अन्ना आंदोलन का एक सबक यह भी है कि विगत 20 वर्षों से देश में चल रहे उदारीकरण और निजीकरण की वजह से बढ़ी अमीरी और गरीबी की खाई तथा बड़े पैमाने पर हुए भ्रष्टाचार से जनता पूरी तरह त्रस्त है और वह अब इसे ज्यादा बर्दाश्त नहीं कर सकती। बीते दो-ढाई दशकों के नवउदारवादी नीतियों ने जहां अमीरी और गरीबी की खाई को बढ़ा दिया है वहीं भ्रष्टाचार को जीवन के अभिन्न अंग के रूप में भी प्रतिष्ठित करने का काम किया है। इसका मतलब यह कतई नहीं है कि इससे पहले देश में भ्रष्टाचार नहीं था। तथ्य तो यह है कि उदारीकरण ने भ्रष्टाचार को ‘‘समृद्धि का माध्यम’’ और भद्र जनों की ‘‘सुविधा’’ के रूप में स्थापित कर दिया है।
अन्ना जी के अनशन के दौरान और उसके उपरान्त कारपोरेट की भूमिका पर अनेक समीक्षात्मक टिप्पणियां आ चुकी हैं लेकिन इसे मुखर रूप से कहा जाना जरूरी है कि भ्रष्टाचार उन्मूलन के नाम पर चले इस आन्दोलन पर भी कारपोरेट का खासा प्रभाव रहा है। यह विडम्बना ही है कि अन्ना ने अपना अनशन तो एक दलित और मुस्लिम बच्ची के हाथों शहद और नारियल पानी ग्रहण कर तोड़ा लेकिन स्वास्थ्य परीक्षण के लिये वे कारपोरेट हेल्थ केयर के प्रतिनिधि अस्पताल मेदान्ता सिटी (गुड़गांव) गए जहां गरीबों और आम आदमी के लिये बेहद कम गंुजाइश है।
इसमें शक नहीं कि अन्ना अंादोलन ने देश के आम जनमानस को खूब झकझोरा है लेकिन अभी भी वर्ग, जाति और धर्म से जुड़े बड़े समूह इस आन्दोलन से अपने को नहीं जोड़ पाए। दलितों के कई बड़े नेता, मुसलमान आदि समूहों ने इस बड़े जन आन्दोलन से अपने को अलग ही रखा। कहा जा सकता है कि संविधान निर्माता डा. आम्बेडकर से जुड़ेे दलित अन्ना आन्दोलन को दलित विरोधी मानते हैं, और मुस्लिम नेतृत्व के अभाव में मुसलमान भी अपने को इस आन्दोलन से ज्यादा नहीं जोड़ पाते। लेकिन विशाल मध्यम वर्ग को उत्साहित कर इस आन्दोलन ने एक इतिहास तो रचा ही है।
अन्ना आंदोलन से असहमति के कई बिन्दु हो सकते हैं। जैसे आन्दोलन में आम्बेडकर फूले और बहुजन समाज के आदर्श प्रतीकों को ज्यादा अहमियत नहीं दिया गया, उलटे अन्ना आन्दोलन में ‘‘आरक्षण हटाओ- भ्रष्टाचार मिटाओ’’ के नारे लगते रहे। दलितों की यह भी शिकायत है कि बहुजनों के इस देश में अन्ना की कोर टीम में दलित, आदिवासी एवं अल्पसंख्यक की भागीदारी न के बराबर ही रही। अन्ना देश के नागरिकों के बीच समता की बात जरूर करते हैं, लेकिन वे खौफनाक गुजरात दंगों के आरोपी वहां के मुख्यमंत्री, नरेन्द्र मोदी की तारीफ कर अल्पसंख्यक मुसलमानों के आंख की किरकिरी बन जाते हैं। आदिवासी समाज भी सलवा जुडूम पर अन्ना का पक्ष जानना चाहता है। बहरहाल अन्ना टीम के लिये यह एक चुनौती होगी कि वह इस देश के बहुजन और अल्पसंख्यक जमात को ससम्मान अपने आन्दोलन की मुख्यधारा से जोड़ सके क्योंकि देश में भ्रष्टाचार की सबसे ज्यादा मार आदिवासियों, दलितों और अल्पसंख्यकों पर पड़ती है।
अभी राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन (एन.एस.एस.ओ.) का एक आंकड़ा आया है। अनुमान लगाया गया है कि सन् 2025 तक भारत में ऐसे मध्यमवर्गीय खाते-पीते लोगों की संख्या, जिसकी आमदनी 10 लाख रुपये प्रतिवर्ष है, बढ़कर ढाई करोड़ हो जाएगी। लेकिन तब तक इस देश में 122 करोड़ लोग येन-केन-प्रकारेण अपना जीवन बसर कर रहे होंगे और इनकी स्थिति बदतर होती जाएगी। अन्ना और अन्ना टीम को यह सोचना होगा कि नवउदारवादी नीतियों के कारण उपभोक्तावादी बनते मध्यमवर्ग के भ्रष्टाचार को कैसे रोका जाए। खासकर उस बड़े तबके को जो रातों रात अमीर बनने के लिए किसी भी हद जक जाने को तैयार हैं। नई सामाजिक अवधारणा में धन बल ने राजनीति से गठजोड़ करके अपनी उन्नति का मार्ग तलाश लिया और बड़े पैमाने पर नवधनाढ्य युवाओं ने इसे अपना आदर्श मान रखा है।
