Sunday, December 14, 2008

वैश्विकरण के दौर में स्वास्थ्य

वैश्वीकरण के दौर में स्वास्थ्य

डॉ. ए.के. अरुण

इन दिनों भारत ही नहीं लगभग पूरी दुनिया गम्भीर रोगों की चुनौतियों से जूझ रही है। प्रचलित पुराने रोगों के अलावे नये उभर रहे रोगों की जानलेवा किस्में बड़े पैमाने पर कहर बरपा रही हैं। इन रोगों के खात्मे के नाम पर चलाए जाने वाले सरकारी कार्यक्रमों की या तो दिशा बदल दी गई है या उनकी मियाद बढा दी गई हैं इन स्थितियों से विश्व स्वास्थ्य संगठन ;वि.स्वा.सं.द्ध भी सकते में है।
सन्‌ २००० से पहले के आर्थिक सर्वेक्षण की रिपोर्ट देखें तो ÷केन्द्र सरकार के २००० तक सबके लिये स्वास्थ्य' के तहत गरीबों के लिये स्वास्थ्य लक्ष्य की प्राप्ति हेतु ÷राष्ट्रीय बीमारी सहायता कोष' के गठन का संकल्प स्पष्ट था। यह कोष कुछ गम्भीर रोगों से पीड़ित उन लोगों की मदद के लिये था जो गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन कर रहे हैं। विभिन्न संक्रामक रोगों के रोकथाम, नियंत्रण और उन्मूलन के लिये एक व्यापक रोग निगरानी प्रणाली विकसित किये जाने की योजना थी। भारतीय औषधि प्रणाली एवं होमियोपैथी ;आई.एस.एम.एण्ड एच.द्ध विभाग को बढ़ावा देने का संकल्प भी अधूरा ही है।
÷सबके लिये स्वास्थ्य' और ÷गरीबों के लिये स्वास्थ्य' की जगह अब चुनिन्दा प्राथमिक स्वास्थ्य सेवा ;एस.पी.एच.सी.द्ध ने ले ली है। पहले स्वास्थ्य का जिम्मा बहुत हद तक सरकार के पास था। अब इसे निजी क्षेत्र के हवाले कर दिया गया है। निजी बीमा कम्पनियां एवं बहुराष्ट्रीय कंपनियां इसके लिये धन उपलब्ध करा रही है। भारत में स्वास्थ्य से जुड़े मुद्दे कभी आर्थिक सुधारों के केन्द्र में नहीं रहे हैं। बल्कि इन्हें तो सुधारों के मुख्य लक्ष्य, निवेश और विकास की राह में बाधक माना जाता है। हम देख रहे हैं कि १९९१ के बाद रोगों में चल रहे आर्थिक सुधारों का जन स्वास्थ्य पर गहरा असर पड़ रहा है।
भारत ने १९७८ में अल्माअता घोषणापत्र पर हस्ताक्षर कर ÷वर्ष २००० तक सबके लिये स्वास्थ्य' लक्ष्य पाने की प्रतिब(त्ता जताई थी। १९८१ में आई.सी.एस.एस.आर. और आई.सी.एम.आर के संयुक्त पैनल ने ÷सबके लिये स्वास्थ्य-एक वैकल्पिक रणनीति' शीर्षक से एक विस्तृत रिपोर्ट तैयार की थी। १९८३ में भारतीय संसद ने ÷राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति' को पारित कर इस लक्ष्य को प्राप्त करने का संकल्प लिया था, लेकिन आज ८ वर्ष बाद भी आम लोगों के स्वास्थ्य की स्थिति क्या है? किसी से छिपा नहीं है।
भारत में अब भी संक्रामक रोगों से मरने वालों की संख्या बहुत अधिक है। टी.बी. संक्रमण की वार्षिक दर आज भी १.५ फीसद से ज्यादा है। विश्व औसत से यह दर लगभग दो गुनी है। भारत में प्रत्येक वर्ष करीब १५ करोड़ टी.बी. रोगियों की पहचान होती है। इनमें से सालाना ३ लाख अकाल मृत्यु के शिकार होते हैं। यहां कुष्ट रोगियों की संख्या १० लाख से भी ज्यादा है। यह दुनिया के कुल कुष्ट रोगियों की संख्या का एक तिहाई है। प्रत्येक वर्ष दस्त से ही मरने वाले बच्चों की संख्या लगभग ५ लाख है।
