Thursday, October 11, 2018

बढ़ रही हैं चुनौतियाँ जनस्वास्थ की


                                                     बढ़ रही हैं चुनौतियाँ जनस्वास्थ की
    7अप्रैल (विश्व स्वास्थ्य दिवस) के बहाने हम यह चर्चा करना चाहते हैं कि इतनी आर्थिक उन्नति के बावजूद देश के लोगों की सहेत इतनी खराब क्यों है? वर्ष 2018 के लिए डब्लू.एच.ओ. ने विषय चुना है- ‘‘युनिवर्सल हेल्थ केयर एवरी वन, एवरी वेयर’’ अर्थात् सबके लिए स्वास्थ्य, सब जगह। इस अभियान में डब्लू.एच.ओ. पूरे वर्ष यह प्रचारित करना चाह रहा है कि ‘‘स्वास्थ्य दुनिया के प्रत्येक व्यक्ति का बुनियादी मानवाधिकार है। कहीं भी कोई भी व्यक्ति स्वास्थ्य सुविधा के अभाव में दम नहीं तोड़ना चाहिए।’’ उल्लेखनीय है कि इस वर्ष डब्लू.एच.ओ. की स्थापना को 70 वर्ष हो गए हैं और संगठन एक बार फिर से अपने वर्षों पुराने संकल्प को दुबारा दोहरा रहा है, सबके लिए स्वास्थ्य। याद रहे कि तीन दशक पूर्व भी संगठन ने सन् 2000 तक सबको स्वास्थ्य का महत्वाकांक्षी नारा दिया था लेकिन आज तो स्थिति पहले से भी ज्यादा भयानक है।
    प्रश्न यह उठता है कि आखिर ऐसे क्या बदलाव आ गए हैं जो लोगों के जान की मुसीबत बन गए हैं?बदली जीवनशैली में आराम और अनावश्यक खानपान, फास्ट फूड, साफ्ट/हार्ड ड्रिंक्स आदि ने इतनी पैठ बना ली है कि अनेक बीमारियां उत्पन्न होने लगी हैं। लोगों ने आरामपरस्त जिन्दगी के नाम पर शारीरिक श्रम और समुचित विश्राम करना बन्द कर दिया है मसलन उच्च रक्तचाप, मधुमेह, तनाव, अवसाद यहां तक कि कैंसर जैसे रोगों के मामले बढ़ रहे हैं। डब्लू एच ओ की उच्च रक्तचाप व अन्य जीवनशैली के रोगों के बढ़ते मामले को लेकर व्यक्त चिन्ता जायज है लेकिन भारत व अन्य विकासशील देशों में यह चिन्ता करना इसलिये भी बेहद जरूरी है कि कथित विकास के नाम पर बन रहे मेगा प्रोजेक्ट, बड़े बांध, रियल स्टेट, सुपर हाइवे आदि पर्यावरणीय संतुलन को बिगाड़ रहे हैं और यहां के नागरिकों को भीषण आर्थिक संकट में फंसना पड़ रहा है। वैकल्पिक आर्थिक सर्वे समूह के सालाना अध्ययन में यह बात उभरकर सामने आ रही है कि वैश्वीकरण एवं उदारीकरण की प्रक्रिया से हुआ विकास पूरी तरह असफल सिद्ध हुआ है। इसके विपरीत नतीजे के बावजूद सत्ता में बैठे लोग और सरकार इसी रास्ते पर चलते रहने की जिद में है। वैकल्पिक सर्वे समूह की ओर से जाने माने अर्थशास्त्री प्रो. कमल नयन काबरा कहते हैं, ‘‘भारत में उदारीकरण की विफलता की कहानी तो अब यहां के पूंजीपति भी कहने लगे हैं। निश्चित ही यह सब कारक आम लोगों की बीमारी को ही बढ़ा रहा है।’’
          देश में बढ़ती अमीरी के दावे के बीच एसोचैम की स्वास्थ्य पर जारी तथा ताजा रिपोर्ट भी चिन्ता पैदा करने वाली है। रिपोर्ट के अनुसार सन् 2025 तक भारत में 5.7 करोड़ लोग डायबिटीज की गिरफ्त में होंगे। इसमें 11.6 फीसदी लोग तो केवल दिल्ली में होंगे। अब यह रोग अमीर देशों की तुलना में 170 फीसदी ज्यादा विकासशील देशों में कहर बरपाएगा। इन देशों में इस रोग से प्रभावित लोगों की संख्या 8.4 करोड़ से बढ़कर 22.6 करोड़ हो जाने का अनुमान है।
   भारत में जिन रोगों को भविष्य का खतरा बताया जा रहा है उसमें डायबिटीज के अलावा कैंसर, स्ट्रोक, हृदय रोग और तनाव सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है। नेशनल कैंसर रजिस्ट्री प्रोग्राम, नई दिल्ली के आंकड़े के अनुसार भारत में कैंसर के रोगियों में 16 लाख सालाना की दर से वृद्धि हो रही है। इन रोगियों में लगभग 45 प्रतिशत रोगियों को बचाना मुश्किल रहा है। ऐसे ही कार्डियोलॉजी सोसाइटी ऑफ इंडिया का आंकड़ा है कि सन् 2020 तक 10 करोड़ हृदय रोगी भारत में होंगे, जिनमें 15 प्रतिशत को एंजियोप्लास्टी की जरूरत पड़ेगी। एसोचैम अपने रिपोर्ट में यह भी कहता है कि भारत में स्वास्थ्य पर बजट बेहद कम है। मौजूदा रोगों की चुनौतियों के मद्देनजर गैर संचारी रोगों की रोकथाम/उपचार पर अगले 5 वर्षों में भारत को 54 अरब डॉलर खर्च करने पडेंगे। एक अन्य अनुमान में यह भी बताया गया है कि वर्ष 2005 में गैर संचारी रोगों की वजह से भारत को  8.7 अरब डॉलर का नुकसान उठाना पड़ा था।
