Monday, May 18, 2020

कोरोनासंक्रमण काल में महिलाएं


 कोरोनासंक्रमण के इस विकट काल में भी जहां कुछ बड़े देशों के बड़बोले राजनेता अपनी जनता को उसके भाग्य भरोसे छोड़कर अपनी ब्राडिंग में ही व्यस्त हैं वहीं कुछ छोटे देशों में महिला नेतृत्व अपनी कुशल प्रशासनिक क्षमता का उपयोग कर अपनी जनता को कोरोनासंक्रमण और इसके नुकसान से बचाने का सफल उदाहरण पेश कर रही हैं। लगभग एक ही समय में कोरोनासंक्रमण से प्रभावित होने वाले देशों में जहां के शासक केवल मन की बात करते रहे वहां की जनता कोरोना कहर को भुगत रही है लेकिन दूसरी तरफ जहां के शासक गम्भीर और संवेदनशील हैं वहां कोरोनासंक्रमण की स्थिति नियंत्रण में है। इस लेख में मैं ंकोरोनासंक्रमण से प्रभावित देशों के महिला नेतृत्व की पड़ताल करूंगा और यह भी समझने की कोशिश करूंगा कि इस संक्रमण काल में महिलाओं की क्या स्थिति है और इससे महिलाएं कितनी प्रभावित हैं।
अध्ययन और आंकड़े बता रहे हैं कि कई देश जहां महिलाएं शासन में हैं वहां कोरोनासंक्रमण से नुकसान तो हुआ लेकिन वह अन्य देशों की तुलना में काफी कम हुआ। न्यूजीलैंड, नार्वे, आइसलैंड, ताइवान, डेनमार्क, जर्मनी, बांग्लादेश, म्यांमार आदि देशों में न केवल मृत्युदर कम रहा बल्कि आर्थिक नुकसान भी अपेक्षाकृत कम हुआ। यदि हम भारतीय उपमहाद्वीप की ही बात करें तो बांग्लादेश और म्यामार में भारत और पाकिस्तान की तुलना में मृत्यु दर बहुत कम रही है। कोरोना वायरस से निबटने में दक्षिण कोरिया की तैयारी और सक्रियता को दुनिया ने भी सराहा लेकिन यह कम लोगों को ही पता होगा कि वहां संचारी रोग नियंत्रण की प्रमुख सुश्री जेयोंग यून क्येओंग हैं। इन्होंने ही टेस्ट ट्रेसिंग एवं कन्टेन का फार्मूला अपनाया था। इस महिला अधिकारी को ही यह श्रेय है कि एक समय में चीन के बाद सबसे अधिक सवंमित लोगों की संख्या के बाद भी वहां केवल 250 लोगों की ही मौत हुई। इन्होंने स्वयं प्रेस कान्फ्रेंस कर रोजाना लोगों की हिम्मत बढ़ाई और हालात से निबटने के तरीके बताए। इसी वजह से सुश्री क्येयोंग को अब लोग दुनिया की सर्वश्रेष्ठ ष्वायरस शिकारीष् के तौर पर जानने लगे हैं।
कोरोनासंक्रमण के इस अभूतपूर्व दौर में पश्चिमी मीडिया में तो महिलाओं के नेतृत्व क्षमता पर अनेक लेख प्रकाशित हो रहे हैं लेकिन भारत का गोदी मीडिया शुरू से ही जनता को बकवास खबरों में उलझाकर उन्हें सही सूचना से वंचित रख रहा है। वैसे देखें तो दुनिया में लगभग 7 या 8 फीसद देशों की प्रमुख महिलाएं हैं पर कोरोनासंक्रमण के इस दौर में उनकी दृष्टि, मानवीयता