की बात यह है कि टीम अन्ना के पहली पंक्ति के ही लोग इन विचारों पर खरा नहीं उतरते। कभी कभी स्वयं अन्ना भी किसी खास राजनीतिक दल अथवा विचारधारा से प्रभावित लगते हैें। कई मौके पर अन्ना का ‘‘ओरिजनल’’ रूप भी दिखाई दे ही जाता है। जैसे शरद पवार के गाल पर पड़े थप्पड़ पर दी गई अपनी प्रतिक्रिया से अन्ना गान्धीवाद को ही बदनाम करते दिखते हैं। ऐसे ही कई विवादास्पद मुद्दों पर अन्ना की चुप्पी भी एक सधे राजनीतिज्ञ की प्रतिक्रिया ही लगती है।
इसमें सन्देह नहीं कि भ्रष्टाचार आज देश में एक बड़ा मुद्दा है लेकिन देश में बढ़ती महंगाई, बेरोजगारी किसानों की बदहाली, बढ़ता विदेशी आक्रमण, परमाणु सम्बन्धी आदि इतने मामले हैं जिन्हें नजर अन्दाज नहीं किया जा सकता। जन लोकपाल के साथ साथ अन्ना और अन्ना टीम को इन मुद्दों पर भी सोचना होगा। देश की जनता तो कई बार कई तरह से और लगभग प्रत्येक चार पांच बरस पर जो ठगी जाती है उसे हर एक छोटे-बड़े मुद्दे पर बारी-बारी से खड़ा करना इतना आसान नहीं है। अन्ना और अन्ना टीम को यह भी समझना पड़ेगा कि मंत्री, नौकरशाह और कर्मचारी तो भ्रष्टाचार कर ही रहे हैं लेकिन अम्बानी, टाटा, राडिया, संधवी, चिदम्बरम आदि का क्या किया जाए?
उदारीकरण के दो दसक बाद हम ‘‘गहराते अन्तर्विरोध’’ के शिकार हैं। देश के जनपक्षीय अर्थशास्त्री और समाजशात्रियों के एक समूह ने वैकल्पिक आर्थिक सर्वेक्षण-2011 में खुल कर विश्लेषण किया है कि मनमोहन और आहलूवालिया की गठजोड़ ने देश के लोगों के बीच की आर्थिक, सामाजिक व सांस्कृति असमानता को इन दो दसकों में इतना बढ़ा दिया है कि मामला 77 प्रतिशत बनाम 23 प्रतिशत का हो गया है। जिस भारतीय संविधान की दुहाई देकर हम लोग बाबा साहेब की जयजयकार करते हैं उसी संविधान की मूल अवधारणा को खारिज कर हमारे शाषण के लोग और योजनाकारों ने पूंजीवाद को देश में खुला खेलने के लिये छोड़ दिया है। क्या अन्ना और उनके टीम के लोग इस विषम वैश्वीकरण, बांझ विकास, विषमता बढ़ाने वाली वृद्धि, कथित उदारवाद आदि के खिलाफ भी कुछ बोलेंगे? ताकि देश में आत्महत्या करते किसान, बढ़ती बेरोजगारी व दिशाहीन राजनीति को एक व्यापक मंच मिल सके और व्यवस्था परविर्तन की मुक्कमल लड़ाई छिड़ सके।
यदि हमने आन्दोलन और जन उभार के इस मोड़ पर रूककर स्वस्थ्य एवं ईमानदार आलोचना तथा आत्ममंथन नहीं किया तो फिर देश अपने को ठगा महसूस करेगा और भविष्य में खड़ा होने वाले वास्तविक आन्दोलन में शामिल होने से हिचकेगा। इस जनआक्रोश को व्यापक जन आन्दोलन में तब्दील करने के लिये न केवल अन्ना और उनके कथित टीम के लोग ही नही बल्कि देश के सभी देशी चिन्तक, समाजकर्मी, बुद्धिजीवी, किसान, नौजवान स्त्री, पुरुष, दलित, मुस्लिम आदि को सोचना ही होगा और इन आन्दोलन में सक्रिय भाग लेकर इसे सही दिशा में मोड़ना होगा। यही समाज की जरूरत और मांग है।

अन्ना आंदोलन के सबक