        हालांकि मौजूदा बजट 2017.18 में पहले से ज्यादा राशि देने के बावजूद जन स्वास्थ्य कार्यकर्त्ता इसे सवा अरब की आबादी वाले मुल्क के लिये ‘‘ऊंट के मुंह में जीरा’’ के बराबर मान रहे हैं। जनपक्षीय योजनाकार भी भारत के लिये एक मुकम्मल जन स्वास्थ्य नीति तथा सालाना सवा लाख करोड़ रुपये के बजट प्रावधान की बात कर रहे हैं। मौजूदा बजट में स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय को आबंटित राशि से केन्द्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्री गुलाम नबी आजाद भी खुश नहीं है। अध्ययन बताते हैं कि किसी भी मुल्क के लोगों के बेहतर स्वास्थ्य के लिये जरूरी है कि वहां जी.डी.पी. का कम से कम ढाई प्रतिशत सेहत के मामले पर खर्च हो।
        सरकारी दावे तो यह भी हैं कि देश में मलेरिया, डेंगू, चिकनगुनिया, जापानी इन्सेफ्लाइटिस, कालाजार, फैलेरिया जैसे संक्रामक रोगों पर काफी हद तक नियंत्रण कर लिया गया है।लेकिन सच तो यह है कि इन रोगों के उपचार और बचाव कार्यक्रम के बावजूद भी स्थिति अच्छी नहीं है। उक्त छः रोगों में से कालाजार और फाइलेरिया के उन्मूलन का लक्ष्य 2015 तक रखा गया है लेकिन सरकारी आंकड़े ही बता रहे हैं कि लक्ष्यपूर्ति कोसों दूर है। बल्कि इन क्षेत्रों की स्थिति अब और भयावह हो गई है।विगत वर्षों में लगभग सभी राज्यों में डेंगू की शिकायतें मिल रही हैं। सन् 2011 के दौरान डेंगू के 18,860 मामले और 169 मृत्यु की पुष्टि हुई बल्कि वर्ष 2012 के दौरान 47,029 मामले प्रकाश में आए और 242 मौत की सरकारी पुष्टि की गई। चिकनगुनिया के मामले भी वर्ष 2006 के बाद बढ़ने घटने के नाटकीय घटनाक्रम की ही गवाही देते हैं।
        अब जरा देश के स्वास्थ्य संकेतकों पर भी गौर करें। भारत में स्त्री/पुरुष सेक्स अनुपात अभी भी 898: 1000 है। वर्ष 2001 में यह 933: 1000 था। देश में 42 प्रतिशत बच्चे (5 वर्ष तक या इससे कम उम्र के) कुपोषित हैं। देश में शिशु मृत्यु दर 34 है। (यानि प्रत्येक 1000 बच्चों में 34 बच्चों की मौत हो जाती है)। एचआईवी/एड्स का हालांकि विश्वसनीय आंकड़ा मौजूद नहीं है फिर भी यहाँ 24 लाख एड्स रोगी बताए जा रहे हैं। मलेरिया, कालाजार, ट्यूबरकुलोसिस जैसे पुराने जनसंचारी रोग अब बढ़ने लगे हैं। हम देश के विकास के भ्रम में भूल जाते हैं कि गहराते अन्तरर्विरोधों की वजह से देश की लगभग 80 फीसद आबादी जैसे तैसे जीवन यापन कर रही है। इसी केन्द्र सरकार की नियुक्त डॉ. सेन गुप्ता कमेटी की रिपोर्ट गौरतलब है जिसमें 76 प्रतिशत लोगों के बारे में कहा गया है कि वे प्रतिदिन 20 रुपये या इससे भी कम में अपना गुजारा कर रहे हैं। 
               विश्व स्वास्थ्य संगठन की चिन्ता के मद्देनजर यदि बिगड़ी जीवनशैली को नियंत्रित नहीं किया गया तो आज उच्च रक्तचाप, कल्ह मधुमेह फिर आगे अवसाद व तनाव आदि महामारी बनेंगे। खाली जेब वाले 80 फीसद लोग अपने पेट की चिन्ता करेंगे या सेहत की? यह सवाल अभी से ही सर उठाने लगा है। अनावश्यक दवाओं के ढेर लग रहे हैं। देश में तथाकथित टानिकों से बाजार पटा पड़ा है। जानलेवा रोग व महामारियां जो कभी लगभग खत्म हो चुके थे फिर से सर उठा रहे हैं। पोलियो, टी.वी. मलेरिया, कालाजार जैसे आम लोगों में होने वाले रोग पहले से भी ज्यादा खतरनाक और लाइलाज हो गए हैं। ऐसे में जीवनशैली के रोगों का घातक बनना एक अलग समस्या है। स्वास्थ्य की मुकम्मल नीति बनाए बगैर इससे निबटना आसान नहीं होगा।