एवं प्रशासनिक क्षमता वास्तव में प्रेरणादायी है। यह अलग बात है कि कुछ देशों में दंभी नेताओं की महत्वाकांक्षा की वजह से वहां की जनता बदहाल, निराश और असहाय महसूस कर रही है। न्यूजीलैण्ड में सुश्री जेसिंदा आर्देन महिला प्रधानमंत्री हैं। उन्होंने अपनी सक्रियता से केवल 18 मौतें दर्ज कराकर बेहद कम समय में ही देश में लाकडाउन खोल दिया है। ऐसे ही डेनमार्क की महिला प्रधानमंत्री मेटे फ्रेदेरिक्सें ने शुरू में ही सख्ती से लाकडाउन किया और 370 मौतों के बाद कोरोनासंक्रमण को लगभग नियंत्रित कर दिया है। जर्मनी की चांसलर एंजेला मार्केल नें भी अपनी कुशल प्रशासनिक क्षमता की वजह से कोरोनासंक्रमण को नियंत्रित कर लिया है। आइसलैण्ड की प्रधानमंत्री कटरीन जकोब्सदोत्तिर ने न तो स्कूलों को बन्द किया और न ही सख्त पाबंदियां लगाईं। उन्होंने प्रत्येक नागरिक के लिए मुफ्त परीक्षण की व्यवस्था की। परिणामस्वरूप वहां केवल 1800 लोग संक्रमित हुए और मात्र 10 व्यक्तियों की मृत्यु हुई।
फिनलैण्ड में कोरोना के 4000 मामले दर्ज किए गए और यहां 140 लोगों की मृत्यु हुई। यह संख्या प्रति दस लाख आबादी के सन्दर्भ में पड़ोसी देश स्वीडन की तुलना में 10 फीसद भी नहीं हैं फिनलैण्ड की प्रधानमंत्री सेन्ना मरीन सम्भवतः दुनिया की सबसे कम उम्र की प्रधानमंत्री है जिन्हांेंने लोगों से सख्ती से लाकडाउन का पालन करवाया। भारत में यहां का मीडिया मोदी भक्ति में इस कदर डूबा है कि उसे देश की बहुसंख्य आबादी की बदहाली नहीं दिखती। आम लोगों का ध्यान भटकाने के लिए हिन्दू-मुस्लिम, पाकिस्तान का रोज राग अलापने वाला गोदी मीडिया अपने पड़ोसी देशों में कोरोनासंक्रमण और इससे उत्पन्न हालातों को सम्हालती महिला नेतृत्व को भला कहां देख पाएगा ? मैं बताता हूं, अपना पड़ोसी देश बांग्लादेश का नेतृत्व कर रहीं शेख हसीना के कुशल नेतृत्व ने 17 मई तक 298 मौत एवं 20,065 मामलों तक कोरोनासंक्रमण को नियंत्रित रखा। ऐसे ही म्यांमार की महिला प्रधानमंत्री आगं सां सूकी की नेतृत्व का ही कमाल है कि वहां 17 मई तक कोरोनासंक्रमण के कुल 181 मामले और 6 मौतों के बाद तबाही का आंकड़ा लगभग थमा हुआ है। ऐसे ही कैरीबियाई द्वीप समूह के बहुत छोटे देश सैंट मार्टिन की महिला प्रधानमंत्री सिल्बेरिया जकोब्स ने अपने कठोर निर्णय के बावजूद जनता को ज्यादा परेशान नहीं किया।