अन्ना आंदोलन के सबक

अन्ना आंदोलन का एक सबक यह भी है कि विगत 20 वर्षों से देश में चल रहे उदारीकरण और निजीकरण की वजह से बढ़ी अमीरी और गरीबी की खाई तथा बड़े पैमाने पर हुए भ्रष्टाचार से जनता पूरी तरह त्रस्त है और वह अब इसे ज्यादा बर्दाश्त नहीं कर सकती। बीते दो-ढाई दशकों के नवउदारवादी नीतियों ने जहां अमीरी और गरीबी की खाई को बढ़ा दिया है वहीं भ्रष्टाचार को जीवन के अभिन्न अंग के रूप में भी प्रतिष्ठित करने का काम किया है। इसका मतलब यह कतई नहीं है कि इससे पहले देश में भ्रष्टाचार नहीं था। तथ्य तो यह है कि उदारीकरण ने भ्रष्टाचार को ‘‘समृद्धि का माध्यम’’ और भद्र जनों की ‘‘सुविधा’’ के रूप में स्थापित कर दिया है।
अन्ना जी के अनशन के दौरान और उसके उपरान्त कारपोरेट की भूमिका पर अनेक समीक्षात्मक टिप्पणियां आ चुकी हैं लेकिन इसे मुखर रूप से कहा जाना जरूरी है कि भ्रष्टाचार उन्मूलन के नाम पर चले इस आन्दोलन पर भी कारपोरेट का खासा प्रभाव रहा है। यह विडम्बना ही है कि अन्ना ने अपना अनशन तो एक दलित और मुस्लिम बच्ची के हाथों शहद और नारियल पानी ग्रहण कर तोड़ा लेकिन स्वास्थ्य परीक्षण के लिये वे कारपोरेट हेल्थ केयर के प्रतिनिधि अस्पताल मेदान्ता सिटी (गुड़गांव) गए जहां गरीबों और आम आदमी के लिये बेहद कम गंुजाइश है।
इसमें शक नहीं कि अन्ना अंादोलन ने देश के आम जनमानस को खूब झकझोरा है लेकिन अभी भी वर्ग, जाति और धर्म से जुड़े बड़े समूह इस आन्दोलन से अपने को नहीं जोड़ पाए। दलितों के कई बड़े नेता, मुसलमान आदि समूहों ने इस बड़े जन आन्दोलन से अपने को अलग ही रखा। कहा जा सकता है कि संविधान निर्माता डा. आम्बेडकर से जुड़ेे दलित अन्ना आन्दोलन को दलित विरोधी मानते हैं, और मुस्लिम नेतृत्व के अभाव में मुसलमान भी अपने को इस आन्दोलन से ज्यादा नहीं जोड़ पाते। लेकिन विशाल मध्यम वर्ग को उत्साहित कर इस आन्दोलन ने एक इतिहास तो रचा ही है।
अन्ना आंदोलन से असहमति के कई बिन्दु हो सकते हैं। जैसे आन्दोलन में आम्बेडकर फूले और बहुजन समाज के आदर्श प्रतीकों को ज्यादा अहमियत नहीं दिया गया, उलटे अन्ना आन्दोलन में ‘‘आरक्षण हटाओ- भ्रष्टाचार मिटाओ’’ के नारे लगते रहे। दलितों की यह भी शिकायत है कि बहुजनों के इस देश में अन्ना की कोर टीम में दलित, आदिवासी एवं अल्पसंख्यक की भागीदारी न के बराबर ही रही। अन्ना देश के नागरिकों के बीच समता की बात जरूर करते हैं, लेकिन वे खौफनाक गुजरात दंगों के आरोपी वहां के मुख्यमंत्री, नरेन्द्र मोदी की तारीफ कर अल्पसंख्यक मुसलमानों के आंख की किरकिरी बन जाते हैं। आदिवासी समाज भी सलवा जुडूम पर अन्ना का पक्ष जानना चाहता है। बहरहाल अन्ना टीम के लिये यह एक चुनौती होगी कि वह इस देश के बहुजन और अल्पसंख्यक जमात को ससम्मान अपने आन्दोलन की मुख्यधारा से जोड़ सके क्योंकि देश में भ्रष्टाचार की सबसे ज्यादा मार आदिवासियों, दलितों और अल्पसंख्यकों पर पड़ती है।
