बढ़ रही हैं चुनौतियाँ जनस्वास्थ की
7अप्रैल (विश्व स्वास्थ्य दिवस) के बहाने हम यह चर्चा करना चाहते हैं कि इतनी आर्थिक उन्नति के बावजूद देश के लोगों की सहेत इतनी खराब क्यों है? वर्ष 2018 के लिए डब्लू.एच.ओ. ने विषय चुना है- ‘‘युनिवर्सल हेल्थ केयर एवरी वन, एवरी वेयर’’ अर्थात् सबके लिए स्वास्थ्य, सब जगह। इस अभियान में डब्लू.एच.ओ. पूरे वर्ष यह प्रचारित करना चाह रहा है कि ‘‘स्वास्थ्य दुनिया के प्रत्येक व्यक्ति का बुनियादी मानवाधिकार है। कहीं भी कोई भी व्यक्ति स्वास्थ्य सुविधा के अभाव में दम नहीं तोड़ना चाहिए।’’ उल्लेखनीय है कि इस वर्ष डब्लू.एच.ओ. की स्थापना को 70 वर्ष हो गए हैं और संगठन एक बार फिर से अपने वर्षों पुराने संकल्प को दुबारा दोहरा रहा है, सबके लिए स्वास्थ्य। याद रहे कि तीन दशक पूर्व भी संगठन ने सन् 2000 तक सबको स्वास्थ्य का महत्वाकांक्षी नारा दिया था लेकिन आज तो स्थिति पहले से भी ज्यादा भयानक है।
प्रश्न यह उठता है कि आखिर ऐसे क्या बदलाव आ गए हैं जो लोगों के जान की मुसीबत बन गए हैं?बदली जीवनशैली में आराम और अनावश्यक खानपान, फास्ट फूड, साफ्ट/हार्ड ड्रिंक्स आदि ने इतनी पैठ बना ली है कि अनेक बीमारियां उत्पन्न होने लगी हैं। लोगों ने आरामपरस्त जिन्दगी के नाम पर शारीरिक श्रम और समुचित विश्राम करना बन्द कर दिया है मसलन उच्च रक्तचाप, मधुमेह, तनाव, अवसाद यहां तक कि कैंसर जैसे रोगों के मामले बढ़ रहे हैं। डब्लू एच ओ की उच्च रक्तचाप व अन्य जीवनशैली के रोगों के बढ़ते मामले को लेकर व्यक्त चिन्ता जायज है लेकिन भारत व अन्य विकासशील देशों में यह चिन्ता करना इसलिये भी बेहद जरूरी है कि कथित विकास के नाम पर बन रहे मेगा प्रोजेक्ट, बड़े बांध, रियल स्टेट, सुपर हाइवे आदि पर्यावरणीय संतुलन को बिगाड़ रहे हैं और यहां के नागरिकों को भीषण आर्थिक संकट में फंसना पड़ रहा है। वैकल्पिक आर्थिक सर्वे समूह के सालाना अध्ययन में यह बात उभरकर सामने आ रही है कि वैश्वीकरण एवं उदारीकरण की प्रक्रिया से हुआ विकास पूरी तरह असफल सिद्ध हुआ है। इसके विपरीत नतीजे के बावजूद सत्ता में बैठे लोग और सरकार इसी रास्ते पर चलते रहने की जिद में है। वैकल्पिक सर्वे समूह की ओर से जाने माने अर्थशास्त्री प्रो. कमल नयन काबरा कहते हैं, ‘‘भारत में उदारीकरण की विफलता की कहानी तो अब यहां के पूंजीपति भी कहने लगे हैं। निश्चित ही यह सब कारक आम लोगों की बीमारी को ही बढ़ा रहा है।’’
देश में बढ़ती अमीरी के दावे के बीच एसोचैम की स्वास्थ्य पर जारी तथा ताजा रिपोर्ट भी चिन्ता पैदा करने वाली है। रिपोर्ट के अनुसार सन् 2025 तक भारत में 5.7 करोड़ लोग डायबिटीज की गिरफ्त में होंगे। इसमें 11.6 फीसदी लोग तो केवल दिल्ली में होंगे। अब यह रोग अमीर देशों की तुलना में 170 फीसदी ज्यादा विकासशील देशों में कहर बरपाएगा। इन देशों में इस रोग से प्रभावित लोगों की संख्या 8.4 करोड़ से बढ़कर 22.6 करोड़ हो जाने का अनुमान है।
भारत में जिन रोगों को भविष्य का खतरा बताया जा रहा है उसमें डायबिटीज के अलावा कैंसर, स्ट्रोक, हृदय रोग और तनाव सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है। नेशनल कैंसर रजिस्ट्री प्रोग्राम, नई दिल्ली के आंकड़े के अनुसार भारत में कैंसर के रोगियों में 16 लाख सालाना की दर से वृद्धि हो रही है। इन रोगियों में लगभग 45 प्रतिशत रोगियों को बचाना मुश्किल रहा है। ऐसे ही कार्डियोलॉजी सोसाइटी ऑफ इंडिया का आंकड़ा है कि सन् 2020 तक 10 करोड़ हृदय रोगी भारत में होंगे, जिनमें 15 प्रतिशत को एंजियोप्लास्टी की जरूरत पड़ेगी। एसोचैम अपने रिपोर्ट में यह भी कहता है कि भारत में स्वास्थ्य पर बजट बेहद कम है। मौजूदा रोगों की चुनौतियों के मद्देनजर गैर संचारी रोगों की रोकथाम/उपचार पर अगले 5 वर्षों में भारत को 54 अरब डॉलर खर्च करने पडेंगे। एक अन्य अनुमान में यह भी बताया गया है कि वर्ष 2005 में गैर संचारी रोगों की वजह से भारत को 8.7 अरब डॉलर का नुकसान उठाना पड़ा था।