खैर, यह तो विभिन्न देशों के महिला शासकों की नेतृत्व क्षमता की बात थी लेकिन कोरोनासंक्रमण काल में महिलाओं की स्थिति कुल मिलाकर कैसी रही यह चर्चा भी जरूरी है। बीते दो महीने के आंकड़े यदि देखें तो कोरोना संक्रमण में पुरुषों की अपेक्षा महिलाएं कम संक्रमित हुई हैं लेकिन बावजूद इसके उनकी परेशानियां पुरुषों की तुलना में कहीं ज्यादा हैं। अमरीका में कोरोना से मरने वाली महिलाओं की तुलना में पुरुषों की संख्या दो गुनी से ज्यादा है। ऐसे ही पश्चिमी योरोप में कोरोना से मरने वाले 31 फीसद महिलाएं हैं तो पुरुष 69 फीसद हैं। यही स्थिति चीन और भारत की भी है। भारत में कोरोनासंक्रमण में स्त्री पुरुष का आंकड़ा अनुपात 3ः1 का है। यानि 73 फीसद पुरुषों की तुलना में 27 फीसद महिलाओं की ही मृत्यु हुई है। लगभग यही आंकड़ा संक्रमण का भी है। पुरुषों की अपेक्षा महिलाओं के कम संक्रमित होने के कारणों पर आक्सफोर्ड विश्वविद्यालय, लन्दन के प्रोफेसर फिसिप गोल्डर कहते हैं कि ‘‘महिलाओं में रोग प्रतिरोधक क्षमता पुरुषों की तुलना में बेहतर होती है। कोरोना वायरस या किसी भी वायरस संक्रमण में वायरस को सक्रिय होने के लिये खास तौर पर जिस प्रोटीन की आवश्यकता होती है वह हैं ‘‘एक्स क्रोमोजोम’’। महिलाओं में दो एक्स क्रोमोजोम होता है जो उनके इम्यून सिस्टम को मजबूत रखता है। महिलाओं में इम्यून कोशिका के सक्रिय होने की दर पुरुषों की तुलना में ज्यादा है। इसके अलावा महिलाओं का शरीर पुरुषों की तुलना में ज्यादा एन्टीबाडिज उत्पन्न करता है।
प्राकृतिक तौर पर महिलाएं पुरुषों की तुलना में भले ही ज्यादा स्वस्थ एवं मजबूत इम्यूनिटी वाली हों लेकिन सामाजिक और राजनीतिक तौर पर उन्हें दबाने और परेशान करने में पुरुष नेतृत्व एवं पुरुष वर्चस्व जरा भी पीछे नहीं है। कोरोनासंक्रमण की वजह से लगभग पूरी दुनिया लाकडाउन में है और सभी जगह आर्थिक गतिविधियां ठप्प पड़ी हैं। लोगों के रोजगार छिन रहे हैं। वैश्विक मंदी का दौर शुरू होने वाला है। इसमें महिलाओं की स्थिति पुरुषों की तुलना में ज्यादा खराब है। अमरीका में विगत मार्च महीने में ही करीब 10 लाख 40 हजार लोग बेरोजगार हो गए हैं। सन् 1975 के बाद अमरीका में बेरोजगारी का यह सबसे बड़ा आंकड़ा है। इसमें पुरुषों के मुकाबले महिलाओं की नौकरियां ज्यादा गई हैं। भारत में भी महिलाओं के रोजगार की स्थिति पुरुषों की तुलना में ज्यादा चिंताजनक है। वैसे भी पुरुषों को काम के बदले मिलने वाले पगार की तुलना में महिलाओं को भारत में 75 फीसद ही मिलता है जबकि अमरीका में यह 85 एवं आस्ट्रेलिया में 86 फीसद है।
