अन्ना आंदोलन के सबक
अन्ना आंदोलन का एक सबक यह भी है कि विगत 20 वर्षों से देश में चल रहे उदारीकरण और निजीकरण की वजह से बढ़ी अमीरी और गरीबी की खाई तथा बड़े पैमाने पर हुए भ्रष्टाचार से जनता पूरी तरह त्रस्त है और वह अब इसे ज्यादा बर्दाश्त नहीं कर सकती। बीते दो-ढाई दशकों के नवउदारवादी नीतियों ने जहां अमीरी और गरीबी की खाई को बढ़ा दिया है वहीं भ्रष्टाचार को जीवन के अभिन्न अंग के रूप में भी प्रतिष्ठित करने का काम किया है। इसका मतलब यह कतई नहीं है कि इससे पहले देश में भ्रष्टाचार नहीं था। तथ्य तो यह है कि उदारीकरण ने भ्रष्टाचार को ‘‘समृद्धि का माध्यम’’ और भद्र जनों की ‘‘सुविधा’’ के रूप में स्थापित कर दिया है।
अन्ना जी के अनशन के दौरान और उसके उपरान्त कारपोरेट की भूमिका पर अनेक समीक्षात्मक टिप्पणियां आ चुकी हैं लेकिन इसे मुखर रूप से कहा जाना जरूरी है कि भ्रष्टाचार उन्मूलन के नाम पर चले इस आन्दोलन पर भी कारपोरेट का खासा प्रभाव रहा है। यह विडम्बना ही है कि अन्ना ने अपना अनशन तो एक दलित और मुस्लिम बच्ची के हाथों शहद और नारियल पानी ग्रहण कर तोड़ा लेकिन स्वास्थ्य परीक्षण के लिये वे कारपोरेट हेल्थ केयर के प्रतिनिधि अस्पताल मेदान्ता सिटी (गुड़गांव) गए जहां गरीबों और आम आदमी के लिये बेहद कम गंुजाइश है।
इसमें शक नहीं कि अन्ना अंादोलन ने देश के आम जनमानस को खूब झकझोरा है लेकिन अभी भी वर्ग, जाति और धर्म से जुड़े बड़े समूह इस आन्दोलन से अपने को नहीं जोड़ पाए। दलितों के कई बड़े नेता, मुसलमान आदि समूहों ने इस बड़े जन आन्दोलन से अपने को अलग ही रखा। कहा जा सकता है कि संविधान निर्माता डा. आम्बेडकर से जुड़ेे दलित अन्ना आन्दोलन को दलित विरोधी मानते हैं, और मुस्लिम नेतृत्व के अभाव में मुसलमान भी अपने को इस आन्दोलन से ज्यादा नहीं जोड़ पाते। लेकिन विशाल मध्यम वर्ग को उत्साहित कर इस आन्दोलन ने एक इतिहास तो रचा ही है।
अन्ना आंदोलन से असहमति के कई बिन्दु हो सकते हैं। जैसे आन्दोलन में आम्बेडकर फूले और बहुजन समाज के आदर्श प्रतीकों को ज्यादा अहमियत नहीं दिया गया, उलटे अन्ना आन्दोलन में ‘‘आरक्षण हटाओ- भ्रष्टाचार मिटाओ’’ के नारे लगते रहे। दलितों की यह भी शिकायत है कि बहुजनों के इस देश में अन्ना की कोर टीम में दलित, आदिवासी एवं अल्पसंख्यक की भागीदारी न के बराबर ही रही। अन्ना देश के नागरिकों के बीच समता की बात जरूर करते हैं, लेकिन वे खौफनाक गुजरात दंगों के आरोपी वहां के मुख्यमंत्री, नरेन्द्र मोदी की तारीफ कर अल्पसंख्यक मुसलमानों के आंख की किरकिरी बन जाते हैं। आदिवासी समाज भी सलवा जुडूम पर अन्ना का पक्ष जानना चाहता है। बहरहाल अन्ना टीम के लिये यह एक चुनौती होगी कि वह इस देश के बहुजन और अल्पसंख्यक जमात को ससम्मान अपने आन्दोलन की मुख्यधारा से जोड़ सके क्योंकि देश में भ्रष्टाचार की सबसे ज्यादा मार आदिवासियों, दलितों और अल्पसंख्यकों पर पड़ती है।