अन्ना हजारे को यह भी विचार करना होगा कि इस पूंजीवादी व्यवस्था में व्यापार को विश्वव्यापी बना दिया है। विडम्बना यह है कि यह बाजार अब शहर से गांव की ओर पसर रहा है। इसमें उत्पादक और ग्राहक दोनों ठगेे जाते हैं। मालामाल होता है बिचौलिया यानि बाजार। इस बाजार ने सरकार पर अपनी पकड़ मजबूत बना ली है। क्या अन्ना इस बाजार और सरकार के बीच पनपे अवैध सम्बन्धों पर प्रहार कर पाएंगे? यदि नहीं तो भ्रष्टाचार पर मरहम तो लगाया जा सकता है लेकिन उसे कम या खत्म नहीं किया जा सकता। दुनिया जानती है कि हाल फिलहाल के सभी बड़े भ्रष्टाचार कारपोरेट-सरकार और मीडिया की मिलीभगत से हुए जिसमें देश का लाखों करोड़ रुपये आम आदमी की जेब से निकलकर चन्द कारपोरेट घरानों के नुमाइन्दों की जेब में चला गया। इस प्रहसन में अच्छी भूमिका निभाने के लिये कारपोरेट ने नेताओं को भी उपकृत किया।
भ्रष्टाचार से उपजे काले धन को संचित करने एवं उसे देश के बाहर के बैंकों में जमा करने के खिलाफ बाबा रामदेव के नाटकीय आन्दोलन का वही हश्र हुआ जो हो सकता था लेकिन इस बात को मानना पडेगा कि भ्रष्टाचार ने देश में कालेधन की समानान्तर अर्थव्यवस्था खड़ी कर दी है। स्विस एवं विदेशी बैंकों में जमा भारतीय धन, मन्दिरों व ट्रस्टों में जमा धन-रूपये, लोगों के घरों में पड़े करेंसी नोट आदि सम्पत्ति को जोड़ दें तो यह कुल भारतीय जी.डी.पी. के आंकड़े को भी पार कर लेगा। यह तो बड़े भ्रष्टाचार का आंकड़ा है लेकिन आम जीवन में लोगों को छोटे-मोटे सरकारी कार्यों के लिये अफसर-कर्मचारी को घूस देना पड़ता है। यह भ्रष्टाचार दैनिक जीवन का अंग बन गया है। निश्चित ही अन्ना आन्दोलन से भ्रष्टाचार की इस प्रवृत्ति की पुष्टि हुई है लेकिन इस भ्रष्टाचार से मुक्ति का मार्ग अभी भी मीलों दूर है। अन्ना और अन्ना टीम को भ्रष्टाचार से मुक्ति के मार्ग के वाहन अभी और ढूंढने होंगे।
अन्ना एवं अन्ना आंदोलन को इस बात का जरूर श्रेय मिलना चाहिये कि उन्होंने जनतंत्र में तंत्र को जन की ताकत का अहसास करा दिया है। सन् 74 के बाद पहली बार जनता सांसदों का घेराव करने उनके निवास तक पहुंच गई। सांसदों व जन प्रतिनिधियों की बेचैनी संसद के विशेष सत्र में भी दिखी जब वे लोकपाल के मुद्दे पर बहस कर रहे थे। लगातार संसद में अर्नगल प्रलाप और गैर मर्यादित आचरण करने वाले सांसद किसी व्यक्ति द्वारा उन पर की गई कड़ी टिप्पणी से इतने आहत थे कि वे विशेषाधिकार हनन का प्रस्ताव तक ला चुके है।
मानना पड़ेगा कि अन्ना आन्दोलन ने धुरन्धर राजनीतिज्ञों की बनी बनाई जमीन उकेरकर रख दी है। मीडिया ने भी इसे हद से ज्यादा समर्थन दिया। कई राजनीतिक विश्लेषक भी मान रहे हैं कि अब राजनीतिज्ञों द्वारा अन्ना मुहिम की अनदेखी करना आसान नहीं होगा। अन्ना ने देश से राजनीतिकरण और लोकतांत्रीकरण की एक नई बहस छेड़ दी है जिसमें माननीयों की बड़ी कद पर सवाल खड़े हो रहे हैं। अन्ना आन्दोलन में इसकी झांकी भी दिखी इसलिये राजनीति के धुरन्धरों को अब सोचना होगा कि लोगों को बेवकूफ बनाकर वोट बटोरना अब पहले जितना आसान नहीं रहेगा।
अन्ना आन्दोलन का एक अहम सबक यह भी है कि अहिंसा और सत्याग्रह की ताकत बन्दूक और ए.के.-47 से भी ज्यादा है, बशर्ते कि उसके इस्तेमाल में निष्ठा, ईमानदारी, धैर्य और सादगी हो। यह देश मसीहा और करिश्मा को पसन्द करता है। लोकतंत्र है तो भागीदारी का मंच लेकिन इसमें किसी आईकॉन या हीरो की जबर्दस्त कद्र होती है। वर्षों से भ्रष्टाचार से त्रस्त बड़े जन सैलाब ने एक अन्ना को ऐसा अन्ना बना दिया कि अब अन्ना को दूसरा गांधी कहा जा रहा है। लोक से लोकशैली और लोकभाषा में बात करने वाले अन्ना आम लोगों से तुरन्त संवाद स्थापित कर लेने में सक्षम है। इसलिये उनकी बात एक साथ कारपोरेट और आम आदमी दोनों सुनते हैं। शायद इसलिये अन्ना के ऊपर अब एक बड़ी जिम्मेवारी है लोकशाही के लोक को सार्वभौम एवं शक्तिशाली स्थापित करने की। यदि अन्ना ने सांसद के सर्वोच्चता को चुनौती दी है तो उन्हें लोगों की सर्वोच्चता को मजबूती से स्थापित कराने के लिये लम्बे समय तक लड़ना होगा। इसके लिये जाति, सम्प्रदाय के नाम पर राजनीति करने वालों को भी एक्सपोज करना होगा और कारपोरेट-सरकार के खूंखार गठबंधन को भी। अन्ना होने का यह सबक अन्ना को भी याद रखना पड़ेगा।
A Senior Homoeopathic Medical Consultant & public Health Activist.Regularly Writing on Various Health, Environmental & Socio-Political issues.