अभी राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन (एन.एस.एस.ओ.) का एक आंकड़ा आया है। अनुमान लगाया गया है कि सन् 2025 तक भारत में ऐसे मध्यमवर्गीय खाते-पीते लोगों की संख्या, जिसकी आमदनी 10 लाख रुपये प्रतिवर्ष है, बढ़कर ढाई करोड़ हो जाएगी। लेकिन तब तक इस देश में 122 करोड़ लोग येन-केन-प्रकारेण अपना जीवन बसर कर रहे होंगे और इनकी स्थिति बदतर होती जाएगी। अन्ना और अन्ना टीम को यह सोचना होगा कि नवउदारवादी नीतियों के कारण उपभोक्तावादी बनते मध्यमवर्ग के भ्रष्टाचार को कैसे रोका जाए। खासकर उस बड़े तबके को जो रातों रात अमीर बनने के लिए किसी भी हद जक जाने को तैयार हैं। नई सामाजिक अवधारणा में धन बल ने राजनीति से गठजोड़ करके अपनी उन्नति का मार्ग तलाश लिया और बड़े पैमाने पर नवधनाढ्य युवाओं ने इसे अपना आदर्श मान रखा है।
अन्ना हजारे को यह भी विचार करना होगा कि इस पूंजीवादी व्यवस्था में व्यापार को विश्वव्यापी बना दिया है। विडम्बना यह है कि यह बाजार अब शहर से गांव की ओर पसर रहा है। इसमें उत्पादक और ग्राहक दोनों ठगेे जाते हैं। मालामाल होता है बिचौलिया यानि बाजार। इस बाजार ने सरकार पर अपनी पकड़ मजबूत बना ली है। क्या अन्ना इस बाजार और सरकार के बीच पनपे अवैध सम्बन्धों पर प्रहार कर पाएंगे? यदि नहीं तो भ्रष्टाचार पर मरहम तो लगाया जा सकता है लेकिन उसे कम या खत्म नहीं किया जा सकता। दुनिया जानती है कि हाल फिलहाल के सभी बड़े भ्रष्टाचार कारपोरेट-सरकार और मीडिया की मिलीभगत से हुए जिसमें देश का लाखों करोड़ रुपये आम आदमी की जेब से निकलकर चन्द कारपोरेट घरानों के नुमाइन्दों की जेब में चला गया। इस प्रहसन में अच्छी भूमिका निभाने के लिये कारपोरेट ने नेताओं को भी उपकृत किया।
भ्रष्टाचार से उपजे काले धन को संचित करने एवं उसे देश के बाहर के बैंकों में जमा करने के खिलाफ बाबा रामदेव के नाटकीय आन्दोलन का वही हश्र हुआ जो हो सकता था लेकिन इस बात को मानना पडेगा कि भ्रष्टाचार ने देश में कालेधन की समानान्तर अर्थव्यवस्था खड़ी कर दी है। स्विस एवं विदेशी बैंकों में जमा भारतीय धन, मन्दिरों व ट्रस्टों में जमा धन-रूपये, लोगों के घरों में पड़े करेंसी नोट आदि सम्पत्ति को जोड़ दें तो यह कुल भारतीय जी.डी.पी. के आंकड़े को भी पार कर लेगा। यह तो बड़े भ्रष्टाचार का आंकड़ा है लेकिन आम जीवन में लोगों को छोटे-मोटे सरकारी कार्यों के लिये अफसर-कर्मचारी को घूस देना पड़ता है। यह भ्रष्टाचार दैनिक जीवन का अंग बन गया है। निश्चित ही अन्ना आन्दोलन से भ्रष्टाचार की इस प्रवृत्ति की पुष्टि हुई है लेकिन इस भ्रष्टाचार से मुक्ति का मार्ग अभी भी मीलों दूर है। अन्ना और अन्ना टीम को भ्रष्टाचार से मुक्ति के मार्ग के वाहन अभी और ढूंढने होंगे।
