Thursday, October 11, 2018

बढ़ रही हैं चुनौतियाँ जनस्वास्थ की


                                                     बढ़ रही हैं चुनौतियाँ जनस्वास्थ की
    7अप्रैल (विश्व स्वास्थ्य दिवस) के बहाने हम यह चर्चा करना चाहते हैं कि इतनी आर्थिक उन्नति के बावजूद देश के लोगों की सहेत इतनी खराब क्यों है? वर्ष 2018 के लिए डब्लू.एच.ओ. ने विषय चुना है- ‘‘युनिवर्सल हेल्थ केयर एवरी वन, एवरी वेयर’’ अर्थात् सबके लिए स्वास्थ्य, सब जगह। इस अभियान में डब्लू.एच.ओ. पूरे वर्ष यह प्रचारित करना चाह रहा है कि ‘‘स्वास्थ्य दुनिया के प्रत्येक व्यक्ति का बुनियादी मानवाधिकार है। कहीं भी कोई भी व्यक्ति स्वास्थ्य सुविधा के अभाव में दम नहीं तोड़ना चाहिए।’’ उल्लेखनीय है कि इस वर्ष डब्लू.एच.ओ. की स्थापना को 70 वर्ष हो गए हैं और संगठन एक बार फिर से अपने वर्षों पुराने संकल्प को दुबारा दोहरा रहा है, सबके लिए स्वास्थ्य। याद रहे कि तीन दशक पूर्व भी संगठन ने सन् 2000 तक सबको स्वास्थ्य का महत्वाकांक्षी नारा दिया था लेकिन आज तो स्थिति पहले से भी ज्यादा भयानक है।
    प्रश्न यह उठता है कि आखिर ऐसे क्या बदलाव आ गए हैं जो लोगों के जान की मुसीबत बन गए हैं?बदली जीवनशैली में आराम और अनावश्यक खानपान, फास्ट फूड, साफ्ट/हार्ड ड्रिंक्स आदि ने इतनी पैठ बना ली है कि अनेक बीमारियां उत्पन्न होने लगी हैं। लोगों ने आरामपरस्त जिन्दगी के नाम पर शारीरिक श्रम और समुचित विश्राम करना बन्द कर दिया है मसलन उच्च रक्तचाप, मधुमेह, तनाव, अवसाद यहां तक कि कैंसर जैसे रोगों के मामले बढ़ रहे हैं। डब्लू एच ओ की उच्च रक्तचाप व अन्य जीवनशैली के रोगों के बढ़ते मामले को लेकर व्यक्त चिन्ता जायज है लेकिन भारत व अन्य विकासशील देशों में यह चिन्ता करना इसलिये भी बेहद जरूरी है कि कथित विकास के नाम पर बन रहे मेगा प्रोजेक्ट, बड़े बांध, रियल स्टेट, सुपर हाइवे आदि पर्यावरणीय संतुलन को बिगाड़ रहे हैं और यहां के नागरिकों को भीषण आर्थिक संकट में फंसना पड़ रहा है। वैकल्पिक आर्थिक सर्वे समूह के सालाना अध्ययन में यह बात उभरकर सामने आ रही है कि वैश्वीकरण एवं उदारीकरण की प्रक्रिया से हुआ विकास पूरी तरह असफल सिद्ध हुआ है। इसके विपरीत नतीजे के बावजूद सत्ता में बैठे लोग और सरकार इसी रास्ते पर चलते रहने की जिद में है। वैकल्पिक सर्वे समूह की ओर से जाने माने अर्थशास्त्री प्रो. कमल नयन काबरा कहते हैं, ‘‘भारत में उदारीकरण की विफलता की कहानी तो अब यहां के पूंजीपति भी कहने लगे हैं। निश्चित ही यह सब कारक आम लोगों की बीमारी को ही बढ़ा रहा है।’’
          देश में बढ़ती अमीरी के दावे के बीच एसोचैम की स्वास्थ्य पर जारी तथा ताजा रिपोर्ट भी चिन्ता पैदा करने वाली है। रिपोर्ट के अनुसार सन् 2025 तक भारत में 5.7 करोड़ लोग डायबिटीज की गिरफ्त में होंगे। इसमें 11.6 फीसदी लोग तो केवल दिल्ली में होंगे। अब यह रोग अमीर देशों की तुलना में 170 फीसदी ज्यादा विकासशील देशों में कहर बरपाएगा। इन देशों में इस रोग से प्रभावित लोगों की संख्या 8.4 करोड़ से बढ़कर 22.6 करोड़ हो जाने का अनुमान है।
