Sunday, June 26, 2011

कैसे खत्म हो भ्रष्टाचार

डा. ए. के. अरुण
महत्वाकांक्षा व्यक्ति और उसके विकास के लिये जरूरी है लेकिन समाज कल्याण अथवा देष सेवा के नाम पर निजी महत्व को अहमियत देना अच्छे कार्य की श्रेणी में आएगा या नहीं इस पर पर लोग विचार करें लेकिन मेरी नजर में निजी महत्व के लिये समाज सेवा और देषभक्ति के भी उतने ही खतरे हैं, जितना भ्रष्टाचार के। भ्रष्टाचार उन्मूलन के नाम पर लोकतंत्र को दरकिनार करना तो और भी घातक है। पहले अन्ना बनाम सरकार और अब अन्ना बनाम बाबा का प्रहसन आम लोगों को न तो अटपटा लग रहा है और न ही अप्रत्याषित। इस लेख को लिखने से पहले मैंने देष के अलग-अलग हिस्सों में रह रहे कुछ लेखक, चिन्तक मित्रों से उनकी प्रतिक्रिया जानी तो पता चला कि लोग अन्ना और बाबा के आन्दोलन में षुरू से ही फर्क देख रहे हैं। बाबा के पास पिछले दो-तीन वर्षों में बने लाखों लोगों की नगदी सदस्यता है तो अन्ना के पास उनके व्यक्तित्व, मीडिया प्रचार और भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम से जुड़े वे लोग जिसे मीडिया ने सिविल सोसाइटी का नाम दे दिया है।
अपने देष भारत के बारे में कहा जाता है कि यह विविधताओं से भरा एक लोकतंात्रिक देष है। इसकी अपनी कुछ विडम्बनाएं भी हैं। कहते हैं कि भारत में विचारधाराओं के इतने रंग हैं कि वह किसी भी मुद्दे पर कभी एक हो ही नहीं सकता। वैसे भी यहां लोकतंत्र की जड़ें इतनी गहरी हैं कि यहां फासीवासद ज्यादा टिक नहीं सकता। यहां के लोग लोकतंत्र में थोड़ा भ्रष्टाचार तो सह सकते हैं लेकिन फासीवाद को कतई बरदाष्त नहीं कर सकते। इसलिये बाबा जब जब सेक्युलर दिखते हैं तो उनके साथ एक बड़ी जमात जुड़ती चली जाती है लेकिन जैसे ही उनके बोल और आचरण में साम्प्रदायिकता की बू आने लगती है तो कई लोग उनसे छिटकने भी लगते हैं। काले धन और भ्रष्टाचार से केवल बाबा रामदेव या अन्ना हजारे ही दुखी नहीं हैं बल्कि पूरा देष इस जहरीले दंष से त्रस्त है। इसीलिये जब भी भ्रष्टाचार मुद्दा बनता है तो पूरे देष से समर्थन के हाथ उठने लगते हैं और साथ में यह उम्मीद भी बढ़ने लगती है कि अन्ना हो या बाबा कोई तो इस देष को भ्रष्टाचार के कोढ़ से मुक्ति दिलाए।
अन्ना के अतीत और बाबा के वर्तमान दोनों पर कथित कड़े अनुषासन का असर देख जा सकता है। भ्रष्टाचारियों को ‘‘कड़ा दंड दो’’ एवं उसे ‘‘सरे आम फांसी’’ पर लटका दो जैसी गर्जना से हमारे दोनों भ्रष्टाचार विरोधी संत बड़े आक्रामक नजर आते हैं लेकिन भारत में यहां की सहिष्णुता, धर्मनिरपेक्षता एवं अहिंसा के मूल्यों को आधार बना कर भारत में सामाजिक बुराईयों और गुलामी से लड़ने वाले हमारे पूर्व सन्तों के रास्ते को छोड़कर ये तालिबानी तौर-तरीकों से भ्रष्टाचार से लड़ने की अजीब स्थिति में फंस गए दिखाई देते हैं। षायद इसीलिये भ्रष्टाचार से लड़ते-लड़ते ये आपस में भी लड़ने लग जाते हैं।
