Monday, May 11, 2020

कोरोना संक्रमण का सामाजिक/राजनीतिक पहलू


 चीन के वुहान से जब यह खबर निकली कि कोरोना संक्रमण एक नया खतरनाक वायरस ;ब्व्टप्क्.19द्ध अब बेकाबू हो चला है तब महामारी/जैविक हथियार आदि का खेल खेलने की हैसियत रखने वाले कथित शक्तिशाली देश भी खुद को संभाल नहीं पाए। यह शायद उनका ‘‘ओवर कान्फिडेन्स’’ रहा होगा लेकिन इस वैश्विक सत्ता शीर्ष के पिछलग्गू देशों का नेतृत्व भी मस्त रहा। शायद इस उम्मीद में कि, ‘‘वो हैं न सब संभाल लेंगे।’’इस ओवर कान्फिडेन्स का खामियाजा विश्व शक्ति का घमण्ड पाले ‘‘अमरीका’’ को जितना उठाना पड़ा उससे पूरी दुनिया अचम्भित है। उसके छुटभैये देश की सरकारों का तो वही जानें लेकिन जनता न तो रो पा रही है और न ही खुल कर अपना विरोध दर्ज कर सक रही है। सरकार समर्थित मीडिया कोरोनासंक्रमण से निबटने के लिए सरकार की ऐसी वाहवाही कर रहा है मानो सरकार ने सचमुच ‘‘रामराज’’ स्थापित कर दिया हो। देश की अधिकांश जनता बदहाल, परेशान और गम में है। वह अपने गुस्से को भी प्रकट नहीं कर पा रही। बेहाली, भूख और भविष्य की चिंता में डूबी देश की 70 फीसद से ज्यादा आबादी खौफजदा है और किसी तरह लॉकडाउन के इन्तजार में है।
यह जानना बेहद जरूरी है कि कोरोनासंक्रमण के नाम पर देश में सामाजिक, राजनीतिक स्तर पर क्या क्या खेल हुए और उससे समाज और देश का कितना नुकसान हुआ। इस कोरोनासंक्रमण से हुए आर्थिक नुकसान के अनुमान पर मैं पहले लिख चुका हूं। यहां हम इसके सामाजिक, राजनीतिक पहलू पर चर्चा करेंगे। यह चर्चा इसलिए जरूरी है कि कोरोनासंक्रमण के दौर में जो राजनीतिक पहलकदमी हुई उसके दूरगामी असर होंगे और इसकी वजह से जो हालात उभरे उसने 70 साल पहले के अराजक असंतोष और प्राध्यापक प्रो. फैसल देव जी ने अंग्रेजी के एक अखबार ‘द हिन्दू’ में लिखे अपने लेख में बताया है कि जब हिंसा का इतिहास आजादी के विचार को अपने साए में ले लेता है तो या तो उसके नाम पर आजादी का बलिदान किया जा सकता है या उसे अधकचरा अथवा पिछड़ा बने रहने दिया जा सकता है। भारत का विभाजन साम्प्रदायिक निष्ठा की शक्ति का प्रदर्शन और उसी की जीत थी क्योंकि इसमें हिन्दू और मुसलमानों ने स्वेच्छा से अपने पड़ोसियों को त्याग दिया था। इस विभाजन में विश्वासघात बेहद अहम था। आज भी हिन्दु-मुसलमान, अमीर-गरीब के बीच विभाजन को सत्ता ने स्पष्ट कर दिया है। किसी भी देश में नागरिकों का पारस्परिक सम्बन्ध न तो प्रेम से परिभाषित होता है और न ही नफरत से।यह परिभाषित होता है उदासीनता ;।चंजीलद्ध से। सांस्कृतिक या धार्मिक एकता की तड़प और विश्वासघातियों का शिकार देश की एकता को महज जोखिम में ही डालेगा।
कोरोनासंक्रमण के प्रसार के रोकथाम के लिए 20 मार्च को प्रधानमंत्री ने एक दिन के लिये ‘‘जनता कर्फ्यू’’ के बहाने ‘‘लॉकडाउन’’ का जायजा ले लिया था। फिर 24 मार्च को अचानक देश के लम्बे समय के लिये ‘‘लॉकडाउन’’ की घोषणा कर दी गई। देश जानता है कि लगभग 30-40 करोड़ लोग देश में रोजगार और अन्य कारणों की वजह से अपने घर, गांव, शहर, प्रदेश, देश से बाहर रहते हैं। उन्हें अपने स्थान पर लौटने के लिये 5-6 दिन तो चाहिए ही था लेकिन महज चार घंटे की मोहलत देकर प्रधानमंत्री ने जो लॉकडाउन घोषित किया उसकी वजह से हजारों लोग विदेशों में फंसे रह गए। करोड़ों लोग देश के विभिन्न हिस्से में ही रोक दिये गये। कुछ लाख मजदूर ‘‘लाकडाउन’’ में जीवन की दुश्वारियों का अन्दाजा लगाकर पैदल ही हजार-डेढ़ हजार कि.मी. का सफर तय कर घर पहुंचने की जिद में निकल लिए। कुछ रास्ते में ही ढेर हो गए तो कुछ बीमार पड़ गए कुछ भूख से मरे तो कुछ ने आत्महत्या कर ली। 24 मार्च को लॉकडाउन की घोषणा के बाद विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्लूएचओ) ने भी अपनी सफाई दी की उसने भारत के इस लॉकडाउन के लिए कोई अपील या चेतावनी जारी नहीं की थी।
