Sunday, December 14, 2008

वैश्विकरण के दौर में स्वास्थ्य

वैश्वीकरण के दौर में स्वास्थ्य

डॉ. ए.के. अरुण

इन दिनों भारत ही नहीं लगभग पूरी दुनिया गम्भीर रोगों की चुनौतियों से जूझ रही है। प्रचलित पुराने रोगों के अलावे नये उभर रहे रोगों की जानलेवा किस्में बड़े पैमाने पर कहर बरपा रही हैं। इन रोगों के खात्मे के नाम पर चलाए जाने वाले सरकारी कार्यक्रमों की या तो दिशा बदल दी गई है या उनकी मियाद बढा दी गई हैं इन स्थितियों से विश्व स्वास्थ्य संगठन ;वि.स्वा.सं.द्ध भी सकते में है।
सन्‌ २००० से पहले के आर्थिक सर्वेक्षण की रिपोर्ट देखें तो ÷केन्द्र सरकार के २००० तक सबके लिये स्वास्थ्य' के तहत गरीबों के लिये स्वास्थ्य लक्ष्य की प्राप्ति हेतु ÷राष्ट्रीय बीमारी सहायता कोष' के गठन का संकल्प स्पष्ट था। यह कोष कुछ गम्भीर रोगों से पीड़ित उन लोगों की मदद के लिये था जो गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन कर रहे हैं। विभिन्न संक्रामक रोगों के रोकथाम, नियंत्रण और उन्मूलन के लिये एक व्यापक रोग निगरानी प्रणाली विकसित किये जाने की योजना थी। भारतीय औषधि प्रणाली एवं होमियोपैथी ;आई.एस.एम.एण्ड एच.द्ध विभाग को बढ़ावा देने का संकल्प भी अधूरा ही है।
÷सबके लिये स्वास्थ्य' और ÷गरीबों के लिये स्वास्थ्य' की जगह अब चुनिन्दा प्राथमिक स्वास्थ्य सेवा ;एस.पी.एच.सी.द्ध ने ले ली है। पहले स्वास्थ्य का जिम्मा बहुत हद तक सरकार के पास था। अब इसे निजी क्षेत्र के हवाले कर दिया गया है। निजी बीमा कम्पनियां एवं बहुराष्ट्रीय कंपनियां इसके लिये धन उपलब्ध करा रही है। भारत में स्वास्थ्य से जुड़े मुद्दे कभी आर्थिक सुधारों के केन्द्र में नहीं रहे हैं। बल्कि इन्हें तो सुधारों के मुख्य लक्ष्य, निवेश और विकास की राह में बाधक माना जाता है। हम देख रहे हैं कि १९९१ के बाद रोगों में चल रहे आर्थिक सुधारों का जन स्वास्थ्य पर गहरा असर पड़ रहा है।
भारत ने १९७८ में अल्माअता घोषणापत्र पर हस्ताक्षर कर ÷वर्ष २००० तक सबके लिये स्वास्थ्य' लक्ष्य पाने की प्रतिब(त्ता जताई थी। १९८१ में आई.सी.एस.एस.आर. और आई.सी.एम.आर के संयुक्त पैनल ने ÷सबके लिये स्वास्थ्य-एक वैकल्पिक रणनीति' शीर्षक से एक विस्तृत रिपोर्ट तैयार की थी। १९८३ में भारतीय संसद ने ÷राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति' को पारित कर इस लक्ष्य को प्राप्त करने का संकल्प लिया था, लेकिन आज ८ वर्ष बाद भी आम लोगों के स्वास्थ्य की स्थिति क्या है? किसी से छिपा नहीं है।
भारत में अब भी संक्रामक रोगों से मरने वालों की संख्या बहुत अधिक है। टी.बी. संक्रमण की वार्षिक दर आज भी १.५ फीसद से ज्यादा है। विश्व औसत से यह दर लगभग दो गुनी है। भारत में प्रत्येक वर्ष करीब १५ करोड़ टी.बी. रोगियों की पहचान होती है। इनमें से सालाना ३ लाख अकाल मृत्यु के शिकार होते हैं। यहां कुष्ट रोगियों की संख्या १० लाख से भी ज्यादा है। यह दुनिया के कुल कुष्ट रोगियों की संख्या का एक तिहाई है। प्रत्येक वर्ष दस्त से ही मरने वाले बच्चों की संख्या लगभग ५ लाख है।
पोलियो के उन्मूलन कार्यक्रम को ही देखें तो १९९५ से चल रहे इस कार्यक्रम पर काफी खर्च करने के बाद भी पोलियो से मुक्ति की घोषणा करने की स्थिति नहीं बनी है। केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय के आंकड़े के अनुसार पोलियो उन्मूलन अभियान पर प्रत्येक वर्ष ११०० करोड़ रुपये खर्च होते हैं। लेकिन नीतिगत खामियों की वजह से पोलियो खत्म होने का नाम नहीं ले रहा।
एच.आई.वी./एड्स को लेकर भारत में चर्चित विवाद आंकड़ों, उसके नाम पर हो रहे खर्च और एड्स रोकथाम के सुझावों आदि को लेकर बना ही हुआ है। प्रत्येक वर्ष मलेरिया, डेंगू और कालाजार विकराल रूप धारण करता है। हजारों जानें जाती हैं लेकिन हम अपनी स्वास्थ्य सम्बन्धी सोंच को जनपक्षीय नहीं बना पा रहे। मलेरिया १९४७ में भारत में भयानक रूप में था।७.५ करोड़ प्रभावित लोगों में आठ लाख लोग मौत के शिकार हुए थे। सन्‌ १९६४ तक आते आते यह नियंत्रित हो चला था लेकिन अब फिर मलेरिया घातक रूप से फैल रहा है। इतना ही नहीं मलेरिया की जानलेवा प्रजाति फैल्सिफेरम मलेरिया' के मामले बढ़ रहे हैं। कालाजार भी १९६० तक खत्म हो चुका था। लेकिन इधर कालाजार के मामले ७७ हजार से बढ़कर ज्यादा हो गए हैं और मौतों का आंकड़ा भी बढ़ा है।भूमण्डलीकरण के दौर में ये स्थितियां और विकट हुई हैं। आज देश में १३ से २० करोड़ ऐसे लोग हैं जो अपना इलाज पैसे देकर करा सकने की स्थिति में नहीं हैं।