महामारी या किसी भी बड़ी आपदा में पुरुषों की तुलना में महिलाओं की स्थिति पर लन्दन स्कूल ऑफ इकोनोमिक्स में राजनीति विज्ञान की प्रोफेसर क्लेयर वेन्हम का अध्ययन बताता है कि लगभग प्रत्येक आपदा में महिलाएं ही ज्यादा परेशानी झेलती हैं। प्रोफेसर वेन्हम ने इसके पहले जीका एवं इबोला महामारी के दौरान भी स्त्री-पुरुषों के हालात पर अध्ययन किया था। उनके अनुसार महामारी की वजह से लाकडाउन या घरों में ही रहने की बाध्यता का खामियाजा महिलाओं को ही ज्यादा उठाना पड़ता है। इस दौरान उन पर यौन ज्यादतियां और यौन हिंसा के ज्यादा मामले होते हैं। उन्हें गर्भपात या गर्भनिरोध का विकल्प भी आसानी से उपलब्ध नहीं हो पाता मसलन उन्हें अनचाहे गर्भ की स्थिति से गुजरना पड़ता है। महामारी या लाकडाउन के दौरान महिलाएं घरेलू हिंसा का भी सबसे ज्यादा शिकार होती हैं। अर्न्तराष्ट्रीय आकंडा देखें तो फ्रांस में लाकडाउन के पहले ही हफ्ते में घरेलू हिंसा के मामले एक तिहाई बढ़ गए जबकि आस्ट्रेलिया में महिलाओं पर हिंसा के मामले में 75 फीसद की वृद्धि हुई। अमरीका में महिलाओं पर हिंसा का आंकड़ा दो गुना है जबकि भारत में विगत कुछ वर्षों से प्रमाणिक आंकड़े जारी करने ही बन्द कर दिये गए हैं। फिर भी राष्ट्रीय महिला आयोग की वेवसाइट के अनुसार वर्ष 2019 की तुलना में अप्रैल 2020 में विगत एक महीने में घरेलू हिंसा, बलात्कार या बलात्कार की कोशिश, इज्जत से जीने का मामला, यौन हिंसा, यौन प्रताड़ना के मामलों में लगभग, दो गुना से ज्यादा की शिकायतें दर्ज हैं।
कोरोनासंक्रमण काल का सबसे खौफनाक पहलू यह है कि सरकारी हठधर्मिता, राजनीतिक नेतृत्व के दंभ और कुत्सित महत्वाकांक्षा के कारण लगभग 5 से 8 करोड़ लोगों को बेहद अपमानजनक व कष्टदायी परिस्थितियों में हजारों कि.मी. की यात्रा पैदल तय कर घर लौटना पड़ा। अचानक लॉकडाउन की घोषणा के बाद प्रवासी, श्रमिकों में जीवन और भोजन को लेकर उत्पन्न अनिश्चितता एवं आशंका ने उन्हें अपने गांव लौटने को विवश कर दिया।शहर के स्थापित मध्यवर्ग और सरकारों ने भोजन और किराये के नाम पर जब लूटना शुरू किया तो प्रवासी श्रमिकों को स्पष्ट हो गया कि गांव लौटना ही एकमात्र रास्ता है। फिर तो वे महीनों पैदल चल कर घर लौटने लगे। इसमें महिलाओं और बच्चों की हालत को देखना अपने आप में एक यातना से गुजरना है। सरकार, नेताओं और दलाल पत्रकारों की असहिष्णुता ने अमानवीयता के नये कीर्तिमान स्थापित किये। शासन व्यवस्था की बेशर्मी का आलम यह है कि पैदल घर लौटते महिलाएं, बच्चे व विकलांगों के साथ सरकारी आदेश पर भेदभाव, खाना नहीं देना, कहीं रुकने नहीं देने का पालन पुलिस और अधिकारियों ने किया। तर्क यह कि इन चलते-फिरते ‘‘कोरोना’’ से हमारे लोग न संक्रमित हो जाएं?