Tuesday, August 30, 2011
Thursday, August 25, 2011
भूख, बाजार और स्वास्थ्य
दुनिया में भूख से पीड़ित लोगों की संख्या में फिर वृघि होनी शुरू हो गई है। गरीब देशों में लाखों लोग समुचित खाद्यान्न खरीद पाने की स्थिति में नहीं हैं। इन लोगों को अब खाद्यान्न उपलब्ध कराने वाली स्वयंसेवी संस्थाओं से भी अतिरिक्त मदद की उम्मीद नहीं है क्योंकि ये अर्न्तराष्ट्रीय खाद्य संस्थाएं भी स्वयं संकट में हैं। विश्व खाद्य कार्यक्रम ;डब्ल्यू.एफ.पीद्धके निदेशक जोसेटी शीरान की मानें तो डब्ल्यू.एफ.पी. को वर्ष 2009-10 में 300 मिलियन डॉलर की अतिरिक्त आवश्यकता थी जिसकी पूर्ति नहीं हो पाई थी। उल्लेखनीय है कि वर्ष 2007 के बाद से खाद्य मूल्यों में 40 से 55 प्रतिशत की वृघि हुई है और भूख से पीड़ित लोगों की संख्या भी बढ़ी है। संयुक्त राष्ट्र के खाद्य एवं कृषि संगठन ;एफ.ए.ओ.द्ध के अनुसार इन दिनों दुनिया के 37 देश अर्न्तराष्ट्रीय खाद्य सहायता पर निर्भर है।
अभी हाल ही में एफ.ए.ओ. के महानिदेशक जैक्स डायफ ने अपनी भारत यात्रा के दौरान केन्द्रीय कृषि एवं खाद्य मंत्री शरद पवार से मुलाकात कर विश्व खाद्य समस्या पर चर्चा की तथा आशंका व्यक्त की कि खाद्यान्न उत्पादन में आ रही कमी एवं बढ़ते मूल्य से खाद्य संकट और गहराएगा तथा कई देशों में भोजन के लिये संघर्ष और हिंसक हो सकते हैं। श्री डायफ के अनुसार इस वक्त दुनिया में अनाज का भण्डार इतना कम है कि यह पूरी दुनिया की आबादी का केवल 8 से 12 हफते तक ही पेट भर सकता है। उन्होंने यह भी कहा कि कैमरून, मिस्र, हैती, बुर्कीनाफासो तथा सेनेगल जैसे देशों में जारी खाद्य संघर्ष दुनिया के अन्य देशों में भी फैल सकते हैं।
बढ़ते खाद्य संकट के लिये खाद्य मूल्यों में हुई बेतहाशा वृधि को भी मुख्य कारण बताया जा रहा है। खाद्य मूल्यों में हुई वृधि के लिये खाद्य विशेषज्ञ अर्न्तराष्ट्रीय बाजारों में मांस की मांग में वृघि को एक बड़ा कारण मान रहे हैं। कहा जा रहा है कि विगत दो दशक में अर्न्तराष्ट्रीय स्तर पर मांस की मांग दो गुनी हो गई है। जाहिर है कि इसी अनुपात में चारा उत्पादन का दायरा भी बढ़ा है। एक आकलन के अनुसार एक किलो गोमांस के लिए 7 किलो खाद्यान्न की आवश्यकता होती है जबकि एक किलो सुअर का मांस के लिए 3 किलो चारा चाहिये। इन मांगों की पूर्ति के लिए बड़े मात्रा में सोयाबीन व अन्य फसलों का उत्पादन किया जा रहा है। अनाज की जगह चारे के उत्पादन का परिणाम है कि कई देशो में खाद्यान्न की कमी होने लगी है।
भारत सरकार का आर्थिक सर्वेक्षण 2007-08 कहता है कि 1990 से वर्ष 2007 तक खाद्यान्न उत्पादन वृधि दर 1.2 प्रतिशत ही रही है। इस दौरान जनसंख्या की औसत 1.9 प्रतिशत वृधि दर की तुलना में खाद्यान्न उत्पादन की दर कम ही है। इस दौरान उत्पादन कम होने से प्रति व्यक्ति अनाज तथा दालों की उपलब्ध्ता भी घटी है। अनाजों की खपत वर्ष 1990-91 में जहां प्रतिदिन प्रति व्यक्ति 468 ग्राम थी वहीं वर्ष 2005-06 में घटकर यह प्रतिदिन 412 ग्राम प्रति व्यक्ति रह गई है। इस दौरान दालों की खपत प्रतिदिन 42 ग्राम प्रति व्यक्ति से घटकर 33 ग्राम रह गई। यहां ध्यान देने की बात है कि 1956-57 में प्रति व्यक्ति दालों की उपलब्ध्ता 72 ग्राम थी।
1983-85 में अनाज उत्पादन की जो स्थिति थी उसमें अखाद्य फसलों की हिस्सेदारी लगभग 37 प्रतिशत थी जो वर्ष 2006-07 में बढ़कर 46.7 प्रतिशत तक पहुंच गई। आंकड़ों के अनुसार खाद्य फसलों के उत्पादन में जहां 2 प्रतिशत की वृधि हुई है वहीं अखाद्य फसलों का उत्पादन 4 प्रतिशत तक गया है। विश्व बैंक की ही रिपोर्ट मानती है कि महंगे कीमत वाले फसलों की मांग बढ़ी है जबकि भोजन के लिये जरूरी फसलों का उत्पादन घटा है। सरकार भी खाद्य फसलों की तुलना में अखाद्य फसलों का उत्पादन बढ़ाने के लिये ज्यादा प्रोत्साहित करती है।
भूख को बाजार ने मुनाफे के धन्धे के रूप में परिवर्तित कर लिया है। अर्न्तराष्ट्रीय संस्थाएं स्वास्थ्य व पोषण की कमी का वास्ता देकर ऐसी नीतियां और कार्यक्रम थोप रहे हैं जिससे खाद्य उद्योग में लगे बड़ी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को सीधे फायदा पहुंच रहा है। अब भारत सहित दुनिया भर में नागरिकों के स्वास्थ्य और पोषण सम्बन्धी अधिकारों को सुनिश्चित करने के लिये सार्वजनिक निजी भागीदारी ;पी.पी.पी.द्ध को इस तरह से पेश किया जा रहा है मानो देश में लोगों का स्वास्थ्य इसी बुनियाद पर खड़ा किया जा सकता है अन्यथा भारत बीमारियों व कुपोषण के दलदल में ध्ंास जाएगा।