अन्ना एवं अन्ना आंदोलन को इस बात का जरूर श्रेय मिलना चाहिये कि उन्होंने जनतंत्र में तंत्र को जन की ताकत का अहसास करा दिया है। सन् 74 के बाद पहली बार जनता सांसदों का घेराव करने उनके निवास तक पहुंच गई। सांसदों व जन प्रतिनिधियों की बेचैनी संसद के विशेष सत्र में भी दिखी जब वे लोकपाल के मुद्दे पर बहस कर रहे थे। लगातार संसद में अर्नगल प्रलाप और गैर मर्यादित आचरण करने वाले सांसद किसी व्यक्ति द्वारा उन पर की गई कड़ी टिप्पणी से इतने आहत थे कि वे विशेषाधिकार हनन का प्रस्ताव तक ला चुके है।
मानना पड़ेगा कि अन्ना आन्दोलन ने धुरन्धर राजनीतिज्ञों की बनी बनाई जमीन उकेरकर रख दी है। मीडिया ने भी इसे हद से ज्यादा समर्थन दिया। कई राजनीतिक विश्लेषक भी मान रहे हैं कि अब राजनीतिज्ञों द्वारा अन्ना मुहिम की अनदेखी करना आसान नहीं होगा। अन्ना ने देश से राजनीतिकरण और लोकतांत्रीकरण की एक नई बहस छेड़ दी है जिसमें माननीयों की बड़ी कद पर सवाल खड़े हो रहे हैं। अन्ना आन्दोलन में इसकी झांकी भी दिखी इसलिये राजनीति के धुरन्धरों को अब सोचना होगा कि लोगों को बेवकूफ बनाकर वोट बटोरना अब पहले जितना आसान नहीं रहेगा।
अन्ना आन्दोलन का एक अहम सबक यह भी है कि अहिंसा और सत्याग्रह की ताकत बन्दूक और ए.के.-47 से भी ज्यादा है, बशर्ते कि उसके इस्तेमाल में निष्ठा, ईमानदारी, धैर्य और सादगी हो। यह देश मसीहा और करिश्मा को पसन्द करता है। लोकतंत्र है तो भागीदारी का मंच लेकिन इसमें किसी आईकॉन या हीरो की जबर्दस्त कद्र होती है। वर्षों से भ्रष्टाचार से त्रस्त बड़े जन सैलाब ने एक अन्ना को ऐसा अन्ना बना दिया कि अब अन्ना को दूसरा गांधी कहा जा रहा है। लोक से लोकशैली और लोकभाषा में बात करने वाले अन्ना आम लोगों से तुरन्त संवाद स्थापित कर लेने में सक्षम है। इसलिये उनकी बात एक साथ कारपोरेट और आम आदमी दोनों सुनते हैं। शायद इसलिये अन्ना के ऊपर अब एक बड़ी जिम्मेवारी है लोकशाही के लोक को सार्वभौम एवं शक्तिशाली स्थापित करने की। यदि अन्ना ने सांसद के सर्वोच्चता को चुनौती दी है तो उन्हें लोगों की सर्वोच्चता को मजबूती से स्थापित कराने के लिये लम्बे समय तक लड़ना होगा। इसके लिये जाति, सम्प्रदाय के नाम पर राजनीति करने वालों को भी एक्सपोज करना होगा और कारपोरेट-सरकार के खूंखार गठबंधन को भी। अन्ना होने का यह सबक अन्ना को भी याद रखना पड़ेगा।

Wednesday, December 28, 2011

A News Published in NAIDUNIA,Delhi 26-12-2011

कैंसर पर उपहास नहीं उपचार हो