कोरोनासंक्रमण और लॉकडाउन ने समपन्न भारतीय समाज, राष्ट्र और हिन्दुत्व की औकात नाप ली है। ‘‘सबसे बड़े लोकतंत्र’’,‘‘सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी’’,‘‘सबसे लोकप्रिय नेता’’,‘‘सबका साथ, सबका विकास’’ जैसे जुमलों की हकीकत खोलकर रख देने वाले इस लम्बे लॉकडाउन ने शहरी मध्यम वर्ग के स्वार्थी चरित्र को भी बेनकाब कर दिया है।मातृशक्ति, सशक्त नारी, जननी जन्मभूमि जैसे शब्दों की चासनी में डूबे कथित हिन्दुत्थान के रामराज्य में औरतों की दुर्दशा ने स्पष्ट कर दिया है कि जुमलों के सहारे सत्ता तक पहुंचने वालों के राजनीति में प्रयुक्त एक-एक शब्द छल, कपट और झूठ के उस पासे की तरह हैं जिसके सहारे केवल लूट की जा सकती है। कोरोना संक्रमण काल में दलित व मुसलिम महिलाओं, आदिवासियों एवं श्रमिक महिलाओं ने जो ऐतिहासिक दुःख झेला है वो तो भुलाया नहीं जा सकता। यह सबक तो महिलाएं शायद ही भूल पाएं कि स्त्रियां पुरुषवादी सत्ता और पुरुष वर्ग के लिये भोग और शोषण का साधन मात्र हैं।

Monday, May 11, 2020

कोरोना संक्रमण का सामाजिक/राजनीतिक पहलू


 चीन के वुहान से जब यह खबर निकली कि कोरोना संक्रमण एक नया खतरनाक वायरस ;ब्व्टप्क्.19द्ध अब बेकाबू हो चला है तब महामारी/जैविक हथियार आदि का खेल खेलने की हैसियत रखने वाले कथित शक्तिशाली देश भी खुद को संभाल नहीं पाए। यह शायद उनका ‘‘ओवर कान्फिडेन्स’’ रहा होगा लेकिन इस वैश्विक सत्ता शीर्ष के पिछलग्गू देशों का नेतृत्व भी मस्त रहा। शायद इस उम्मीद में कि, ‘‘वो हैं न सब संभाल लेंगे।’’इस ओवर कान्फिडेन्स का खामियाजा विश्व शक्ति का घमण्ड पाले ‘‘अमरीका’’ को जितना उठाना पड़ा उससे पूरी दुनिया अचम्भित है। उसके छुटभैये देश की सरकारों का तो वही जानें लेकिन जनता न तो रो पा रही है और न ही खुल कर अपना विरोध दर्ज कर सक रही है। सरकार समर्थित मीडिया कोरोनासंक्रमण से निबटने के लिए सरकार की ऐसी वाहवाही कर रहा है मानो सरकार ने सचमुच ‘‘रामराज’’ स्थापित कर दिया हो। देश की अधिकांश जनता बदहाल, परेशान और गम में है। वह अपने गुस्से को भी प्रकट नहीं कर पा रही। बेहाली, भूख और भविष्य की चिंता में डूबी देश की 70 फीसद से ज्यादा आबादी खौफजदा है और किसी तरह लॉकडाउन के इन्तजार में है।
यह जानना बेहद जरूरी है कि कोरोनासंक्रमण के नाम पर देश में सामाजिक, राजनीतिक स्तर पर क्या क्या खेल हुए और उससे समाज और देश का कितना नुकसान हुआ। इस कोरोनासंक्रमण से हुए आर्थिक नुकसान के अनुमान पर मैं पहले लिख चुका हूं। यहां हम इसके सामाजिक, राजनीतिक पहलू पर चर्चा करेंगे। यह चर्चा इसलिए जरूरी है कि कोरोनासंक्रमण के दौर में जो राजनीतिक पहलकदमी हुई उसके दूरगामी असर होंगे और इसकी वजह से जो हालात उभरे उसने 70 साल पहले के अराजक असंतोष और प्राध्यापक प्रो. फैसल देव जी ने अंग्रेजी के एक अखबार ‘द हिन्दू’ में लिखे अपने लेख में बताया है कि जब हिंसा का इतिहास