Wednesday, October 10, 2018

सस्ती दवाओं की आस में


प्रधानमंत्री ने संकेत दिये हैं कि ऐसा कानूनी ढांचा तैयार किया जाएगा जिसके तहत चिकित्सकों को उपचार के लिये महंगे ब्रांडेड दवाओं की जगह जिनेरिक दवाएं (जो मूल दवा है और सस्ती होती है) ही लिखनी होगी। उल्लेखनीय है कि बेहद मंहगे दर पर मिलने वाली ब्रांडेड दवाएं मरीजों और उनके तीमारदारों के जेब पर इतना भारी पड़ती है कि अधिकांश तो पर्याप्त मात्रा में दवाएं खरीद भी नहीं पाते। जिनेरिक दवाओं को लेकर प्रधानमंत्री की यह घोषणा राहत देने वाली है और यदि सब अच्छी नियत और दृढ़ ईच्छाशक्ति से हुआ तो मरीजों पर और उपचार के खर्च में 50 से 75 प्रतिशत की कमी आ सकती है।
आइये समझने की कोशिश करते हैं कि जिनेरिक दवाएं आखिर कहते किसे हैं? यह वास्तव में इन्टरनेशनल नॉन प्रोप्रायटरी (आई.एन.ए.) नाम हैं जो किसी भी दवा को दिया गया गैर-मालिकाना आधिकारिक नाम है जिसे विश्व स्वास्थ्य संगठन निर्धारित करता है। उदाहरण के लिये ‘‘पैरासिटामॉल’’ एक जिनेरिक दवा है। जबकि ष्क्रोसिनष् उसी दवा का एक ब्रांड नाम है। अलग अलग दवा कंपनियां ‘पैरासिटामॉल’ को अलग अलग ब्रांड नामों से बनाकर अपने मनमाने कीमत पर बेचती हैं। दरअसल जिनेरिक या गैर मालिकाना नाम दवाओं की लेबलिंगए उत्पाद संबंधी जानकारी, विज्ञापन व अन्य प्रचार सामग्री, दवा नियमन व वैज्ञानिक पत्रिका या साहित्य के नामों के आधार में उपयोग के लिये होते हैं। कई देशों के कानून में दवा के ब्रांड नाम से ज्यादा बड़े अक्षरों में जिनेरिक नाम छापने का स्पष्ट प्रावधान है। कुछ देशों की सरकारों ने तो ऐसे प्रावधान कर दिये हैं कि वहां सार्वजनिक क्षेत्र में ‘टेªडमार्क’ का उपयोग समाप्त कर दिया गया है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन की 46वीं विश्व स्वास्थ्य सभा के प्रस्ताव सं. 46.19 के अनुसार भी लगभग सभी दवाओं को जिनेरिक नामों से पहचानने व बेचने की बात है लेकिन इस पर अमल पूरी तरह हो नहीं पाता। आमतौर पर भारत में कोई 70-80 दवाइयां ही उपयोग में ली जाती हैं। लेकिन इन दवाओं के कोई एक लाख ब्रांड अलग अलग दवा कंपनियों द्वारा कई गुना मंहगे दर पर बेचे जा रहे हैं। इन ब्रांडेड दवाओं के पीछे निजी व सरकारी प्रैक्टिस में लगे डाक्टर की अहम भूमिका होती है। दवा कंपनियां यह भी दावा करती है कि ब्रांड नाम वाली दवाओं की गुणवत्ता ज्यादा होती है। वास्तव में ऐसा कुछ नहीं होता।       केफौवर समिति (एकाधिकार व एन्टीट्रस्ट (दवाइयां) सम्बन्धी यू.एस. कांग्रेस की 87वीं सुनवाई) ने रिपोर्ट किया था कि ब्रांड नाम से बिकने वाली दवाएं जिनेरिक दवाओं की अपेक्षा 10 से 100 गुणा ज्यादा दामों पर बेची जाती हैं। भारत में पहले ब्रांड नामों पर 15 प्रतिशत उत्पाद शुल्क लगता था जबकि जिनेरिक दवाइयां उत्पाद शुल्क से मुक्त थे, अब सब पर एकरूप उत्पाद शुल्क लगता है।
दवा कम्पनियां अक्सर रिसर्च के नाम पर ब्रांड नाम से दवा बेचने की आड़ में भारी मुनाफा कमाती हैं। ज्यादातर बहुराष्ट्रीय दवा कम्पनियां गुणवता व अनुसंधान का हवाला देकर यह बताती हैं कि गम्भीर बीमारियों के उपचार में उनकी ब्रांडेड दवा का ही इस्तेमाल होना चाहियेएजबकि ऐसा कुछ भी नहीं है। कभी-कभी आम लोग की यह सवाल उठा देते हैं कि जिनेरिक दवाओं की तुलना में ब्रांडेड दवाएं ज्यादा प्रभावी तो होती ही होंगी? लेकिन यह महज एक पूर्वाग्रह है। वास्तव में दवा बनाने वाली कम्पनी को दवा बनाने में ‘फार्माकोपिया’ में उल्लिखित क्वालिटी व गाइड लाइन मापदंडों का पालन करना जरूरी होता है। चाहे दवा जिनेरिक हो या ब्रांड।