विश्व स्वास्थ्य संगठन की १९९५ की वार्षिक रिपोर्ट पर गौर करें। इस रिपोर्ट में अत्यधिक गरीबी के अर्न्तराष्ट्रीय वर्गीकरण में एक रोग माना गया है। इसे जेड ५९.५ का नाम दिया गया है। रिपोर्ट में कहा गया है कि गरीबी तेजी से बढ़ रही है और इसके कारण विभिन्न देशों और एक ही देश के लोगों के बीच दूरी भी बढ़ती जा रही है। इससे स्वास्थ्य समस्याएं और गम्भीर हुई हैं। एक आंकड़ा के अनुसार भारत में ५ वर्ष से कम उम्र के बच्चों में प्रत्येक तीन मेंसे दो बच्चे कुपोषित हैं। गिनती में यह संख्या सात करोड़ है। विश्व में १७ प्रतिशत कुपोषित बच्चों में से ४० प्रतिशतबच्चे तो भारतीय हैं।
इधर कुछ वर्षों से बढ़ती मंहगाई, सरकर की फरेबी नीतियों की वजह से महाराष्ट्र, उड़ीसा, बुंदेलखण्ड, बिहार, झारखण्ड आदि में भूखमरी के कारण हुई मौत की खबरें आई हैं। किसानों के बड़े पैमाने पर आत्महत्या की खबर जग जाहिर है। स्पष्ट है कि पोषण और पर्याप्त भोजन के अभाव में रोग संक्रमण और संक्रामक रोगों का खतरा तो
बनेगा ही। भारत सरकार के स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय के नवीनतम आंकड़े के अनुसार खून ;हिमोग्लोबीनद्ध
की कमी ;एनिमियाद्ध से प्रभावित महिलाओं की संख्या लगभग ७० प्रतिशत है। स्वास्थ्य के क्षेत्र में सरकार की मौजूदा नीतियों का अवलोकन करें तो यह स्पष्ट दिखता है कि सरकार की प्राथमिकतास्वास्थ्य के क्षेत्र में निजी पूंजी को आकर्षित करने सरकारी सेवाओं के माध्यम से ही आमदनी बढ़ाने व बुनियादी स्वास्थ्य सेवाओं/संस्थाओं को स्वैच्छिक व निजी संस्थाओं के हवाले कर देने की ओर साफ दिख रही है। सरकार का यह नया और आधुनिक दृष्टिकोण जाहिर है संविधान
के संकल्प ÷÷सबको मुफ्त स्वास्थ्य सेवा उपलब्ध कराने'' के एकदम प्रतिकूल है। संविधान की शपथ को भुलाकर अपने कर्तव्यों से मुंह मोड़ना सरकार ने उदारीकरण से ही सीखा है, यह साफ देखा जा सकता है। जहां स्वास्थ्य सेवाओं में मुनाफा ढूंढा जाने लगे और ÷÷खर्च'' को ÷÷निवेश'' समझा जाने लगे वहां सामाजिक और नैतिक दायित्वों की अहमियत नहीं रह जाती है। सेवा के नाम पर लगभग मुफ्त की जमीन पर खड़े पांच सितारा अस्पतालों को अब
शेयर मार्केट में देख सकते हैं।
आर्थिक सुधारों का कमजोर वर्ग पर नकारात्मक प्रभाव पड़ा है। सन्‌ २००० के बाद भी ६ से २४ माह आयु के बच्चों और गर्भवती महिलाओं में कुपोषण की समस्या बढ़ी ही है। कुछ प्रमुख राज्यों ;आन्ध्र प्रदेश, गुजराज, हरियाणा, कर्नाटक, केरल, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, उड़ीसा, पंजाब, राजस्थानद्ध में नवजात शिशु मृत्यु दर भी बढ़ा है। ;स्रोत १-ए.बोस, टाइम्स ऑफ इण्डिया, अप्रैल २५-२००१द्ध भारतीय खाद्य निगम के गोदाम में पड़े ४ करोड़ ५७ लाख टन खाद्यान्न बेकार हो गए लेकिन कई राज्यों में सूखा पीड़ितों तक यह अनाज मंडी नहीं पहुंचा। सरकार ने इस भन्डारित खाद्यान्न का एक बड़ा हिस्सा कम दर पर निर्यात किया। इस बाबत पी.यू.सी.एल. ने सर्वोच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका भी दायर की थी। भारत की वस्तु स्थिति यह है कि यहां १० एकड़ जमीन का स्वामी भी अपनी रोजाना भोजन आवश्यकता की २२८७ कि. कैलोरी प्राप्त नहीं कर पाता। इससे नीचे के वर्ग की हालत तो और बदतर है।
विडम्बना यह है कि सरकार ने कल्याणकारी सोंच को त्याग कर विश्व व्यापार संगठन एवं विश्व स्वास्थ्य संगठन के मार्ग पर चलना शुरू कर दिया है। वि.स्वा.सं. ने अपनी वार्षिक रिपोर्ट १९९७ में ही साफ कर दिया था कि निजी क्षेत्रअब अपनी सामाजिक जिम्मेवारियों को पहचानने लगे हैं। वि.स्वा.सं. व वि.व्या.सं. के इस दर्शन का नतीजा हम देख रहे हैं। स्वास्थ्य सेवा का क्षेत्र लगभग पूरी तरह निजी क्षेत्र के हवाले कर दिया गया है। सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा अब प्राथमिक स्तर की स्वास्थ्य सेवा बनकर रह गई है। इन सेवाओं में अब मुख्यतः परिवार कल्याण, एड्स, मलेरिया, डेंगू आदि रोगों के नियंत्रण का कार्यक्रम ही शामिल है।