अभी राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन (एन.एस.एस.ओ.) का एक आंकड़ा आया है। अनुमान लगाया गया है कि सन् 2025 तक भारत में ऐसे मध्यमवर्गीय खाते-पीते लोगों की संख्या, जिसकी आमदनी 10 लाख रुपये प्रतिवर्ष है, बढ़कर ढाई करोड़ हो जाएगी। लेकिन तब तक इस देश में 122 करोड़ लोग येन-केन-प्रकारेण अपना जीवन बसर कर रहे होंगे और इनकी स्थिति बदतर होती जाएगी। अन्ना और अन्ना टीम को यह सोचना होगा कि नवउदारवादी नीतियों के कारण उपभोक्तावादी बनते मध्यमवर्ग के भ्रष्टाचार को कैसे रोका जाए। खासकर उस बड़े तबके को जो रातों रात अमीर बनने के लिए किसी भी हद जक जाने को तैयार हैं। नई सामाजिक अवधारणा में धन बल ने राजनीति से गठजोड़ करके अपनी उन्नति का मार्ग तलाश लिया और बड़े पैमाने पर नवधनाढ्य युवाओं ने इसे अपना आदर्श मान रखा है।
अन्ना हजारे को यह भी विचार करना होगा कि इस पूंजीवादी व्यवस्था में व्यापार को विश्वव्यापी बना दिया है। विडम्बना यह है कि यह बाजार अब शहर से गांव की ओर पसर रहा है। इसमें उत्पादक और ग्राहक दोनों ठगेे जाते हैं। मालामाल होता है बिचौलिया यानि बाजार। इस बाजार ने सरकार पर अपनी पकड़ मजबूत बना ली है। क्या अन्ना इस बाजार और सरकार के बीच पनपे अवैध सम्बन्धों पर प्रहार कर पाएंगे? यदि नहीं तो भ्रष्टाचार पर मरहम तो लगाया जा सकता है लेकिन उसे कम या खत्म नहीं किया जा सकता। दुनिया जानती है कि हाल फिलहाल के सभी बड़े भ्रष्टाचार कारपोरेट-सरकार और मीडिया की मिलीभगत से हुए जिसमें देश का लाखों करोड़ रुपये आम आदमी की जेब से निकलकर चन्द कारपोरेट घरानों के नुमाइन्दों की जेब में चला गया। इस प्रहसन में अच्छी भूमिका निभाने के लिये कारपोरेट ने नेताओं को भी उपकृत किया।
भ्रष्टाचार से उपजे काले धन को संचित करने एवं उसे देश के बाहर के बैंकों में जमा करने के खिलाफ बाबा रामदेव के नाटकीय आन्दोलन का वही हश्र हुआ जो हो सकता था लेकिन इस बात को मानना पडेगा कि भ्रष्टाचार ने देश में कालेधन की समानान्तर अर्थव्यवस्था खड़ी कर दी है। स्विस एवं विदेशी बैंकों में जमा भारतीय धन, मन्दिरों व ट्रस्टों में जमा धन-रूपये, लोगों के घरों में पड़े करेंसी नोट आदि सम्पत्ति को जोड़ दें तो यह कुल भारतीय जी.डी.पी. के आंकड़े को भी पार कर लेगा। यह तो बड़े भ्रष्टाचार का आंकड़ा है लेकिन आम जीवन में लोगों को छोटे-मोटे सरकारी कार्यों के लिये अफसर-कर्मचारी को घूस देना पड़ता है। यह भ्रष्टाचार दैनिक जीवन का अंग बन गया है। निश्चित ही अन्ना आन्दोलन से भ्रष्टाचार की इस प्रवृत्ति की पुष्टि हुई है लेकिन इस भ्रष्टाचार से मुक्ति का मार्ग अभी भी मीलों दूर है। अन्ना और अन्ना टीम को भ्रष्टाचार से मुक्ति के मार्ग के वाहन अभी और ढूंढने होंगे।
