क्यों
नहीं खत्म
हो रहा
है मलेरिया
?
मुम्बई
देश की
आर्थिक राजधानी
है। जाहिर
है विकास
के नाम
पर देश
मुम्बई पर
बहुत ज्यादा
खर्च करता
है। ताजा
खबर यह
है कि
इस अति
आधुनिक शहर
में विगत वर्ष जुलाई के
अन्त तक
मलेरिया जैसे
सामान्य रोग
से कोई
31 लोगों की
मौत हो
चुकी थीै
और 17138 लोग
सरकारी तौर
पर मलेरिया
की चपेट
में थे।
इसी महानगर
में वर्ष
2009 में मलेरिया
से 198 लोगों
की मौत
हो गई
थी। पिछले
वर्ष की
तुलना में
इस वर्ष
अभी तक
मलेरिया का
प्रभाव 2.3 प्रतिशत ज्यादा है। मलेरिया
के रोज
बढ़ते और
जटिल होते
मामले बार-बार हमें
भविष्य के
भयावह खतरे
का अहसास
करा रहे
हैं। हालात
यह है
कि इस
साधारण और
नियंत्रित किये जा सकने वाले
(प्लाजमोडियम) परजीवी से होने वाला
बुखार जानलेवा
तो है
ही अब
लाइजाज होने
की कगार
पर है।
लेकिन समुदाय
और सरकार
अभी भी
इसे गम्भीरता
से नहीं
ले रहे
हैं।
18वीं
शताब्दी में
फ्रांस के
एक सैन्य
चिकित्सक ‘लेरेरान’ ने इस खतरनाक
मलेरिया परजीवी
को उत्तरी
अमरीका के
अल्जीरिया प्रान्त में ढूंढा था।
तबसे यह
परजीवी रोकथाम
के सभी
कथित प्रयासों
को ढेंगा
दिखाता दिन
प्रतिदिन मच्छड़
से शेर
होता जा
रहा है।
जैव वैज्ञानिक
नोराल्ड रोस
ने 1897 में
जब यह
पता लगाया
कि एनोफेलिज
नामक मच्छड़
मलेरिया परजीवी
को फैलाने
के लिए
जिम्मेदार है तब से मलेरिया
बुखार चर्चा
में है।
इन मच्छरों
को मारने
या नियंत्रित
करने के
लिये स्वीस
वैज्ञानिक पॉल मूलर द्वारा आविष्कृत
डी.डी.टी. अब
प्रभावहीन है जबकि मूलर को
उनके इस
खोज के
लिये नोबेल
पुरस्कार तक
मिल चुका
है। संक्षेप
में कहें
तो मलेरिया
उन्मूलन के
अब तक
के सभी
कथित वैज्ञानिक
उपाय बेकार
सिद्ध हुए
हैं। बल्कि
अब और
खतरनाक व
बेकाबू हो
गया है।
हालांकि विश्व
स्वास्थ्य संगठन इसे सामान्य और
नियंत्रित किया जा सकने वाला
रोग मानता
है।सवाल है कि आधुनिकतम शोध, विकास और तमाम तकनीकी, गैर तकनीकी विकास के बावजूद मलेरिया नियंत्रित या खत्म क्यों नहीं हो पा रहा है? इस प्रश्न का जवाब न तो स्वास्थ्य मंत्रालय के पास है न ही किसी स्वयं सेवी संस्था के पास। आइये संक्षेप में यह जानने का प्रयास करते हैं कि मलेरिया नियंत्रण के लिये सरकार ने अब तक क्या-कया कदम उठाए हैं।
भारत में सबसे पहले अप्रैल 1953 में राष्ट्रीय मलेरिया नियंत्रण कार्यक्रम (एन.एम.सी.पी.) शुरू किया गया। बताते है कि 5 वर्ष की अवधि में इस कार्यक्रम ने मलेरिया का संक्रमण 75 मिलियम से घटाकर 2 मिलियन पर ला दिया। इससे उत्साहित होकर विश्व स्वास्थ्य संगठन ने 1955 में अर्न्तराष्ट्रीय स्तर पर मलेरिया उन्मूलन कार्यक्रम (एन.एम.ई.पी.) चलाने की योजना बनाई। 1958 मे मलेरिया के मामले 50,000 से बढ़कर 6.4 मिलियन हो गए। इतना ही नहीं अब मलेरिया के ऐसे मामले सामने आ गए हैं। जिसमें मलेरिया रोधी दवाएं भी प्रभावहीन हो रही हैं। इसे प्रशासनिक व तकनीकी विफलता बता कर स्वास्थ्य संस्थाओं, सरकार और डब्ल्यू.एच.ओ. ने पल्ला झाड़ लिया।
केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय ने पुनः 1977 में मलेरिया नियंत्रण के लिये संसोधित प्लान ऑफ आपरेषन (एम.पी.ओ.) शुरू किया। थोड़े बहुत नियंत्रण के बाद इससे भी कोई खास फायदा नहीं हुआ, उलटे मलेरिया रोधी दवा ‘‘क्लोरोक्वीन’’ के हानिकारक प्रभाव ज्यादा देने जाने लगे। जी मिचलाना उल्टीए आंखो में धुंधलापन, सरदर्द जैसे साइड इफैक्ट के बाद लोग क्लोरोक्वीन से बचने लगे। मलेरिया से बचाव के लिये रोग प्रतिरोधी दवा को पांच वर्ष से कम उम्र के बच्चों को देने की योजना को भी कई कारणों से नहीं चलाया जा सका। उधर मलेरिया के मच्छड़ों को खत्म करने की बात तो दूर उसे नियंत्रित करने की योजना व उपाय भी धरे के धरे रह गए। डी.डी.टी. व अन्य मच्छड़ रोधी दवाओं के छिड़काव से भी मच्छड़ों को रोकना सम्भव नहीं हुआ तो इसे प्रतिबन्घित करना पड़ा। स्थिति अब ऐसी हो गई है कि न तो मच्छड़ नियंत्रित हो पा रहे हैं और न मलेरिया की दवा कारगर प्रभाव दे पा रही है। मसलन वैज्ञानिक शोध, विकास और कथित आर्थिक सम्पन्नता की ओर बढ़ते समाज और देश के लिये मलेरिया एक जानलेवा पहेली बनी हुई है।
मलेरिया के उन्मूलन में केवल मच्छड़ों को मारने या नियंत्रित करने तथा बुखार की दवा को आजमाने के परिणाम दुनिया ने देख लिये हैं, लेकिन मलेरिया उन्मुलन से जुड़े दूसरे सामाजिक, सांस्कृतिक राजनीतिक व आर्थिक पहलुओं पर सरकारों व योजनाकारों ने कभी गौर करना भी उचित नहीं समझा। अभी भी वैज्ञानिक मच्छड़ों के जीन परिवर्तन जेसे उपायों में ही सर खपा रहे हैं। अमरीका के नेशनल इन्स्टीच्यूट ऑफ एलर्जी एण्ड इन्फेक्सियस डिजिजेस के लुई मिलर कहते हैं कि मच्छड़ों को मारने से मलेरिया खत्म नहीं होगा क्योंकि सभी मच्छड़ मलेरिया नहीं फैलाते। आण्विक जीव वैज्ञानिक भी नये ढंग की दवाएं ढूंढ रहे हैं। कहा जा रहा हे कि परजीवी को लाल रक्त कोषिकाओं से हिमोग्लोबिन सोखने से रोक कर यदि भूखा मार दिया जाए तो बात बन सकती है लेकिन इन्सानी दिमाग से भी तेज इन परजीवियों का दिमाग है जो उसे पलटकर रख देता है। बहरहाल मलेरिया परजीवी के खिलाफ विगत एक शताब्दी से जारी मुहिम ढाक के तीन पात ही सिद्ध हुए हैं। परजीवी अपने अनुवांषिक संरचना में इतनी तेजी से बदलाव कर रहा है कि धीमे शोध का कोई फायदा नहीं मिल रहा।
वैज्ञानिक सोंच और कार्य पर आधुनिकता तथा बाजार का इतना प्रभाव है देसी व वैकल्पिक कहें जाने वाले ज्ञान को महत्व ही नहीं दिया जाता। होमियोपैथी के आविष्कारक डा. हैनिमैन एलोपैथी के बड़े चिकित्सक और जैव वैज्ञानिक थे। मलेरिया बुखार पर ही ‘‘सिनकोना’’ नामक दवा के प्रयोग के बाद उन्होंने होमियोपैथी चिकित्सा विज्ञान का श्रृजन किया। दुनिया जानती है कि मलेरिया की एलौथिक दवा क्लोरोक्वीन तो प्रभावहीन हो गई है लेकिन होमियोपैथिक दवा ‘‘सिन्कोना ऑफसिनेलिस’’ आज सवा’ दो सौ वर्ष बाद भी उतनी ही प्रभावी है। आयुर्वेद व होमियोपैथी के रोग उपचारक व नियंत्रण क्षमता को कभी सरकार ने उतना अहमियत नहीं दिया जितना कि एलोपैथी को देती है। जरूरत इस बात की है कि देसी व वैकल्पिक चिकित्सा पद्धतियों की वैज्ञानिकता को परख कर बिना किसी पूर्वाग्रह के उसे प्रचारित किया जाना चाहिये।