यहां विश्व स्वास्थ्य संगठन जैसी विश्वसनीय स्वास्थ्य संस्था की भूमिका पर विचार करना जरूरी है। दर असल विगतढाई दसक से अमरीका और अन्य ओ.ई.सी.डी. देशों ने संयुक्त राष्ट्र संस्थाओं की सहायता से अपना हाथ खींच
लिया है। इससे संयुक्त राष्ट्र संस्थाएं आर्थिक दबाव में हैं। जाहिर है वि.स्वा.सं. वित्तीय जरूरत के लिये निजी क्षेत्र अथवा बाजार पर निर्भर है। देखा जा सकता है कि सन्‌ १९९५ के बाद वि.स्वा.सं. ने विश्व बैंक की नीतियों को आगे बढ़ाने वाली एजेन्सी की तरह काम करना शुरू कर दिया है। अपने बजट की शून्य वृ(ि स्थिति को बचाने के लिये अमरीका की चिरौरी करने का इसके पास यही एक तरीका था। स्पष्ट है वि.स्वा.सं. अब विश्व बैंक के सुर में गाने लगा है।
भारत में मुक्त व्यापार व्यवस्था का लाभ उठा कर बहुराष्ट्रीय कम्पनियों ने तीसरी दुनिया के देशों में असुरिक्षत और पुराने दवाओं, संक्रमति खाद्य पदार्थों का अम्बार लगा दिया है। इस खेल में हमारी सरकार इनकी जूनियर पार्टनर बनगई है। बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को वि.स्वा.सं. और संयुक्त राष्ट्र द्वारा मान्यता मिलने से दूसरों के साथ मिलकर ये संस्थाएं न्यूनतम जोखिम उठाकर अपने निवेश का भरपूर लाभ ले रही हैं। संक्रामक रोगों की रोकथाम के अर्न्तराष्ट्रीय प्रयासों को बढ+ावा देने के लिये अर्न्तराष्ट्रीय वाणिज्य आयोग ;आई.सी.सी.द्धके नेतृत्व में १३० देशों में ७००० से ज्यादा वाणिज्य कम्पनियों ने सहयोग किया है। पूरी दुनियां में इस आयोग की विश्वसनियता स्थापित करने के बाद अब साफ देखा जा सकता है कि यह कैसे बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के हितों को आगे बढ़ा रहा है।
नये अनुसंधान और अध्ययन यह बताते हैं कि विकास प्रक्रिया, कृषि एवं उद्योग के तौर तरीके कैसे रोगों से जुड़ रहे हैं। मलेरिया, दमा, एड्स टी.बी. आदि रोग उदारीकरण के दौर में बढ़ रहे हैं। विश्व निजी सार्वजनिक भागीदारी ;जी.पी.पी.पी.द्ध का तकाजा यह है कि स्वास्थ्य जैसे जन कल्याण क्षेत्र अब विश्व व्यापार संगठन के दायरे में है। विकासशील देशों पर विकसित देशों का दबाव सहज देखा जा सकता है। जी.पी.पी.पी. बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के लिये उपकरण सि( हो रहा है। उदाहरण के लिये इस व्यवस्था के तहत ÷मलेरिया के लिये दवा' अभियान में प्रतिवर्ष ३ करोड़ अमरीकी डालर जमा करने का लक्ष्य है लेकिन सच यह है कि इसका ज्यादा हिस्सा सार्वजनिक कोष से आएगा। कम्पनियों ने तो हवाई वायदे भर किये हैं। एक और उदाहरण देखें, अमरीकी दवा कम्पनी ÷मायर स्क्वि ने १८३ अरबअमरीकी डालर दवा बेच कर कमाया लेकिन जी.पी.पी.पी. के तहत पिछले पांच वर्ष में महज १० करोड़ अमरीकी डालर का अनुदान दिया। स्पष्ट है, जी.पी.पी.पी. बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की शक्ति का मुख्य स्रोत बन गया है और अब ये कम्पनियां तीसरी दुनियां के देशों की राष्ट्रीय पूंजी को निगलने में लग गई हैं। विश्व बैंक भी अपनी रिपोर्ट में स्वीकार करता है कि अधिकांश देशों में गरीब देशों की स्वास्थ्य स्थिति बहुत खराब है।
इस पृष्ठभूमि में आम लोगों के सेहत और लोगों के स्वास्थ्य के प्रति सरकार की जवाबदेही की बात बेमानी लगती है लेकिन जनहित की बात करने वाले जनसमूह और वैकल्पिक धारा के जिम्मेवार लोगों, लोगों के संगठन के समक्ष स्थिति का ब्योरा रखकर एक व्यापक पहल और प्रक्रिया की उम्मीद करना जरूरी है। स्वास्थ्य, शिक्षा और सेवा के दूसरे क्षेत्रों पर कम्पनियों की बुरी नजर का दुःपरिणाम हर अमीर-गरीब को भुगतना होगा। समाजवाद को अप्रसांगिक मान चुका साम्राज्यवाद अब जब कभी लड़खड़ाने लगता है तो लोग फिर समाजवाद की तरफ देखने लगते हैं।स्वास्थ्य जैसा जरूरी क्षेत्र सीधे जीवन से जुड़ा है, उस पर बाजार का प्रभुत्व कम हो ऐसे प्रयास की जरूरत है।