   भारत में जिन रोगों को भविष्य का खतरा बताया जा रहा है उसमें डायबिटीज के अलावा कैंसर, स्ट्रोक, हृदय रोग और तनाव सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है। नेशनल कैंसर रजिस्ट्री प्रोग्राम, नई दिल्ली के आंकड़े के अनुसार भारत में कैंसर के रोगियों में 16 लाख सालाना की दर से वृद्धि हो रही है। इन रोगियों में लगभग 45 प्रतिशत रोगियों को बचाना मुश्किल रहा है। ऐसे ही कार्डियोलॉजी सोसाइटी ऑफ इंडिया का आंकड़ा है कि सन् 2020 तक 10 करोड़ हृदय रोगी भारत में होंगे, जिनमें 15 प्रतिशत को एंजियोप्लास्टी की जरूरत पड़ेगी। एसोचैम अपने रिपोर्ट में यह भी कहता है कि भारत में स्वास्थ्य पर बजट बेहद कम है। मौजूदा रोगों की चुनौतियों के मद्देनजर गैर संचारी रोगों की रोकथाम/उपचार पर अगले 5 वर्षों में भारत को 54 अरब डॉलर खर्च करने पडेंगे। एक अन्य अनुमान में यह भी बताया गया है कि वर्ष 2005 में गैर संचारी रोगों की वजह से भारत को  8.7 अरब डॉलर का नुकसान उठाना पड़ा था।
        हालांकि मौजूदा बजट 2017.18 में पहले से ज्यादा राशि देने के बावजूद जन स्वास्थ्य कार्यकर्त्ता इसे सवा अरब की आबादी वाले मुल्क के लिये ‘‘ऊंट के मुंह में जीरा’’ के बराबर मान रहे हैं। जनपक्षीय योजनाकार भी भारत के लिये एक मुकम्मल जन स्वास्थ्य नीति तथा सालाना सवा लाख करोड़ रुपये के बजट प्रावधान की बात कर रहे हैं। मौजूदा बजट में स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय को आबंटित राशि से केन्द्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्री गुलाम नबी आजाद भी खुश नहीं है। अध्ययन बताते हैं कि किसी भी मुल्क के लोगों के बेहतर स्वास्थ्य के लिये जरूरी है कि वहां जी.डी.पी. का कम से कम ढाई प्रतिशत सेहत के मामले पर खर्च हो।
        सरकारी दावे तो यह भी हैं कि देश में मलेरिया, डेंगू, चिकनगुनिया, जापानी इन्सेफ्लाइटिस, कालाजार, फैलेरिया जैसे संक्रामक रोगों पर काफी हद तक नियंत्रण कर लिया गया है।लेकिन सच तो यह है कि इन रोगों के उपचार और बचाव कार्यक्रम के बावजूद भी स्थिति अच्छी नहीं है। उक्त छः रोगों में से कालाजार और फाइलेरिया के उन्मूलन का लक्ष्य 2015 तक रखा गया है लेकिन सरकारी आंकड़े ही बता रहे हैं कि लक्ष्यपूर्ति कोसों दूर है। बल्कि इन क्षेत्रों की स्थिति अब और भयावह हो गई है।विगत वर्षों में लगभग सभी राज्यों में डेंगू की शिकायतें मिल रही हैं। सन् 2011 के दौरान डेंगू के 18,860 मामले और 169 मृत्यु की पुष्टि हुई बल्कि वर्ष 2012 के दौरान 47,029 मामले प्रकाश में आए और 242 मौत की सरकारी पुष्टि की गई। चिकनगुनिया के मामले भी वर्ष 2006 के बाद बढ़ने घटने के नाटकीय घटनाक्रम की ही गवाही देते हैं।