कैंसर के कई मामले अभी भी एक लाइलाज मर्ज हैं। इस कड़वे सच को कैंसर के लाखों भुक्तभोगी मरीज भी अच्छी तरह जानते हैं। हां, आधुनिक तकनीक और व्यापक प्रचार माध्यमों ने इस लाइलाज मर्ज को नाउम्मीदी से बाहर निकालने में मदद की है। कैंसर पर हो रहे आधुनिक अनुसंधानों की दिशा भी एक महंगे तकनीक युक्त समाधान की तरफ ही जाती है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यू.एच.ओ.) भी कैंसर के बढ़ते मामले और उसके उपचार की महंगी पद्धति को कैंसर उन्मूलन में बाधक मानता है। दुनिया भर में आज यह चिन्ता उन हजारों वैज्ञानिकों और जनपक्षीय योजनाकारों की है कि कैंसर व अन्य लाइलाज तथा जटिल रोगों के मुकम्मल उपचार की सस्ती व आम लोगों द्वारा अपनाई जा सकने वाली तार्किक चिकित्सा प्रणालियों को बढ़ावा दिया जाए ताकि सामान्य अथवा गम्भीर रोगों से ग्रस्त लाखों लोगों के जीवन में उम्मीद की किरण फैले और इनमें से अधिकांश को असमय मौत से बचाया जा सके।
कैंसर सरीखे अनेक जानेलवा रोग आज भी दुनियां में लोगों के असमय मृत्यु के सबसे बड़े कारक हैं। 21वीं सदी के पहले दषक में चिकित्सा की सबसे चर्चित पुस्तक है ‘‘द एम्पेरर ऑफ ऑल मलाडिज।’’ इसके लेखक डा. सिद्धार्थ मुखर्जी ने दरअसल अपनी इस पुस्तक के माध्यम से कैंसर की आत्मकथा लिखी है। यह पुस्तक वर्ष 2011 का चर्चित पुलित्जर पुरस्कार भी प्राप्त कर चुका है। अमरीका में मशहूर कैंसर चिकित्सक की हैसियत से डा. मुखर्जी ने अपनी इस पुस्तक के पहले पृष्ठ पर वर्ष 2010 में कैंसर से मरने वाले 6 लाख अमरीकी तथा पूरी दुनियां में सत्तर लाख लोगों का आंकड़ा दिया है। डॉ. मुखर्जी लिखते हैं कि अमरीका में प्रत्येक तीन में से एक औरत तथा दो में से एक पुरुष अपने जीवन में कैंसर से ग्रस्त हो रहा है। दुनिया भर में कैंसर से मरने वाले कुल व्यक्तियों में एक चौथाई तो अमरीकी हैं। इसी पुस्तक में आंकड़ा है कि कुछ देशों में तो सबसे ज्यादा मौतों का जिम्मेदार हृदय रोग को भी कैंसर ने पीछे छोड़ दिया है। इसी पुस्तक में डॉ. मुखर्जी ने कैंसर रोग की गम्भीरता को रेखांकित करते हुए इसके उपचार में सक्षम सभी चिकित्सा पद्धतियों में व्यापक और व्यावहारिक अनुसंधान की आवश्यकता की भी बात की है।
कैंसर का इतिहास कोई नया नहीं है। प्राचीन चिकित्सा ग्रन्थों में भी कैंसर का जिक्र है लेकिन आजकल कैंसर से जुड़ा हुआ यह तथ्य महत्वपूर्ण है कि इसका प्रसार तेजी से हो रहा है। और यह पहले से ज्यादा घातक भी हो गया है। इससे भी ज्यादा गम्भीर बात यह है कि इस कथित महारोग का उपचार बेहद महंगा हो गया है। न केवल दवा बल्कि कैंसर के विशेषज्ञ चिकित्सकों की फीस भी एक हजार रुपये से ज्यादा है। हमारे देश में कैंसर से संबंधित यह तथ्य भी महत्वपूर्ण है कि यहां के गरीब लोगों खास कर किसानों को अपनी स्थाई सम्पतिए जमीनंे आदि बेच कर कैंसर रोग का उपचार कराना पड़ रहा है और ज्यादातर मामलों में उनके जीवन और धन दोनों से उन्हें महरूम होना पड़ता है।
