Tuesday, October 14, 2008

क्यों बढ़ रही है बीमारियाँ



क्यों बढ़ रही हैं बीमारियां

डॉ. ए.के. अरुण
इन दिनों भारत ही नहीं लगभग पूरी दुनियां गम्भीर रोगों की चुनौतियों से जूझ रही है। प्रचलित पुराने रोगों के अलावे नये उभरे रोगों की जानलेवा किस्में बड़े पैमाने पर कहर बरपाने की पिफराक में है। रोगों के खात्मे के नाम पर चलाए जाने वाले सरकारी कार्यक्रमों की या तो दिशा बदल दी गई है या उनकी मियाद बढ़ा दी गई है। दुनिया के स्तर पर सेहत की चौकसी करने वाला विश्व स्वास्थ्य संगठन ;वि.स्वा.सं.द्ध भी सकते में है। संगठन ने अभी बीते वर्ष २००७ को ÷÷अन्तराष्ट्रीय स्वास्थ्य सुरक्षा वर्ष'' के रूप में मनाया और दुनिया को आगाह किया कि ÷÷घातक रोगों की चुनौतियों ने देशों की सीमाएं तोड़कर कहर बरपाने की तैयारी कर ली है। इसलिये सभी देश अपना स्वास्थ्य पर बजट और बढ़ाएं तथा आपसी अर्न्तराष्ट्रीय सहयोग को और मजबूत करें।'' वि.स्वा.सं. की वर्तमान महानिदेशक डॉ. मारग्रेट चान की यह चिन्ता कोई नई नहीं है वल्कि संगठन के पूर्व महानिदेशक डॉ. हिरोशी नाकाजिमा ने भी माना था कि, ÷÷स्वास्थ्य के क्षेत्रा में तकनीकी विकास के अनेक कीर्तिमानों के बाजवूद हम विभिन्न जानलेवा रोगों की गिरफ्रत में पफंस चुके हैं। दुनियां का कोई भी गरीब या अमीर देश इस संकट से महपफूज नहीं है।''
प्रचलित बीमारियों को ही लें तो वर्षों तक उनके उन्मूलन का अभियान चलाने के बावजूद भी रोग की भयावहता कम नहीं हुई। मलेरिया, टी.बी., डेंगू, कालाजार, मिजिल्स, कालरा लगभग सभी रोग पहले से और खतरनाक ही हुए हैं। भारत में १९९५ से पोलियो को जड़ से उखाड़ पफेंकने का अभियान चल रहा है। इसके विज्ञापन में महत्वपूर्ण नेता से अभिनेता तक नजर आते हैं। वि.स्वा.सं. की पहल पर सन्‌ २००० तक पोलियों के विरु( चली इस लड़ाई को ÷अन्तिम लड़ाई' का नाम दिया गया। पल्स पोलियों नामक इस अभियान में ५ वर्ष तक की उम्र के बच्चों को ६ खुराकें एक महीने के अन्तराल पर पिलाई गई। इसमें ११ राज्यों के कोई १६ करोड़ बच्चों को शामिल किया गया लेकिन तब भी पोलियो के विरु( प्रचारित अन्तिम यु( ÷अन्तिम' नहीं बन पाया। बीते ७ वर्षों में हमने इसकी कीमत कोई ९१८२ करोड़ रुपये चुकाई।
यदि रोग उन्मूलन के नाम पर केन्द्र सरकार का बजट देखें तो वर्ष २००६-०७ में पल्स पोलियों के लिये १००४ करोड़ रुपये, अन्य टीकाकरण के लिये ३२७ करोड़ रुपये, क्षय रोग उन्मूलन के लिये १८४ करोड़ का प्रावधन था लेकिन रोगों की स्थिति और बदतर ही हुई है। इन दिनों हमारा देश कई जानलेवा बीमारियों की गिरफ्रत में है। डेंगू, इन्सेफ्रलाइटिस, कालाजार, मलेरिया, मेनिन्जोकाक्सीमिया आदि घातक रोग लगभग सभी प्रदेश में रोजाना किसी न किसी की जान ले रहे हैं। टी.बी. पहले से ज्यादा घातक होकर ÷मल्टी ड्रग्स रेसिस्टेन्स टयूबरकुलोसिस' ;एम.