Wednesday, October 10, 2018

सस्ती दवाओं की आस में


प्रधानमंत्री ने संकेत दिये हैं कि ऐसा कानूनी ढांचा तैयार किया जाएगा जिसके तहत चिकित्सकों को उपचार के लिये महंगे ब्रांडेड दवाओं की जगह जिनेरिक दवाएं (जो मूल दवा है और सस्ती होती है) ही लिखनी होगी। उल्लेखनीय है कि बेहद मंहगे दर पर मिलने वाली ब्रांडेड दवाएं मरीजों और उनके तीमारदारों के जेब पर इतना भारी पड़ती है कि अधिकांश तो पर्याप्त मात्रा में दवाएं खरीद भी नहीं पाते। जिनेरिक दवाओं को लेकर प्रधानमंत्री की यह घोषणा राहत देने वाली है और यदि सब अच्छी नियत और दृढ़ ईच्छाशक्ति से हुआ तो मरीजों पर और उपचार के खर्च में 50 से 75 प्रतिशत की कमी आ सकती है।
आइये समझने की कोशिश करते हैं कि जिनेरिक दवाएं आखिर कहते किसे हैं? यह वास्तव में इन्टरनेशनल नॉन प्रोप्रायटरी (आई.एन.ए.) नाम हैं जो किसी भी दवा को दिया गया गैर-मालिकाना आधिकारिक नाम है जिसे विश्व स्वास्थ्य संगठन निर्धारित करता है। उदाहरण के लिये ‘‘पैरासिटामॉल’’ एक जिनेरिक दवा है। जबकि ष्क्रोसिनष् उसी दवा का एक ब्रांड नाम है। अलग अलग दवा कंपनियां ‘पैरासिटामॉल’ को अलग अलग ब्रांड नामों से बनाकर अपने मनमाने कीमत पर बेचती हैं। दरअसल जिनेरिक या गैर मालिकाना नाम दवाओं की लेबलिंगए उत्पाद संबंधी जानकारी, विज्ञापन व अन्य प्रचार सामग्री, दवा नियमन व वैज्ञानिक पत्रिका या साहित्य के नामों के आधार में उपयोग के लिये होते हैं। कई देशों के कानून में दवा के ब्रांड नाम से ज्यादा बड़े अक्षरों में जिनेरिक नाम छापने का स्पष्ट प्रावधान है। कुछ देशों की सरकारों ने तो ऐसे प्रावधान कर दिये हैं कि वहां सार्वजनिक क्षेत्र में ‘टेªडमार्क’ का उपयोग समाप्त कर दिया गया है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन की 46वीं विश्व स्वास्थ्य सभा के प्रस्ताव सं. 46.19 के अनुसार भी लगभग सभी दवाओं को जिनेरिक नामों से पहचानने व बेचने की बात है लेकिन इस पर अमल पूरी तरह हो नहीं पाता। आमतौर पर भारत में कोई 70-80 दवाइयां ही उपयोग में ली जाती हैं। लेकिन इन दवाओं के कोई एक लाख ब्रांड अलग अलग दवा कंपनियों द्वारा कई गुना मंहगे दर पर बेचे जा रहे हैं। इन ब्रांडेड दवाओं के पीछे निजी व सरकारी प्रैक्टिस में लगे डाक्टर की अहम भूमिका होती है। दवा कंपनियां यह भी दावा करती है कि ब्रांड नाम वाली दवाओं की गुणवत्ता ज्यादा होती है। वास्तव में ऐसा कुछ नहीं होता।       केफौवर समिति (एकाधिकार व एन्टीट्रस्ट (दवाइयां) सम्बन्धी यू.एस. कांग्रेस की 87वीं सुनवाई) ने रिपोर्ट किया था कि ब्रांड नाम से बिकने वाली दवाएं जिनेरिक दवाओं की अपेक्षा 10 से 100 गुणा ज्यादा दामों पर बेची जाती हैं। भारत में पहले ब्रांड नामों पर 15 प्रतिशत उत्पाद शुल्क लगता था जबकि जिनेरिक दवाइयां उत्पाद शुल्क से मुक्त थे, अब सब पर एकरूप उत्पाद शुल्क लगता है।
दवा कम्पनियां अक्सर रिसर्च के नाम पर ब्रांड नाम से दवा बेचने की आड़ में भारी मुनाफा कमाती हैं। ज्यादातर बहुराष्ट्रीय दवा कम्पनियां गुणवता व अनुसंधान का हवाला देकर यह बताती हैं कि गम्भीर बीमारियों के उपचार में उनकी ब्रांडेड दवा का ही इस्तेमाल होना चाहियेएजबकि ऐसा कुछ भी नहीं है। कभी-कभी आम लोग की यह सवाल उठा देते हैं कि जिनेरिक दवाओं की तुलना में ब्रांडेड दवाएं ज्यादा प्रभावी तो होती ही होंगी? लेकिन यह महज एक पूर्वाग्रह है। वास्तव में दवा बनाने वाली कम्पनी को दवा बनाने में ‘फार्माकोपिया’ में उल्लिखित क्वालिटी व गाइड लाइन मापदंडों का पालन करना जरूरी होता है। चाहे दवा जिनेरिक हो या ब्रांड।
स्वास्थ्य की एक अर्न्तराष्ट्रीय पत्रिका ष्लैनसेटष् ने सर्वेक्षण और अपने अध्ययन के आधार पर एक आलेख प्रकाशित किया था। शीर्षक या ‘फाइनांसिग हेल्थ केयर फॉर आल: चेलेन्जेज एंड आपारचुनिटीज’ इस लेख के लेखक हैं डॉ. ए.के.शिवकुमार। उनके अनुसार भारत में प्रतिवर्ष 3.9 करोड़ लोग मात्र खराब स्वास्थ्य और महंगी दवा के कारण उपचार कराने की वजह से गरीबी के गर्त में धकेल दिये जाते हैं। ग्रामीण भारत में यह आंकड़ा शहरी लोगों की तुलना में 40 प्रतिशत ज्यादा है। इसी अध्ययन में यह भी तथ्य है कि लगभग 47 प्रतिशत लोगों ने अस्पताल व दवा का खर्च कर्ज लेकर एवं अपनी स्थाई सम्पत्ति बेचकर चुकाया। इस अध्ययन के अनुसार भारत में सरकार की स्वास्थ्य व्यवस्था के बावजूद 78 प्रतिशत लोगों को अपने उपचार पर अलग से खर्च करना पड़ता है। इसका अर्थ यह हुआ कि इतने भारी भरकम स्वास्थ्य बजट के बावजूद मात्र 22 प्रतिशत ही लोगों में स्वास्थ्य की व्यवस्था हो पाती है। जाहिर है इसी मजबूरी का फायदा उठाकर निजी दवा कम्पनियां अपना व्यापार चमकाती है।
ब्रांड दवाओं के बड़े व्यापार के पीछे एक तथ्य यह भी है कि भारत में सन् 2003 से तैयार ‘‘जरूरी दवा सूचि’’ पर ठीक से अमल ही नहीं हो रहा। यह दवा सूचि स्वास्थ्य मंत्रालय की वेबसाइट पर उपलबध है। राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति 2002 मे स्पष्ट उल्लेख है कि सरकारें सरकारी व सार्वजनिक अस्पतालों के लिये दवा उपयोग व खरीद में केवल ‘‘जरूरी दवा सूची’’ के अनुरूप ही काम करेगी लेकिन सरकारी अधिकारियों व स्वास्थ्य कर्मचारियों ने इस नियम की बराबर अनदेखी ही की। पिछली सरकार ने जिनेरिक दवा को उपलब्ध कराने के लिये कई प्रदेशों में ‘‘जन औषधि’’ नाम से जिनेरिक दवा की दुकानें भी खोली जिसमें बेहद सस्ते मूल्य पर जरूरी जिनेरिक दवाएं उपलब्ध हैं लेकिन चिकित्सकों एव ंदवा कम्पनियों के ऐजेन्टों की मिली भगत से ‘‘सस्ती दवा की’’ यह मुहिम ज्यादा कारगर नहीं हो सकी।
भारत में तीन ऐसे प्रदेश हैं जहां ‘जिनेरिक एवं आवश्यक दवा’’ की अवधारणा को लागू किया गया है। ये प्रदेश हैं तमिलनाडू, दिल्ली एवं राजस्थान। इन प्रदेशों में काफी हद तक जरूरी दवा जिनेरिक रूप में अस्पतालों में उपलब्ध कराई गई हैं। हालांकि इस दिशा में अभी और बहुत कुछ किये जाने की जरूरत है फिर भी अन्य प्रदेश इन तीन राज्यों से जरूरी व जेनेरिक दवाओं के उपयोग का अनुभव प्राप्त कर सकते हैं।
भारत का दवा बाजार दुनियां के दवा बाजार में तीसरे नम्बर पर है। विगत वर्ष के मुकाबले इस वर्ष भारतीय दवा बाजार की वृद्धि वर्ष के मुकाबले इस वर्ष भारतीय दवा बाजार की वृद्धि दर 15 प्रतिशत है। सी आई आई के अध्ययन के अनुसार सन् 2020 तक भारतीय दवा बाजार 55 बिलियन डालर को पार कर जाएगा। दवा क्षेत्र में विदेशी निवेश के आ जाने के बाद सन् 2000 से 2016 तक भारतीय दवा बाजार बहुत आगे बढ़ा है। इस दौरान यहां 14.53 बिलियन डालर का निवेश हुआ। ऐसे में दवा कम्पनियों के लिये आसान नहीं होगा जिनेरिक दवाओं का उत्पादन बढ़ाना। जाहिर है टकराव बढ़ेंगे और बड़े मुनाफे का चस्का लगी कम्पनियां कुछ और तिकड़म करे ? बहरहाल सरकार और कम्पनियों के बीच की इस टकराव में मरीजों की शामत न आ जाए यह ध्यान रखना होगा।
सरकार का यह कदम सराहनीय है और जनता के स्तर पर जिनेरिक दवाएं बेचने की पहल का स्वागत किया जाना चाहिये।