कैंसर रोग और उपचार से जुड़ी एक विडम्बना यह भी है कि सरकार से सेवा एवं मुफ्त उपचार के नाम पर प्राप्त की गई निःशुल्क (या नाम मात्र की कीमत पर) जमीन पर खड़े पांच सितारा कैंसर अस्पताल भी किसी गरीब या जरूरतमंद रोगी का मुफ्त इलाज नहीं करते। वैसे भी यह अध्ययन का विषय है कि मरीजों द्वारा खर्च की गई रकम के एवज में क्या कथित कैंसर अस्पताल मुक्कमल उपचार दे रहे हैं? टाटा कैंसर इन्स्टीच्यूट मुम्बई के ही एक बड़े चर्चित सर्जन ने अभी हाल ही में दिल्ली में एक मेमोरियल लेक्चर देते हुए कैंसर चिकित्सकों को ‘‘सच्ची सेवा’’ करने की नसीहत दी थी। उन्होंने इसे रेखांकित किया था कि मौत के कगार पर पहुंचे मरीज से महंगी फीस लेना पाप है।
अब यह तथ्य प्रमाणित हो रहा है कि हमारी कथित आधुनिक जीवन शैली ही कैंसर जैसे घातक रोगों को आमंत्रण देती है। इस महंगी आधुनिक जीवन शैली में कैंसर बढ़ेगा ही और फिर इसके उपचार के नाम पर अनेक पांच सितारा कैंसर अस्पताल भी खुलते जाएंगे लेकिन क्या इससे कैंसर रोगियों का वास्तव में भला हो पाएगा? यह सवाल हर व्यक्ति, बुद्धिजीवी एवं पत्रकारों से तवज्जो की मांग करता है। यह भी सच है कि लाइलाज कैंसर के उपचार के अनेक देसी एवं फर्जी दावे भी कैंसर रोगियों को गुमराह कर रहे हैं। प्रत्येक चिकित्सा पद्धति में ऐसे फर्जी दावे और भ्रामक विज्ञापनों पर रोक की जो नैतिक पहल होनी चाहिये वह नहीं है, साथ ही सरकार भी ऐसे फरेब दावे को रोक नहीं पा रही। तो क्या हम किसी चिकित्सा पद्धति को ही खारिज कर दें या उस पर उपहास करें जिसे वैज्ञानिक एवं तार्किक चिकित्सा पद्धति के रूप में विश्व स्तर पर मान्यता मिली हुई है।
भारत में तो होमियोपैथिक उपचार के प्रति आकर्षित लोगों का ग्राफ इतना ज्यादा है कि प्रसिद्ध व्यापारिक एवं वाणिज्य संस्था एसोचेम ने इसकी विकास दर 25 प्रतिषत (सबसे तेज) आंकी है। भारत सरकार के आयुष मंत्रालय के अधीन कैंसर एवं होमियोपैथी पर हो रहे अनुसंधान के परिणाम आशा के अनुरूप हैं तथा अभी हाल ही में दिल्ली में आयोजित 66वें विश्व होमियोपैथिक सम्मेलन में प्रस्तुत शोध पत्रों में कैंसर एवं होमियोपैथिक उपचार दर्जनों शोध पत्र ‘‘आश्चर्य’’ उत्पन्न करने वाले थे। उल्लेखनीय है कि इनमें से कुछ शोध पत्र तो एलोपैथी एवं होमियोपैथी के वरिष्ठ चिकित्सकों ने संयुक्त रूप से लिखे थे।
इसमें सन्देह नहीं कि कैंसर का बिगड़ा रूप उपचार के आधुनिक एवं प्रमाणिक तकनीक व विज्ञान की मांग करता है। इसके लिये जरूरी है सभी चिकित्सा पद्धति की योग्यता व दावे को परखा जाए। कैंसर रोगियों को खुष करने के लिये कविता की तुकबन्दी या लतीफे जरूर सुनाए जाएं लेकिन उपचार की एक मुकम्मल चिकित्सा पद्धति को महज इसलिये मजाक का विषय नहीं बनाया जाए क्योंकि वह सस्ती और सहज में उपलब्ध है। आज गम्भीर रोगों का मुकाबला करने के लिये सभी चिकित्सकों के सामुहिक प्रयास की जरूरत है। इसमें मीडिया की भी उतनी ही जिम्मेदारी है। क्या मानवता के लिये हम थोड़ा गम्भीर नहीं हो सकते?
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Saturday, November 26, 2011

कैंसर को समझना क्यों जरूरी है

कैंसर को समझना क्यों जरूरी है !