पोलियो के उन्मूलन कार्यक्रम को ही देखें तो १९९५ से चल रहे इस कार्यक्रम पर काफी खर्च करने के बाद भी पोलियो से मुक्ति की घोषणा करने की स्थिति नहीं बनी है। केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय के आंकड़े के अनुसार पोलियो उन्मूलन अभियान पर प्रत्येक वर्ष ११०० करोड़ रुपये खर्च होते हैं। लेकिन नीतिगत खामियों की वजह से पोलियो खत्म होने का नाम नहीं ले रहा।
एच.आई.वी./एड्स को लेकर भारत में चर्चित विवाद आंकड़ों, उसके नाम पर हो रहे खर्च और एड्स रोकथाम के सुझावों आदि को लेकर बना ही हुआ है। प्रत्येक वर्ष मलेरिया, डेंगू और कालाजार विकराल रूप धारण करता है। हजारों जानें जाती हैं लेकिन हम अपनी स्वास्थ्य सम्बन्धी सोंच को जनपक्षीय नहीं बना पा रहे। मलेरिया १९४७ में भारत में भयानक रूप में था।७.५ करोड़ प्रभावित लोगों में आठ लाख लोग मौत के शिकार हुए थे। सन्‌ १९६४ तक आते आते यह नियंत्रित हो चला था लेकिन अब फिर मलेरिया घातक रूप से फैल रहा है। इतना ही नहीं मलेरिया की जानलेवा प्रजाति फैल्सिफेरम मलेरिया' के मामले बढ़ रहे हैं। कालाजार भी १९६० तक खत्म हो चुका था। लेकिन इधर कालाजार के मामले ७७ हजार से बढ़कर ज्यादा हो गए हैं और मौतों का आंकड़ा भी बढ़ा है।भूमण्डलीकरण के दौर में ये स्थितियां और विकट हुई हैं। आज देश में १३ से २० करोड़ ऐसे लोग हैं जो अपना इलाज पैसे देकर करा सकने की स्थिति में नहीं हैं।
विश्व स्वास्थ्य संगठन की १९९५ की वार्षिक रिपोर्ट पर गौर करें। इस रिपोर्ट में अत्यधिक गरीबी के अर्न्तराष्ट्रीय वर्गीकरण में एक रोग माना गया है। इसे जेड ५९.५ का नाम दिया गया है। रिपोर्ट में कहा गया है कि गरीबी तेजी से बढ़ रही है और इसके कारण विभिन्न देशों और एक ही देश के लोगों के बीच दूरी भी बढ़ती जा रही है। इससे स्वास्थ्य समस्याएं और गम्भीर हुई हैं। एक आंकड़ा के अनुसार भारत में ५ वर्ष से कम उम्र के बच्चों में प्रत्येक तीन मेंसे दो बच्चे कुपोषित हैं। गिनती में यह संख्या सात करोड़ है। विश्व में १७ प्रतिशत कुपोषित बच्चों में से ४० प्रतिशतबच्चे तो भारतीय हैं।
इधर कुछ वर्षों से बढ़ती मंहगाई, सरकर की फरेबी नीतियों की वजह से महाराष्ट्र, उड़ीसा, बुंदेलखण्ड, बिहार, झारखण्ड आदि में भूखमरी के कारण हुई मौत की खबरें आई हैं। किसानों के बड़े पैमाने पर आत्महत्या की खबर जग जाहिर है। स्पष्ट है कि पोषण और पर्याप्त भोजन के अभाव में रोग संक्रमण और संक्रामक रोगों का खतरा तो
बनेगा ही। भारत सरकार के स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय के नवीनतम आंकड़े के अनुसार खून ;हिमोग्लोबीनद्ध
की कमी ;एनिमियाद्ध से प्रभावित महिलाओं की संख्या लगभग ७० प्रतिशत है। स्वास्थ्य के क्षेत्र में सरकार की मौजूदा नीतियों का अवलोकन करें तो यह स्पष्ट दिखता है कि सरकार की प्राथमिकतास्वास्थ्य के क्षेत्र में निजी पूंजी को आकर्षित करने सरकारी सेवाओं के माध्यम से ही आमदनी बढ़ाने व बुनियादी स्वास्थ्य सेवाओं/संस्थाओं को स्वैच्छिक व निजी संस्थाओं के हवाले कर देने की ओर साफ दिख रही है। सरकार का यह नया और आधुनिक दृष्टिकोण जाहिर है संविधान