अन्ना एवं अन्ना आंदोलन को इस बात का जरूर श्रेय मिलना चाहिये कि उन्होंने जनतंत्र में तंत्र को जन की ताकत का अहसास करा दिया है। सन् 74 के बाद पहली बार जनता सांसदों का घेराव करने उनके निवास तक पहुंच गई। सांसदों व जन प्रतिनिधियों की बेचैनी संसद के विशेष सत्र में भी दिखी जब वे लोकपाल के मुद्दे पर बहस कर रहे थे। लगातार संसद में अर्नगल प्रलाप और गैर मर्यादित आचरण करने वाले सांसद किसी व्यक्ति द्वारा उन पर की गई कड़ी टिप्पणी से इतने आहत थे कि वे विशेषाधिकार हनन का प्रस्ताव तक ला चुके है।
मानना पड़ेगा कि अन्ना आन्दोलन ने धुरन्धर राजनीतिज्ञों की बनी बनाई जमीन उकेरकर रख दी है। मीडिया ने भी इसे हद से ज्यादा समर्थन दिया। कई राजनीतिक विश्लेषक भी मान रहे हैं कि अब राजनीतिज्ञों द्वारा अन्ना मुहिम की अनदेखी करना आसान नहीं होगा। अन्ना ने देश से राजनीतिकरण और लोकतांत्रीकरण की एक नई बहस छेड़ दी है जिसमें माननीयों की बड़ी कद पर सवाल खड़े हो रहे हैं। अन्ना आन्दोलन में इसकी झांकी भी दिखी इसलिये राजनीति के धुरन्धरों को अब सोचना होगा कि लोगों को बेवकूफ बनाकर वोट बटोरना अब पहले जितना आसान नहीं रहेगा।
अन्ना आन्दोलन का एक अहम सबक यह भी है कि अहिंसा और सत्याग्रह की ताकत बन्दूक और ए.के.-47 से भी ज्यादा है, बशर्ते कि उसके इस्तेमाल में निष्ठा, ईमानदारी, धैर्य और सादगी हो। यह देश मसीहा और करिश्मा को पसन्द करता है। लोकतंत्र है तो भागीदारी का मंच लेकिन इसमें किसी आईकॉन या हीरो की जबर्दस्त कद्र होती है। वर्षों से भ्रष्टाचार से त्रस्त बड़े जन सैलाब ने एक अन्ना को ऐसा अन्ना बना दिया कि अब अन्ना को दूसरा गांधी कहा जा रहा है। लोक से लोकशैली और लोकभाषा में बात करने वाले अन्ना आम लोगों से तुरन्त संवाद स्थापित कर लेने में सक्षम है। इसलिये उनकी बात एक साथ कारपोरेट और आम आदमी दोनों सुनते हैं। शायद इसलिये अन्ना के ऊपर अब एक बड़ी जिम्मेवारी है लोकशाही के लोक को सार्वभौम एवं शक्तिशाली स्थापित करने की। यदि अन्ना ने सांसद के सर्वोच्चता को चुनौती दी है तो उन्हें लोगों की सर्वोच्चता को मजबूती से स्थापित कराने के लिये लम्बे समय तक लड़ना होगा। इसके लिये जाति, सम्प्रदाय के नाम पर राजनीति करने वालों को भी एक्सपोज करना होगा और कारपोरेट-सरकार के खूंखार गठबंधन को भी। अन्ना होने का यह सबक अन्ना को भी याद रखना पड़ेगा।
A Senior Homoeopathic Medical Consultant & public Health Activist.Regularly Writing on Various Health, Environmental & Socio-Political issues.
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