        अब जरा देश के स्वास्थ्य संकेतकों पर भी गौर करें। भारत में स्त्री/पुरुष सेक्स अनुपात अभी भी 898: 1000 है। वर्ष 2001 में यह 933: 1000 था। देश में 42 प्रतिशत बच्चे (5 वर्ष तक या इससे कम उम्र के) कुपोषित हैं। देश में शिशु मृत्यु दर 34 है। (यानि प्रत्येक 1000 बच्चों में 34 बच्चों की मौत हो जाती है)। एचआईवी/एड्स का हालांकि विश्वसनीय आंकड़ा मौजूद नहीं है फिर भी यहाँ 24 लाख एड्स रोगी बताए जा रहे हैं। मलेरिया, कालाजार, ट्यूबरकुलोसिस जैसे पुराने जनसंचारी रोग अब बढ़ने लगे हैं। हम देश के विकास के भ्रम में भूल जाते हैं कि गहराते अन्तरर्विरोधों की वजह से देश की लगभग 80 फीसद आबादी जैसे तैसे जीवन यापन कर रही है। इसी केन्द्र सरकार की नियुक्त डॉ. सेन गुप्ता कमेटी की रिपोर्ट गौरतलब है जिसमें 76 प्रतिशत लोगों के बारे में कहा गया है कि वे प्रतिदिन 20 रुपये या इससे भी कम में अपना गुजारा कर रहे हैं। 
               विश्व स्वास्थ्य संगठन की चिन्ता के मद्देनजर यदि बिगड़ी जीवनशैली को नियंत्रित नहीं किया गया तो आज उच्च रक्तचाप, कल्ह मधुमेह फिर आगे अवसाद व तनाव आदि महामारी बनेंगे। खाली जेब वाले 80 फीसद लोग अपने पेट की चिन्ता करेंगे या सेहत की? यह सवाल अभी से ही सर उठाने लगा है। अनावश्यक दवाओं के ढेर लग रहे हैं। देश में तथाकथित टानिकों से बाजार पटा पड़ा है। जानलेवा रोग व महामारियां जो कभी लगभग खत्म हो चुके थे फिर से सर उठा रहे हैं। पोलियो, टी.वी. मलेरिया, कालाजार जैसे आम लोगों में होने वाले रोग पहले से भी ज्यादा खतरनाक और लाइलाज हो गए हैं। ऐसे में जीवनशैली के रोगों का घातक बनना एक अलग समस्या है। स्वास्थ्य की मुकम्मल नीति बनाए बगैर इससे निबटना आसान नहीं होगा।

Wednesday, October 10, 2018

सस्ती दवाओं की आस में


प्रधानमंत्री ने संकेत दिये हैं कि ऐसा कानूनी ढांचा तैयार किया जाएगा जिसके तहत चिकित्सकों को उपचार के लिये महंगे ब्रांडेड दवाओं की जगह जिनेरिक दवाएं (जो मूल दवा है और सस्ती होती है) ही लिखनी होगी। उल्लेखनीय है कि बेहद मंहगे दर पर मिलने वाली ब्रांडेड दवाएं मरीजों और उनके तीमारदारों के जेब पर इतना भारी पड़ती है कि अधिकांश तो पर्याप्त मात्रा में दवाएं खरीद भी नहीं पाते। जिनेरिक दवाओं को लेकर प्रधानमंत्री की यह घोषणा राहत देने वाली है और यदि सब अच्छी नियत और दृढ़ ईच्छाशक्ति से हुआ तो मरीजों पर और उपचार के खर्च में 50 से 75 प्रतिशत की कमी आ सकती है।
आइये समझने की कोशिश करते हैं कि जिनेरिक दवाएं आखिर कहते किसे हैं? यह वास्तव में इन्टरनेशनल नॉन प्रोप्रायटरी (आई.एन.