Wednesday, September 11, 2019

क्यों नहीं मिलता सबको स्वास्थ्य ?

 एक फरवरी 2018 को जब लोकसभा में बजट पेश करते हुए वित्त मंत्री ने स्वास्थ्य बीमा योजना की घोषणा की तब लोगों को सुनने में यह मोदी की ‘मास्टर स्ट्रोक’ योजना लगी। आयुष्मान भारत की नाम की इस बीमा योजना को दुनिया की सबसे बड़ी स्वास्थ्य बीमा योजना बताया गया। लेकिन घोषणा के कुछ ही दिनों के अन्दर इस पर सवाल खड़े होने लगे। एक तो विश्लेषकों को शुरू में समझ ही नहीं आया कि 12 हजार करोड़ से ज्यादा की इस महत्वाकांक्षी बीमा योजना में राशि आबंटन की क्या व्यवस्था होगी दूसरे इस योजना के लाभ के लिये ‘प्रिमियम’ कौन चुकाएगा? जैसे ही यह बात साफ हो गई कि ‘मोदी हेल्थ केयर’ के नाम से प्रचारित इस बीमा योजना में केन्द्र सरकार के साथ-साथ राज्य सरकारों को भी 30-40 प्रतिशत राशि खर्च करनी है तब लगभग 5 राज्यों ने इस योजना से अपना हाथ खिंच लिया। इनमें ओड़िसा, तेलगाना, केरल, पंजाब और दिल्ली की सरकारों ने इसे आयुष्मान भारत के नाम पर बड़ी बीमा कम्पनियों को फायदा पहुंचाने वाली योजना बता कर अपना पल्ला झाड लिया।
    जैसे तैसे भाजपा शासित राज्यों में यह योजना जब लागू कर दी गई तब इस योजना से जुड़ी कुछ दूसरी खबरें भी आनी शुरू हो गई। एक खबर उत्तर प्रदेश के हरदोई जिले से आई। खबर के अनुसार जिले में कोई 2 लाख 70 हजार गरीब परिवारों को इस योजना से जोड़ा गया। लेकिन इस सूची में गरीब परिवारों के लोगों के नाम के बजाय वहां के नेता, अफसर, चिकित्सक एवं कारोबारियों का नाम शामिल था। मामला जब सुर्खियों में आया तो पता चला कि इस सूची में राज्य सभा सांसद एवं बीजेपी के नेता, उनके विधायक पुत्र व परिवार के लोगों के नाम तथा व्यापारियों के नाम भी इस योजना के लाभार्थी की सूची में है। हरदोई के कई प्रमुख चिकित्सकों के भी नाम इस योजना  के लाभार्थी सूची में पाए गए। हालांकि मामला जब उजागर हुआ तो हरदोई के मुख्य चिकित्सा अधिकारी डॉ. एस.के. रावत ने जांच की बात कहकर पल्ला झाड़ लिया। जाहिर है योजना के पहले चरण में ही योजना के लूट और कुछ दुरुपयोग की खबरें आनी शुरू हो गईं और योजना पर सवाल उठने लगे।
    इस पृष्ठभूमि में जब हम भारत के लोगों के स्वास्थ्य की चर्चा करते हैं तो एक अलग ही दृष्य सामने आता है। देश में लोगों के स्वास्थ्य की स्थिति आज भी अच्छी नहीं है। विश्लेषण करें तो पता चलेगा कि कुछ अपवादों को छोड़कर देश के लगभग सभी सरकारी अस्पतालों में रोगियों की हालत दयनीय है। संक्रामक रोगों से ग्रस्त मरीज भी अस्पताल के बाहर खुले और गन्दे में रहने को मजबूर हैं। अस्पतालों में चिकित्सकों की कमी है तो गम्भीर रोगियों को भी मेडिकल जांच के लिये महीनों/बरसों तक प्रतिक्षा सूची में इन्तजार करना पड़ता है।
      आइये सत्तर साल पहले की स्वास्थ्य की स्थिति पर नजर डालें। सन् 1943 में अंग्रेजों ने भारत में स्वास्थ्य व्यवस्था की वास्तविक स्थिति जानने के लिये स्वास्थ्य सर्वेक्षण और विकास समिति (भोर समिति) का गठन किया था। भोर समिति ने सन् 1945 में अपनी रिपोर्ट सौंप दी थी और स्वास्थ्य सेवा के विकास के लिए एक श्रेणीबद्ध प्रणाली के गठन का सुझाव दिया। इस सुझाव के अनुसार प्रत्येक 20,000 की आबादी पर एक प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र