के संकल्प ÷÷सबको मुफ्त स्वास्थ्य सेवा उपलब्ध कराने'' के एकदम प्रतिकूल है। संविधान की शपथ को भुलाकर अपने कर्तव्यों से मुंह मोड़ना सरकार ने उदारीकरण से ही सीखा है, यह साफ देखा जा सकता है। जहां स्वास्थ्य सेवाओं में मुनाफा ढूंढा जाने लगे और ÷÷खर्च'' को ÷÷निवेश'' समझा जाने लगे वहां सामाजिक और नैतिक दायित्वों की अहमियत नहीं रह जाती है। सेवा के नाम पर लगभग मुफ्त की जमीन पर खड़े पांच सितारा अस्पतालों को अब
शेयर मार्केट में देख सकते हैं।
आर्थिक सुधारों का कमजोर वर्ग पर नकारात्मक प्रभाव पड़ा है। सन्‌ २००० के बाद भी ६ से २४ माह आयु के बच्चों और गर्भवती महिलाओं में कुपोषण की समस्या बढ़ी ही है। कुछ प्रमुख राज्यों ;आन्ध्र प्रदेश, गुजराज, हरियाणा, कर्नाटक, केरल, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, उड़ीसा, पंजाब, राजस्थानद्ध में नवजात शिशु मृत्यु दर भी बढ़ा है। ;स्रोत १-ए.बोस, टाइम्स ऑफ इण्डिया, अप्रैल २५-२००१द्ध भारतीय खाद्य निगम के गोदाम में पड़े ४ करोड़ ५७ लाख टन खाद्यान्न बेकार हो गए लेकिन कई राज्यों में सूखा पीड़ितों तक यह अनाज मंडी नहीं पहुंचा। सरकार ने इस भन्डारित खाद्यान्न का एक बड़ा हिस्सा कम दर पर निर्यात किया। इस बाबत पी.यू.सी.एल. ने सर्वोच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका भी दायर की थी। भारत की वस्तु स्थिति यह है कि यहां १० एकड़ जमीन का स्वामी भी अपनी रोजाना भोजन आवश्यकता की २२८७ कि. कैलोरी प्राप्त नहीं कर पाता। इससे नीचे के वर्ग की हालत तो और बदतर है।
विडम्बना यह है कि सरकार ने कल्याणकारी सोंच को त्याग कर विश्व व्यापार संगठन एवं विश्व स्वास्थ्य संगठन के मार्ग पर चलना शुरू कर दिया है। वि.स्वा.सं. ने अपनी वार्षिक रिपोर्ट १९९७ में ही साफ कर दिया था कि निजी क्षेत्रअब अपनी सामाजिक जिम्मेवारियों को पहचानने लगे हैं। वि.स्वा.सं. व वि.व्या.सं. के इस दर्शन का नतीजा हम देख रहे हैं। स्वास्थ्य सेवा का क्षेत्र लगभग पूरी तरह निजी क्षेत्र के हवाले कर दिया गया है। सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा अब प्राथमिक स्तर की स्वास्थ्य सेवा बनकर रह गई है। इन सेवाओं में अब मुख्यतः परिवार कल्याण, एड्स, मलेरिया, डेंगू आदि रोगों के नियंत्रण का कार्यक्रम ही शामिल है।
यहां विश्व स्वास्थ्य संगठन जैसी विश्वसनीय स्वास्थ्य संस्था की भूमिका पर विचार करना जरूरी है। दर असल विगतढाई दसक से अमरीका और अन्य ओ.ई.सी.डी. देशों ने संयुक्त राष्ट्र संस्थाओं की सहायता से अपना हाथ खींच
लिया है। इससे संयुक्त राष्ट्र संस्थाएं आर्थिक दबाव में हैं। जाहिर है वि.स्वा.सं. वित्तीय जरूरत के लिये निजी क्षेत्र अथवा बाजार पर निर्भर है। देखा जा सकता है कि सन्‌ १९९५ के बाद वि.स्वा.सं. ने विश्व बैंक की नीतियों को आगे बढ़ाने वाली एजेन्सी की तरह काम करना शुरू कर दिया है। अपने बजट की शून्य वृ(ि स्थिति को बचाने के लिये अमरीका की चिरौरी करने का इसके पास यही एक तरीका था। स्पष्ट है वि.स्वा.सं. अब विश्व बैंक के सुर में गाने लगा है।