आजादी के विचार को अपने साए में ले लेता है तो या तो उसके नाम पर आजादी का बलिदान किया जा सकता है या उसे अधकचरा अथवा पिछड़ा बने रहने दिया जा सकता है। भारत का विभाजन साम्प्रदायिक निष्ठा की शक्ति का प्रदर्शन और उसी की जीत थी क्योंकि इसमें हिन्दू और मुसलमानों ने स्वेच्छा से अपने पड़ोसियों को त्याग दिया था। इस विभाजन में विश्वासघात बेहद अहम था। आज भी हिन्दु-मुसलमान, अमीर-गरीब के बीच विभाजन को सत्ता ने स्पष्ट कर दिया है। किसी भी देश में नागरिकों का पारस्परिक सम्बन्ध न तो प्रेम से परिभाषित होता है और न ही नफरत से।यह परिभाषित होता है उदासीनता ;।चंजीलद्ध से। सांस्कृतिक या धार्मिक एकता की तड़प और विश्वासघातियों का शिकार देश की एकता को महज जोखिम में ही डालेगा।
कोरोनासंक्रमण के प्रसार के रोकथाम के लिए 20 मार्च को प्रधानमंत्री ने एक दिन के लिये ‘‘जनता कर्फ्यू’’ के बहाने ‘‘लॉकडाउन’’ का जायजा ले लिया था। फिर 24 मार्च को अचानक देश के लम्बे समय के लिये ‘‘लॉकडाउन’’ की घोषणा कर दी गई। देश जानता है कि लगभग 30-40 करोड़ लोग देश में रोजगार और अन्य कारणों की वजह से अपने घर, गांव, शहर, प्रदेश, देश से बाहर रहते हैं। उन्हें अपने स्थान पर लौटने के लिये 5-6 दिन तो चाहिए ही था लेकिन महज चार घंटे की मोहलत देकर प्रधानमंत्री ने जो लॉकडाउन घोषित किया उसकी वजह से हजारों लोग विदेशों में फंसे रह गए। करोड़ों लोग देश के विभिन्न हिस्से में ही रोक दिये गये। कुछ लाख मजदूर ‘‘लाकडाउन’’ में जीवन की दुश्वारियों का अन्दाजा लगाकर पैदल ही हजार-डेढ़ हजार कि.मी. का सफर तय कर घर पहुंचने की जिद में निकल लिए। कुछ रास्ते में ही ढेर हो गए तो कुछ बीमार पड़ गए कुछ भूख से मरे तो कुछ ने आत्महत्या कर ली। 24 मार्च को लॉकडाउन की घोषणा के बाद विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्लूएचओ) ने भी अपनी सफाई दी की उसने भारत के इस लॉकडाउन के लिए कोई अपील या चेतावनी जारी नहीं की थी।
यह सवाल अभी भी जवाब के इन्तजार में है कि बिना किसी पूर्व तैयारी या विपक्ष से सलाह मशविरा के प्रधानमंत्री को ऐसी क्या जरूरत आ पड़ी कि अचानक देश में लॉकडाउन करना पड़ा ? आज न तो सशक्त विपक्ष है और न ही जनपक्षीय मजबूत मीडिया जो सरकार से यह पूछ सके कि एक अनाड़ी की तरह उसने लॉकडाउन की जानलेवा घोषणा क्यों की जिसमें सैंकड़ो जानें गईं और लाखों लोग पूरी तरह परेशान हुए। हाँ ‘‘लॉकडाउन’’ के दौरान, मध्य प्रदेश में कमलनाथ की सरकार गिराकर शिवराज चौहान को सत्ता सौंपना, पश्चिम बंगाल में ममता सरकार पर दबाव बनाना, महाराष्ट्र में उद्धव ठाकरे की विधानसभा सदस्यता जैसे कई राजनीतिक मामले हैं जिसमें भाजपा को एकतरफा फायदा था और भाजपा ने इस लॉकडाउन में यह फायदा लेने की पूरी कोशिश भी की।सीएस/एनआरसी के खिलाफ देश में चल रहे प्रतिरोध का प्रतीक बने शाहीन बाग के कुछ मुस्लिम चेहरों को कानूनी दांव में फंसा कर जेल में डालने, उ.पू. दिल्ली में हुई हिंसा में बड़े पैमाने पर मुसलमानों को नामजद करने आदि में दिल्ली पुलिस की अतिरिक्त सक्रियता से भी स्पष्ट है कि केन्द्र सरकार ने अपने ‘‘राजनीतिक मकसद’’ से भी लॉकडाउन का उपयोग किया।