की स्थापना की बात थी। समिति ने स्पष्ट कहा था कि स्वास्थ्य सेवाओं का अधिकांश लाभ ग्रामीण क्षेत्रों को मिलना चाहिये। विडम्बना देखिए कि आजादी के बाद सन् 1950 में जो भारतीय स्वास्थ्य सेवा की तस्वीर उभरी उसमें 81 प्रतिशत सुविधाएं शहरों में स्थापित की गई। आज भी ग्रामीण स्वास्थ्य सेवा की स्थिति कोई अच्छी नहीं है। सन् 1960 के अन्त तक जब देश में बढ़ती विषमता की वजह से जन आन्दोलन उभरने लगे तब सरकार को मानना पड़ा कि सरकारी सुविधाएं गांव तक नहीं पहुंच रही हैं। स्वास्थ्य के बारे में सरकार ने भी माना कि डाक्टरों से गांव में जाकर सेवा देने की उम्मीद लगभग नामुकिन है। फिर सरकार ने सामुदायिक स्वास्थ्य सेवा को विकसित करने का मन बनाया। इसी नजरिये से डॉ. जे.बी. श्रीवास्तव की अध्यक्षता में एक और समिति बनी। इस समिति ने सुझाव दिया कि ग्रामीण स्तर पर स्वास्थ्य और चिकित्सा सुविधा के लिये बड़ी संख्या में स्वास्थ्य कार्यकर्त्ता तैयार किये जाएं। इसके लिये भारत ने विदेशी बैंकों से कर्ज लेना शुरू किया।
     धीरे धीरे भारत अर्न्तराष्ट्रीय बैंकों के कर्ज जाल में फंसता चला गया। 1991 से तो भारत सरकार ने खुले रूप से अर्न्तराष्ट्रीय मुद्रा कोष तथा विश्व बैंक की आर्थिक नीतियों को ही लागू करना आरम्भ कर दिया। इसका देश के आम लोगों के जीवन पर गहरा असर भी दिखा। स्वास्थ्य और शिक्षा पर सरकारी खर्च में कटौती तथा स्वास्थ्य सेवाओं के निजीकरण के परिणाम स्वरूप बीमारी से जूझते आम लोगों की तादाद बढ़ने लगी। दवा कम्पनियों ने भी दवाओं पर कीमतों का नियंत्रण समाप्त करने का दबाव बनाया और दवाएं महंगी होने लगी। दवाओं के महंगा होने का सबसे दुखद पहलू था जीवन रक्षक दवाओं का बेहद महंगा हो जाना।
   इस बीच धीरे धीरे जीवन रक्षक दवाएं बनाने वाली देशी कम्पनियां दम तोड़ने लगीं। नई नीतियों की आड़ में गैट (जेनरल एग्रीमेंट आफ ट्रेड एन्ड टैरिफ) के पेटेन्ट प्रावधानों का दखल शुरू हो गया और नतीजा हुआ क देश का पेटेन्ट कानून 1971 को बदल दिया गया। दवाइयां बेहद मंहगी हो गईं। उदाहरण के लिये टी.बी. की दवा आइसोनियाजिड, कुष्ट रोग की दवा डेप्सोन और क्लोफजमीन, मलेरिया की दवा सल्फाडौक्सीन और पाइरीमेतमीन इतनी महंगी हो गई कि लोग इसे खरीद नहीं पा रहे थे।
    स्वास्थ्य पर बाजार का स्पष्ट प्रभाव दिखने लगा था। सन् 1993 में विश्व बैंक ने एक निर्देशिका प्रकाशित की। शीर्षक या- ‘‘इन्वेस्टिंग इन हेल्थ।’’ इसमें साफ निर्देश था कि कर्जदार देश फंड-बैंक के इसारे पर स्वास्थ्य और शिक्षा जैसे बुनियादी मामलों में बजट कटौती करें। धीरे धीरे स्वास्थ्य का क्षेत्र मुनाफे की दुकान में तब्दील होता चला गया।
    गम्भीरता से विचार करें तो ‘आयुष्मान भारत’ या ‘स्वास्थ्य बीमा योजना’ या ‘मोदी हेल्थ केयर’ की पृष्ठभूमि में यह कहानी आपको सहज दिख जाएगी। अब रोगों की वर्तमान स्थिति पर थोड़ी चर्चा कर लें। भारत में कैंसर, मधुमेह, उच्च रक्तचाप, श्वांस की बीमारियाँ, तनाव, अमिन्द्रा, चर्मरोगों व मौसमी महामारियों में बेइन्तहा वृद्धि हुई है। बढ़ते रोगों के दौर में जहां मुकम्मल इलाज की जरूरत थी वहां दवाओं को महंगा कर स्वास्थ्य एवं चिकित्सा को निजी कम्पनियों के हाथों में सौंप दिया गया। सन् 2000 के आसपास निजी अस्पतालों