उत्तराखण्ड के पहाड़ों
में
अभूतपूर्व
बारिश
से
आए
सैलाब
ने
जो
तबाही
की
इबादत
लिखी
है
वह
विगत
कई
दसकों
से
पहाड़
में
विकास
के
नाम
पर
किये
जा
रहे
छेड़-छाड़
के
परिणाम
के
रूप
में
हमारे
सामने
है।
नैनीताल,
हल्द्वानी,
रामगढ़
तथा
मुक्तेश्वर
सहित
नीचे
उत्तर
प्रदेश
के
लगभग
नौ
जिलों
में
इस
आपदा
में
लगभग
100 से
ज्यादा
लोगों
की
जानें
चली
गई
है।
मौसम
वैज्ञानिक
कह
रहे
हैं
कि
हिमालय
वेसिन
में
पश्चिमी
और
पूर्वी
विक्षोभ
के
टकराने
से
भारी
बारिश
हुई
और
आपदा
की
स्थिति
बनी।
उल्लेखनीय
है
कि
वर्ष
2013 में
भारी
बारिश
और
भूस्खलन
के
बाढ़
हुए
महाविनाश
में
हजारों
लोग
मारे
गए
थे।
ऐसे
ही
फरवरी
2021 में
चमोली
में
ग्लेशियर
फटने
से
200 लोगों
के
मारे-जाने
एवं
लापता
हो
जाने
की
खबर
थी।
कहा
जा
रहा
है
कि
नैनीताल
और
मुक्तेश्वर
में
इस
बार
340 मि.मी.
बारिश
हुई
जो
सन्
1914 के
254 मि.मी.
से
काफी
ज्यादा
है।
सवाल है कि विगत कुछ वर्षों में उत्तराखण्ड में
पश्चिमी
विक्षोभ
की
वजह
से
होने
वाले
भयानक
जानलेवा
हादसों
में
इतनी
ज्यादा
आमद
क्यों
है?
वातावरण
में
बढ़ी
गर्मी
की
वजह
से
हो
रहे
जलवायु
परिवर्तन
के
कारण
उत्पन्न
पश्चिमी
विक्षोभ
के
जानलेवा
परिणाम
विनाश
के
रूप
में
हमारे
सामने
हैं।
वैश्वीकरण
के
बाद
दुनियां
में
बढ़ी
असमानता
और
भोगवादी
वृतियों
ने
जलवायु
परिवर्तन
को
बढ़ा
दिया
है
मसलन
वातावरण
की
गर्मी
बढ़
रही
है
और
उसके
दुःपरिणाम
मानव
विनाश
के
कारण
बन
रहे
हैं।
नैनीताल
में
भारी
बारिश
की
वजह
साफ
है
कि
वहां
तापमान
30 डिग्री
सेंटीग्रेट
को
पार
कर
गया
या
जिसकी
वजह
से
भारी
बारिश
हुई,
और
इतनी
तबाही
बची।
विगत
कुछ
वर्षों
में
पहाड़
में
लोगों
की
बढ़ी
आवाजाही,
पर्यावरण
क्षति
एवं
प्रदूषण
के
कारण
कुमायु
क्षेत्र
में
चिंता
की
स्थिति
थी
लेकिन
न
तो
लोग
और
न
ही
प्रशासन
ने
किसी
भी
प्रकार
के
एहतियात
और
पहल
की
कोशिशें
की
मसलन
बढ़ी
गर्मी
ने
आपदा
को
विनाश
के
लिये
भेज
दिया।
देश में विकास के नाम पर चल रहे बेतुके पक्के निर्माण एवं
आधुनिक
संसाधनों
की
भरमार
से
लोगों
का
जीवन
प्रकृति
से
दूर
हो
गया
है।
आधुनिकता
ने
प्रकृति
को
चिढ़ाते
हुए
पर्यावरण
को
नष्ट
करने
की
मानों
खुली
घोषणा
कर
दी
है।
बढ़ती
गर्मी
से
बचने
के
लिये
वातानुकूलन,
फ्रिज
तथा
बिजली
से
चलने
वाले
अन्य
आधुनिक
उपकरण
सब
वातावरण
में
गर्मी
को
बढा
रहे
हैं
और
उसकी
वजह
से
पश्चिमी
व
पूर्वी