यह सवाल अभी भी जवाब के इन्तजार में है कि बिना किसी पूर्व तैयारी या विपक्ष से सलाह मशविरा के प्रधानमंत्री को ऐसी क्या जरूरत आ पड़ी कि अचानक देश में लॉकडाउन करना पड़ा ? आज न तो सशक्त विपक्ष है और न ही जनपक्षीय मजबूत मीडिया जो सरकार से यह पूछ सके कि एक अनाड़ी की तरह उसने लॉकडाउन की जानलेवा घोषणा क्यों की जिसमें सैंकड़ो जानें गईं और लाखों लोग पूरी तरह परेशान हुए। हाँ ‘‘लॉकडाउन’’ के दौरान, मध्य प्रदेश में कमलनाथ की सरकार गिराकर शिवराज चौहान को सत्ता सौंपना, पश्चिम बंगाल में ममता सरकार पर दबाव बनाना, महाराष्ट्र में उद्धव ठाकरे की विधानसभा सदस्यता जैसे कई राजनीतिक मामले हैं जिसमें भाजपा को एकतरफा फायदा था और भाजपा ने इस लॉकडाउन में यह फायदा लेने की पूरी कोशिश भी की।सीएस/एनआरसी के खिलाफ देश में चल रहे प्रतिरोध का प्रतीक बने शाहीन बाग के कुछ मुस्लिम चेहरों को कानूनी दांव में फंसा कर जेल में डालने, उ.पू. दिल्ली में हुई हिंसा में बड़े पैमाने पर मुसलमानों को नामजद करने आदि में दिल्ली पुलिस की अतिरिक्त सक्रियता से भी स्पष्ट है कि केन्द्र सरकार ने अपने ‘‘राजनीतिक मकसद’’ से भी लॉकडाउन का उपयोग किया।
लॉकडाउन का पहला चरण, फिर दूसरा चरण, फिर अब तीसरा चरण अगले हफ्ते समाप्त हो जाएगा लेकिन तब कोरोनासंक्रमण के मामले अपने पूरे शबाब में होंगे और सम्भवतः देश में संक्रमित लोगों का आंकड़ा 1 लाख को पार कर चुका होगा। लगभग 50 दिनों के ‘‘लॉकडाउन’’ के बाद इसे हटाना सरकार की मजबूरी होगी लेकिन तब यह सवाल भी मुखर होगा कि जिस महामारी से नियंत्रण के लिये देश में लॉकडाउन किया गया था वह तो और बड़े पैमने पर फैल गई। तब लॉकडाउन की विफलता पर पहल होगी और लॉकडाउन के दौरान किए गए सरकारी पहलू पर भी चर्चा होगी। इस पूरे दौर में देश की राजनीति में ‘‘कोरोनासंक्रमण बनाम मोदी’’ को ही मीडिया ने फोकस किया मगर हालात ने कुछ और तस्वीरें चेंप दी जैसे प्रवासी मजदूरों की बदहाली, उनके घर वापसी की त्रासदी, कई मजदूरों की घर लौटते मौत, कोरोना संक्रमण के लिए मुसलमानों के तबलीगी जमात को बदनाम करना, इस दौरान इलाज में मुसलमानों से भेदभाव आदि।
लॉकडाउन के दौरान मीडिया ने नरेन्द्र मोदी की राष्ट्रनायक वाली छवि बनाने की पुरजोर कोशिशें की लेकिन नागरिकों की परेशानियों से जुड़ी कई खबरों ने न केवल देश में बल्कि विदेशों में भी भारत में अल्पसंख्यकों से हो रहे भेदभाव और उन पर हुए हिंसक हमले को गम्भीरता से लिया मसलन देश की धर्मनिरपेक्षता को गहरा झटका लगा और जनता में सरकार की साम्प्रदायिक छवि ही उजागर हुई। सोशल मीडिया एवं मुख्यधारा की मीडिया के कुछ संस्थाओं ने सरकार पर यह सवाल भी दागे मगर कोई उत्तर नहीं मिला।