की बाढ़ सी आ गई। कारपोरेट अस्पतालों की संख्या बढ़ी और धीरे धीरे आम मध्यम वर्ग अपने उपचार के लिये निजी व कारपोरेट अस्पतालों की ओर रुख करने लगा। प्राथमिक स्वास्थ्य व्यवस्था एक तो मजबूत भी नहीं हो पाई थी ऊपर से ध्वस्त होने लगी और दूसरी ओर बड़े सरकारी अस्पतालों में भीड़ बढ़ने लगी। अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थाओं में इलाज एवं निदान के लिये एक-दो वर्ष की वेटिंग मिलने लगी। भीड़ का आलम यह कि अस्पतालों में अफरा तफरी और अव्यवस्था का आलम आम हो गया। निजीकरण की वजह से अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान जैसे सुपर स्पेशिलिटी अस्पतालों में भी इलाज महंगा कर दिया गया। लोग सरकारी स्वास्थ्य सेवा की बजाय निजी अस्पतालों की ओर रुख करने लगे। महंगे इलाज की वजह से ‘‘स्वास्थ्य बीमा’’ लोगों के लिये तत्काल जरूरी लगने लगा और देखते देखते कई बड़े कारपोरेट कम्पनियों स्वास्थ्य बीमा के क्षेत्र में कूद पड़ीं और स्वास्थ्य बीमा का क्षेत्र मुनाफे का एक बड़ा अखाड़ा सिद्ध हो गया।
     कहने को निजीकरण व वैश्वीकरण के लिये कांग्रेस की सरकारें जिम्मेवार हैं लेकिन बाद में भाजपा नेतृत्व वाली एनडीए की सरकारों ने तो और भी जोर शोर से निजीकरण एवं बाजारीकरण बढ़ाया। कहने को भाजपा एवं राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने स्वदेशी जागरण मंच के नाम पर स्वदेशी के नारे तो लगाए लेकन बाजारीकरण एवं निजीकरण को बेशर्मी से आगे बढ़ाया। नतीजा स्वास्थ्य और शिक्षा का क्षेत्र निजी मुनाफे के लिये सबसे बेहतरीन प्रोडक्ट के रूप में बढ़ने लगा। अब जब बीमारियाँ ला इलाज हैं, दवाएं महंगी हैं और और आम लोग इतनी महंगी दवाएं और इलाज नहीं ले सकते तो उन्हें स्वास्थ्य बीमा की मीठी चटनी के बहाने तसल्ली दी जा रही है।
        भारत में स्वास्थ्य पर कुल व्यय अनुमानतः जीडीपी का 5.2 फीसदी है जबकि सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यय पर निवेश केवल 0.9 फीसदी है, जो गरीबो और जरूरतमंद लोगों की जरूरतों को पूरा करने के लिहाज से काफी दूर है जिनकी संख्या कुल आबादी का करीब तीन-चौथाई है। पंचवर्षीय योजनाओं ने निरंतर स्वास्थ्य को कम आवंटन किया है (कुल बजट के अनुपात के संदर्भ में)। सार्वजनिक स्वास्थ्य बजट का बड़ा हिस्सा परिवार कल्याण पर खर्च होता है। भारत की 75 फीसदी आबादी गांवों में रहती है फिर भी कुल स्वास्थ्य बजट का केवल 10 फीसदी इस क्षेत्र को आवंटित है। उस पर भी ग्रामीण क्षेत्र में प्राथमिक स्वास्थ्य सेवा की मूल दिशा परिवार नियोजन और शिशु जीविका व सुरक्षित मातृत्व (सीएसएसएम) जैसे राष्ट्रीय कार्यक्रमों की ओर मोड़ दी गई है जिन्हें स्वास्थ्य सेवाओं के मुकाबले कहीं ज्यादा कागज़ी लक्ष्यों के रूप में देखा जाता है। एक अध्ययन के अनुसार पीएचसी का 85 फीसदी बजट कर्मचारियों के वेतन में खर्च हो जाता है।