Tuesday, October 14, 2008

क्यों बढ़ रही है बीमारियाँ



क्यों बढ़ रही हैं बीमारियां

डॉ. ए.के. अरुण
इन दिनों भारत ही नहीं लगभग पूरी दुनियां गम्भीर रोगों की चुनौतियों से जूझ रही है। प्रचलित पुराने रोगों के अलावे नये उभरे रोगों की जानलेवा किस्में बड़े पैमाने पर कहर बरपाने की पिफराक में है। रोगों के खात्मे के नाम पर चलाए जाने वाले सरकारी कार्यक्रमों की या तो दिशा बदल दी गई है या उनकी मियाद बढ़ा दी गई है। दुनिया के स्तर पर सेहत की चौकसी करने वाला विश्व स्वास्थ्य संगठन ;वि.स्वा.सं.द्ध भी सकते में है। संगठन ने अभी बीते वर्ष २००७ को ÷÷अन्तराष्ट्रीय स्वास्थ्य सुरक्षा वर्ष'' के रूप में मनाया और दुनिया को आगाह किया कि ÷÷घातक रोगों की चुनौतियों ने देशों की सीमाएं तोड़कर कहर बरपाने की तैयारी कर ली है। इसलिये सभी देश अपना स्वास्थ्य पर बजट और बढ़ाएं तथा आपसी अर्न्तराष्ट्रीय सहयोग को और मजबूत करें।'' वि.स्वा.सं. की वर्तमान महानिदेशक डॉ. मारग्रेट चान की यह चिन्ता कोई नई नहीं है वल्कि संगठन के पूर्व महानिदेशक डॉ. हिरोशी नाकाजिमा ने भी माना था कि, ÷÷स्वास्थ्य के क्षेत्रा में तकनीकी विकास के अनेक कीर्तिमानों के बाजवूद हम विभिन्न जानलेवा रोगों की गिरफ्रत में पफंस चुके हैं। दुनियां का कोई भी गरीब या अमीर देश इस संकट से महपफूज नहीं है।''
प्रचलित बीमारियों को ही लें तो वर्षों तक उनके उन्मूलन का अभियान चलाने के बावजूद भी रोग की भयावहता कम नहीं हुई। मलेरिया, टी.बी., डेंगू, कालाजार, मिजिल्स, कालरा लगभग सभी रोग पहले से और खतरनाक ही हुए हैं। भारत में १९९५ से पोलियो को जड़ से उखाड़ पफेंकने का अभियान चल रहा है। इसके विज्ञापन में महत्वपूर्ण नेता से अभिनेता तक नजर आते हैं। वि.स्वा.सं. की पहल पर सन्‌ २००० तक पोलियों के विरु( चली इस लड़ाई को ÷अन्तिम लड़ाई' का नाम दिया गया। पल्स पोलियों नामक इस अभियान में ५ वर्ष तक की उम्र के बच्चों को ६ खुराकें एक महीने के अन्तराल पर पिलाई गई। इसमें ११ राज्यों के कोई १६ करोड़ बच्चों को शामिल किया गया लेकिन तब भी पोलियो के विरु( प्रचारित अन्तिम यु( ÷अन्तिम' नहीं बन पाया। बीते ७ वर्षों में हमने इसकी कीमत कोई ९१८२ करोड़ रुपये चुकाई।
यदि रोग उन्मूलन के नाम पर केन्द्र सरकार का बजट देखें तो वर्ष २००६-०७ में पल्स पोलियों के लिये १००४ करोड़ रुपये, अन्य टीकाकरण के लिये ३२७ करोड़ रुपये, क्षय रोग उन्मूलन के लिये १८४ करोड़ का प्रावधन था लेकिन रोगों की स्थिति और बदतर ही हुई है। इन दिनों हमारा देश कई जानलेवा बीमारियों की गिरफ्रत में है। डेंगू, इन्सेफ्रलाइटिस, कालाजार, मलेरिया, मेनिन्जोकाक्सीमिया आदि घातक रोग लगभग सभी प्रदेश में रोजाना किसी न किसी की जान ले रहे हैं। टी.बी. पहले से ज्यादा घातक होकर ÷मल्टी ड्रग्स रेसिस्टेन्स टयूबरकुलोसिस' ;एम.डी.आर. टी.बी.द्ध के रूप में उभरा है। देश के बाढ़ प्रभावित क्षेत्रा मलेरिया, कालाजार एवं कॉलरा के चपेट में हैं। बिहार और उड़ीसा में सांप काटने से होने वाले मौत की खबरें आ रही हैं, तो मध्य प्रदेश, राजस्थान में मलेरिया का आतंक है। उत्तर प्रदेश के गोरखपुर व आसपास के क्षेत्रा में एक रहस्यमय दीमागी बुखार सैकड़ों बच्चों की जान ले चुका है। डाक्टर चिकित्सा उपकरण के अभाव में रोग का निदान भी नहीं कर पा रहे हैं। यह स्थिति तो ÷परजीवी' से होने वाले रोगों की है।
वि.स्वा.सं. का वर्ष २००७ का तथ्य पत्रा देखें तो उच्च आय वाले ;अमीरद्ध देशों में सबसे ज्यादा मौतें हृदय रोग, मध्ुमेह, उच्च रक्तचाप, श्वांस समवन्ध्ी रोग आदि से हो रही है। ये ऐसे रोग हैं जिन्हें महज जीवन शैली में बदलाव लाकर रोका जा सकता है। मध्यम आय वाले देशों में भी सर्वाध्कि मौतें इन्हीं रोगों से हो रही हैं। लगभग यही आंकड़ा निम्न आय वाले देशों का भी है। सन्‌ २००२ में उक्त रोगों से दुनिया में कोई ५ करोड़ ७० लाख लोगों की मौतें हुई। इनमें ७२ लाख लोग हृदय रोग तथा ५५ लाख हृदयघात से मरे। वजह ध्ूम्रपान तथा मोटर गाड़ियों से उत्पन्न प्रदूषण बताया गया। तथ्य पत्रा कहता है कि निम्न तथा मध्यम आय वाले देशों में लगभग एक करोड़ ५० लाख बच्चे तो ५ वर्ष की आयु से पहले ही मर जाते हैं, जिनमें से ९८ प्रतिशत को उपयुक्त चिकित्सा सुविध देकर बचाया जा सकता है।