गम्भीर और भयावह रोगों में कैंसर का नाम सर्वोपरि है। नये चिकित्सा तकनीक और अनुसंधनों के बावजूद यह कहना मुश्किल है कि कैंसर के भय से मुक्त रहा जा सकता है। भारत ही नहीं पूरी दुनियां में कैंसर के मामले और उससे प्रभावित लोगों की संख्या बढ़ रही है। विश्व स्वास्थ्य संगठन ;वि.स्वा.स.द्ध के कैंसर फैक्टशीट फरवरी 2011 के अनुसार दुनिया भर में एक करोड़ लोग प्रतिवर्ष कैंसर की वजह से मर रहे हैं। यह आंकड़ा 2030 तक बढ़कर सवा करोड़ हो जाएगा लेकिन इसमें सबसे ज्यादा चिन्ता की बात यह है कि कैंसर से होने वाली मौतों में गरीब और विकासशील मुल्क के गरीब लोगों की संख्या सबसे ज्यादा होगी। यानि भारत कैंसर के निशाने पर मुख्य रूप से है। वि.स्वा.सं. की यही रिपोर्ट यह भी बताती है कि इन मामलों में 40 प्रतिशत मौतों को समुचित एवं समय पर इलाज से रोका जा सकता है। रिपोर्ट के अनुसार फेफड़े के कैंसर से होने वाली मौतें सबसे ज्यादा 1.4 मिलियन, पेट के कैंसर, .74 मिलियन, लिवर कैंसर , .70 मिलियन, आंतों के कैंसर , .61 मिलियन तथा स्तन कैंसर, .46 मिलियन प्रम्मुखता से पहचाने गए हैं। स्त्रियों में गर्भाशय ग्रीवा कैंसर के मामले भी तेजी से बढ़ रहे हैं। इसलिये कैंसर के बढ़ते संक्रमण और मामले एक तरह से खतरे की घंटी भी हैं।
वि.स्वा.सं. की इसी कैंसर फैक्टशीट में यह भी जिक्र है कि तम्बाकू के बढ़ते उपयोग, शराब, डब्बाबन्द अस्वास्थ्यकर खान-पान, कुछ वायरल रोगों या विषाणुओं का संक्रमण जैसे हेपेटाइटिस बी.,सी, “यूमेन पेप्लियोमा वायरस (एचपीवी) आदि विभिन्न कैंसर को बढ़ाने में बड़ी भूमिका निभा रहे हैं। इसी में यह भी जिक्र है कि उपरोक्त कारकों से बचाव कर कैंसर की सम्भावनाओं को कम किया जा सकता है। यों तो वि.स्वा.स. ने वैश्विक स्तर पर कैंसर से निबटने के लिये एक नॉन कम्यूनिकेबल डिजिज एक्सन प्लान 2008 भी बनाया है लेकिन व्यापक जन जागृति के अभाव में कैंसर जैसे घातक रोग से निबटना या बचना आसान नहीं है।
विगत कुछ महीनों से कैंसर व इसके विभिन्न पहलुओं पर हेरिटेज का अंक निकालने की योजना बनाई थी लेकिन अच्छे लेखों के इन्तजाम में वक्त लग गया इसलिये यह अंक अब आपके हाथ में है। इस अंक में एक विशेष लेख डॉ. वृंदा सीताराम का है जिसे हम चिकित्सकों को जरूर पढ़ना चाहिये। कैंसर के प्रति न केवल आम आदमी बल्कि चिकित्सकों का भी जो प्रचलित दृष्टिकोण है वह रोगी को भयभीत करने वाला ही है। अतः सीताराम ने अपने लेख में कैंसर को ‘‘जीवन का खेल’’ के रूप में चित्रित किया है। उनके लेख का सारांश इन वाक्यों से समझा जा सकता है.‘‘जिन्दगी ताश के पत्तों के खेल की तरह है। आपको शायद अच्छे पत्ते न मिलें, लेकिन जो कुछ आपको मिला है उससे आपको खेलना ही पड़ता है।’’ कैंसर मनोविज्ञान पर उनका यह लेख उनकी मशहूर पुस्तक नाट-आउट विनिंग द गेम ऑपफ कैंसर’’ का एक अंग है। ज्यादा गहरी रुचि वाले पाठक पूरी पुस्तक भी पढ़ें तो अच्छा रहेगा।
इसी वर्ष कैंसर पर एक और पुस्तक मशहूर हुई और वह हैµ ‘‘द इम्पेरर ऑफ आल मलाडिज’’। डा. सिद्यार्थ मुखर्जी की इस पुस्तक को इस वर्ष मशहूर अर्न्तराष्ट्रीय पुलिन्जर पुरस्कार भी मिल चुका है। 41 वर्षीय डॉ. मुखर्जी भारतीय मूल के अमरीकी चिकित्सक हैं और यह पुरस्कार पाने वाले वे चौथे भारतीय हैं। अमरीका के कोलम्बिया विश्वविद्यालय में मेडिसीन पढ़ाते हुए उन्होंने यह कैंसर की जीवनी लिखी जो अभी तक की कैंसर पर उपलब्ध सर्वाधिक प्रमाणिक पुस्तक है। इस पुस्तक की खासियत है कि यह तथ्यात्मक तो है ही रोचक भी है। इसे सभी पाठक पढ़ें। यह पढ़ने लायक एक जरूरी पुस्तक है।

बढ़ती महामारियों के दौर में

  कोरोना वायरस के त्रासद अनुभव के बाद अब देश में एच 3 एन 2 इन्फ्लूएन्जा वायरस की चर्चा गर्म है। समाचार माध्यमों के अनुसार...