Monday, April 9, 2018

आज होमियोपैथी की जरूरत क्यों है?

10 अप्रैल 2018 को भारत में होमियापैथी के 218 साल पूरे हो चुके हैं। इस दो षताब्दी में होमियोपैथी का विकास क्रम इसे जनसेवा की कसौटी पर खरा सिद्व करता है वही  वैज्ञानिकता पर उठे सवालों ने होमियोपैथी को जनसेवा की कसौटी पर खरा सिध करने में भी अहम भूमिका निभाई है। इधर दुनिया में जन स्वास्थ्य की बढ़ती चुनौतियों और उससे निबटने में एलोपैथी की विफलता ने भी होमियोपैथी एवं अन्य देसी चिकित्सा पद्यतियों को प्रचलित होने का मौका दिया है। आजादी के 70 वर्षों में भारत में अकूत धन खर्च कर भी केवल एलोपैथी  के माध्यम से जन स्वास्थ्य को सुदृढ़ करने का सरकारी संकल्प अधूरा ही है। हाल के ढाई दषकों में खासकर उदारीकरण के षुरू होने के बाद विकास की नयी दवा ‘निजीकरण’ ने जहां कुछ लोगों के लिये समृधि के द्वार खोले हैं, वहीं एक बड़ी आबादी को और गरीबी की तरफ धकेल दिया है। विषमता बढ़ी है और आम लोग महंगे इलाज की वजह से कर्ज के जाल में फंस गए हैं। इसी पृष्ठभूमि में सस्ती एवं वैज्ञानिक चिकित्सा विकल्प के रूप में प्रचलित हुई होमियोपैथी ने चिकित्सा पर अपना एकाघिकार जमाए एलोपैथिक लाबी की नींद उड़ा दी है।
होमियोपैथी के विरोधियों का तर्क है कि यह कोई वैज्ञानिक चिकित्सा पद्यति नहीं बल्कि मिठी गोलियां या जादू की झप्पी है। चिकित्सीय भाषा में इसे ‘‘प्लेसिबो’’ कह कर खारिज किया जा रहा है। दरअसल 2005 में ब्रिटेन की एक चिकित्सा पत्रिका ‘लैन्सेट’ ने एक लेख में होमियोपैथी की वैज्ञानिकता एवं प्रभाविता पर सवाल उठाते हुए इसे ‘‘प्लेसिबो से ज्यादा कुछ भी नहीं’’ बताया था। यह तर्क दिया गया था कि वैज्ञानिक परीक्षण में होमियोपैथी की प्रभावक्षमता खरी नहीं उतरती। लैन्सेट के इस टिप्पणी ने होमियोपैथिक चिकित्सकों और वैज्ञानिकों को झकझोर दिया था। यह वो समय था जब होमियोपैथी तेजी से यूरोप में लोगों की प्रिय चिकित्सा पद्यति बनती जा रही थी। इसी दौरान विष्व स्वास्थ्य संगठन ने होमियोपैथी की महत्ता बताते हुए एक रिपोर्ट प्रकाषित की ‘‘द ट्रेडिषनल मेडिसीन इन एषिया’’। इस रिपोर्ट में होमियोपैथी की वैज्ञानिकता एवं उसके सफल प्रभावों का जीक्र था। दुनिया के स्तर पर लोकप्रिय होती इस सस्ती, सुलभ और वैज्ञानिक चिकित्सा पद्यति से एलोपैथिक लॉबी का घबड़ाना स्वाभाविक थाए मसलन होमियोपैथी पर आरोपों का प्रहार शुरू हो गया। हालांकि इसी लैन्सेट में सन् 1997 में छपे एक लेख में होमियोपैथी की खूब तारीफ की गई थी।
कहते हैं विज्ञान और तकनीक में आपसी प्रतिस्पर्धा की हद बेहद गन्दी और खतरनाक होती है। आधुनिक रोगों में होमियोपैथी की सीमाओं के बावजूद वह अपने सामने किसी दूसरी चिकित्सा पद्यति को विकसित होते नहीं देख सकती। ऐलोपैथी की इसी खीझ का षिकार होमियोपैथी के समक्ष अनेक लाइलाज व जटिल रोगों की चुनौतियां भी हैं। सन 200 7 में अमरीका में हुए नेषनल हेल्थ इन्टरव्यू सर्वे में पाया गया कि लोग तेजी से होमियोपैथिक चिकित्सा को सुरक्षित चिकित्सा विकल्प के रूप में अपना रहे हैं। उस वर्ष अमरीका में 39 लाख वयस्क तथा 9 लाख बच्चों ने होमियोपैथिक चिकित्सा ली।
होमियोपैथी एक ऐसी चिकित्सा विधि है जो षुरू से ही चर्चित रोचक और आषावादी पहलुओं के साथ विकसित हुई है। कहते हैं कि सन् 1810 में इसे जर्मन यात्रियों और मिषनरीज अपने साथ लेकर भारत आए। फिर तो इन छोटी मिठी गोलियों ने भारतीयों को लाभ पहुंचा कर अपना सिक्का जमाना षुरू कर दिया। सन् 1839 में पजाब के महाराजा रणजीत सिंह की गम्भीर बीमारी के इलाज के लिये फ्रांस के होमियोपैथिक चिकित्सक डा. जान मार्टिन होनिगेवर्गर भारत आए थे। डा. होनिगवर्गर के उपचार से महाराजा को बहुत लाभ मिला था। बाद में सन् 1849 में जब पंजाब पर सन हेनरी लारेन्स का कब्जा हुआ तब डा. होनिगवर्गर अपने देष लौट गए। सन् 1851 में एक अन्य विदेषी चिकित्सक सर जान हंटर लिट्टर ने कलकत्ता में मुफ्त होमियोपैथिक चिकित्सालय की स्थापना की। सन् 1868 में कलकत्ता से ही पहली भारतीय होमियोपैथिक पत्रिका षुरू हुई तथा 1881 में डा. पी.सी. मजुमदार एवं डा. डी.सी. राय ने कलकत्ता में भारत के प्रथम होमियोपैथिक कालेज की स्थापना की।