भारत में मलेरिया, कालाजार, डेंगू आदि के खत्म न होने के पीछे के प्रमुख कारण बढ़ता शहरीकरण, बड़े बांध् एवं बड़े पैमाने पर विस्थापन है। एक अन्य महत्वपूर्ण कारण अमीरी और गरीबी के बीच बढ़ती खाई भी है। भारत सरकार द्वारा असंगठित क्षेत्रा के उद्यमों की जांच के लिये बनाए गए राष्ट्रीय कमीशन की रिपोर्ट के अनुसार देश के ८३.६ करोड़ यानी ७७ प्रतिशत लोग २० रुपये प्रतिदिन से कम पर अपना गुजारा करते हैं। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन का २००४-२००५ की रिपोर्ट देखें तो ग्रामीण भारत में प्रति व्यक्ति दैनिक उपयोग खर्च १९ रुपये से कम था जबकि शहरी लोगों का औसत दैनिक खर्च ३० रुपये के करीब पाया गया। शर्मनाक बात तो यह है कि आज भी गांव के १० प्रतिशत लोग अपनी जरूरतें पूरी करने के लिये प्रतिदिन महज ९ रुपये ही खर्च कर पाते हैं, जबकि २३ प्रतिशत मध्यम आय वर्ग के १५ से २१ वर्ष की उम्र के बच्चे सालाना १.८७ लाख करोड़ रुपये ;९०० रुपये प्रति सप्ताहद्ध अपनी मर्जी से केवल मौज मस्ती पर खर्च कर यों तो वि.स्वा.सं. ने भी १९९५ की अपनी वार्षिक रिपोर्ट में अत्यध्कि गरीबी को अर्न्तराष्ट्रीय वर्गीकरण में एक बीमारी माना है। संगठन ने इसे ÷जेड ५९.५ नाम दिया है। और चेतावनी भी दी है कि इसके कारण स्वास्थ्य समस्याएं और गम्भीर होंगी, लेकिन इस पर किसी ने ध्यान नहीं दिया। अब स्थिति विकट होती जा रही है तो भी स्वास्थ्य महकमों के आला अध्किारी और योजनाकार खामोश है।
जीवन के हर क्षेत्रा में बाजार के बढ़ते दखल ने समस्या को और विकट बना दिया है। राष्ट्रीय अर्न्तराष्ट्रीय स्तर पर कई नियामक संस्थाओं पर बाजार का पूरा प्रभाव है। समाज का हर प्रभावशाली वर्ग उपभोक्तावाद की गिरफ्रत में है। उदाहरण के लिये चिकित्सकों की सबसे प्रतिष्ठित संस्था इन्डियन मेडिकल एसोसिएशन पेप्सीकोला जैसी कम्पनी से अनुबंध्ति है जबकि इण्डियन डेन्टल एसोसिएशन पर कोलगेट सरीखी बहुराष्ट्रीय कम्पनी का प्रभाव है।
रोग उन्मूलन के नाम पर ÷राष्ट्रीय टीकारण कार्यक्रम भी बाजार की गिरफ्रत में है। इस कार्यक्रम में पिफलहाल ६ जान लेवा बीमारियों के लिये टीका लगाया जाता है। ये हैं टी.वी., खसरा, डिप्थेरिया, कालीखांसी, टिटनेस तथा पोलियो। अब इस सूची में अनेक नये टीके भी जोड़े जा रहे हैं। इनमें हिपेटाइटिस बी.,एच. एन्फ्रलूएन्जा बी, चिकेनपाक्स, एम.एम.आर. तथा न्यूयोमोकाक्स। इन सबकी संख्या ११ होती है। निजी तौर पर ये टीके लगभग १५ हजार रुपये में लगते हैं। अब बाजार का दबाव है कि इन टीके को ÷राष्ट्रीय कार्यक्रम' में शामिल कर लिया जाए।
भारत जैसी तीसरी दुनिया के देशों में टीकाकरण को बढ़ावा देने और नये टीकों के प्रयोग को सरकारी कार्यक्रम में शामिल कराने के लिये एक अर्न्तराष्ट्रीय संस्था ग्लोवल एलाएन्स पफॉर वैक्सिन इनिसियेटिव ;गावीद्ध खड़ी की गई है। इसका मुख्यालय भी वि.स्वा.सं. के जिनेवा स्थित भवन में है। इसके लिये सदस्य देशों ने मिलकर २० हजार करोड़ रुपये का इन्तजाम किया है। वाल चिकित्सकों के अखिल भारतीय संगठन ÷इण्डियन एकेडमी आपफ पीडियाट्रिक्स' की मदद से न्यूमोकाक्स वैक्सीन को राष्ट्रीय टीकाकरण कार्यक्रम में शामिल कराने का तेज प्रयास जारी है। लगभग ३,५०० रु. कीमत का यह टीका १० हजार करोड़ से भी ज्यादा का बाजार खड़ा करेगा। यहां यह बताना भी जरूरी है कि इन टीकों की प्रमाणिकता अभी स्थापित नहीं हुई है।
यह सर्वविदित तथ्य है कि दवा निर्माता कम्पनियां चिकित्सकों की प्रभावशाली संस्थाओं का इस्तेमाल कर अपना प्रोडक्ट बेचती हैं। इन पर नियंत्राण के सरकारी अध्किार ध्ीरे ध्ीरे खत्म किये जा रहे हैं। सवाल यह उठता है कि बढ़ती बीमारियों की वजह आखिर है क्या? बढ़ता उपभोक्तावाद, बढ़ती समृध्,ि बढ़ती तकनीक तथा रोगों के प्रति हमारा मूर्खतापूर्ण रवैया या कुछ और?