वैश्वीकरण और उदारीकरण के बाद मलेरिया की स्थिति इस रूप में भयानक हुई है कि इसके संक्रमण और बढ़ते प्रभाव की आलोचना से बचने के लिए सरकार ने नेशनल मलेरिया कन्ट्रोल प्रोग्राम (एन.एम.सी.पी. 1953) एवं नेशनल मलेरिया उन्मूलन कार्यक्रम (एन.एम.ई.पी. 1958) से अपना ध्यान हटा लिया है। नतीजा हुआ कि सालाना मृत्युदर में वृद्धि हो गई। हालांकि सरकारी आंकड़ों में मलेरिया संक्रमण के मामले कम हुए ऐसा बताया गया है लेकिन सालाना परजीवी मामले (ए.पी.आई.), सालाना फैल्सीफेरम मामले (ए.एफ.आई.) में गुणात्मक रूप से वृद्धि हुई है।
वातावरण का तापक्रम बढ़ रहा है। दुनिया जानती है कि बढ़ता शहरीकरण, उद्योग धंधे, मोटर गाड़ियों का बढ़ता उपयोग, कटते जंगल, शहरों में बढ़ती आबादी, बढ़ती विलासिता आदि वैश्विक गर्मी बढ़ा रहे हैं। मच्छड़ों के फैलने के लिये ये ही तापक्रम जरूरी हैं अतः इस तथाकथित आधुनिकता के बढ़ते रहने से मच्छड़ों को नियंत्रित करवाना संभव नहीं होगा। मच्छड़ों से बचाव के कथित आधुनिक उपाय जैसे क्रीम, आलआउट, धुंआबत्ती स्प्रे आदि बेकार हैं। पारम्परिक तरीके जैसे मच्छड़दानी, सरसों के तेल का शरीर पर प्रयोग नीम की खली आदि से मच्छरों को नियंत्रित किया जा सकता है। जिसे रोके बगैर मच्छड़ों को रोकना सम्भव नहीं है। ऐसे में मलेरिया के नाम पर संसाधनों की लूट और क्षेत्रीय राजनीति तो की जा सकती है लेकिन इस जान लेबा बुखार को रोका नहीं जा सकता। अभी भी वक्त है योजनाओं में नीतिगत बदलाव लाकर आबादी को पूरे देष में फैला दिया जाए। ग्रामीण अर्थव्यवस्था को मजबूती दी जाए। बड़े बांध और अन्धाधुन षहरीकरण को रोका जाए। देसी व पारम्परिक वैज्ञानिक चिकित्सा विधियों की अमूल्य विरासत को बढ़ावा दिया जाए तो मलेरिया व अन्य जानलेवा रोगों को काफी हद तक सीमित संसाधनों में भी खत्म किया जा सकता है।
विडम्बना यह है कि मलेरिया नियंत्रण और उन्मूलन के अब तक सभी सरकारी कार्यक्रमों/अभियानों की विफलता के बाद बहुराष्ट्रीय कम्पनियों (खासकर ग्लेक्सो स्मिथक्लाईन) के सुझाव पर तथाकथित मलेरिया रोधी टीका ;ैच्थ् 66 तथा त्ज्ैएैध्।ै02द्ध का प्रचार जोर शोर से किया जा रहा है जबकि इस महंगे टीके की घोषित प्रभाव क्षमता 50 प्रतिशत से भी कम है। हालांकि कम्पनी अमरीका में इसके 70 प्रतिशत सफलता का दावा कर रही है।
जाहिर है मलेरिया उन्मूलन के बुनियादी सिद्धांतों को छोड़कर सरकार कम्पनियों के दबाव में बाजारू समाधान (वैक्सीन?) पर ध्यान दे रही है। इससे न तो मलेरिया खत्म होगा न ही मलेरिया रोगियों की संख्या में कमी आएगी। हां बाजार और कम्पनियों का मुनाफा जरूर बढ़ेगा। इसके लिये मच्छर प्रजनन की सम्भावनाओं को खत्म करना आज सरकार की प्राथमिकता में नहीं है। बड़े बांध, बड़े निर्माण, बढ़ता शहरीकरण, से बढ़ता स्लम आदि मच्छऱों के प्रजनन की मुख्य वजह हैं।
भारत में मलेरिया
की स्थिति
वर्ष
कुल एपीआई
पी.एफ मृत्यु
मामले(मिलियन
में)
1995 2.93
3.29
1.14 1010
2000 2.03
2.07 1.04 932
2004 1.92 1.84 0.89 949
2005 1.82 1.68 0.81 963
2006 1.79 1.65 0.84 1707
2007 1.51 1.39 0.74 1310
2008 1.52
1ण्40 0.76 924
पी.एफ-प्लाजमोडियम
फेल्सिफरम, एपीआई-वार्षिक परजीवी
संक्रमण
स्रोत - भारत सरकार
स्वास्थ्य मंत्रालय वार्षिक रिपोर्ट 2009