वर्ष 2005 में विश्व स्वास्थ्य सभा ;डब्ल्यू.एच.ए.द्ध में स्तनपान के सवाल पर हुई बहस के दौरान भारत ने अपना पक्ष रखते हुए कहा था, ‘‘व्यावसायिक संगठनों की मुख्य प्राथमिकता लाभ कमाना है। इसलिये व्यावसायिक संगठनों से ऐसी अपेक्षा रखना न तो उचित है और न ही व्यावहारिक कि वे स्तनपान को संरक्षण, प्रोत्साहन और समर्थन देने के लिये सरकारों व अन्य समूहों के साथ मिलकर काम करेंगे।’’ तब डब्ल्यू.एच.ए. ने प्रस्ताव क्रमांक 58.32 को स्वीकार करते हुए सदस्य समूहों से आग्रह किया था कि वे यह सुनिश्चित करें कि शिशुओं व छोटे बच्चों के स्वास्थ्य के लिये कार्यक्रमों व कार्यकर्ताओं के लिये वित्तीय समर्थन व अन्य प्रोत्साहन में किसी प्रकार से हितों के बीच टकराव न हो। मई 1981 में भी 34वीं विश्व स्वास्थ्य सभा में स्तनपान के विकल्पों के विपणन सम्बन्धी अर्न्तराष्ट्रीय कोड को स्वीकारते हुए माना गया था कि लाभोन्मुखी व्यावसायिक संस्थान समतामूलक विकास के पैरोकार नहीं बन सकते। इन दिशा निर्देशों में नागरिक समाज और यूनिसेफ एवं डब्ल्यू.एच.ओ. जैसे अर्न्तराष्ट्रीय संगठनों से उम्मीद की गई थी कि वह महज लाभ के लिये सक्रिय उद्योगों से अच्छी तरह निपटेगा लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। उल्टे कथित पोषण एवं विटामिनों का घन्धा करने वाली कम्पनियों की तो चान्दी हो गई और भ्रामक विज्ञापनों का सहारा लेकर नेस्ले, हिन्दुस्तान लिवर और ऐसी ही अन्य बेबी फूड बनाने वाली कम्पनियों ने खूब मुनाफा कमाया। उस दौर में इन कम्पनियों के विज्ञापनों का यह असर था कि शहरों में रहने वाली मध्यमवर्गीय युवा माताओं ने अपने नवजात शिशु को भी अपने स्तन का दूध पिलाने की बजाय इन कम्पनियों का डब्बा बन्द दूध देना स्वीकार कर लिया था।
कथित पोषण और हेल्थ फूड के धन्धे में लगी कम्पनियों की तो अब चल निकली है। भूमण्डलीकरण के दौर में इन कम्पनियों ने बड़े पैमाने पर स्वास्थ्य और भूख का वास्ता देकर अपने उल्टे-सीघे उत्पादों को महंगे दर पर बाजार में भर दिया है। यूनिसेफ तथा डल्ब्यू.एच.ओ. जैसे संगठनों ने भी अपने 27 वर्ष पूर्व के 34वें विश्व स्वास्थ्य सभा के घोषणा पत्र को उठाकर किनारे कर दिया है। जिसमें कहा गया था कि, ‘‘लाभ के लिये सक्रिय कम्पनियां व्यापक जनहित की पोषक नहीं हो सकती।’’ अब यूनिसेफ ने ‘‘ग्लोबल एलायंस फॉर इम्प्रूब्ड न्यूट्रीशन’’ ;गेनद्ध से हाथ मिलाया है। गेन एक ऐसा संगठन है जो अर्न्तराष्ट्रीय खाद्य व्यापार कम्पनियों के हित, पोषण और संरक्षण के लिये काम करता है। अब आशंका है कि इससे विभिन्न देशों की पोषण और खाद्य नीतियों में बाजार और बहुराष्ट्रीय खाद्य कम्पनियों का दखल बढ़ जाएगा।
गेन ने विभिन्न बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के खाद्य उत्पादों को विभिन्न देशों के राष्ट्रीय खाद्य, स्वास्थ्य एवं पोषण नीतियों में शामिल करने के लिये सरकारों से लाबिंग भी शुरू कर दिया है। यह जानना जरूरी है कि अर्न्तराष्ट्रीय संस्थाएं यूनिसेफ तथा डब्ल्यू.एच.ओ. के प्रतिनिधि अब ‘गेन’ की बैठक में उन्हीं बहुराष्ट्रीय खाद्य निर्माता कम्पनियों के प्रतिनिध्यिों के साथ बैठते हैं जिसने कई देशों में अर्न्तराष्ट्रीय दिशा निर्देशों का उल्लंघन किया है। ‘गेन’ के बोर्ड सदस्यों में बायर, कोकाकोला, नेस्ले, नोवार्टिस, पेप्सीको, फाइजर, प्राक्टर एण्ड गैम्बल जैसी अनेक खाद्य, रसायन एवं दवा कम्पनियों के प्रतिनिधि शामिल हैं।
अब गेन के सक्रिय होने से भारत सहित अन्य देशों में खाद्य एवं पोषण सुरक्षा पर सवाल खड़े हो गए हैं। भारत में राष्ट्रीय पोषण नीति को ठीक से लागू करने के लिये डॉ. एम.एस. स्वामीनाथन की अध्यक्षता में एक संगठन बनाया गया है- ‘‘कोलीशन फॉर सस्टेनेबल न्यूट्रीशन सिक्युरिटी इन इन्डिया’’ं। गेन भारत में इस कोलीशन के साथ भी काम कर रहा है। अब सवाल है कि भारत में खाद्य एवं पोषण सुरक्षा की शर्त पर गेन के एजेन्डा को कैसे चलने दिया जा सकता है। इससे टकराव की स्थिति उत्पन्न हो गई हैं।