अन्ना और बाबा के भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम से षुरु में सरकार आतंकित थी लेकिन अब सरकार के चेहरे चमकते नजर आ रहे हैं। जन लोकपाल विधेयक पर सहमति बनाने के लिये बनी समिति की 30 मई की बैठक के बाद जब सरकारी-गैर सरकारी दोनों पक्ष बाहर निकले तो कपिल सिब्बल तेजी से आगे चल रहे थे लेकिन जब मीडिया ने फोटो के लिये टोका तो उन्होंने अपनी चाल धीमी की और अन्ना के साथ हो लिये। वैसे भी अन्ना-बाबा विवाद के बाद कपिल सिब्बल के चेहरे ज्यादा खिले दिख रहे हैंए इसीलिये उन्होंने 30 जून की समय सीमा के बावजूद बीच में ही ब्रिटेन की यात्रा निर्धारित कर ली थी। हालांकि प्रधानमंत्री ने उनकी विदेष यात्रा निरस्त कर दी है। इधर बाबा पर भी अपना सत्याग्रह रोक देने का दबाव है लेकिन बाबा हर हाल में सत्याग्रह करने की घोषणा पर दृढ़ता से कायम हैं।
अन्ना-बाबा और सरकार के इस नूरा-कुष्ती में भ्रष्टाचार की पौ-बारह है। विगत 30 मई की बैठक में कई अहम मुद्दों पर जो मतभेद दिखे और उस पर बाबा ने जो मिर्ची लगाई उसके बाद तो आम लोगों में यह अन्देषा स्पष्ट घर कर गया है कि लोकपाल अब खटाई में पड़ता नजर आ रहा है। जन्तर मन्तर पर अन्ना के अनषन से जब सरकार की अंतड़ी सूखने लगी थी और आनन-फानन में सरकार ने सिविल सोसाईटी के ‘‘जन लोकपाल’’ को मान लेने का नाटक किया था तभी कई आन्दोलनकारी लोग इस पर आषंका व्यक्त करने लगे थे कि कभी न कभी सरकार ऐसा पच्चड़ फसाएगी कि लोकपाल की हवा निकल जाएगी। अब यह आषंका सच लगने लगी है। प्रधानमंत्री और न्यायपालिका को लोकपाल के दायरे में लाने का प्रस्ताव कोई नया नहीं है फिर भी मामला यहीं फंसा दिखता है। वास्तव में सरकार लोकपाल के पक्ष में ही नहीं है क्योंकि उनकी अपनी पुरानी जांच एजेन्सियाँ जैसे सी.बी.सी., सी.बी.आई. आदि का भला क्या औचित्य रह जाएगा?
आधुनिक मानव जीवन में भ्रष्टाचार पष्चिमी समाज की देन है। वर्षों पहले स्वीडन के जाने-माने अर्थषास्त्री एवं नोबेल पुरस्कार विजेता गुन्नार मिर्डल ने एक किताब लिखी थी ‘‘एषियन ड्रामा’’। इसमें एक अध्याय भ्रष्टाचार पर था। इस पुस्तक में वे एषिया में फैले भ्रष्टाचार को यहाँ की परम्परा का हिस्सा बताते हैं लेकिन अपनी इसी पुस्तक में वे यह भी स्वीकार करते हैं कि योरोप के देषों में काफी पहले इस पर काबू पा लिया गया था। मिर्डल अपनी पुस्तक में भ्रष्टाचार के समाधान का कोई उपाय तो नहीं सुझा पाते लेकिन वे इसे मानवीय समाज की एक मौलिक समस्या का दर्जा अवष्य देते हैं। वास्तव में भ्रष्टाचार का कारण न तो व्यक्ति होता है और न ही विकास। भ्रष्टाचार तो व्यवस्था की उपज है। यदि विकास के ढांचे में भ्रष्टाचार का बढ़ना अनिवार्य है तो वह विकास है ही नहीं।
मनुष्य स्वभाव की विचित्रता मे बुराईयां भी हैं, कमजोरियां भी हैं। इसका असर समाज पर भी पड़ता है। इस पर नियंत्रण के लिये सभ्यता में धर्म, संस्कृति, राज्य व्यवस्था आदि की उत्पत्ति हुई। फिर भी यदि इन बुराइयों पर नियंत्रण नहीं हो पाया तो धर्म, संस्कृति, राज्यए अर्थव्यवस्था सब पर प्रष्न चिन्ह स्वाभाविक है। हाँ, इन संस्थाओं में यदि पारदर्षिता, ईमानदारी, त्याग और सेवा की भावना है तो समाज में भ्रष्टाचार नियंत्रित रहेगा। आजकल भ्रष्टाचार की प्रमुख वजह उपभोक्तावाद और बाजारवाद भी है। बाजार को खोलकर या छूट देकर भ्रष्टाचार पर लगाम नहीं कसा जा सकता। चाहे लेाकपाल हो या