भारत में मुक्त व्यापार व्यवस्था का लाभ उठा कर बहुराष्ट्रीय कम्पनियों ने तीसरी दुनिया के देशों में असुरिक्षत और पुराने दवाओं, संक्रमति खाद्य पदार्थों का अम्बार लगा दिया है। इस खेल में हमारी सरकार इनकी जूनियर पार्टनर बनगई है। बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को वि.स्वा.सं. और संयुक्त राष्ट्र द्वारा मान्यता मिलने से दूसरों के साथ मिलकर ये संस्थाएं न्यूनतम जोखिम उठाकर अपने निवेश का भरपूर लाभ ले रही हैं। संक्रामक रोगों की रोकथाम के अर्न्तराष्ट्रीय प्रयासों को बढ+ावा देने के लिये अर्न्तराष्ट्रीय वाणिज्य आयोग ;आई.सी.सी.द्धके नेतृत्व में १३० देशों में ७००० से ज्यादा वाणिज्य कम्पनियों ने सहयोग किया है। पूरी दुनियां में इस आयोग की विश्वसनियता स्थापित करने के बाद अब साफ देखा जा सकता है कि यह कैसे बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के हितों को आगे बढ़ा रहा है।
नये अनुसंधान और अध्ययन यह बताते हैं कि विकास प्रक्रिया, कृषि एवं उद्योग के तौर तरीके कैसे रोगों से जुड़ रहे हैं। मलेरिया, दमा, एड्स टी.बी. आदि रोग उदारीकरण के दौर में बढ़ रहे हैं। विश्व निजी सार्वजनिक भागीदारी ;जी.पी.पी.पी.द्ध का तकाजा यह है कि स्वास्थ्य जैसे जन कल्याण क्षेत्र अब विश्व व्यापार संगठन के दायरे में है। विकासशील देशों पर विकसित देशों का दबाव सहज देखा जा सकता है। जी.पी.पी.पी. बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के लिये उपकरण सि( हो रहा है। उदाहरण के लिये इस व्यवस्था के तहत ÷मलेरिया के लिये दवा' अभियान में प्रतिवर्ष ३ करोड़ अमरीकी डालर जमा करने का लक्ष्य है लेकिन सच यह है कि इसका ज्यादा हिस्सा सार्वजनिक कोष से आएगा। कम्पनियों ने तो हवाई वायदे भर किये हैं। एक और उदाहरण देखें, अमरीकी दवा कम्पनी ÷मायर स्क्वि ने १८३ अरबअमरीकी डालर दवा बेच कर कमाया लेकिन जी.पी.पी.पी. के तहत पिछले पांच वर्ष में महज १० करोड़ अमरीकी डालर का अनुदान दिया। स्पष्ट है, जी.पी.पी.पी. बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की शक्ति का मुख्य स्रोत बन गया है और अब ये कम्पनियां तीसरी दुनियां के देशों की राष्ट्रीय पूंजी को निगलने में लग गई हैं। विश्व बैंक भी अपनी रिपोर्ट में स्वीकार करता है कि अधिकांश देशों में गरीब देशों की स्वास्थ्य स्थिति बहुत खराब है।
इस पृष्ठभूमि में आम लोगों के सेहत और लोगों के स्वास्थ्य के प्रति सरकार की जवाबदेही की बात बेमानी लगती है लेकिन जनहित की बात करने वाले जनसमूह और वैकल्पिक धारा के जिम्मेवार लोगों, लोगों के संगठन के समक्ष स्थिति का ब्योरा रखकर एक व्यापक पहल और प्रक्रिया की उम्मीद करना जरूरी है। स्वास्थ्य, शिक्षा और सेवा के दूसरे क्षेत्रों पर कम्पनियों की बुरी नजर का दुःपरिणाम हर अमीर-गरीब को भुगतना होगा। समाजवाद को अप्रसांगिक मान चुका साम्राज्यवाद अब जब कभी लड़खड़ाने लगता है तो लोग फिर समाजवाद की तरफ देखने लगते हैं।स्वास्थ्य जैसा जरूरी क्षेत्र सीधे जीवन से जुड़ा है, उस पर बाजार का प्रभुत्व कम हो ऐसे प्रयास की जरूरत है।

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