ए.) नाम हैं जो किसी भी दवा को दिया गया गैर-मालिकाना आधिकारिक नाम है जिसे विश्व स्वास्थ्य संगठन निर्धारित करता है। उदाहरण के लिये ‘‘पैरासिटामॉल’’ एक जिनेरिक दवा है। जबकि ष्क्रोसिनष् उसी दवा का एक ब्रांड नाम है। अलग अलग दवा कंपनियां ‘पैरासिटामॉल’ को अलग अलग ब्रांड नामों से बनाकर अपने मनमाने कीमत पर बेचती हैं। दरअसल जिनेरिक या गैर मालिकाना नाम दवाओं की लेबलिंगए उत्पाद संबंधी जानकारी, विज्ञापन व अन्य प्रचार सामग्री, दवा नियमन व वैज्ञानिक पत्रिका या साहित्य के नामों के आधार में उपयोग के लिये होते हैं। कई देशों के कानून में दवा के ब्रांड नाम से ज्यादा बड़े अक्षरों में जिनेरिक नाम छापने का स्पष्ट प्रावधान है। कुछ देशों की सरकारों ने तो ऐसे प्रावधान कर दिये हैं कि वहां सार्वजनिक क्षेत्र में ‘टेªडमार्क’ का उपयोग समाप्त कर दिया गया है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन की 46वीं विश्व स्वास्थ्य सभा के प्रस्ताव सं. 46.19 के अनुसार भी लगभग सभी दवाओं को जिनेरिक नामों से पहचानने व बेचने की बात है लेकिन इस पर अमल पूरी तरह हो नहीं पाता। आमतौर पर भारत में कोई 70-80 दवाइयां ही उपयोग में ली जाती हैं। लेकिन इन दवाओं के कोई एक लाख ब्रांड अलग अलग दवा कंपनियों द्वारा कई गुना मंहगे दर पर बेचे जा रहे हैं। इन ब्रांडेड दवाओं के पीछे निजी व सरकारी प्रैक्टिस में लगे डाक्टर की अहम भूमिका होती है। दवा कंपनियां यह भी दावा करती है कि ब्रांड नाम वाली दवाओं की गुणवत्ता ज्यादा होती है। वास्तव में ऐसा कुछ नहीं होता।       केफौवर समिति (एकाधिकार व एन्टीट्रस्ट (दवाइयां) सम्बन्धी यू.एस. कांग्रेस की 87वीं सुनवाई) ने रिपोर्ट किया था कि ब्रांड नाम से बिकने वाली दवाएं जिनेरिक दवाओं की अपेक्षा 10 से 100 गुणा ज्यादा दामों पर बेची जाती हैं। भारत में पहले ब्रांड नामों पर 15 प्रतिशत उत्पाद शुल्क लगता था जबकि जिनेरिक दवाइयां उत्पाद शुल्क से मुक्त थे, अब सब पर एकरूप उत्पाद शुल्क लगता है।
दवा कम्पनियां अक्सर रिसर्च के नाम पर ब्रांड नाम से दवा बेचने की आड़ में भारी मुनाफा कमाती हैं। ज्यादातर बहुराष्ट्रीय दवा कम्पनियां गुणवता व अनुसंधान का हवाला देकर यह बताती हैं कि गम्भीर बीमारियों के उपचार में उनकी ब्रांडेड दवा का ही इस्तेमाल होना चाहियेएजबकि ऐसा कुछ भी नहीं है। कभी-कभी आम लोग की यह सवाल उठा देते हैं कि जिनेरिक दवाओं की तुलना में ब्रांडेड दवाएं ज्यादा प्रभावी तो होती ही होंगी? लेकिन यह महज एक पूर्वाग्रह है। वास्तव में दवा बनाने वाली कम्पनी को दवा बनाने में ‘फार्माकोपिया’ में उल्लिखित क्वालिटी व गाइड लाइन मापदंडों का पालन करना जरूरी होता है। चाहे दवा जिनेरिक हो या ब्रांड।
स्वास्थ्य की एक अर्न्तराष्ट्रीय पत्रिका ष्लैनसेटष् ने सर्वेक्षण और अपने अध्ययन के आधार पर एक आलेख प्रकाशित किया था। शीर्षक या ‘फाइनांसिग हेल्थ केयर फॉर आल: चेलेन्जेज एंड आपारचुनिटीज’ इस लेख के लेखक हैं डॉ. ए.के.