Friday, October 10, 2008

होमेओपथिक रोगनिरोधी दवा


Homœopathic prophylaxis

Law of Similars excels in the power to cure, it excels more forcibly and certainly in the art of disease prevention. We can call it homœopathic prophylaxis. it simply protects our body surely and gently. Homœopathic prophylaxis never causes anaphylaxis or shock, never results in secondary infection, never leaves in its wake serum or vaccine disease or any other severe reaction. The homœopathic law provides specific remedies for specific disease condition, such as :-

Belladonna for scarlet fever, Diphtherinum and Merc. cyan. for diphtheria, Carb. veg. and Cupr. met. for whooping cough. Lath sat and Gels for poliomyelitis, Variolinum for small pox, etc., it reaches a much higher degree of efficiency when the epidemic remedy is given for protection than is obtained by the disease specific.In diphtheria protection the remedy Diphterinum is the leading prophylactic, but in some severe epidemics of the past Merc. cyanide has proved to be very effective as well as curative in this disease. In whooping cough Carb. veg. has been a reliable protection in hundreds of cases of young children and infants. But some epidemics require like Drosera and Cup. met. and then they afford the most certain protection. The remedy Lath. sat. has given the most certain protection in thousands of cases exposed to polio through many epidemics over the last forty years. It easily heads the list of homœopathic remedies for protection against that dreaded disease. This remedy has the same affinity to the same centres in the spinal cord and brain as the polio virus and acts as the-most perfect antidote both for protection and cure. This single instrument in Homœopathy citadel of power should command world-wide recognition In diphtheria protection the remedy Diphterinum is the leading prophylactic, but in some severe epidemics of the past Merc. cyanide has proved to be very effective as well as curative in this disease. In whooping cough Carb. veg. has been a reliable protection in hundreds of cases of young children and infants. But some epidemics require like Drosera and Cup. met. and then they afford the most certain protection. The remedy Lath. sat. has given the most certain protection in thousands of cases exposed to polio through many epidemics over the last forty years. It easily heads the list of homœopathic remedies for protection against that dreaded disease. This remedy has the same affinity to the same centres in the spinal cord and brain as the polio virus and acts as the-most perfect antidote both for protection and cure. This single instrument in Homœopathy citadel of power should command world-wide recognition both from the medical profession and the laity at large. Against small pox Variolinum is an effective weapon, but we have others that have proved curative and effective prophylactic agents in many epidemics of the past, such as Sarracenia purpurea. Ant. tart., Vaccinimum and Malandrinum, Ant. tart., in the third trituration rubbed on an abrasion of the skin produces a typical vaccination scar. Malandrinum is the most potent antidote to the dangerous Septicemia sometimes following vaccination and Thuja is the best antidote against the chronic effects following vaccination.

Warning :- It is an article of awareness. Pl. consult your Homoeopathic Physician before taking Homoeopathic Medicine.

STRESS AND HOMOEOPATHY


STRESS AND HOMOEOPATHY
A.K.ARUN, B.H.M.S; L.M.H.I (Geneva)*

1 INTRODUCTION Stress, an unpleasant state of emotional and physiological arousal that people experience in situations that they perceive as dangerous or threatening to their well-being. The word stress means different things to different people. Some people define stress as events or situations that cause them to feel tension, pressure, or negative emotions such as anxiety and anger. Others see the stress as the response to these situations. Stress is a common experience. We may feel stress when we are very busy, have important deadlines to meet, or have too little time to finish all of our tasks. Often people experience stress because of problems at work or in social relationships, such as a poor evaluation by a supervisor or an argument with a friend. Some people may be particularly vulnerable to stress in situations involving the threat of failure or personal humiliation. Others have extreme fears of objects or things associated with physical threats-such as snakes, illness, storms, or flying in an airplane and become stressed when they encounter or think about these perceived threats. Major life events, such as the death of a loved one, can also cause severe stress. Stress has both positive and negative effects. Stress is a normal, adaptive reaction to threat. It signals danger and prepares us to take defensive action. Fear of things that pose realistic threats motivates us to deal with them or avoid them. Stress also motivates us to achieve and fuels creativity. Although stress may hinder performance on difficult tasks, moderate stress seems to improve motivation and performance on less complex tasks. In personal relationships, stress often leads to less cooperation and more aggression.
If not managed appropriately, stress can lead to serious problems. Exposure to chronic stress can contribute to both physical illnesses, such as heart disease, and mental illnesses, such as anxiety disorders. The field of health psychology focuses in part on how stress affects bodily functioning and on how people can use stress management techniques to prevent or minimize disease.

2 HOMOEOPATHIC CONCEPTS OF STRESS

Homoeopathy is a rational therapeutical system with its holistic, integrated, multi-disciplinary and totalistic approaches the subject of stress in a convincing rational way. The subject “stress” is studied by several pioneers amply substantiates the basic concepts of homoeopathy.

3 HOMOEOPATHIC MATERIA MEDICA AND STRESS:

Hahnemann contributed human pharmacology and opened a new vista of understanding the drug effects at the human level. The exploration of the human mind yielded a wider database. The variable emotional feelings, intellectual aberrations, and also symptoms at the spiritual level were produced, thus synchronizing mind, body and spirit. Through the proving methodology, Hahnemann brought the illness at the forefront of our existence, at the humanistic experiential level. Could the potential action of a remedy be regarded as a stressor for a prover who gives variable expressions as a result of altered state of susceptibility? These expressions, if interwoven logically, form a synthetic whole to develop the conceptual image of a remedy where stressors, stress, strain and consequent expressions are explained rationally.

4 SOME HOMOEOPATHIC REMEDIES WHICH REFLECTS ‘STRESS’

Arg-nit is a ‘trapped’ person. Remains in tenseness. The hurried behavior coupled with anxiety leads to confusion and consequent mistakes. Impulsive, eccentric, whimsical nature and hidden irrational motives cause stress in others. Stressors for are blocked exits (crowds, closed places, bridges, tunnels, high places, aero planes, precipice etc.) or stressful events where he can’t find a way out his I.B.S. is stressful for his wife who doesn’t understand what to cook.
Arsenic Alb. drives everyone in all fields. His anxiety, domineering attitude and restlessness make others to dance as per his dictation. Insecurity inside drives him to seek security outside. Ars. is always strained. A fire brigade indeed!
Aurum represents high sense of duty, which compels him to work as an unstoppable machine `Robot’. He wants to be the best. He thinks that he has neglected his duty. This leads to anxiety of conscience----self-reproach----worthless feeling---- disgust of life -------suicidal disposition. His violent anger stresses the concerned and suicide done secretively makes the life of others stressful.

Carcinocin. is also workaholic. It has stress from two dispositions-performance and conscientiousness. He wants to do the work perfectly and ideally. The rigid moral values have to be maintained; they are not to be compromised. The sensitive, soft, tender mind gets affected soon, producing guilty feelings if mistakes are done by him. The responsibilities produce stress, the commitments developed out of duty-bound nature motivate for work. Being a gentleman, he can’t hurt others, he can’t square a person. He burns inside due to strain. Rejection, deprivation of love, reproaches, struggles; prolonged suppressions make him vulnerable to produce stress. Prolonged active stress leads to cancer like diseases. Unpredictable stress comes from humiliation, sexual abuse etc.