नागरिकों को स्वास्थ्य सेवा मुहैया कराने में प्रतिबद्धता का अभाव स्वास्थ्य अधिरचना की अपर्याप्तता और वित्तीय नियोजन की कम दर में परिलक्षित होता है, साथ ही स्वास्थ्य संबंधी जनता की विभिन्न मांगों के प्रति गिरते हुए सहयोग में यह दिखता है। यह प्रक्रिया खासकर अस्सी के दशक से बाद शुरू हुई जब उदारीकरण और वैश्विक बाजारों के लिए भारतीय अर्थव्यवस्था को खोले जाने का आरंभ हुआ। चिकित्सा सेवा और संचारी रोगों का नियंत्रण जनता की प्राथमिक मांगों और मौजूदा सामाजिक-आर्थिक हालात दोनों के ही मद्देनजर चिंता का अहम विषय है। कुल सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यय के साथ इन दोनों उपक्षेत्रों में भी आवंटन लगातार घटता हुआ दिखा। चिकित्सीय शोध के क्षेत्र में भी ऐसा ही रुझान दिखता है। कुल शोध अनुदानों का 20 फीसदी कैंसर पर अध्ययनों को दिया जाता है जो कि 1 फीसदी से भी कम मौतों के लिए जिम्मेदार है जबकि 20 फीसदी मौतों के लिए जिम्मेदार श्वास संबंधी रोगों पर शोध के लिए एक फीसदी से भी कम राशि आवंटित की जाती है।
     आजादी के बाद पहली बार देखा जा रहा है कि निजीकरण व बाजारीकरण के मजबूत घेरेबन्दी के बावजूद एक एकदम नयी पार्टी (आम आदमी पार्टी) ने स्वास्थ्य सेवा को आम लोगों के लिये शत प्रतिशत मुफ्त कर दिया है। आम आदमी पार्टी के इस ‘मोहल्ला क्लिनिक’ ने तो जन स्वास्थ्य कार्यकर्त्ताओं के 70 वर्ष पूराने सपने को मानो पंख दे दिया हो जिसमें प्रारम्भिक स्तर पर स्वास्थ्य सेवा को मजबूत करने की कल्पना थी। आज दिल्ली में यहां की दो करोड़ की आबादी में लगभग 50 प्रतिशत यानि एक करोड़ लोग ‘मोहल्ला क्लिनिक’ का लाभ ले चुके हैं। जन स्वास्थ्य सेवा का यह दिल्ली मॉडल आज पूरी दुनिया के लिये कौतुहल का विषय बना हुआ है। संयुक्त राष्ट्र संघ और युनिसेफ सहित दर्जनों देशों के स्वास्थ्य वैज्ञानिकों ने दिल्ली में ‘आम आदमी मोहल्ला क्लिनिक’ के कार्यप्रणाली को देखा, समझा और सराह है।
      अब थोड़ी चर्चा विश्व स्वास्थ्य दिवस (7 अप्रैल) की भी कर लें। इस वर्ष विश्व स्वास्थ्य दिवस का थीम है- ‘‘यूनिवर्सल हेल्थ कवरेज-एवरीवन एवरीवेयर।’’ अर्थात सबके लिये सब जगह एक जैसा स्वास्थ्य। नारा अच्छा है। विश्व स्वास्थ्य संगठन की दृढ़ इच्छा भी होंगी लेकिन दुनिया भर की सरकारों का कुछ पता नहीं कि सभी नागरिकों के स्वास्थ्य की उन्हें वास्तव में कितनी चिन्ता है? अपने देश में कोई तीन दशक पहले हमारी सरकार और विश्व स्वास्थ्य संगठन ने मिलकर घोषणा की थी - ‘‘सन् 2000 तक सबके किये स्वास्थ्य’’। सन् 2000 बीत गयाए न तो सबको स्वास्थ्य मिला और न ही कोई पूछने वाला है कि जब हजारों करोड़ रुपये खर्च कर इस नारे को रट रहे थे तो फिर सबके स्वास्थ्य की बात कहां छुट गई? सरकारी संकल्पों की यह स्थिति कोई नई नहीं है और न ही इन संकल्पों के नाम पर सार्वजनिक धन की लूट। बहरहाल अब रोगों की वैश्विक चुनौती ने पूरी दुनिया को आशंकित कर दिया है तो संकल्प को पुनः दुहारने की मजबूरी लाजिमी है।
      यदि हम अपने नागरिकों के स्वास्थ्य की वास्तव में चिंता करते हैं तो हमें जनपक्षिय स्वास्थ्य नीति और जन सुलभ सहज स्वास्थ्य सुविधाएँ स्थापित करने की पहल का स्वागत करना चाहिये। मोहल्ला क्लिनिक एवं सर्व सुलभ स्वास्थ्य के लिये प्रतिबद्ध दिल्ली की आम आदमी पार्टी की सरकार में स्वास्थ्य मंत्री श्री सत्येन्द्र जैन स्पष्ट कहते हैं कि केन्द्र सरकार के इसारे पर दिल्ली के उपराज्यपाल श्री अनिल वैजल मोहल्ला क्लिनिक के रास्ते के रोड़ा बने हुए हैं जबकि आप सरकार ने दिल्ली में एक हजार मोहल्ला क्लिनिक की योजना बनाई हुई है। दिल्ली वाले खुशकिश्मत हैं कि उनके