हालांकि मौजूदा बजट 2017.18 में पहले से ज्यादा राशि देने के बावजूद जन स्वास्थ्य कार्यकर्त्ता इसे सवा अरब की आबादी वाले मुल्क के लिये ‘‘ऊंट के मुंह में जीरा’’ के बराबर मान रहे हैं। जनपक्षीय योजनाकार भी भारत के लिये एक मुकम्मल जन स्वास्थ्य नीति तथा सालाना सवा लाख करोड़ रुपये के बजट प्रावधान की बात कर रहे हैं। मौजूदा बजट में स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय को आबंटित राशि से केन्द्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्री गुलाम नबी आजाद भी खुश नहीं है। अध्ययन बताते हैं कि किसी भी मुल्क के लोगों के बेहतर स्वास्थ्य के लिये जरूरी है कि वहां जी.डी.पी. का कम से कम ढाई प्रतिशत सेहत के मामले पर खर्च हो।
सरकारी दावे तो यह भी हैं कि देश में मलेरिया, डेंगू, चिकनगुनिया, जापानी इन्सेफ्लाइटिस, कालाजार, फैलेरिया जैसे संक्रामक रोगों पर काफी हद तक नियंत्रण कर लिया गया है।लेकिन सच तो यह है कि इन रोगों के उपचार और बचाव कार्यक्रम के बावजूद भी स्थिति अच्छी नहीं है। उक्त छः रोगों में से कालाजार और फाइलेरिया के उन्मूलन का लक्ष्य 2015 तक रखा गया है लेकिन सरकारी आंकड़े ही बता रहे हैं कि लक्ष्यपूर्ति कोसों दूर है। बल्कि इन क्षेत्रों की स्थिति अब और भयावह हो गई है।विगत वर्षों में लगभग सभी राज्यों में डेंगू की शिकायतें मिल रही हैं। सन् 2011 के दौरान डेंगू के 18,860 मामले और 169 मृत्यु की पुष्टि हुई बल्कि वर्ष 2012 के दौरान 47,029 मामले प्रकाश में आए और 242 मौत की सरकारी पुष्टि की गई। चिकनगुनिया के मामले भी वर्ष 2006 के बाद बढ़ने घटने के नाटकीय घटनाक्रम की ही गवाही देते हैं।
अब जरा देश के स्वास्थ्य संकेतकों पर भी गौर करें। भारत में स्त्री/पुरुष सेक्स अनुपात अभी भी 898: 1000 है। वर्ष 2001 में यह 933: 1000 था। देश में 42 प्रतिशत बच्चे (5 वर्ष तक या इससे कम उम्र के) कुपोषित हैं। देश में शिशु मृत्यु दर 34 है। (यानि प्रत्येक 1000 बच्चों में 34 बच्चों की मौत हो जाती है)। एचआईवी/एड्स का हालांकि विश्वसनीय आंकड़ा मौजूद नहीं है फिर भी यहाँ 24 लाख एड्स रोगी बताए जा रहे हैं। मलेरिया, कालाजार, ट्यूबरकुलोसिस जैसे पुराने जनसंचारी रोग अब बढ़ने लगे हैं। हम देश के विकास के भ्रम में भूल जाते हैं कि गहराते अन्तरर्विरोधों की वजह से देश की लगभग 80 फीसद आबादी जैसे तैसे जीवन यापन कर रही है। इसी केन्द्र सरकार की नियुक्त डॉ. सेन गुप्ता कमेटी की रिपोर्ट गौरतलब है जिसमें 76 प्रतिशत लोगों के बारे में कहा गया है कि वे प्रतिदिन 20 रुपये या इससे भी कम में अपना गुजारा कर रहे हैं।
विश्व स्वास्थ्य संगठन की चिन्ता के मद्देनजर यदि बिगड़ी जीवनशैली को नियंत्रित नहीं किया गया तो आज उच्च रक्तचाप, कल्ह मधुमेह फिर आगे अवसाद व तनाव आदि महामारी बनेंगे। खाली जेब वाले 80 फीसद लोग अपने पेट की चिन्ता करेंगे या सेहत की? यह सवाल अभी से ही सर उठाने लगा है। अनावश्यक दवाओं के ढेर लग रहे हैं। देश में तथाकथित टानिकों से बाजार पटा पड़ा है। जानलेवा रोग व महामारियां जो कभी लगभग खत्म हो चुके थे फिर से सर उठा रहे हैं। पोलियो, टी.वी. मलेरिया, कालाजार जैसे आम लोगों में होने वाले रोग पहले से भी ज्यादा खतरनाक और लाइलाज हो गए हैं। ऐसे में जीवनशैली के रोगों का घातक बनना एक अलग समस्या है। स्वास्थ्य की मुकम्मल नीति बनाए बगैर इससे निबटना आसान नहीं होगा।