लॉकडाउन में कई सरकारी दावे भी कच्चे साबित हुए जैसे प्रभावित लोगों के भोजन, रहने व इन्तजाम के साथ उनके पुनर्वास व घर वापसी के लिए सरकारी पहल। राज्य सरकारों के दावे के बावजूद दूसरे राज्यों या जगहों पर फंसे लोगों को वापस उनके गृह प्रदेश में उनके घर तक लौटने के लिए इन्तजाम में भेदभाव साफ तौर पर दिखा। सम्पन्न मध्यवर्ग के लिए सरकारी इन्तजाम तो थे लेकिन गरीब मजदूरों को सामान्य से भी ज्यादा किराया चुकाकर अपनी जान जोखिम में डालकर लौटने का जोखिम उठाना पड़ा। बड़े पैमाने पर अव्यवस्था फैली और कोरोना संक्रमण का खतरा भी बढ़ा। सबसे ज्यादा तकलीफ मुसलमानों को उठानी पड़ी। उन्हें साम्प्रदायिक नफरत तो झेलनी ही पड़ी, उनके पवित्र रमजान के महीने में उनकी धार्मिक आजादी पर भी लॉकडाउन की बंदिशों का सामना करना पड़ा। इस दौरान सरकार से ज्यादा प्रशासन सक्रिय रहा। पुलिस एवं प्रशासन ने ही देश मेें कोरोना संक्रमण की गम्भीरता का निर्धारण किया मसलन रेड जोन, ओरेन्ज जोन एवं ग्रीन जोन में भी पूरी तरह के सवाल हैं। विभिन्न राजनीतिक दलों की प्रतिक्रिया है कि मुख्य मीडिया में भाजपा सहित राज्यों में कोरोनासंक्रमण की स्थिति और गैर भाजपा शासित राज्यों की कोरोनासंक्रमण की स्थिति में राजनीति साफ तौर पर देखी जा सकती है।
लॉकडाउन के दौरान जब कई प्रदेशों में फंसे मजदूरों के समक्ष रोटी और आजीविका का संकट गहराने लगा तो जैसे-तैसे उनके घर लौटने की मांग ने राज्य सरकारों को विवश किया कि वे रेल या बस चलाकर इन मजदूरों के घर वापसी की व्यवस्था करें। कर्नाटक राज्य में मजदूरों के ‘घर वापसी’ के निर्णय पर सरकार वहां के उद्योगपतियों के दबाव में पलटी मारनी पड़ी। ऐसे ही उत्तर प्रदेश की योगी सरकार ने राज्य में अगले तीन वर्ष के लिए श्रम कानून समाप्त कर दिए। उद्योगपतियों के दबाव में योगी आदित्यनाथ ने 38 श्रम नियमों में तीन वर्ष की अस्थाई छूट दे दी। भारत सरकार के गृह मंत्रालय के एक आदेश में यह भी कहा गया कि लॉकडाउन में प्रवासी मजदूरों का घर वापस लौटना ‘‘लॉकडाउन के नियमों का उल्लंघन’’ है। हालांकि सरकार ने अपील की कि लॉकडाउन की अवधि के दौरान मजदूरों के वेतन भत्ते न काटे जाएं और उन्हें किराये के मकानों में किराए की वजह से बेदखल न किया जाए लेकिन असल में यह एकतरफा ही मजदूर विरोधी दिख रहा है। 
कोरोना संक्रमण के दौरान भारत में जहां लगभग 50 दिनों से ज्यादा का लॉकडाउन भी वायरस के प्रसार को नहीं रोक पाया तो यह समझना मुश्किल नहीं है कि इस वायरस संक्रमण से बचने का जो नुस्खा ‘‘लॉकडाउन’’ के रूष्प में सुझाया गया था वह सवालों के घेरे में है? भारत की परिस्थितियां और यहां के लोगों की जीवनशैली में लगभग दो महीने का एकान्तवास कोई परिणाम दिखा पाएगा ऐसा मुझे तो भरोसा नहीं था। मैंने 5 अप्रैल को लिखे अपने लेख में यह स्पष्ट किया था कि कोरोनासंक्रमण से निबटने के लिए ‘‘लॉकडाउन’’ से इतर कुछ दूसरे उपाय सोचे जाने चाहिए मसलन रैपिड टेस्टिंग, प्रभावी सर्विलान्स एवं संक्रमण प्रभावित जगहों पर स्थानीय लॉकडाउन। कई देशों ने ऐसा किया भी। खुद चीन ने उपरोक्त तरीके से ही अपनी अर्थव्यवस्था भी बचाई और बीमारी से भी बढ़ा।
अब तो साफ है कि भारत में लॉकडाउन कोई खास असर नहीं दिखा पाया। हमने अन्तर्राष्ट्रीय तर्कों व नकल के आधार पर अपनी लॉकडाउन योजना बनाई। मसलन हमारा सांप भी न मरा और लाठी भी टूट गई। लॉकडाउन का यहां के उद्योग, व्यापार, मजदूर, कर्मचारी सब पर बुरा प्रभाव पड़ा। एक तरह से देश की अर्थव्यवस्था ही बैठ गई। अभी भी लॉकडाउन-3 के बाद संक्रमण का आंकड़ा तो बढ़ ही रहा है लेकिन मृत्यु दर कम होने की वजह से थोड़ी राहत महसूस की जा सकती है। सरकार को चाहिए कि वह लॉकडाउन की अपनी नीति की समीक्षा करेे और इसमें परिवर्तन लाए। इतना लम्बे समय तक लॉकडाउन देश को गहरे कुंए में ढकेल देगा। ऐसे में देश को भयावह आर्थिक और मानवीय तबाही से बचाना मुश्किल होगा।

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