चौथी षताब्दी में आधुनिक चिकित्सा पद्यति के जनक हिपोक्रेट्स ने रेषनलिज्म ;तर्कवादीद्ध और होलिस्टीक ;समग्रद्ध प्रणाली का जिक्र किया था। इनमें होलिस्टीक मत को ज्यादा महत्वपूर्ण माना गया है। इसके अनुसार स्वास्थ्य एक सकारात्मक स्थिति है। विष्व स्वास्थ्य संगठन भी अब स्वास्थ्य को एक ऐसी ही स्थिति मानने लगा है। षरीर, मन और आत्मा के क्रियाकलापों के सामंजस्य को ही हम स्वास्थ्य कहते हैं। वास्तव में होमियोपैथी ही ऐसी पद्यति है जो सूक्ष्म रूप से व्यक्ति के षरीर की रोग उपचारक क्षमता को प्रेरित कर षरीर को रोग मुक्त करती है। यह साथ ही षरीर की सभी क्रियाओं को भी नियंत्रित करती है। होमियोपैथी में किसी बाहरी तत्व ;जीवाणू या विषाणुद्ध के कारण होने वाली षारीरिक क्रिया या प्रतिकृया को बीमारी न मान कर उसे बीमारी के कारण पैदा हुई अवस्था माना जाता है। होमियोपैथी में इलाज रोग के नाम पर नहीं होता, बल्कि रोगी की प्रकृति, प्रकृति, उसके सामान्य लक्षण, मानसिक स्थिति आदि का अध्ययन कर उसके लिये होमियोपैथी की एक षक्तिकृत दवा का चयन किया जाता है।
होमियापैथी के आविष्कार की कहानी भी बड़ी रोचक है। जर्मनी के एक विख्यात एलोपैथिक चिकित्सक डा. सैमुएल हैनिमैन ने चिकित्सा क्रम में यह महसूस किया कि एलोपैथिक दवा से रोगी को केवल अस्थाई लाभ ही मिलता है। अपने अध्ययन और अनुसंधान के आधार पर उन्होंने दवा को षक्तिकृत कर प्रयोग किया तो उन्हें अवांछित सफलता मिली और उन्होंने सन् 1790 में होमियोपैथी का आविश्कार किया। उन्होंने होमियोपैथी के सिद्धान्त ‘‘सिमिलिया-सिमिलिबस-क्यूरेन्टर’’ यानि ‘‘सदृष रोग की सदृष चिकित्सा’’ का प्रतिपादन किया। हालांकि इस सिद्धान्त का उल्लेख हिपोक्रेटस एवं उनके षिष्य पैरासेल्सस ने अपने ग्रन्थों में किया था लेकिन इसे व्यावहारिक रूप में सर्वप्रथम प्रस्तुत करने का श्रेय डा. हैनिमैन को जाता है। उस दौर में एलोपैथिक चिकित्सकों ने होमियोपैथिक सिद्धान्त को अपनाने का बड़ा जोखिम उठाया, क्योंकि एलोपैथिक चिकित्साकों का एक बड़ा व षक्तिशाली वर्ग इस क्रान्तिकारी सिद्धान्त का घोर विरोधी था। एक प्रसिद्ध अमरीकी एलोपैथ डा. सी. हेरिंग ने होमियोपैथी को बेकार सिद्ध करने के लिये एक शोध प्रबन्ध लिखने की जिम्मेवारी ली। वे गम्भीरता से होमियोपैथी का अध्ययन करने लगे। जो एक दूषित षव की परीक्षा के पष्चात सड़ चुकी थी। के लिये अंगुली काटने से बच गई। इस घटना के बाद उन्होंने होमियोपैथी के खिलाफ अपना षोध प्रबन्ध फेंक दिया। बाद में वे होमियोपैथी के एक बड़े स्तम्भ सिद्ध हुए। उन्होंने ‘‘रोग मुक्ति का नियम’’ भी प्रतिपादित किया। डॉ. हेरिंग ने अपनी जान जोखिम में डालकर सांप के घातक विष से होमियोपैथी की एक महत्वपूर्ण दवा ‘‘लैकेसिस’’ तैयार की जो कई गम्भीर रोगों की चिकित्सा में महत्वपूर्ण है।
होमियोपैथी को चमत्कार मानने वाले लोग यह भूल रहे हैं कि यह एक मुक्कमल उपचार की पद्धति है। आज होमियोपैथी की आलोचना के पीछे एलोपैथी और उसकी सीमा से उत्पन्न आधुनिक चिकित्सकों एवं दवा कम्पनियों की हताषा ही है। भारत ही नहीं पूरी दुनियां में होमियोपैथी तेजी से उभरती और लोगों में फैलती चिकित्सा पद्धति है। भारतीय व्यापार की प्रतिनिधि संस्था एसोचैम का आकलन है कि होमियोपैथी का कारोबार एलोपैथी के 13 प्रतिषत के मुकाबले 25 प्रतिषत की सालाना की दर से विकसित हो रहा है।
इसमें सन्देह नहीं कि होमियोपैथी में भविष्य के स्वास्थ्य चुनौतियों से निबटने की क्षमता है लेकिन संकट की गम्भीरता और रोगों की जटिलता के मद्दे नजर यह भी जरूरी है कि होमियोपैथी का गम्भीर अध्ययन हो और इसे बाजार के प्रभाव से बचाकर पीड़ित मानवता की सेवा के चिकित्सा माध्यम के रूप में प्रोत्साहित किया जाए। वैष्वीकरण के दौर में जब स्वास्थ्य और शिक्षा बाजार को सहज और सस्ती वैज्ञानिक उपचार प्रणाली का महत्व वैसे ही बढ़ जाता है। हमें यह भी सोचना होगा कि एक तार्किक चिकित्सा प्रणाली को मजबूत और जिम्मेवार बनाने के प्रयासों की बजाय वे कौन लोग हैं जो इसे झाड़ फूंक, प्लेसिबो या सफेद गोली के जुमले में बांधना चाहते हैं? यदि ये एलोपैथी की दवा और व्यापार लाबी है तो कहना होगा कि उनका स्वार्थ महंगे और बेतुके इलाज के नाम पर लूट कायम करना और भ्रम खड़ा करना है। हमें उनसे सावधान रहना होगा। आपको भी, नही ंतो आप उपचार की एक सहज, सरल, सस्ती और प्रमाणिक चिकित्सा विधि से महरूम रह जाएंगे।