विक्षोभ
उत्पन्न
हो
रहे
हैं।
कार्बन
उत्सर्जन
के
बढ़
जाने
से
पर्यावरण
पूरी
तरह
प्रभावित
है
और
बेमौसम
बारिश,
तूफान,
ग्लेशियर
का
पिघलना,
जमीन
के
अन्दर
पानी
का
स्तर
और
नीचे
चला
जाना
आदि
अनेक
ऐसी
वजहें
हैं
जो
महाविनाश
को
न्यौता
रही
हैं।
इस
कथित
विकास
की
कीमत
पहाड़
और
पहाड़
के
लोगों
को
ज्यादा
चुकाना
पढ़
रहा
है।
वैसे
ही
कई
कारणों
से
पहाड़
के
लोगों
का
पलायन
भी
बढ़ा
है।
रोजगार
की
तलाश
में
पहाड़
के
लोग
नीचे
मैदानी
भाग
में
आ
रहे
हैं
और
मैदान
के
लोग
सुकून
के
कुछ
पल
गुजारने
के
लिये
गर्मियों
में
पहाड़
जा
रहे
हैं।
कुछ
दिनों
में
जब
अचानक
पहाड़
पर
लाखों
लोग
जमा
होते
हैं
तब
प्रदूषण,
गर्मी
आदि
बढ़ने
तथा
लोगों,
गाड़ियों
की
वजह
से
पर्यावरण
प्रभावित
होता
है।
एक स्वयंसेवी शोध
संस्था
हील
(हेल्थ
एजुकेशन
आर्ट
लाइफ
फाउन्डेशन)
के
अध्ययन
के
अनुसार
विगत
डेढ़-दो दसक
में
पहाड़
में
तेजी
से
बांध
बनाने,
चौड़ी
सड़कों
के
निर्माण
के
लिये
पहाड़
काटने,
बड़े
पैमो
पर
जंगल
काटने,
पर्यटन
को
बढ़ाने
के
लिये
कंक्रीट
के
जंगलों
को
बसाने
आदि
के
कारण
पहाड़
का
पर्यावरण
बुरी
तरह
चरमरा
गया
है।
सत्ता
के
लालच
में
विभिन्न
राजनीतिक
पार्टियों
में
होड़
मची
है
कि
विकास
के
नाम
पर
हर
वह
काम
मंजूर
कर
दिया
जाए
जो
पहाड़
और
पर्यावरण
का
नाश
कर
रही
है।
पहाड़ी
जंगलों
के
दोहन
में
पहाड़
और
बाहर
के
लोगों
की
मिली
भगत
है
मसलन
न
तो
कोई
पहाड़
का
विनाश
देख
रहा
है
और
न
ही
निरीह
लोगों
की
हो
रही
मौतें।
सब
मुनाफे
के
लिये
पहाड़
को
मिलान
करने
में
लगे
हैं।
सवाल है कि पहाड़ों की यह आपदा क्या केवल पहाड़ और वहां रहने वाले लोगों को ही प्रभावित कर रही
है?
नहीं
ऐसा
नहीं
है।
पर्यावरण
की
क्षति
का
नुकसान
पूरी
मानवता
भोगती
है।
हम
झटपट
विकास
के
मृगमरिचिका
में
ऐसे
फंस
गए
हैं
कि
हमें
सामने
खड़ी
मौत
दिखाई
नहीं
देती
हां
मौत
से
पहले
चंद
झुनझुने
दिख
जाते
हैं
जिसे
पाने
की
होड़
में
हम
महाविनाश
की
दस्तक
भी
नहीं
सुना
पा
रहे।
अभी
भी
वक्त
है।
इस
छद्म
विकास
के
विनाश
को
पहचानिये
और
प्रकृति
से
छेड़छाड़
बंद
कर
दीजिये।
लालच
पर
नियंत्रण
रखिये।
मूर्ख
नेताओं
से
पिंड
छुड़ाइये
और
स्थाई
विकास
के
लिये
प्रकृति
सम्मत
जीवन
को
अपनाइये।
मौत
की
दस्तक
सुन
चुके
हैं,
देख
चुके
हैं,
अब
यह
आपके
तरफ
बढ़
रही
है।
समय
रहते
सम्हल
जाइये।
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