भोजन एवं पोषण के व्यापार से जुड़ी बड़ी कम्पनियों का दबाव है कि राष्ट्रीय पोषण कार्यक्रम में फोर्टीफाइड आहार शामिल किया जाए। मई 2008 में चिकित्सा की चर्चित पत्रिका ;जर्नलद्ध लैन्सेट ने जच्चा-बच्चा कुपोषण पर एक श्रृंखला प्रकाशित की थी। इसमें सूक्ष्म पोषक तत्वों पर जोर था और सिफारिश की गई थी कि राष्ट्रीय पोषण कार्यक्रम में फोर्टीफाइड आहार को शामिल किया जाए। हालांकि कई वैज्ञानिक इस ‘फोर्टीफिकेशन’ को गैर जरूरी और विशुद्य व्यापारिक बताते हैं। ध्यान देने की जरूरत है कि कुछ वर्ष पूर्व ऐसे ही नमक में आयोडीन की अनिवार्यता की वकालत की गई थी। नमक में आयोडिन की अनिवार्यता के लिये कम्पनियों ने पूरा दबाव बनाया और सरकार को इस दबाव में कानून भी बदलना पड़ा। उल्लेखनीय है कि सरकारी कानूनों की आड़ में आयोडिन युक्त नमक की अनिवार्यता आम नागरिकों पर थोप कर इस देश में कई बीमारियों के लिये रास्ता खोल दिया गया है।
नमक में आयोडिन की अनिवार्यता को थोपने के मामले की पड़ताल करने से इस आशंका की पुष्टि हो जाती है कि देर सबेर चावल में विटामिन ए अथवा आटे में लोहा तथा अन्य सूक्ष्म पोषक तत्वों को दैनिक उपयोग के अनाजों में मिलाकर फोर्टीफाइड फूड के रूप में बाजार में उतारा जा सकता है। केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय के विश्वस्त सूत्रों के हवाले से इस लेखक को खबर है कि मंत्रालय में आयोडाइज्ड नमक को डबल फोर्टीफाइड ;उसमें लोहा मिलानेद्ध की एक महत्वाकांक्षी योजना लम्बित है जिसमें सम्बन्धित कम्पनी ने सर्वेक्षण के आधर पर यह भी दावा किया है कि लोगों को यदि ठीक से शिक्षित किया जाए तो लोग मौजूदा दर से दो गुने कीमत पर भी ‘डबल फोर्टीफाइड नमक’ लेने को तैयार हैं।
चिन्ता की बात तो यह है कि कम्पनियों और बाजार के गठजोड़ ने हमारी प्राकृतिक खाद्य व्यवस्था को खत्म कर देने की योजना बना चुका है और हम उसके जाल में फंस चुके हैं। कई पोषक तत्व तो खाद्य में कृत्रिम रूप से डाले ही नहीं जा सकते। जैसे-जिंक। हमारे शरीर में जिंक की कमी को प्राकृतिक खाद्य पदार्थों के सेवन से ही पूरा किया जा सकता है। इसके लिये जैविक खेती को बढ़ावा देने की जरूरत है। क्योंकि रासायनिक कीटनाशकों के उपयोग से जमीन में उपलब्ध सूक्ष्म पोषक तत्व नष्ट हो जाते हैं और हमारे शरीर को प्राकृतिक रूप से पर्याप्त पोषण नहीं मिल पाता। यह विडम्बना ही है कि पहले पोषण के प्राकृतिक तरीके को हम नष्ट कर दें और फिर पोषण के लिये बाजार की तथाकथित तकनीक पर निर्भर हो जाएं।
भारत में तेजी से विकसित होते खाद्य बाजार और इसके पीछे लगी बड़ी कम्पनियों की सफलता अभी से देखी जा सकती है। आम जनता के स्तर पर ऐसी योजना में जानकारी के अभाव में लोगों को कोई साजिश नजर नहीं आती। कम्पनियां भी मध्यम वर्ग के लोगों को प्रभावित करना अच्छी तरह जानती हैं। इस कार्य में क्रिकेट स्टार धोनी, हरभजन, युवराज या सिने स्टार आमिर, शाहरूख या सलमान या कोई और सेलेब्रिटी अच्छी तरह इस्तेमाल होते हैं। नमक में आयोडीन की अनिवार्यता को सरकारी कानूनों ने जितना प्रभावी नहीं बनाया उतना विज्ञापन और प्रचार ने। वैसे भी गेन जैसी संस्था की स्थापना बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का बाजार निर्माण करने के लिये ही की गई है। गेन इन कम्पनियों के बाजार बढ़ाने के लिये विभिन्न देशों में खाद्य और पोषण कानूनों को अपने अनुकूल बनवाने के लिए भी प्रयासरत है। भारतीय सांसदों के बीच गेन ने एक बैठक आयोजित कर उन्हें फोर्टीफाइड फूड के फायदे बताए। इसका असर भी रंग लाने लगा है। सांसद सचिन पायलट विटामिन ए युक्त कृत्रिम पोषक आहार के प्रबल समर्थक बन गए हैं। पिछले संसद सत्र में वे इसकी जोरदार वकालत भी कर चुके हैं।
गेन कुपोषण की समस्या का समाधन बाजार में तलाशता है। गेन का उद्देश्य भारत में पोषक आहार के लिये एक अरब लोगों का बाजार निर्मित करना है। गेन ने अभी-अभी हैदराबाद में ही ब्रिटानिया नामक कम्पनी को एक लाख बच्चों तक अपना कथित पोषक उत्पाद पहुंचाने का मौका उपलब्ध कराया है। इस प्रकार कुपोषण के इस बाजार में बड़ी कम्पनियों को बड़े बाजार बनाने के व्यापक अवसर उपलब्ध हो रहे हैं। इस झटपट समाधान की आपाधपी मंें भूख और कुपोषण के मूल सवाल दब गए हैं। इन सवालों का फास्ट-फूड स्टाइल वाला जवाब स्थाई समाधन दे नहीं सकता क्योंकि भूख महज एक समस्या नहीं साम्राज्यवाद की मुकम्मल नीति है। जब तक नीति पर चोट नहीं होगी भूख का बाजार फलता-फूलता रहेगा।