Lachesis is indeed a stressor for everyone in work area, in family or in society. His vigor coupled with jealousy, vindictiveness, revengefulness and possessiveness keep ‘nerves on edge’. Worse: whatever restricts or enforces. Better: whatever detents, expands, radiates, stimulates or releases. Lach. releases his stress through conversation (loquacity), creative ventilation, through seminal emissions.
Nux.Vom, the most workaholic of our materia medica, develops the stress out of his ambitious nature and resorts to stimulants that land him more in trouble; the vicious cycle is continued. Nux. can’t constraint himself from the stress and abuses others being short- fused. His violent anger produces stress in all - the boss, the subordinates and the family members.
‘Fragile’ ego is the cause of stress in Silicea. He can’t endure for long –neither the physical stress nor the mental one. He breaks down and goes into neurosis. Conscience with lack of grit play a major role in development of stress in silicea. He is a person of ‘caliber without fiber’. routinism, dependency, conservatism, and lack of determination make him defensive and withdrawing and he can’t capitalize; hence remain stressed.

Syphilynum is a stressor nosode. He is pervert, unstrung, hooligan, cruel, and liar. He makes things more complex and produces stress. He is an exploiter, a schemer in work area, but want of idealism and perversion ruin the business. He is anti-social and creates threatening situations.

Hahnemann expected higher purpose of life. Homoeopathy assists the vital economy to achieve the pleasant stress of fulfillment, eustress, without the harmful consequences of damaging stress, distress. Stress is a perpetual phenomenon, no one can abolish it. One has to master it, and homoeopathy, with its holistic healing, assists in mastering it! Definition of cure will be incomplete without harmony, without peace and without self-satisfying creativity.

5 HOMOEOPATHIC REPERTORY
Some rubrics are listed with its remedy. Examples are :

Ailments, anger from : Acon. aloe, Aur., Bell., Cham. Hyos., Ip. Lach. Nux.V., Op., Plat. Puls., Staph.,
Ailments, failure from business : Aur., Cimic., Hyos., Ign., Nat.Mur. ,Nux.V., Sep., Sulph., Verat.
Ailments, from disappointed love : Aur., Bell., Con., Hyos., Ign. ,Nat.M Nux.v., ,Ph .ac. , Staph.
Anger, weeping alternating with : Arn., Bell., Plat.
Anger, contradiction from : Aur. Bry., Ferr., Ign., Lyco. ,Nux.V. ,Sep.
Anger, despair with : Tarent.
Anxiety business about : Bry.,Car c.,Nux.v., Op.
Anxiety, crowd in a : Acon. ,Ambr., Arg.N., Puls., Stram
Anxiety Sucidal disposition with : Aur.,Plat., Puls., Rhus.T., Staph..
Delusion, laughed at and mocked at being : Bar.C., Ign., Nux.V. ,ph.ac. ,sep.
Delusion,being murdered he is : sulph
Delusion, poor; he is : bell. ,bry. ,nux.v., sep. stram.
Delusion, policeman physician is a : bell
Delusion, faithless, wife is : hyos. ,stram.
Fear, jumps, bed from : Ars. ,bell. ,stann
Sadness,when alone : Ars., aur., calc. ,dros., Mez. ,nat.M., Stram
Tearing, skin around nails : carc.
Weary of life, company in : Lyco.


6 REFERENCES:

1. Balch Phyllis A. -Nutritional Healing
2. Boerick William-Manual of Homoeopathic Materia Medica
3. Barthal H. –Synthetic repertory
4. Hahnemann Samuel –Materia Medica Pura
5. Kent J.T. –Lectures on Homoeopathic Materia Medica
6. Kent J.T. –Repertory of Homoeopathic M.M.
7. Kulkarni Ajit & Tarkas P.I. –A Select Hom.Materia Medica Part I & II
8. Master Farockh J. –Prescribing Rubrik of Mind
9. Sarkar B.K. –Essence of Homoeopathy
10. Sankaran Rajan -The Sprit of Homoeopathy
11. Schroyens Frederik –Synthesis Homoeopathic Repertory, Ed - 9.1.
12. Vithoolkas George –The Science of Homoeopathy

*A Delhi based Homoeopathic Medical Consultant & Resercher,
Contact : docarun2@gmail.com , Web : www.drakarun.com