लॉकडाउन का पहला चरण, फिर दूसरा चरण, फिर अब तीसरा चरण अगले हफ्ते समाप्त हो जाएगा लेकिन तब कोरोनासंक्रमण के मामले अपने पूरे शबाब में होंगे और सम्भवतः देश में संक्रमित लोगों का आंकड़ा 1 लाख को पार कर चुका होगा। लगभग 50 दिनों के ‘‘लॉकडाउन’’ के बाद इसे हटाना सरकार की मजबूरी होगी लेकिन तब यह सवाल भी मुखर होगा कि जिस महामारी से नियंत्रण के लिये देश में लॉकडाउन किया गया था वह तो और बड़े पैमने पर फैल गई। तब लॉकडाउन की विफलता पर पहल होगी और लॉकडाउन के दौरान किए गए सरकारी पहलू पर भी चर्चा होगी। इस पूरे दौर में देश की राजनीति में ‘‘कोरोनासंक्रमण बनाम मोदी’’ को ही मीडिया ने फोकस किया मगर हालात ने कुछ और तस्वीरें चेंप दी जैसे प्रवासी मजदूरों की बदहाली, उनके घर वापसी की त्रासदी, कई मजदूरों की घर लौटते मौत, कोरोना संक्रमण के लिए मुसलमानों के तबलीगी जमात को बदनाम करना, इस दौरान इलाज में मुसलमानों से भेदभाव आदि।
लॉकडाउन के दौरान मीडिया ने नरेन्द्र मोदी की राष्ट्रनायक वाली छवि बनाने की पुरजोर कोशिशें की लेकिन नागरिकों की परेशानियों से जुड़ी कई खबरों ने न केवल देश में बल्कि विदेशों में भी भारत में अल्पसंख्यकों से हो रहे भेदभाव और उन पर हुए हिंसक हमले को गम्भीरता से लिया मसलन देश की धर्मनिरपेक्षता को गहरा झटका लगा और जनता में सरकार की साम्प्रदायिक छवि ही उजागर हुई। सोशल मीडिया एवं मुख्यधारा की मीडिया के कुछ संस्थाओं ने सरकार पर यह सवाल भी दागे मगर कोई उत्तर नहीं मिला।
लॉकडाउन में कई सरकारी दावे भी कच्चे साबित हुए जैसे प्रभावित लोगों के भोजन, रहने व इन्तजाम के साथ उनके पुनर्वास व घर वापसी के लिए सरकारी पहल। राज्य सरकारों के दावे के बावजूद दूसरे राज्यों या जगहों पर फंसे लोगों को वापस उनके गृह प्रदेश में उनके घर तक लौटने के लिए इन्तजाम में भेदभाव साफ तौर पर दिखा। सम्पन्न मध्यवर्ग के लिए सरकारी इन्तजाम तो थे लेकिन गरीब मजदूरों को सामान्य से भी ज्यादा किराया चुकाकर अपनी जान जोखिम में डालकर लौटने का जोखिम उठाना पड़ा। बड़े पैमाने पर अव्यवस्था फैली और कोरोना संक्रमण का खतरा भी बढ़ा। सबसे ज्यादा तकलीफ मुसलमानों को उठानी पड़ी। उन्हें साम्प्रदायिक नफरत तो झेलनी ही पड़ी, उनके पवित्र रमजान के महीने में उनकी धार्मिक आजादी पर भी लॉकडाउन की बंदिशों का सामना करना पड़ा। इस दौरान सरकार से ज्यादा प्रशासन सक्रिय रहा। पुलिस एवं प्रशासन ने ही देश मेें कोरोना संक्रमण की गम्भीरता का निर्धारण किया मसलन रेड जोन, ओरेन्ज जोन एवं ग्रीन जोन में भी पूरी तरह के सवाल हैं। विभिन्न राजनीतिक दलों की प्रतिक्रिया है कि मुख्य मीडिया में भाजपा सहित राज्यों में कोरोनासंक्रमण की स्थिति और गैर भाजपा शासित राज्यों की कोरोनासंक्रमण की स्थिति में राजनीति साफ तौर पर देखी जा सकती है।