विश्व स्वास्थ्य संगठन भी बढ़ती विषमता और गरीबी के स्वास्थ्य के लिये बड़ी चुनौती मानता है। संगठन की महानिदेशक डा. मार्गेट चान ने कहा है कि विकासशील देशों में समावेशी विकास के अभाव में बड़ी संख्या में स्त्रियां ओैर बच्चे कुपोषण, रक्त अल्पतता तथा घातक रोगों की चपेट में हैं जिससे जन स्वास्थ्य को गम्भीर संकट खड़ा हो सकता है। इस बार अगले वर्ष की कार्ययोजना में जलवायु परिवर्तन और पर्यावरणीय कारणों से बढ़ने वाले रोगों जैसे मलेरिया, कालाजार, मेनिनजाइटिस आदि को भी बड़ी चुनौती के रूप में देखा गया है। संगठन ने बढ़ती शहरी आबादी के स्वास्थ्य को भी मद्देनजर रखा है।
अभी हाल ही में एफ.ए.ओ. के महानिदेशक जैक्स डायफ ने अपनी भारत यात्रा के दौरान केन्द्रीय कृषि एवं खाद्य मंत्री शरद पवार से मुलाकात कर विश्व खाद्य समस्या पर चर्चा की तथा आशंका व्यक्त की कि खाद्यान्न उत्पादन में आ रही कमी एवं बढ़ते मूल्य से खाद्य संकट और गहराएगा तथा कई देशों में भोजन के लिये संघर्ष और हिंसक हो सकते हैं। श्री डायफ के अनुसार इस वक्त दुनिया में अनाज का भण्डार इतना कम है कि यह पूरी दुनिया की आबादी का केवल 8 से 12 हफते तक ही पेट भर सकता है। उन्होंने यह भी कहा कि कैमरून, मिस्र, हैती, बुर्कीनाफासो तथा सेनेगल जैसे देशों में जारी खाद्य संघर्ष दुनिया के अन्य देशों में भी फैल सकते हैं।
बढ़ते खाद्य संकट के लिये खाद्य मूल्यों में हुई बेतहाशा वृधि को भी मुख्य कारण बताया जा रहा है। खाद्य मूल्यों में हुई वृधि के लिये खाद्य विशेषज्ञ अर्न्तराष्ट्रीय बाजारों में मांस की मांग में वृघि को एक बड़ा कारण मान रहे हैं। कहा जा रहा है कि विगत दो दशक में अर्न्तराष्ट्रीय स्तर पर मांस की मांग दो गुनी हो गई है। जाहिर है कि इसी अनुपात में चारा उत्पादन का दायरा भी बढ़ा है। एक आकलन के अनुसार एक किलो गोमांस के लिए 7 किलो खाद्यान्न की आवश्यकता होती है जबकि एक किलो सुअर का मांस के लिए 3 किलो चारा चाहिये। इन मांगों की पूर्ति के लिए बड़े मात्रा में सोयाबीन व अन्य फसलों का उत्पादन किया जा रहा है। अनाज की जगह चारे के उत्पादन का परिणाम है कि कई देशो में खाद्यान्न की कमी होने लगी है।
भारत सरकार का आर्थिक सर्वेक्षण 2007-08 कहता है कि 1990 से वर्ष 2007 तक खाद्यान्न उत्पादन वृधि दर 1.2 प्रतिशत ही रही है। इस दौरान जनसंख्या की औसत 1.9 प्रतिशत वृधि दर की तुलना में खाद्यान्न उत्पादन की दर कम ही है। इस दौरान उत्पादन कम होने से प्रति व्यक्ति अनाज तथा दालों की उपलब्ध्ता भी घटी है। अनाजों की खपत वर्ष 1990-91 में जहां प्रतिदिन प्रति व्यक्ति 468 ग्राम थी वहीं वर्ष 2005-06 में घटकर यह प्रतिदिन 412 ग्राम प्रति व्यक्ति रह गई है। इस दौरान दालों की खपत प्रतिदिन 42 ग्राम प्रति व्यक्ति से घटकर 33 ग्राम रह गई। यहां ध्यान देने की बात है कि 1956-57 में प्रति व्यक्ति दालों की उपलब्ध्ता 72 ग्राम थी।
1983-85 में अनाज उत्पादन की जो स्थिति थी उसमें अखाद्य फसलों की हिस्सेदारी लगभग 37 प्रतिशत थी जो वर्ष 2006-07 में बढ़कर 46.7 प्रतिशत तक पहुंच गई। आंकड़ों के अनुसार खाद्य फसलों के उत्पादन में जहां 2 प्रतिशत की वृधि हुई है वहीं अखाद्य फसलों का उत्पादन 4 प्रतिशत तक गया है। विश्व बैंक की ही रिपोर्ट मानती है कि महंगे कीमत वाले फसलों की मांग बढ़ी है जबकि भोजन के लिये जरूरी फसलों का उत्पादन घटा है। सरकार भी खाद्य फसलों की तुलना में अखाद्य फसलों का उत्पादन बढ़ाने के लिये ज्यादा प्रोत्साहित करती है।
भूख को बाजार ने मुनाफे के धन्धे के रूप में परिवर्तित कर लिया है। अर्न्तराष्ट्रीय संस्थाएं स्वास्थ्य व पोषण की कमी का वास्ता देकर ऐसी नीतियां और कार्यक्रम थोप रहे हैं जिससे खाद्य उद्योग में लगे बड़ी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को सीधे फायदा पहुंच रहा है। अब भारत सहित दुनिया भर में नागरिकों के स्वास्थ्य और पोषण सम्बन्धी अधिकारों को सुनिश्चित करने के लिये सार्वजनिक निजी भागीदारी ;पी.पी.पी.द्ध को इस तरह से पेश किया जा रहा है मानो देश में लोगों का स्वास्थ्य इसी बुनियाद पर खड़ा किया जा सकता है अन्यथा भारत बीमारियों व कुपोषण के दलदल में ध्ंास जाएगा।