डी.आर. टी.बी.द्ध के रूप में उभरा है। देश के बाढ़ प्रभावित क्षेत्रा मलेरिया, कालाजार एवं कॉलरा के चपेट में हैं। बिहार और उड़ीसा में सांप काटने से होने वाले मौत की खबरें आ रही हैं, तो मध्य प्रदेश, राजस्थान में मलेरिया का आतंक है। उत्तर प्रदेश के गोरखपुर व आसपास के क्षेत्रा में एक रहस्यमय दीमागी बुखार सैकड़ों बच्चों की जान ले चुका है। डाक्टर चिकित्सा उपकरण के अभाव में रोग का निदान भी नहीं कर पा रहे हैं। यह स्थिति तो ÷परजीवी' से होने वाले रोगों की है।
वि.स्वा.सं. का वर्ष २००७ का तथ्य पत्रा देखें तो उच्च आय वाले ;अमीरद्ध देशों में सबसे ज्यादा मौतें हृदय रोग, मध्ुमेह, उच्च रक्तचाप, श्वांस समवन्ध्ी रोग आदि से हो रही है। ये ऐसे रोग हैं जिन्हें महज जीवन शैली में बदलाव लाकर रोका जा सकता है। मध्यम आय वाले देशों में भी सर्वाध्कि मौतें इन्हीं रोगों से हो रही हैं। लगभग यही आंकड़ा निम्न आय वाले देशों का भी है। सन्‌ २००२ में उक्त रोगों से दुनिया में कोई ५ करोड़ ७० लाख लोगों की मौतें हुई। इनमें ७२ लाख लोग हृदय रोग तथा ५५ लाख हृदयघात से मरे। वजह ध्ूम्रपान तथा मोटर गाड़ियों से उत्पन्न प्रदूषण बताया गया। तथ्य पत्रा कहता है कि निम्न तथा मध्यम आय वाले देशों में लगभग एक करोड़ ५० लाख बच्चे तो ५ वर्ष की आयु से पहले ही मर जाते हैं, जिनमें से ९८ प्रतिशत को उपयुक्त चिकित्सा सुविध देकर बचाया जा सकता है।
भारत में मलेरिया, कालाजार, डेंगू आदि के खत्म न होने के पीछे के प्रमुख कारण बढ़ता शहरीकरण, बड़े बांध् एवं बड़े पैमाने पर विस्थापन है। एक अन्य महत्वपूर्ण कारण अमीरी और गरीबी के बीच बढ़ती खाई भी है। भारत सरकार द्वारा असंगठित क्षेत्रा के उद्यमों की जांच के लिये बनाए गए राष्ट्रीय कमीशन की रिपोर्ट के अनुसार देश के ८३.६ करोड़ यानी ७७ प्रतिशत लोग २० रुपये प्रतिदिन से कम पर अपना गुजारा करते हैं। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन का २००४-२००५ की रिपोर्ट देखें तो ग्रामीण भारत में प्रति व्यक्ति दैनिक उपयोग खर्च १९ रुपये से कम था जबकि शहरी लोगों का औसत दैनिक खर्च ३० रुपये के करीब पाया गया। शर्मनाक बात तो यह है कि आज भी गांव के १० प्रतिशत लोग अपनी जरूरतें पूरी करने के लिये प्रतिदिन महज ९ रुपये ही खर्च कर पाते हैं, जबकि २३ प्रतिशत मध्यम आय वर्ग के १५ से २१ वर्ष की उम्र के बच्चे सालाना १.८७ लाख करोड़ रुपये ;९०० रुपये प्रति सप्ताहद्ध अपनी मर्जी से केवल मौज मस्ती पर खर्च कर यों तो वि.स्वा.सं. ने भी १९९५ की अपनी वार्षिक रिपोर्ट में अत्यध्कि गरीबी को अर्न्तराष्ट्रीय वर्गीकरण में एक बीमारी माना है। संगठन ने इसे ÷जेड ५९.५ नाम दिया है। और चेतावनी भी दी है कि इसके कारण स्वास्थ्य समस्याएं और गम्भीर होंगी, लेकिन इस पर किसी ने ध्यान नहीं दिया। अब स्थिति विकट होती जा रही है तो भी स्वास्थ्य महकमों के आला अध्किारी और योजनाकार खामोश है।