लॉकडाउन के दौरान जब कई प्रदेशों में फंसे मजदूरों के समक्ष रोटी और आजीविका का संकट गहराने लगा तो जैसे-तैसे उनके घर लौटने की मांग ने राज्य सरकारों को विवश किया कि वे रेल या बस चलाकर इन मजदूरों के घर वापसी की व्यवस्था करें। कर्नाटक राज्य में मजदूरों के ‘घर वापसी’ के निर्णय पर सरकार वहां के उद्योगपतियों के दबाव में पलटी मारनी पड़ी। ऐसे ही उत्तर प्रदेश की योगी सरकार ने राज्य में अगले तीन वर्ष के लिए श्रम कानून समाप्त कर दिए। उद्योगपतियों के दबाव में योगी आदित्यनाथ ने 38 श्रम नियमों में तीन वर्ष की अस्थाई छूट दे दी। भारत सरकार के गृह मंत्रालय के एक आदेश में यह भी कहा गया कि लॉकडाउन में प्रवासी मजदूरों का घर वापस लौटना ‘‘लॉकडाउन के नियमों का उल्लंघन’’ है। हालांकि सरकार ने अपील की कि लॉकडाउन की अवधि के दौरान मजदूरों के वेतन भत्ते न काटे जाएं और उन्हें किराये के मकानों में किराए की वजह से बेदखल न किया जाए लेकिन असल में यह एकतरफा ही मजदूर विरोधी दिख रहा है। 
कोरोना संक्रमण के दौरान भारत में जहां लगभग 50 दिनों से ज्यादा का लॉकडाउन भी वायरस के प्रसार को नहीं रोक पाया तो यह समझना मुश्किल नहीं है कि इस वायरस संक्रमण से बचने का जो नुस्खा ‘‘लॉकडाउन’’ के रूष्प में सुझाया गया था वह सवालों के घेरे में है? भारत की परिस्थितियां और यहां के लोगों की जीवनशैली में लगभग दो महीने का एकान्तवास कोई परिणाम दिखा पाएगा ऐसा मुझे तो भरोसा नहीं था। मैंने 5 अप्रैल को लिखे अपने लेख में यह स्पष्ट किया था कि कोरोनासंक्रमण से निबटने के लिए ‘‘लॉकडाउन’’ से इतर कुछ दूसरे उपाय सोचे जाने चाहिए मसलन रैपिड टेस्टिंग, प्रभावी सर्विलान्स एवं संक्रमण प्रभावित जगहों पर स्थानीय लॉकडाउन। कई देशों ने ऐसा किया भी। खुद चीन ने उपरोक्त तरीके से ही अपनी अर्थव्यवस्था भी बचाई और बीमारी से भी बढ़ा।
अब तो साफ है कि भारत में लॉकडाउन कोई खास असर नहीं दिखा पाया। हमने अन्तर्राष्ट्रीय तर्कों व नकल के आधार पर अपनी लॉकडाउन योजना बनाई। मसलन हमारा सांप भी न मरा और लाठी भी टूट गई। लॉकडाउन का यहां के उद्योग, व्यापार, मजदूर, कर्मचारी सब पर बुरा प्रभाव पड़ा। एक तरह से देश की अर्थव्यवस्था ही बैठ गई। अभी भी लॉकडाउन-3 के बाद संक्रमण का आंकड़ा तो बढ़ ही रहा है लेकिन मृत्यु दर कम होने की वजह से थोड़ी राहत महसूस की जा सकती है। सरकार को चाहिए कि वह लॉकडाउन की अपनी नीति की समीक्षा करेे और इसमें परिवर्तन लाए। इतना लम्बे समय तक लॉकडाउन देश को गहरे कुंए में ढकेल देगा। ऐसे में देश को भयावह आर्थिक और मानवीय तबाही से बचाना मुश्किल होगा।

बढ़ती महामारियों के दौर में

  कोरोना वायरस के त्रासद अनुभव के बाद अब देश में एच 3 एन 2 इन्फ्लूएन्जा वायरस की चर्चा गर्म है। समाचार माध्यमों के अनुसार...