Wednesday, February 6, 2008

बढ़ रहा है होमियोपैथी की लोकप्रियता का ग्राफ

-डा. ए. के. अरुण

लोगों में होमियोपैथी की बढ़ती लोकप्रियता ने सरकार और समाज दोनों को खासा प्रभावित किया है। केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय के ही आंकड़ों को मानें तो देश में लगभग 60 प्रतिशत रोगी किसी न किसी रूप में अपनी चिकित्सा के लिए भारतीय चिकित्सा पद्धति (आयुर्वेद, सिद्ध, युनानी) तथा होमियोपैथी को अपना रहे हैं। ऐसे ही देश में लगभग 7 लाख प्रशिक्षित चिकित्सक होमियोपैथी व भारतीय चिकित्सा पद्धति से जुड़े़ है। एसोचैम ने अपने एक अधिकारिक वक्तव्य में कहा है कि होमियोपैथी की बढ़ती लोकप्रियता का अन्दाजा इसी से लगाया जा सकता हे कि हामियोपैथी का घरेलू बाजार जो आज 1250 करोड़ का है अगले तीन वर्षों में बढ़ कर 2600 करोड़ से भी ज्यादा हो जाएगा। एसोचेम के अध्यक्ष वेणुगोपाल एन. धूत कहते हैं ‘आज भारतीय फार्मा उद्योग की विकास दर 13-15 फीसद है जबकि होमियोपैथी 25-30 फीसद की दर से विकास कर रही है।
अभी हाल ही में मातृ व शिशु स्वास्थ्य के लिए होमियोपैथी को सर्वोत्तम पद्धति बताते हुए केन्द्र सरकार ने एक राष्ट्रीय अभियान शुरू किया है। सरकार ने माना है कि महिलाओं में गर्भावस्था व अन्य परिस्थितियों में होमियोपैथी ज्यादा सुरक्षित और कारगर दवा के रूप में लाभ देती है। ऐसे ही बच्चों के अनेक रोगों में तो होमियोपैथी रामबाण है। केन्द्र सरकार ने नारा दिया है ‘मां हो स्वस्थ्य, बच्चा मुस्कराए-होमियोपैथी दोनों को भाए।''
सरकारी आंकड़ों के अनुसार प्रत्येक 1 लाख में 301 तथा प्रत्येक 1 हजार में 58 नवजात बच्चों की मौत हो जाती है। शिशु मृत्यु दर भी प्रति हजार 17 है। सरकारी संकल्प में इस दर को और कम करना है। होमियोपैथी की विशेषता है कि महिलाओं और बच्चों में हाने वाले सामान्य रोग जो मृत्यु के मुख्य कारक हैं (जैसे- दस्त, खुनी की कमी, गर्भावस्था के विकार आदि) को सामान्य होमियोपैथिक चिकित्सा से ठीक किया जा सकता है। केन्द्रीय होमियोपैथिक अनुसंधान परिषद के निदेशक प्रो. चतुर्भूज नायक बताते है, ‘महिलाओं और बच्चों के लगभग सभी रोगों में होमियोपैथिक चिकित्सा न केवल लाभप्रद है बल्कि यह बेहद सस्ती भी है। इसका कोई प्रतिकूल प्रभाव भी नहीं पड़ता।''
केन्द्र सरकार के होमियोपैथिक सलाहकार डा. एस.पी. सिंह कहते हैं, ''मां और बच्चों के लिए होमियोपैथी को प्रचारित करने का यह अभियान राष्ट्रीय स्तर से जिला स्तर तक चलाया जा रहा है। इस अभियान में होमियोपैथिक चिकित्सकों के अलावा एलोपैथिक चिकित्सक, समाजकर्मी, योजनाकार, मीडिया व वैज्ञानिकों को भी जोड़ा जा रहा है।
इसमें सन्देह नहीं कि भारतीय चिकित्सा पद्धतियां न केवल कारगर हैं बल्कि यह वैज्ञानिक और तार्किक भी हैं। भारतीय परिस्थितियों में आम लोगों के लिए होमियोपैथी और आयुर्वेद से माकुल और कोई चिकित्सा पद्धत्ति नहीं लगती। यहां अनुसंधान की भी तमाम सम्भावनाएं भरी पड़ी हैं। जन सुलभ होने के साथ साथ होमियोपैथी और आयुर्वेद किफायती भी हैं। उदाहरण के लिए गुर्दे की पथरी के इलाज के लिए जहां एलोपैथिक विधि से आपरेशन का खर्च 10-20 हजार रूपये बैठता है वहीं होमियोपैथी व आयुर्वेद में यह चिकित्सा 200 से 500 रूपये या अधिकतम 1000 रूपये में हो सकती है। सोराइसिस की चिकित्सा हजारों रूपये खर्च कर भी एलोपैथी में पूरी नहीं होती जबकि बहुत न्यूनतम खर्चे में होमियोपैथी से सोराइसिस का उपचार हो जाता है। फिस्टुला की सर्जरी पर 10-15 हजार रूपये खर्च होने के बावजूद भी एलोपैथी में स्थाई लाभ नहीं मिलता जबकि क्षार सुत्र तकनीक से आयुर्वेद महज 400 से 1000 रूपय में उपचार कर स्थाई लाभ दे सकता है।
सच है कि मीठी गोलियों के रूप में होमियोपैथिक दवाएं बच्चों द्वारा बेहद पसन्द की जाती है। विशेषकर बच्चों के दस्त, पेट दर्द, कान के संक्रमण, दांत निकलने के दौरान होने वाली कठिनाइयों आदि में होमियोपैथिक चिकित्सा बेमिशाल है। होमियोपैथी के जाने-माने चिकित्सक तथा राष्ट्रपति के पूर्व चिकित्सा सलाहकार डा. दीवान हरिष्चन्द्र बताते हैं ‘होमियोपैथी महज एक्यूट रोग ही नहीं बल्कि कई गम्भीर और एलोपैथी में लाइलाज हो चूके रोगों में भी कारगार है। आवष्यकता है नये-नये अनुसंधान की। हाल के वर्षों में जो भी होमियोपैथिक अनुसंधान हुए हैं उससे कई गम्भीर रोगों के इलाज का रास्ता भी खुला है।
एच.आई.वी./एड्स और होमियोपैथी पर वर्षों से काम कर रहे वरिष्ट होमियोपैथिक वैज्ञानिक डा. बी.पी. सिंह कहते हैं, ‘महज शिशु रोग ही नहीं होमियोपैथी का दायरा तो बहुत बड़ा है। अनेक घातक व जान लेवा रोगों में होमियोपैथी अच्छी दवा सिद्ध हो रही है।'' डा. सिंह के अनुसार, ‘एच.आई.वी./एड्स के मामले में होमियोपैथी एलोपैथी से कम नहीं है।''
महिलाओं और बच्चों के विभिन्न रोगों में होमियोपैथी की एकोनाइट, एन्टीम क्रूड, बेलाडोना, कैलकेरिया कार्ब, फेरम फॅास, जेल्सेमियम, ग्रेफाइटिस, इग्निशीया, क्रियोजोट, नैट्रमम्यूर, पल्साटिला, सिपिया आदि दवाएं बेहतर हैं बशर्ते की रोगी का शारीरिक और मानसिक लक्षण दवा के लक्षणों से मेल खाए। एस.एन.पोस्ट ग्रेजुएट इन्स्टीच्यूट आफ होमियोपैथी, इलाहाबाद के निदेशक प्रो. एस. एम. सिंह कहते हैं, ‘होमियोपैथी की लोकप्रियता इतनी है कि कोई 41 होमियोपैथिक दवाओं को (ओवर द काउन्टर ड्रग) ओ. टी. सी. दवा के रूप में घोषित किया गया है। इन दवाओं के लिए चिकित्सक के लिखित सलाह की जरूरत नहीं है।''
(आउटलुक से साभार)
(लेखक वरिष्ट होमियोपैथिक चिकित्सक एवं जनस्वास्थ्य वैज्ञानिक हैं)

बढ़ती महामारियों के दौर में

  कोरोना वायरस के त्रासद अनुभव के बाद अब देश में एच 3 एन 2 इन्फ्लूएन्जा वायरस की चर्चा गर्म है। समाचार माध्यमों के अनुसार...