जीवन के हर क्षेत्रा में बाजार के बढ़ते दखल ने समस्या को और विकट बना दिया है। राष्ट्रीय अर्न्तराष्ट्रीय स्तर पर कई नियामक संस्थाओं पर बाजार का पूरा प्रभाव है। समाज का हर प्रभावशाली वर्ग उपभोक्तावाद की गिरफ्रत में है। उदाहरण के लिये चिकित्सकों की सबसे प्रतिष्ठित संस्था इन्डियन मेडिकल एसोसिएशन पेप्सीकोला जैसी कम्पनी से अनुबंध्ति है जबकि इण्डियन डेन्टल एसोसिएशन पर कोलगेट सरीखी बहुराष्ट्रीय कम्पनी का प्रभाव है।
रोग उन्मूलन के नाम पर ÷राष्ट्रीय टीकारण कार्यक्रम भी बाजार की गिरफ्रत में है। इस कार्यक्रम में पिफलहाल ६ जान लेवा बीमारियों के लिये टीका लगाया जाता है। ये हैं टी.वी., खसरा, डिप्थेरिया, कालीखांसी, टिटनेस तथा पोलियो। अब इस सूची में अनेक नये टीके भी जोड़े जा रहे हैं। इनमें हिपेटाइटिस बी.,एच. एन्फ्रलूएन्जा बी, चिकेनपाक्स, एम.एम.आर. तथा न्यूयोमोकाक्स। इन सबकी संख्या ११ होती है। निजी तौर पर ये टीके लगभग १५ हजार रुपये में लगते हैं। अब बाजार का दबाव है कि इन टीके को ÷राष्ट्रीय कार्यक्रम' में शामिल कर लिया जाए।
भारत जैसी तीसरी दुनिया के देशों में टीकाकरण को बढ़ावा देने और नये टीकों के प्रयोग को सरकारी कार्यक्रम में शामिल कराने के लिये एक अर्न्तराष्ट्रीय संस्था ग्लोवल एलाएन्स पफॉर वैक्सिन इनिसियेटिव ;गावीद्ध खड़ी की गई है। इसका मुख्यालय भी वि.स्वा.सं. के जिनेवा स्थित भवन में है। इसके लिये सदस्य देशों ने मिलकर २० हजार करोड़ रुपये का इन्तजाम किया है। वाल चिकित्सकों के अखिल भारतीय संगठन ÷इण्डियन एकेडमी आपफ पीडियाट्रिक्स' की मदद से न्यूमोकाक्स वैक्सीन को राष्ट्रीय टीकाकरण कार्यक्रम में शामिल कराने का तेज प्रयास जारी है। लगभग ३,५०० रु. कीमत का यह टीका १० हजार करोड़ से भी ज्यादा का बाजार खड़ा करेगा। यहां यह बताना भी जरूरी है कि इन टीकों की प्रमाणिकता अभी स्थापित नहीं हुई है।
यह सर्वविदित तथ्य है कि दवा निर्माता कम्पनियां चिकित्सकों की प्रभावशाली संस्थाओं का इस्तेमाल कर अपना प्रोडक्ट बेचती हैं। इन पर नियंत्राण के सरकारी अध्किार ध्ीरे ध्ीरे खत्म किये जा रहे हैं। सवाल यह उठता है कि बढ़ती बीमारियों की वजह आखिर है क्या? बढ़ता उपभोक्तावाद, बढ़ती समृध्,ि बढ़ती तकनीक तथा रोगों के प्रति हमारा मूर्खतापूर्ण रवैया या कुछ और?

1 comment:

kashyapanand said...

you article is truly awe inspiring. the topic selection was too god. somewhere, i feel that such diseases are repercussion of contemporary messy social structure & psychological tiredness.

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