21वीं शताब्दी की एक विशेषता यह है कि इसमें लोगों की औसत आयु बढ़ गई हैएसाथ ही एक कालक्रम में आयु सीमा में हुए इस परिवर्तन से नयी पीढ़ी पर दबाव भी बढ़ गया है। भारत सहित दुनिया की जनसंख्या पर नजर डालें तो सन् 2000 से 2050 तक पूरी दुनिया में 60 वर्ष से ज्यादा उम्र वाले लोगों की तादाद 11 फीसद से बढ़कर 22 फीसद तक पहुंच जाएगी। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्लूएचओ) के अनुमान के अनुसार वृद्ध लोगों की आबादी 605 मिलियन(6 करोड़ 5 लाख से बढ़कर 2 बिलियन;2अरब) हो जाएगी। इन तथ्यों के आलोक में डब्लूएचओ ने इस वर्ष विश्व स्वास्थ्य दिवस का थीम ‘‘बुढ़ापा और स्वास्थ्य’’ निर्धारित किया है। इस मौके पर डब्लूएचओ के दक्षिण एशिया क्षेत्र के निदेशक डॉ. सामली प्लियाबांगचांग ने जारी अपने संदेश में कहा है कि,‘‘बुढ़ापा या उम्र का बढ़ना एक जीवनपर्यन्त तथा अवश्यंभावी प्रक्रिया है। इस प्रक्रिया में व्यक्ति का शारीरिक, मानसिक एवं सामाजिक बदलाव होता है। अब चूंकि एक बड़ी आबादी वृद्ध लोगों की है तो दुनिया भर में विभिन्न सरकारों और योजनाकारों को तदनुरूप योजनाएँ और नीतियाँ बनानी चाहिये।’’
डब्लूएचओ के अनुमानित आंकड़े के अनुसार भारत में वृद्ध लोगों की आबादी 160 मिलियन(16 करोड़) से बढ़कर सन् 2050 में 300 मिलियन (30 करोड़) 19 फीसद से भी ज्यादा आंकी गई है। बुढ़ापे पर डब्लूएचओ की गम्भीरता की वजह कुछ चौंकाने वाले आंकड़े भी हैं। जैसे 60 वर्ष की उम्र या इससे ऊपर की उम्र के लोगों में वृद्धि की रफ्तार 1980 के मुकाबले दो गुनी से भी ज्यादा है। 80 वर्ष से ज्यादा के उम्र वाले वृद्ध सन 2050 तक तीन गुना बढ़कर 395 मिलियन हो जाएंगे। अगले 5 वर्षों में ही 65 वर्ष से ज्यादा के लोगों की तादाद 5 वर्ष तक की उम्र के बच्चों की तादाद से ज्यादा होगी। सन् 2050 तक देश में 14 वर्ष तक की उम्र के बच्चों की तुलना में वृद्धों की संख्या ज्यादा होगी। और सबसे महत्वपूर्ण तथ्य यह कि अमीर देशों के लोगों की अपेक्षा निम्न अथवा मध्य आय वाले देशों में सबसे ज्यादा वृद्ध होंगें।
डब्लूएचओ की नई चिन्ताओं में दुनिया में बढ़ते वृद्धों की ज्यादा संख्या है। यहां मेरा यह आशय कतई नहीं है कि बढ़ती उम्र, बुढ़ापा अथवा अधेड़ उम्र के ज्यादा लोगों की वजह से डब्लूएचओ परेशान है। दरअसल यह मुद्दा समय से पहले चेतने और समय रहते समुचित प्रबन्धन करने का है। संगठन की मौजूदा चिंता भी इसी की कड़ी है। वैश्वीकरण के दौर में एक बात तो समान रूप से सर्वत्र देखी जा रही है कि अर्थ अथवा धन ने मानवीयता एवं संवेदना पर अपना वर्चस्व स्थापित कर लिया है। धन और सम्पत्ति के सामने सम्बन्धों व मानवता की हैसियत घटती जा रही है। ऐसे संवेदनहीन होते जा रहे समाज में यदि अधेड़ उम्र के लोगों की तादाद ज्यादा होगी तो कई मानवीय दिक्कतें भी बढ़ेंगी इसलिये इनके सामाजिक सुरक्षा, व्यक्तिगत स्वास्थ्य तथा वृद्धावस्था से जुड़े अन्य सभी पहलुओं पर समयक दृष्टि तो डालनी ही होगी। संगठन की मौजूदा चिन्ता भी यही है इसलिये इस वर्ष अपने स्थापना दिवस पर संगठन ने ‘‘बुढ़ापा एवं स्वास्थ्य’’ के थीम पर स्लोगन दिया है - श्दीर्घ जीवन के लिये अच्छा स्वास्थ्यश् (गुड हेल्थ एडस लाइफ टू इयर्स)
स्वास्थ्य की दृष्टि से यदि बुढ़ापे को देखें तो यह कई तरह से संवेदनशील उम्र है। इस दौरान यानि 50 वर्ष की उम्र के बाद शरीर में कई तरह के क्रियात्मक परिवर्तन होते हैं। जैसे इस दौरान शरीर के गुर्दे, जिगर, फेफड़ों की कार्यक्षमता में कमी आ जाती है। दांत कमजोर होने लगते हैं, आंखों की रौशनी, सुनने की क्षमता, यौन क्षमा, यादाश्त आदि कमजोर होने लगते हैं। वृद्ध होते व्यक्ति की आर्थिक स्वतंत्रता भी घटने लगती है। व्यक्ति तथा उनके सम्बन्धियों के लिये भी बुढ़ापा समस्या बन जाती है। ऐसे में बुढ़ापे से सम्बन्धित विभिन्न स्वास्थ्य एवं सामाजिक पहलुओं की विचेचना जरूरी है।