वर्ष 2005 में विश्व स्वास्थ्य सभा ;डब्ल्यू.एच.ए.द्ध में स्तनपान के सवाल पर हुई बहस के दौरान भारत ने अपना पक्ष रखते हुए कहा था, ‘‘व्यावसायिक संगठनों की मुख्य प्राथमिकता लाभ कमाना है। इसलिये व्यावसायिक संगठनों से ऐसी अपेक्षा रखना न तो उचित है और न ही व्यावहारिक कि वे स्तनपान को संरक्षण, प्रोत्साहन और समर्थन देने के लिये सरकारों व अन्य समूहों के साथ मिलकर काम करेंगे।’’ तब डब्ल्यू.एच.ए. ने प्रस्ताव क्रमांक 58.32 को स्वीकार करते हुए सदस्य समूहों से आग्रह किया था कि वे यह सुनिश्चित करें कि शिशुओं व छोटे बच्चों के स्वास्थ्य के लिये कार्यक्रमों व कार्यकर्ताओं के लिये वित्तीय समर्थन व अन्य प्रोत्साहन में किसी प्रकार से हितों के बीच टकराव न हो। मई 1981 में भी 34वीं विश्व स्वास्थ्य सभा में स्तनपान के विकल्पों के विपणन सम्बन्धी अर्न्तराष्ट्रीय कोड को स्वीकारते हुए माना गया था कि लाभोन्मुखी व्यावसायिक संस्थान समतामूलक विकास के पैरोकार नहीं बन सकते। इन दिशा निर्देशों में नागरिक समाज और यूनिसेफ एवं डब्ल्यू.एच.ओ. जैसे अर्न्तराष्ट्रीय संगठनों से उम्मीद की गई थी कि वह महज लाभ के लिये सक्रिय उद्योगों से अच्छी तरह निपटेगा लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। उल्टे कथित पोषण एवं विटामिनों का घन्धा करने वाली कम्पनियों की तो चान्दी हो गई और भ्रामक विज्ञापनों का सहारा लेकर नेस्ले, हिन्दुस्तान लिवर और ऐसी ही अन्य बेबी फूड बनाने वाली कम्पनियों ने खूब मुनाफा कमाया। उस दौर में इन कम्पनियों के विज्ञापनों का यह असर था कि शहरों में रहने वाली मध्यमवर्गीय युवा माताओं ने अपने नवजात शिशु को भी अपने स्तन का दूध पिलाने की बजाय इन कम्पनियों का डब्बा बन्द दूध देना स्वीकार कर लिया था।
कथित पोषण और हेल्थ फूड के धन्धे में लगी कम्पनियों की तो अब चल निकली है। भूमण्डलीकरण के दौर में इन कम्पनियों ने बड़े पैमाने पर स्वास्थ्य और भूख का वास्ता देकर अपने उल्टे-सीघे उत्पादों को महंगे दर पर बाजार में भर दिया है। यूनिसेफ तथा डल्ब्यू.एच.ओ. जैसे संगठनों ने भी अपने 27 वर्ष पूर्व के 34वें विश्व स्वास्थ्य सभा के घोषणा पत्र को उठाकर किनारे कर दिया है। जिसमें कहा गया था कि, ‘‘लाभ के लिये सक्रिय कम्पनियां व्यापक जनहित की पोषक नहीं हो सकती।’’ अब यूनिसेफ ने ‘‘ग्लोबल एलायंस फॉर इम्प्रूब्ड न्यूट्रीशन’’ ;गेनद्ध से हाथ मिलाया है। गेन एक ऐसा संगठन है जो अर्न्तराष्ट्रीय खाद्य व्यापार कम्पनियों के हित, पोषण और संरक्षण के लिये काम करता है। अब आशंका है कि इससे विभिन्न देशों की पोषण और खाद्य नीतियों में बाजार और बहुराष्ट्रीय खाद्य कम्पनियों का दखल बढ़ जाएगा।
गेन ने विभिन्न बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के खाद्य उत्पादों को विभिन्न देशों के राष्ट्रीय खाद्य, स्वास्थ्य एवं पोषण नीतियों में शामिल करने के लिये सरकारों से लाबिंग भी शुरू कर दिया है। यह जानना जरूरी है कि अर्न्तराष्ट्रीय संस्थाएं यूनिसेफ तथा डब्ल्यू.एच.ओ. के प्रतिनिधि अब ‘गेन’ की बैठक में उन्हीं बहुराष्ट्रीय खाद्य निर्माता कम्पनियों के प्रतिनिध्यिों के साथ बैठते हैं जिसने कई देशों में अर्न्तराष्ट्रीय दिशा निर्देशों का उल्लंघन किया है। ‘गेन’ के बोर्ड सदस्यों में बायर, कोकाकोला, नेस्ले, नोवार्टिस, पेप्सीको, फाइजर, प्राक्टर एण्ड गैम्बल जैसी अनेक खाद्य, रसायन एवं दवा कम्पनियों के प्रतिनिधि शामिल हैं।
अब गेन के सक्रिय होने से भारत सहित अन्य देशों में खाद्य एवं पोषण सुरक्षा पर सवाल खड़े हो गए हैं। भारत में राष्ट्रीय पोषण नीति को ठीक से लागू करने के लिये डॉ. एम.एस. स्वामीनाथन की अध्यक्षता में एक संगठन बनाया गया है- ‘‘कोलीशन फॉर सस्टेनेबल न्यूट्रीशन सिक्युरिटी इन इन्डिया’’ं। गेन भारत में इस कोलीशन के साथ भी काम कर रहा है। अब सवाल है कि भारत में खाद्य एवं पोषण सुरक्षा की शर्त पर गेन के एजेन्डा को कैसे चलने दिया जा सकता है। इससे टकराव की स्थिति उत्पन्न हो गई हैं।
भोजन एवं पोषण के व्यापार से जुड़ी बड़ी कम्पनियों का दबाव है कि राष्ट्रीय पोषण कार्यक्रम में फोर्टीफाइड आहार शामिल किया जाए। मई 2008 में चिकित्सा की चर्चित पत्रिका ;जर्नलद्ध लैन्सेट ने जच्चा-बच्चा कुपोषण पर एक श्रृंखला प्रकाशित की थी। इसमें सूक्ष्म पोषक तत्वों पर जोर था और सिफारिश की गई थी कि राष्ट्रीय पोषण कार्यक्रम में फोर्टीफाइड आहार को शामिल किया जाए। हालांकि कई वैज्ञानिक इस ‘फोर्टीफिकेशन’ को गैर जरूरी और विशुद्य व्यापारिक बताते हैं। ध्यान देने की जरूरत है कि कुछ वर्ष पूर्व ऐसे ही नमक में आयोडीन की अनिवार्यता की वकालत की गई थी। नमक में आयोडिन की अनिवार्यता के लिये कम्पनियों ने पूरा दबाव बनाया और सरकार को इस दबाव में कानून भी बदलना पड़ा। उल्लेखनीय है कि सरकारी कानूनों की आड़ में आयोडिन युक्त नमक की अनिवार्यता आम नागरिकों पर थोप कर इस देश में कई बीमारियों के लिये रास्ता खोल दिया गया है।