Friday, April 6, 2018

बढ़ रही हैं चुनौतियाँ जन.स्वास्थ की

7अप्रैल (विश्व स्वास्थ्य दिवस) के बहाने हम यह चर्चा करना चाहते हैं कि इतनी आर्थिक उन्नति के बावजूद देश के लोगों की सहेत इतनी खराब क्यों है? वर्ष 2018 के लिए डब्लू.एच.ओ. ने विषय चुना है- ‘‘युनिवर्सल हेल्थ केयर एवरी वन, एवरी वेयर’’ अर्थात् सबके लिए स्वास्थ्य, सब जगह। इस अभियान में डब्लू.एच.ओ. पूरे वर्ष यह प्रचारित करना चाह रहा है कि ‘‘स्वास्थ्य दुनिया के प्रत्येक व्यक्ति का बुनियादी मानवाधिकार है। कहीं भी कोई भी व्यक्ति स्वास्थ्य सुविधा के अभाव में दम नहीं तोड़ना चाहिए।’’ उल्लेखनीय है कि इस वर्ष डब्लू.एच.ओ. की स्थापना को 70 वर्ष हो गए हैं और संगठन एक बार फिर से अपने वर्षों पुराने संकल्प को दुबारा दोहरा रहा है, सबके लिए स्वास्थ्य। याद रहे कि तीन दशक पूर्व भी संगठन ने सन् 2000 तक सबको स्वास्थ्य का महत्वाकांक्षी नारा दिया था लेकिन आज तो स्थिति पहले से भी ज्यादा भयानक है।
    प्रश्न यह उठता है कि आखिर ऐसे क्या बदलाव आ गए हैं जो लोगों के जान की मुसीबत बन गए हैं?बदली जीवनशैली में आराम और अनावश्यक खानपान, फास्ट फूड, साफ्ट/हार्ड ड्रिंक्स आदि ने इतनी पैठ बना ली है कि अनेक बीमारियां उत्पन्न होने लगी हैं। लोगों ने आरामपरस्त जिन्दगी के नाम पर शारीरिक श्रम और समुचित विश्राम करना बन्द कर दिया है मसलन उच्च रक्तचाप, मधुमेह, तनाव, अवसाद यहां तक कि कैंसर जैसे रोगों के मामले बढ़ रहे हैं। डब्लू एच ओ की उच्च रक्तचाप व अन्य जीवनशैली के रोगों के बढ़ते मामले को लेकर व्यक्त चिन्ता जायज है लेकिन भारत व अन्य विकासशील देशों में यह चिन्ता करना इसलिये भी बेहद जरूरी है कि कथित विकास के नाम पर बन रहे मेगा प्रोजेक्ट, बड़े बांध, रियल स्टेट, सुपर हाइवे आदि पर्यावरणीय संतुलन को बिगाड़ रहे हैं और यहां के नागरिकों को भीषण आर्थिक संकट में फंसना पड़ रहा है। वैकल्पिक आर्थिक सर्वे समूह के सालाना अध्ययन में यह बात उभरकर सामने आ रही है कि वैश्वीकरण एवं उदारीकरण की प्रक्रिया से हुआ विकास पूरी तरह असफल सिद्ध हुआ है। इसके विपरीत नतीजे के बावजूद सत्ता में बैठे लोग और सरकार इसी रास्ते पर चलते रहने की जिद में है। वैकल्पिक सर्वे समूह की ओर से जाने माने अर्थशास्त्री प्रो. कमल नयन काबरा कहते हैं, ‘‘भारत में उदारीकरण की विफलता की कहानी तो अब यहां के पूंजीपति भी कहने लगे हैं। निश्चित ही यह सब कारक आम लोगों की बीमारी को ही बढ़ा रहा है।’’
          देश में बढ़ती अमीरी के दावे के बीच एसोचैम की स्वास्थ्य पर जारी तथा ताजा रिपोर्ट भी चिन्ता पैदा करने वाली है। रिपोर्ट के अनुसार सन् 2025 तक भारत में 5.7 करोड़ लोग डायबिटीज की गिरफ्त में होंगे। इसमें 11.6 फीसदी लोग तो केवल दिल्ली में होंगे। अब यह रोग अमीर देशों की तुलना में 170 फीसदी ज्यादा विकासशील देशों में कहर बरपाएगा। इन देशों में इस रोग से प्रभावित लोगों की संख्या 8.4 करोड़ से बढ़कर 22.6 करोड़ हो जाने का अनुमान है।
   भारत में जिन रोगों को भविष्य का खतरा बताया जा रहा है उसमें डायबिटीज के अलावा कैंसर, स्ट्रोक, हृदय रोग और तनाव सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है। नेशनल कैंसर रजिस्ट्री प्रोग्राम, नई दिल्ली के आंकड़े के अनुसार भारत में कैंसर के रोगियों में 16 लाख सालाना की दर से वृद्धि हो रही है। इन रोगियों में लगभग 45 प्रतिशत रोगियों को बचाना मुश्किल रहा है। ऐसे ही कार्डियोलॉजी सोसाइटी ऑफ इंडिया का आंकड़ा है कि सन् 2020 तक 10 करोड़ हृदय रोगी भारत में होंगे, जिनमें 15 प्रतिशत को एंजियोप्लास्टी की जरूरत पड़ेगी। एसोचैम अपने रिपोर्ट में यह भी कहता है कि भारत में स्वास्थ्य पर बजट बेहद कम है। मौजूदा रोगों की चुनौतियों के मद्देनजर गैर संचारी रोगों की रोकथाम/उपचार पर अगले 5 वर्षों में भारत को 54 अरब डॉलर खर्च करने पडेंगे। एक अन्य अनुमान में यह भी बताया गया है कि वर्ष 2005 में गैर संचारी रोगों की वजह से भारत को  8.7 अरब डॉलर का नुकसान उठाना पड़ा था।