डब्लूएचओ की मौजूदा चिन्ता में केवल विकासशील देश ही नहीं विकसित देश के वृद्ध भी हैं। दोनों देशों के वृद्धों की अपनी अपनी समस्याएं हैं। विकसित देशों में जहां वृद्धों को अपेक्षाकृत आर्थिक दिक्कत कम है वहीं विकासशील देशों में वृद्धों की मुख्य समस्या आर्थिक ही है। सामाजिक सुरक्षा के अभाव में विकासशील अथवा गरीब देश के वृद्धों की स्थिति दर्दनाक है। संगठन ने दुनिया भर में देशों की सरकारों से अपील की है कि वे अपने अपने क्षेत्र में ऐसी योजनाएं बनाएं जिससे वृद्धावस्था के लोगों को जीवन बोझ न लगे।
संगठन ने वृद्धावस्था व उससे जुड़ी समस्याओं से निबटने के लिये कुछ बिन्दु सुझाए हैं। इनमें समय रहते वृद्ध होते लोगों की सामाजिक, आर्थिक सुरक्षा आदि के लिये बिन्दुवार नीतियां और कार्यप्रणाली बनाने की जरूरत है। इस पहलु से जुड़ा महत्वपूर्ण पक्ष यह है कि वृद्ध लोगों की कार्यकुशलता तथा अनुभव को उपयोग में लेने की नीति पर कई देश काम कर रहे हैं। भारत में भी वृद्ध लोगों के प्रति सकारात्मक नजरिए के लिये कई स्वयंसेवी संगठनों की ओर से अभियान चलाया जा रहा है।
बढ़ती उम्र अथवा वृद्धावस्था को लेकर पश्चिमी समाजों की अवधारणा आज भी अमानवीय और क्रूर है। भारत या भारतीय उपमहाद्वीप में वृद्धों के प्रति सकारात्मक नजरिया शुरू से रहा है। वृद्धाश्रम या ओल्ड होम की परिकल्पना मूलतः भारतीय नहीं है। पश्चिमी समाज भी अब यह महसूस कर रहा है कि ‘‘ओल्ड होम्स’’ वृद्धावस्था की समस्याओं का समाधान नहीं है। इसलिये ज्यादा वृद्धों वाले समाज को विशेष रूप से इस योजना पर काम करना पड़ेगा कि ज्यादा उम्र वाले लोग कैसे सार्थक और सुकून का जीवन जी सकें। समाज कल्याण और बाल विकास की अनेकों ऐसी योजनाएं हैं जिसमें वृद्धों को महत्वपूर्ण भूमिका के लिये आग्रह किया जा सकता है। इस प्रकार जहां वे सक्रिय और उत्पादक जीवन जी पाएंगे वहीं समाज को एक अनुभवी तथा परिपक्व सेवा मिल जाएगी।
डब्लू एच ओ के इस थीम (बुढ़ापा और स्वास्थ्य) का मतलब यह भी है कि ‘‘उम्र कोई बाधा नहीं’’ अथवा ‘‘रिटायर्ड बट नाट टायर्ड’’। दरअसल तकनीक व आधुनिक विकास ने व्यक्ति को ज्यादा उम्र तक जीने का वरदान दे दिया है। जाहिर है युवा और वृद्ध के बीच एक नया अन्तराल पैदा हुआ है। यह अन्तराल विकास की नयी इबारत लिख सकता है। आवश्यकता है कि हम पीढ़ियों और उम्रों के बीच सामंजस्य स्थापित कर सकें। बुढ़ापा बोझ तब होता है जब परिवारों में समझ और संवेदना का अभाव हो। हमें साधन और समृद्धि के साथ साथ संवेदना और प्राकृतिक सत्य को भी महत्व देना चाहिये।
आज आवश्यकता इस बात की भी है कि विश्वविद्यालयों एवं सामाजिक संस्थाओं में अलग अलग विषयों के लिये विशेष पाठ्यक्रम या व्यावहारिक हॉबी की कक्षाएं चलाई जा सकती हैं। कहते हैं कि शिक्षा का पहला दौर जीवन की तैयारी है और शिक्षा का दूसरा दौर मृत्यु की तैयारी होनी चाहिए। हम जीवन की तमाम योजनाएँ बनाते हैं लेकिन यह जानते हुए भी कि ‘‘मृत्यु निश्चित है’’, इस पर तनिक भी नहीं सोचते। यदि हमने मृत्यु का पाठ ठीक से पढ़ लिया तो यह जीवन की ही तरह सरल लगने लगेगा। फिर बुढ़ापा समस्या नहीं एक उत्सव की तरह होगा। विश्व स्वास्थ्य दिवस के बहाने यदि हम बुढ़ापे के सवालों को ठीक से समझ सके तो शायद हम बुढ़ापे की समस्या नहीं बल्कि जीवन के एक आवश्यक अंग की तरह देखेंगे और यही आज की जरूरत भी है। इसलिये बुढ़ापे को स्वास्थ्य संगठन से जोड़ने की जरूरत है। हम सबको इस अभियान में लगना चाहिये क्योंकि हम भी बुढ़ापे की तरफ धीरे धीरे बढ़ रहे हैं।
A Senior Homoeopathic Medical Consultant & public Health Activist.Regularly Writing on Various Health, Environmental & Socio-Political issues.
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