जन लोकपाल बाजार और उपभोक्तावाद पर नियंत्रण उसके बस में नहीं है। हमें यह भी समझना होगा कि ‘‘बड़ा’’ और ‘‘छोटा’’ भ्रष्टाचार दोनों एक जैसे नहीं होते। आम लोगों को यही बताया जाता है कि छोटा चोर और बड़ा चोर दोनों एक हैं। कानून में भी ये दोनों एक नहीं है। भ्रष्टाचार की जिस घटना से राज्य और समाज को ज्यादा हानि पहुंचती है उसे अक्षम्य अपराध माना जाना चाहिये। सत्ता में प्रतिष्ठित व्यक्तियों का भ्रष्टाचार ज्यादा हानिकारक होता है। रक्षक का भक्षक होना ज्यादा घातक है और इसकी सजा कठोर से कठोर होनी चाहिये। सर्वोच्च पदों पर प्रतिष्ठित व्यक्तियों के गलत तौर तरीकों को नीचे वाले या आम लोग सहज ढंग से अपनाते हैं। इसलिये नीचे के स्तर पर बैठे लोगों का भ्रष्टाचार अपेक्षाकृत कम घातक होगा। इस आपेक्षिक दृष्टि को बैगेर अपनाए हम भ्रष्टाचार की जड़ तक नहीं पहुंच पाएंगे। डॉ. राममनोहर लोहिया ने 1962 में यह सवाल उठाया था कि प्रधानमंत्री पर इतना अधिक तामझाम, फिजूल खर्च क्यों होता है? तब शायद यह सवाल डॉ. लोहिया के लिये ही मखौल बन गया था लेकिन आज यही सवाल भ्रष्टाचार का रूप बन गया है। प्रशासन और सरकार में शीर्ष पर बैठे लोगों के शाहखर्ची, भोग विलाश को आप भ्रष्टाचार नहीं तो और क्या कहेंगे?
भ्रष्टाचार भारत में मौजूद व्यवस्था का एक अंग है। ऐसे नियम-कायदे बने हुए हैं कि भ्रष्टाचार पनपेगा ही। आज प्रशासन में सुधार करना राजनीति का मुख्य मुद्दा नहीं है। वैसे भी भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन में शहरी लोग ज्यादा दिलचस्पी लेते हैं, इसलिये उनमें भ्रष्टाचार की इस बुनियाद की समझ दिखाई नहीं पड़ती।जाहिर है कि जब तक संपत्ति और सत्ता का गठजोड़ और केन्द्रीकरण रहेगा तथा जहां मुट्ठी भर लोग अपने फैसले से किसी को भी अमीर और किसी को भी गरीब बनाते रहेंगे तब तक समाज में घोर गैरबराबरी रहेगी और भ्रष्टाचार भी रहेगा। भ्रष्टाचार का उन्मूलन एक समतामूलक समाज की स्थापना के लिए बेहद जरूरी है। और भ्रष्टाचार के उन्मूलन के लिए एक व्यापक जन आंदोलन जरूरी है।
प्रत्येक क्रांति या आंदोलन कुछ बुनियादी मूल्यों के इर्द-गिर्द होते हैं। इन्हीं मूल्यों से प्रेरित होकर लोग समाज में व्याप्त बुराईयों से लड़ते हैं और बदलाव की पहल करते हैं लेकिन जहां भ्रष्टाचार में एक बड़ा वर्ग स्वयं लिप्त हो वहां भ्रष्टाचार खिलाफ असली लड़ाई खड़ा होने में थोड़ा वक्त लग सकता है। क्रांतिकारी लोगों और समूहों को इसकी व्यापक तैयारी करनी पड़ेगी।
आजकल कई प्रदेशों में विकास पर बहुत जोर है। गुजरात और बिहार में तो विकास के नए मॉडल की चर्चा है लेकिन वहीं जब आम लोगों के बीच जाएंगे तो उस (विकास?) की हकीकत का पता चल सकता है। तो यह स्पष्ट है कि भ्रष्टाचार का उन्मूलन एक समतामूलक समाज बनाने के आंदोलन के क्रम में ही हो सकता है, जहां समाज के ढांचे को बदलने के राष्ट्रव्यापी आंदोलन के संदर्भ में स्थानीय तौर से भ्रष्टाचार के संस्थागत बिन्दुओं पर भी हमला हो सके। इसके बिना भ्रष्टाचार को रोकने के प्रयास विफलताओं और हताशा में ही बदलते रहेंगे।

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