        हालांकि मौजूदा बजट 2017.18 में पहले से ज्यादा राशि देने के बावजूद जन स्वास्थ्य कार्यकर्त्ता इसे सवा अरब की आबादी वाले मुल्क के लिये ‘‘ऊंट के मुंह में जीरा’’ के बराबर मान रहे हैं। जनपक्षीय योजनाकार भी भारत के लिये एक मुकम्मल जन स्वास्थ्य नीति तथा सालाना सवा लाख करोड़ रुपये के बजट प्रावधान की बात कर रहे हैं। मौजूदा बजट में स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय को आबंटित राशि से केन्द्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्री गुलाम नबी आजाद भी खुश नहीं है। अध्ययन बताते हैं कि किसी भी मुल्क के लोगों के बेहतर स्वास्थ्य के लिये जरूरी है कि वहां जी.डी.पी. का कम से कम ढाई प्रतिशत सेहत के मामले पर खर्च हो।
        सरकारी दावे तो यह भी हैं कि देश में मलेरिया, डेंगू, चिकनगुनिया, जापानी इन्सेफ्लाइटिस, कालाजार, फैलेरिया जैसे संक्रामक रोगों पर काफी हद तक नियंत्रण कर लिया गया है।लेकिन सच तो यह है कि इन रोगों के उपचार और बचाव कार्यक्रम के बावजूद भी स्थिति अच्छी नहीं है। उक्त छः रोगों में से कालाजार और फाइलेरिया के उन्मूलन का लक्ष्य 2015 तक रखा गया है लेकिन सरकारी आंकड़े ही बता रहे हैं कि लक्ष्यपूर्ति कोसों दूर है। बल्कि इन क्षेत्रों की स्थिति अब और भयावह हो गई है।विगत वर्षों में लगभग सभी राज्यों में डेंगू की शिकायतें मिल रही हैं। सन् 2011 के दौरान डेंगू के 18,860 मामले और 169 मृत्यु की पुष्टि हुई बल्कि वर्ष 2012 के दौरान 47,029 मामले प्रकाश में आए और 242 मौत की सरकारी पुष्टि की गई। चिकनगुनिया के मामले भी वर्ष 2006 के बाद बढ़ने घटने के नाटकीय घटनाक्रम की ही गवाही देते हैं।
        अब जरा देश के स्वास्थ्य संकेतकों पर भी गौर करें। भारत में स्त्री/पुरुष सेक्स अनुपात अभी भी 898: 1000 है। वर्ष 2001 में यह 933: 1000 था। देश में 42 प्रतिशत बच्चे (5 वर्ष तक या इससे कम उम्र के) कुपोषित हैं। देश में शिशु मृत्यु दर 34 है। (यानि प्रत्येक 1000 बच्चों में 34 बच्चों की मौत हो जाती है)। एचआईवी/एड्स का हालांकि विश्वसनीय आंकड़ा मौजूद नहीं है फिर भी यहाँ 24 लाख एड्स रोगी बताए जा रहे हैं। मलेरिया, कालाजार, ट्यूबरकुलोसिस जैसे पुराने जनसंचारी रोग अब बढ़ने लगे हैं। हम देश के विकास के भ्रम में भूल जाते हैं कि गहराते अन्तरर्विरोधों की वजह से देश की लगभग 80 फीसद आबादी जैसे तैसे जीवन यापन कर रही है। इसी केन्द्र सरकार की नियुक्त डॉ. सेन गुप्ता कमेटी की रिपोर्ट गौरतलब है जिसमें 76 प्रतिशत लोगों के बारे में कहा गया है कि वे प्रतिदिन 20 रुपये या इससे भी कम में अपना गुजारा कर रहे हैं। 
               विश्व स्वास्थ्य संगठन की चिन्ता के मद्देनजर यदि बिगड़ी जीवनशैली को नियंत्रित नहीं किया गया तो आज उच्च रक्तचाप, कल्ह मधुमेह फिर आगे अवसाद व तनाव आदि महामारी बनेंगे। खाली जेब वाले 80 फीसद लोग अपने पेट की चिन्ता करेंगे या सेहत की? यह सवाल अभी से ही सर उठाने लगा है। अनावश्यक दवाओं के ढेर लग रहे हैं। देश में तथाकथित टानिकों से बाजार पटा पड़ा है। जानलेवा रोग व महामारियां जो कभी लगभग खत्म हो चुके थे फिर से सर उठा रहे हैं। पोलियो, टी.वी. मलेरिया, कालाजार जैसे आम लोगों में होने वाले रोग पहले से भी ज्यादा खतरनाक और लाइलाज हो गए हैं। ऐसे में जीवनशैली के रोगों का घातक बनना एक अलग समस्या है। स्वास्थ्य की मुकम्मल नीति बनाए बगैर इससे निबटना आसान नहीं होगा।