अस्पतालों में आम आदमी पार्टी की सरकार ने विलिंग काउन्टर भी खत्म कर दिये हैं। गन्दी राजनीति से ऊपर उठकर सरकारें यदि चाहें तो आम आदमी की सेहत सुधार सकती है। कम से कम स्वास्थ्य सेवाएं तो सुलभ हो ही सकती हैं। बढ़ती बीमारियों और महंगे स्वास्थ्य सेवाओं से निजात पाने में स्वास्थ्य बीमा से ज्यादा सुलभ एवं निःशुल्क अथवा सस्ती चिकित्सा सुविधाएँ लोगों के लिये मददगार हो सकती हैं और ‘‘सबके लिये उमदा स्वास्थ्य-सब जगह’’ का विश्व स्वास्थ्य संगठन का सपना भी पूरा हो सकता है। यह सम्भव है। संकीर्ण राजनीति से ऊपर उठकर जनता के लिये यदि सरकारें सच्चे दिल से सोचेंगी तो जनता भी उन्हें सर पर बिठाएगी। सरकार राजनीति से उपर उठिये और मानवता के लिये कुछ कीजियेए इसी लिये जनता आपको चुनती है।

Tuesday, September 10, 2019

Autoimmune Diseases and Homoeopathy


There are more than 80 different autoimmune diseases. Here are 14 of the most common ones.
1. Type 1 diabetes
The pancreas produces the hormone insulin, which helps regulate blood sugar levels. In type 1 diabetes mellitus, the immune system attacks and destroys insulin-producing cells in the pancreas.
High blood sugar results can lead to damage in the blood vessels, as well as organs like the heart, kidneys, eyes, and nerves.
2. Rheumatoid arthritis (RA)
In rheumatoid arthritis (RA), the immune system attacks the joints. This attack causes redness, warmth, soreness, and stiffness in the joints.
Unlike osteoarthritis, which commonly affects people as they get older, RA can start as early as your 30s or sooner.
3. Psoriasis/psoriatic arthritis
Skin cells normally grow and then shed when they’re no longer needed. Psoriasis causes skin cells to multiply too quickly. The extra cells build up and form inflamed red patches, commonly with silver-white scales of plaque on the skin.
Up to 30 percent of people with psoriasis also develop swelling, stiffness, and pain in their joints. This form of the disease is called psoriatic arthritis.
4. Multiple sclerosis
Multiple sclerosis (MS) damages the myelin sheath, the protective coating that surrounds nerve cells, in your central nervous system. Damage to the myelin sheath slows the transmission speed of messages between your brain and spinal cord to and from the rest of your body.
This damage can lead to symptoms like numbness, weakness, balance issues, and trouble walking. The disease comes in several forms that progress at different rates. According to a 2012 studyTrusted Source, about 50 percent of people with MS need help walking within 15 years after the disease starts.
5. Systemic lupus erythematosus (SLE)
Although doctors in the 1800s first described lupus as a skin disease because of the rash it commonly produces, the systemic form, which is most the common, actually affects many organs, including the joints, kidneys, brain, and heart.