स्वास्थ्य की एक अर्न्तराष्ट्रीय पत्रिका ष्लैनसेटष् ने सर्वेक्षण और अपने अध्ययन के आधार पर एक आलेख प्रकाशित किया था। शीर्षक या ‘फाइनांसिग हेल्थ केयर फॉर आल: चेलेन्जेज एंड आपारचुनिटीज’ इस लेख के लेखक हैं डॉ. ए.के.शिवकुमार। उनके अनुसार भारत में प्रतिवर्ष 3.9 करोड़ लोग मात्र खराब स्वास्थ्य और महंगी दवा के कारण उपचार कराने की वजह से गरीबी के गर्त में धकेल दिये जाते हैं। ग्रामीण भारत में यह आंकड़ा शहरी लोगों की तुलना में 40 प्रतिशत ज्यादा है। इसी अध्ययन में यह भी तथ्य है कि लगभग 47 प्रतिशत लोगों ने अस्पताल व दवा का खर्च कर्ज लेकर एवं अपनी स्थाई सम्पत्ति बेचकर चुकाया। इस अध्ययन के अनुसार भारत में सरकार की स्वास्थ्य व्यवस्था के बावजूद 78 प्रतिशत लोगों को अपने उपचार पर अलग से खर्च करना पड़ता है। इसका अर्थ यह हुआ कि इतने भारी भरकम स्वास्थ्य बजट के बावजूद मात्र 22 प्रतिशत ही लोगों में स्वास्थ्य की व्यवस्था हो पाती है। जाहिर है इसी मजबूरी का फायदा उठाकर निजी दवा कम्पनियां अपना व्यापार चमकाती है।
ब्रांड दवाओं के बड़े व्यापार के पीछे एक तथ्य यह भी है कि भारत में सन् 2003 से तैयार ‘‘जरूरी दवा सूचि’’ पर ठीक से अमल ही नहीं हो रहा। यह दवा सूचि स्वास्थ्य मंत्रालय की वेबसाइट पर उपलबध है। राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति 2002 मे स्पष्ट उल्लेख है कि सरकारें सरकारी व सार्वजनिक अस्पतालों के लिये दवा उपयोग व खरीद में केवल ‘‘जरूरी दवा सूची’’ के अनुरूप ही काम करेगी लेकिन सरकारी अधिकारियों व स्वास्थ्य कर्मचारियों ने इस नियम की बराबर अनदेखी ही की। पिछली सरकार ने जिनेरिक दवा को उपलब्ध कराने के लिये कई प्रदेशों में ‘‘जन औषधि’’ नाम से जिनेरिक दवा की दुकानें भी खोली जिसमें बेहद सस्ते मूल्य पर जरूरी जिनेरिक दवाएं उपलब्ध हैं लेकिन चिकित्सकों एव ंदवा कम्पनियों के ऐजेन्टों की मिली भगत से ‘‘सस्ती दवा की’’ यह मुहिम ज्यादा कारगर नहीं हो सकी।
भारत में तीन ऐसे प्रदेश हैं जहां ‘जिनेरिक एवं आवश्यक दवा’’ की अवधारणा को लागू किया गया है। ये प्रदेश हैं तमिलनाडू, दिल्ली एवं राजस्थान। इन प्रदेशों में काफी हद तक जरूरी दवा जिनेरिक रूप में अस्पतालों में उपलब्ध कराई गई हैं। हालांकि इस दिशा में अभी और बहुत कुछ किये जाने की जरूरत है फिर भी अन्य प्रदेश इन तीन राज्यों से जरूरी व जेनेरिक दवाओं के उपयोग का अनुभव प्राप्त कर सकते हैं।
भारत का दवा बाजार दुनियां के दवा बाजार में तीसरे नम्बर पर है। विगत वर्ष के मुकाबले इस वर्ष भारतीय दवा बाजार की वृद्धि वर्ष के मुकाबले इस वर्ष भारतीय दवा बाजार की वृद्धि दर 15 प्रतिशत है। सी आई आई के अध्ययन के अनुसार सन् 2020 तक भारतीय दवा बाजार 55 बिलियन डालर को पार कर जाएगा। दवा क्षेत्र में विदेशी निवेश के आ जाने के बाद सन् 2000 से 2016 तक भारतीय दवा बाजार बहुत आगे बढ़ा है। इस दौरान यहां 14.53 बिलियन डालर का निवेश हुआ। ऐसे में दवा कम्पनियों के लिये आसान नहीं होगा जिनेरिक दवाओं का उत्पादन बढ़ाना। जाहिर है टकराव बढ़ेंगे और बड़े मुनाफे का चस्का लगी कम्पनियां कुछ और तिकड़म करे ? बहरहाल सरकार और कम्पनियों के बीच की इस टकराव में मरीजों की शामत न आ जाए यह ध्यान रखना होगा।
सरकार का यह कदम सराहनीय है और जनता के स्तर पर जिनेरिक दवाएं बेचने की पहल का स्वागत किया जाना चाहिये।


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