Friday, February 2, 2018

बजट में कहा है स्वास्थ्य


देश के बजट 2018 में "50 करोड लोगों का स्वास्थ्य बीमा"को जिस प्रकार मीडिया बेहतरीन स्वास्थ्य बजट बताकर पेश कर रहा है, उससे खुश लोगांे को मेरी यह रिर्पोट थोड़ा निराश कर सकती है। अभी वित्त मंत्री ने अपने बजट भाषण में देश के 50 करोड़ गरीबों को स्वास्थ्य बीमा योजना के दायरे में लेने की घोषणा की है। मंत्री ने यह भी कहा है कि बाद में इस योजना का लाभ शेष बची आबादी को भी दिया जा सकता है। वित्त मंत्री के दावे के अनुसार इस योजना से गरीब लोगों के इलाज के लिये मंहगे अस्पतालों के दरवाजे खुल जाएंगे और उन्हें निजी अस्पतालों में कोई फीस नहीं देनी होगी। वित्त मंत्री ने इसके लिए बजट में 2 हजार करो़ड रुपये का प्रावधान किया है। 
टी.वी.मीडिया पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा के स्वास्थ्य योजना (ओबामा केयर) की तरह इसे उससे भी बड़ी योजना बता रहे हैं। यहाँ गौर करने की बात यह है कि सन 2008 में जब बराक ओबामा अमेरिका के राष्ट्रपति बने थे तब उन्होंने भी ”अमेरिकी नागरिकों के लिये स्वास्थ्य बीमा“ को अपने चुनाव का मुख्य मुद्दा बनाया था और वे चुनाव अच्छी तरह जीते भी थे लेकिन सन 2010 में ओबामा प्रशासन के ”एफोर्डेबल केयर एक्ट“ के बावजूद आम अमेरिकी नागरिकों को यह फायदा नहीं मिल पाया और ओबामा को सत्ता गँवानी पड़ी थी।
स्वास्थ बीमा की इस योजना को मीडिया जहाँ ”मोदी केयर“ नाम दे रहा है वहीं बीजेपी अध्यक्ष इसे ”नमोकेयर“ बुला रहें है लेकिन विपक्ष और मौजूदा सरकार के कामकाज का आकलन करने वाले बुद्धिजीवी इसे महज एक ”चुनावी जुमला“ मान रहे हैं। गौर करने लायक बात यह भी है कि विगत वर्ष 2017 के बजट में घोषित ”स्वास्थ्य सुरक्षा योजना“ का अभी तक कहीं कोई अता-पता तक नहीं है और न ही इस वर्ष के बजट भाषण में उसका जिक्र है। उल्लेखनीय है कि 15 अगस्त 2016 को लालकिले से प्रधानमंत्री मोदी ने बीपीएल परिवारों के इलाज पर होने वाले खर्च की एक लाख रुपये तक की राशि देने का वायदा किया था। आम बजट 2016-17 में इस योजना की घोषणा भी की गई जिसे 1 अप्रैल 2017 से लागू करना था लेकिन अब इस सरकार को याद नहीं है।
भारत में स्वास्थ्य की स्थिति पर नज़र डालें तो सूरत ए हाल बेहाल और चिन्ताजनक है।स्वास्थ्य सेवाओं की स्थिति भी खस्ता है। अन्य देशों की तुलना में भारत में कुल राष्ट्रीय आय का लगभग 4 प्रतिशत ही स्वास्थ्य सेवाओं पर खर्च होता है जबकि चीन 8.3 प्रतिशत, रूस 7.5 प्रतिशत तथा अमेरिका 17.5 प्रतिशत खर्च करता है। विदेशों में हैल्थ की बात करें तो फ्रांस में सरकार और निजी सैक्टर मिलकर फंड देते हैं जबकि जापान में हैल्थकेयर के लिये कम्पनियों और सरकार के बीच समझौता है। आस्ट्रिया में नागरिकों को फ्री स्वास्थ्य सेवा के लिये ”ई-कार्ड“ मिला हुआ है। हमारे देश में फिलहाल स्वास्थ्य बीमा की स्थिति बेहद निराशाजनक है। अभी यहां महज 28.80 करोड लोगों ने ही स्वास्थ्य बीमा करा रखा है इनमें 18.1 प्रतिशत शहरी और 18ण्1 प्रतिशत 14ण्1ग्रामीण लोगों के पास हैल्थ इंश्योरेंस है।
इसमें शक नही है कि देश मंे महज इलाज की वजह से गरीब होते लोगांे की एक बड़ी संख्या है। अखिल भारतीय आर्युविज्ञान संस्थान ;एम्सद्ध के एक शोध में यह बात सामने आई है कि हर साल देश में कोई 8 करोड लोग महज इलाज की वजह से गरीब हो जाते हैं। यहां की स्वास्थ्य सेवा व्यवस्था ऐसी है कि लगभग 40 प्रतिशत मरीजों को ईलाज की वजह से खेत-घर आदि बेचने या गिरवी रखने पड़ जाते है। एम्स का यही अध्ययन बताता है कि बीमारी की वजह से 53.3 प्रतिशत नौकरी वाले लोगों मे से आधे से ज्यादा को नौकरी छोड़नी पड़ जाती है।
वित्तमंत्री ने अपने बजट भाषण में ”आयुष्मान भारत“ का जिक्र कर जिन दो योजनाओं की बातें की हैं उसमें एक तो ऊपर चर्चित ”राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना“ तथा दूसरा ”हैल्थ एवं वैलनेस योजना“ है। सरकार का दावा है कि वह देश भर में डेढ़ लाख से ज्यादा हैल्थ और वैलनेस सैन्टर खोलेगी जो रोगियों को जरूरी दवाएँ और जाँच सेवाएं फ्री मुहैया कराएंगे। यह योजना दिल्ली की केजरीवाल सरकार की ”मोहल्ला क्लीनिक“ योजना सेे प्रभावित लगती है। वित्त मंत्री के अनुसार टी.बी. के मरीजो को हर महीने 500 रुपये देने की बात है ताकि वे पोषक भोजन कर सकें।
स्वास्थ्य बजट मे आयुष पद्धति के होमियोपैथी आयुर्वेद व योग आदि के लिये अलग से कोई विशेष प्रावधान नहीं है। स्वदेशी का नारा लगाने वाली मौजूदा सरकार से आयुर्वेद व होमियोपैथी के चिकित्सालयों को बड़ी आशा थी। स्वयं मोदी जी ने होमियोपैथी, आयुर्वेद व योग की दुहाई देकर वाहवाही लूटी है और उन्हांेने वायदा भी किया था कि देश में आयुष पद्धतियों का जाल बिछाकर मेडिकल टूरिज्म को प्रोत्साहित किया जाएगा। इसकी संम्भावना भी है और देश के लोगों को आयुष उपचार की जरूरत भी लेकिन बजट में इसके लिये अलग से कोई प्रावधान नहीं किया गया है।
बजट में स्वास्थ्य प्रावधानों पर बारीकी से नज़र डालें तो ”स्वास्थ्य बीमा“ मोदी जी का एक नया जुमला प्रतीत होता है। अव्वल तो यह बीमा है जिसका सीधा लाभ बीमा कम्पंनियों को मिलेगा हालाँकि सरकार ने अभी तक स्पष्ट नहीं किया है कि 50 करोड़ लोगांे के इस स्वास्थ्य बीमा का प्रीमियम कौन भरेगा। एक मोटा अनुमान लगाएँ तो प्रति परिवार 5 लाख रूपये के बीमा का यदि सम्बन्धित परिवार 10वां हिस्सा यानि 50 हजार रुपये की सुविधा लेता है तो सालाना यह राशि 5 लाख करोड़ रुपये होगी। यदि यह राशि बीमा कम्पनिया वहन करेगी तो इसका सालाना प्रीमियम 5 हजार से 15 हजार रुपये प्रति परिवार होगा यानि 50 हजार से 1.50 लाख करोड रुपया सालाना। यह राशि कहाँ से आएगीघ्
बहरहाल शुरू से ही जुमलेबाजी कर रही इस सरकार के पास सम्भवतः यही तरीका और इन्तजाम है जनता को बहलाने के लिये। विगत 2013 से अब तक सरकार की लोक लुभावन घोषणाओं का लाभ जनता को तो मिला नहीं। हो सकता है चुनावी वर्ष में की गई इस घोषणा पर शायद सरकार गम्भीर होघ् लेकिन अब तक लगातार झ्ाटका पर झ्ाटका झ्ोलती जनता इसे हकीकत मानेगी या जुमला कुछ कहा नहीं जा सकता। इन्तजार करना ही बेहतर है इन्तजार जरूर करिये लेकिन सतर्क भी रहिये।

बढ़ती महामारियों के दौर में

  कोरोना वायरस के त्रासद अनुभव के बाद अब देश में एच 3 एन 2 इन्फ्लूएन्जा वायरस की चर्चा गर्म है। समाचार माध्यमों के अनुसार...