Joint pain, fatigue, and rashes are among the most common symptoms.
6. Inflammatory bowel disease
Inflammatory bowel disease (IBD) is a term used to describe conditions that cause inflammation in the lining of the intestinal wall. Each type of IBD affects a different part of the GI tract.
7. Addison’s disease
Addison’s disease affects the adrenal glands, which produce the hormones cortisol and aldosterone as well as androgen hormones. Having too little of cortisol can affect the way the body uses and stores carbohydrates and sugar (glucose). Deficiency of aldosterone will lead to sodium loss and excess potassium in the bloodstream.
Symptoms include weakness, fatigue, weight loss, and low blood sugar.
8. Graves’ disease
Graves’ disease attacks the thyroid gland in the neck, causing it to produce too much of its hormones. Thyroid hormones control the body’s energy usage, known as metabolism.
Having too much of these hormones revs up your body’s activities, causing symptoms like nervousness, a fast heartbeat, heat intolerance, and weight loss.
One potential symptom of this disease is bulging eyes, called exophthalmos. It can occur as a part of what is called Graves’ ophthalmopathy, which occurs in around 30 percent of those who have Graves’ disease, according to a 1993 studyTrusted Source.
9. Sjögren’s syndrome
This condition attacks the glands that provide lubrication to the eyes and mouth. The hallmark symptoms of Sjögren’s syndrome are dry eyes and dry mouth, but it may also affect the joints or skin.
10. Hashimoto’s thyroiditis
In Hashimoto’s thyroiditis, thyroid hormone production slows to a deficiency. Symptoms include weight gain, sensitivity to cold, fatigue, hair loss, and swelling of the thyroid (goiter).
11. Myasthenia gravis
Myasthenia gravis affects nerve impulses that help the brain control the muscles. When the communication from nerves to muscles is impaired, signals can’t direct the muscles to contract.
The most common symptom is muscle weakness that gets worse with activity and improves with rest. Often muscles that control eye movements, eyelid opening, swallowing, and facial movements are involved.
12. Autoimmune vasculitis
Autoimmune vasculitis happens when the immune system attacks blood vessels. The inflammation that results narrows the arteries and veins, allowing less blood to flow through them.
13. Pernicious anemia
This condition causes deficiency of a protein, made by stomach lining cells, known as intrinsic factor that is needed in order for the small intestine to absorb vitamin B-12 from food. Without enough of this vitamin, one will develop an anemia, and the body’s ability for proper DNA synthesis will be altered.
Pernicious anemia is more common in older adults. According to a 2012 study, it affects 0.1 percent of people in general, but nearly 2 percent of people over age 60.
14. Celiac disease
People with celiac disease can’t eat foods containing gluten, a protein found in wheat, rye, and other grain products. When gluten is in the small intestine, the immune system attacks this part of the gastrointestinal tract and causes inflammation.

Scope of Homeopathy in Autoimmune Disease
Homeopathy has a good prospective role of treatment in the autoimmune disease as because homeopathy treatment is not only based on the disease symptoms alone but the person’s psychological and emotional symptoms also taken care which are otherwise known as the root trigger factors for the development of the disease. Every individual has its own trigger factors either in his psychological level or emotional level or physical level or genetic level.

Homeopathy treatment finds the thread of root cause of the triggers factors and treat accordingly, thus helps to bring back the equilibrium of the body’s immune system in a natural way to normal state thus may help to cure the auto immune diseases. For example a person of having psychological trauma in past life like death of any of his/her nearest or dearest one and that makes him/her to a depressive state and in the course of time develops irritability and after a few years develops psoriasis. So a homeopath takes the detail symptoms not only about the psoriasis symptoms of the person but his/her past life event of any psychological trauma and his/her present irritability nature and basing on all those symptoms the medicine is choose and if given can able to cure the disease. So there are not same set of medicines for a particular disease which can be repeated for every patient.
But at the same time the general management therapy whatever is required for the patient should be kept continued along with homeopathy treatment. You can contact me in my clinic at Contact no.–7303608800
or mail to docarun2@gmail.com

बढ़ती महामारियों के दौर में

  कोरोना वायरस के त्रासद अनुभव के बाद अब देश में एच 3 एन 2 इन्फ्लूएन्जा वायरस की चर्चा गर्म है। समाचार माध्यमों के अनुसार...