नमक में आयोडिन की अनिवार्यता को थोपने के मामले की पड़ताल करने से इस आशंका की पुष्टि हो जाती है कि देर सबेर चावल में विटामिन ए अथवा आटे में लोहा तथा अन्य सूक्ष्म पोषक तत्वों को दैनिक उपयोग के अनाजों में मिलाकर फोर्टीफाइड फूड के रूप में बाजार में उतारा जा सकता है। केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय के विश्वस्त सूत्रों के हवाले से इस लेखक को खबर है कि मंत्रालय में आयोडाइज्ड नमक को डबल फोर्टीफाइड ;उसमें लोहा मिलानेद्ध की एक महत्वाकांक्षी योजना लम्बित है जिसमें सम्बन्धित कम्पनी ने सर्वेक्षण के आधर पर यह भी दावा किया है कि लोगों को यदि ठीक से शिक्षित किया जाए तो लोग मौजूदा दर से दो गुने कीमत पर भी ‘डबल फोर्टीफाइड नमक’ लेने को तैयार हैं।
चिन्ता की बात तो यह है कि कम्पनियों और बाजार के गठजोड़ ने हमारी प्राकृतिक खाद्य व्यवस्था को खत्म कर देने की योजना बना चुका है और हम उसके जाल में फंस चुके हैं। कई पोषक तत्व तो खाद्य में कृत्रिम रूप से डाले ही नहीं जा सकते। जैसे-जिंक। हमारे शरीर में जिंक की कमी को प्राकृतिक खाद्य पदार्थों के सेवन से ही पूरा किया जा सकता है। इसके लिये जैविक खेती को बढ़ावा देने की जरूरत है। क्योंकि रासायनिक कीटनाशकों के उपयोग से जमीन में उपलब्ध सूक्ष्म पोषक तत्व नष्ट हो जाते हैं और हमारे शरीर को प्राकृतिक रूप से पर्याप्त पोषण नहीं मिल पाता। यह विडम्बना ही है कि पहले पोषण के प्राकृतिक तरीके को हम नष्ट कर दें और फिर पोषण के लिये बाजार की तथाकथित तकनीक पर निर्भर हो जाएं।
भारत में तेजी से विकसित होते खाद्य बाजार और इसके पीछे लगी बड़ी कम्पनियों की सफलता अभी से देखी जा सकती है। आम जनता के स्तर पर ऐसी योजना में जानकारी के अभाव में लोगों को कोई साजिश नजर नहीं आती। कम्पनियां भी मध्यम वर्ग के लोगों को प्रभावित करना अच्छी तरह जानती हैं। इस कार्य में क्रिकेट स्टार धोनी, हरभजन, युवराज या सिने स्टार आमिर, शाहरूख या सलमान या कोई और सेलेब्रिटी अच्छी तरह इस्तेमाल होते हैं। नमक में आयोडीन की अनिवार्यता को सरकारी कानूनों ने जितना प्रभावी नहीं बनाया उतना विज्ञापन और प्रचार ने। वैसे भी गेन जैसी संस्था की स्थापना बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का बाजार निर्माण करने के लिये ही की गई है। गेन इन कम्पनियों के बाजार बढ़ाने के लिये विभिन्न देशों में खाद्य और पोषण कानूनों को अपने अनुकूल बनवाने के लिए भी प्रयासरत है। भारतीय सांसदों के बीच गेन ने एक बैठक आयोजित कर उन्हें फोर्टीफाइड फूड के फायदे बताए। इसका असर भी रंग लाने लगा है। सांसद सचिन पायलट विटामिन ए युक्त कृत्रिम पोषक आहार के प्रबल समर्थक बन गए हैं। पिछले संसद सत्र में वे इसकी जोरदार वकालत भी कर चुके हैं।
गेन कुपोषण की समस्या का समाधन बाजार में तलाशता है। गेन का उद्देश्य भारत में पोषक आहार के लिये एक अरब लोगों का बाजार निर्मित करना है। गेन ने अभी-अभी हैदराबाद में ही ब्रिटानिया नामक कम्पनी को एक लाख बच्चों तक अपना कथित पोषक उत्पाद पहुंचाने का मौका उपलब्ध कराया है। इस प्रकार कुपोषण के इस बाजार में बड़ी कम्पनियों को बड़े बाजार बनाने के व्यापक अवसर उपलब्ध हो रहे हैं। इस झटपट समाधान की आपाधपी मंें भूख और कुपोषण के मूल सवाल दब गए हैं। इन सवालों का फास्ट-फूड स्टाइल वाला जवाब स्थाई समाधन दे नहीं सकता क्योंकि भूख महज एक समस्या नहीं साम्राज्यवाद की मुकम्मल नीति है। जब तक नीति पर चोट नहीं होगी भूख का बाजार फलता-फूलता रहेगा।
विश्व स्वास्थ्य संगठन भी बढ़ती विषमता और गरीबी के स्वास्थ्य के लिये बड़ी चुनौती मानता है। संगठन की महानिदेशक डा. मार्गेट चान ने कहा है कि विकासशील देशों में समावेशी विकास के अभाव में बड़ी संख्या में स्त्रियां ओैर बच्चे कुपोषण, रक्त अल्पतता तथा घातक रोगों की चपेट में हैं जिससे जन स्वास्थ्य को गम्भीर संकट खड़ा हो सकता है। इस बार अगले वर्ष की कार्ययोजना में जलवायु परिवर्तन और पर्यावरणीय कारणों से बढ़ने वाले रोगों जैसे मलेरिया, कालाजार, मेनिनजाइटिस आदि को भी बड़ी चुनौती के रूप में देखा गया है। संगठन ने बढ़ती शहरी आबादी के स्वास्थ्य को भी मद्देनजर रखा है।
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