शिवकुमार। उनके अनुसार भारत में प्रतिवर्ष 3.9 करोड़ लोग मात्र खराब स्वास्थ्य और महंगी दवा के कारण उपचार कराने की वजह से गरीबी के गर्त में धकेल दिये जाते हैं। ग्रामीण भारत में यह आंकड़ा शहरी लोगों की तुलना में 40 प्रतिशत ज्यादा है। इसी अध्ययन में यह भी तथ्य है कि लगभग 47 प्रतिशत लोगों ने अस्पताल व दवा का खर्च कर्ज लेकर एवं अपनी स्थाई सम्पत्ति बेचकर चुकाया। इस अध्ययन के अनुसार भारत में सरकार की स्वास्थ्य व्यवस्था के बावजूद 78 प्रतिशत लोगों को अपने उपचार पर अलग से खर्च करना पड़ता है। इसका अर्थ यह हुआ कि इतने भारी भरकम स्वास्थ्य बजट के बावजूद मात्र 22 प्रतिशत ही लोगों में स्वास्थ्य की व्यवस्था हो पाती है। जाहिर है इसी मजबूरी का फायदा उठाकर निजी दवा कम्पनियां अपना व्यापार चमकाती है।
ब्रांड दवाओं के बड़े व्यापार के पीछे एक तथ्य यह भी है कि भारत में सन् 2003 से तैयार ‘‘जरूरी दवा सूचि’’ पर ठीक से अमल ही नहीं हो रहा। यह दवा सूचि स्वास्थ्य मंत्रालय की वेबसाइट पर उपलबध है। राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति 2002 मे स्पष्ट उल्लेख है कि सरकारें सरकारी व सार्वजनिक अस्पतालों के लिये दवा उपयोग व खरीद में केवल ‘‘जरूरी दवा सूची’’ के अनुरूप ही काम करेगी लेकिन सरकारी अधिकारियों व स्वास्थ्य कर्मचारियों ने इस नियम की बराबर अनदेखी ही की। पिछली सरकार ने जिनेरिक दवा को उपलब्ध कराने के लिये कई प्रदेशों में ‘‘जन औषधि’’ नाम से जिनेरिक दवा की दुकानें भी खोली जिसमें बेहद सस्ते मूल्य पर जरूरी जिनेरिक दवाएं उपलब्ध हैं लेकिन चिकित्सकों एव ंदवा कम्पनियों के ऐजेन्टों की मिली भगत से ‘‘सस्ती दवा की’’ यह मुहिम ज्यादा कारगर नहीं हो सकी।
भारत में तीन ऐसे प्रदेश हैं जहां ‘जिनेरिक एवं आवश्यक दवा’’ की अवधारणा को लागू किया गया है। ये प्रदेश हैं तमिलनाडू, दिल्ली एवं राजस्थान। इन प्रदेशों में काफी हद तक जरूरी दवा जिनेरिक रूप में अस्पतालों में उपलब्ध कराई गई हैं। हालांकि इस दिशा में अभी और बहुत कुछ किये जाने की जरूरत है फिर भी अन्य प्रदेश इन तीन राज्यों से जरूरी व जेनेरिक दवाओं के उपयोग का अनुभव प्राप्त कर सकते हैं।
भारत का दवा बाजार दुनियां के दवा बाजार में तीसरे नम्बर पर है। विगत वर्ष के मुकाबले इस वर्ष भारतीय दवा बाजार की वृद्धि वर्ष के मुकाबले इस वर्ष भारतीय दवा बाजार की वृद्धि दर 15 प्रतिशत है। सी आई आई के अध्ययन के अनुसार सन् 2020 तक भारतीय दवा बाजार 55 बिलियन डालर को पार कर जाएगा। दवा क्षेत्र में विदेशी निवेश के आ जाने के बाद सन् 2000 से 2016 तक भारतीय दवा बाजार बहुत आगे बढ़ा है। इस दौरान यहां 14.53 बिलियन डालर का निवेश हुआ। ऐसे में दवा कम्पनियों के लिये आसान नहीं होगा जिनेरिक दवाओं का उत्पादन बढ़ाना। जाहिर है टकराव बढ़ेंगे और बड़े मुनाफे का चस्का लगी कम्पनियां कुछ और तिकड़म करे ? बहरहाल सरकार और कम्पनियों के बीच की इस टकराव में मरीजों की शामत न आ जाए यह ध्यान रखना होगा।
सरकार का यह कदम सराहनीय है और जनता के स्तर पर जिनेरिक दवाएं बेचने की पहल का स्वागत किया जाना चाहिये।


बढ़ती महामारियों के दौर में

  कोरोना वायरस के त्रासद अनुभव के बाद अब देश में एच 3 एन 2 इन्फ्लूएन्जा वायरस की चर्चा गर्म है। समाचार माध्यमों के अनुसार...