कैंसर को समझना क्यों जरूरी है !
गम्भीर और भयावह रोगों में कैंसर का नाम सर्वोपरि है। नये चिकित्सा तकनीक और अनुसंधनों के बावजूद यह कहना मुश्किल है कि कैंसर के भय से मुक्त रहा जा सकता है। भारत ही नहीं पूरी दुनियां में कैंसर के मामले और उससे प्रभावित लोगों की संख्या बढ़ रही है। विश्व स्वास्थ्य संगठन ;वि.स्वा.स.द्ध के कैंसर फैक्टशीट फरवरी 2011 के अनुसार दुनिया भर में एक करोड़ लोग प्रतिवर्ष कैंसर की वजह से मर रहे हैं। यह आंकड़ा 2030 तक बढ़कर सवा करोड़ हो जाएगा लेकिन इसमें सबसे ज्यादा चिन्ता की बात यह है कि कैंसर से होने वाली मौतों में गरीब और विकासशील मुल्क के गरीब लोगों की संख्या सबसे ज्यादा होगी। यानि भारत कैंसर के निशाने पर मुख्य रूप से है। वि.स्वा.सं. की यही रिपोर्ट यह भी बताती है कि इन मामलों में 40 प्रतिशत मौतों को समुचित एवं समय पर इलाज से रोका जा सकता है। रिपोर्ट के अनुसार फेफड़े के कैंसर से होने वाली मौतें सबसे ज्यादा 1.4 मिलियन, पेट के कैंसर, .74 मिलियन, लिवर कैंसर , .70 मिलियन, आंतों के कैंसर , .61 मिलियन तथा स्तन कैंसर, .46 मिलियन प्रम्मुखता से पहचाने गए हैं। स्त्रियों में गर्भाशय ग्रीवा कैंसर के मामले भी तेजी से बढ़ रहे हैं। इसलिये कैंसर के बढ़ते संक्रमण और मामले एक तरह से खतरे की घंटी भी हैं।
वि.स्वा.सं. की इसी कैंसर फैक्टशीट में यह भी जिक्र है कि तम्बाकू के बढ़ते उपयोग, शराब, डब्बाबन्द अस्वास्थ्यकर खान-पान, कुछ वायरल रोगों या विषाणुओं का संक्रमण जैसे हेपेटाइटिस बी.,सी, “यूमेन पेप्लियोमा वायरस (एचपीवी) आदि विभिन्न कैंसर को बढ़ाने में बड़ी भूमिका निभा रहे हैं। इसी में यह भी जिक्र है कि उपरोक्त कारकों से बचाव कर कैंसर की सम्भावनाओं को कम किया जा सकता है। यों तो वि.स्वा.स. ने वैश्विक स्तर पर कैंसर से निबटने के लिये एक नॉन कम्यूनिकेबल डिजिज एक्सन प्लान 2008 भी बनाया है लेकिन व्यापक जन जागृति के अभाव में कैंसर जैसे घातक रोग से निबटना या बचना आसान नहीं है।
विगत कुछ महीनों से कैंसर व इसके विभिन्न पहलुओं पर हेरिटेज का अंक निकालने की योजना बनाई थी लेकिन अच्छे लेखों के इन्तजाम में वक्त लग गया इसलिये यह अंक अब आपके हाथ में है। इस अंक में एक विशेष लेख डॉ. वृंदा सीताराम का है जिसे हम चिकित्सकों को जरूर पढ़ना चाहिये। कैंसर के प्रति न केवल आम आदमी बल्कि चिकित्सकों का भी जो प्रचलित दृष्टिकोण है वह रोगी को भयभीत करने वाला ही है। अतः सीताराम ने अपने लेख में कैंसर को ‘‘जीवन का खेल’’ के रूप में चित्रित किया है। उनके लेख का सारांश इन वाक्यों से समझा जा सकता है.‘‘जिन्दगी ताश के पत्तों के खेल की तरह है। आपको शायद अच्छे पत्ते न मिलें, लेकिन जो कुछ आपको मिला है उससे आपको खेलना ही पड़ता है।’’ कैंसर मनोविज्ञान पर उनका यह लेख उनकी मशहूर पुस्तक नाट-आउट विनिंग द गेम ऑपफ कैंसर’’ का एक अंग है। ज्यादा गहरी रुचि वाले पाठक पूरी पुस्तक भी पढ़ें तो अच्छा रहेगा।
इसी वर्ष कैंसर पर एक और पुस्तक मशहूर हुई और वह हैµ ‘‘द इम्पेरर ऑफ आल मलाडिज’’। डा. सिद्यार्थ मुखर्जी की इस पुस्तक को इस वर्ष मशहूर अर्न्तराष्ट्रीय पुलिन्जर पुरस्कार भी मिल चुका है। 41 वर्षीय डॉ. मुखर्जी भारतीय मूल के अमरीकी चिकित्सक हैं और यह पुरस्कार पाने वाले वे चौथे भारतीय हैं। अमरीका के कोलम्बिया विश्वविद्यालय में मेडिसीन पढ़ाते हुए उन्होंने यह कैंसर की जीवनी लिखी जो अभी तक की कैंसर पर उपलब्ध सर्वाधिक प्रमाणिक पुस्तक है। इस पुस्तक की खासियत है कि यह तथ्यात्मक तो है ही रोचक भी है। इसे सभी पाठक पढ़ें। यह पढ़ने लायक एक जरूरी पुस्तक है।
A Senior Homoeopathic Medical Consultant & public Health Activist.Regularly Writing on Various Health, Environmental & Socio-Political issues.
Saturday, November 26, 2011
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